बुधवार, 31 अक्तूबर 2007

गणित के कुछ रोचक प्रश्न -- Table of Nine

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1 टिप्पणी - मूल संदेश दिखाएँ
इरफ़ान ने कहा…
आपको ब्लॉगजगत में पाकर प्रसन्नता हुई. सावित्री के संबंध में आपके प्रश्न सामयिक और गंभीर हैं.
आशा है आप अपने प्रिय विषय गणित के कुछ रोचक प्रश्न भी यहां रखेंगी.
--- इरफ़ान
My reply is my blog on table of nine (and much more to be posted)

कुसुमाग्रज कविताएँ हिन्दी में

मराठी के मूर्धन्य कवि श्री कुसुमाग्रज की 108 चुनिन्दा कविताओंका हिन्दी अनुवाद अब आप देख सकेंगे इस ब्लॉग पर.
इन्हे मैंने जिन कविता संग्रहों से चुना है वे हैं --

विशाखा
महावृक्ष
किनारा
मुक्तायन
हिमरेषा
पाथेय
मारवा
मराठी माती
वादळवेल
छन्दोमयी

रविवार, 21 अक्तूबर 2007

02 सावित्री के साथ समाज ने अन्याय किया है

सावित्री के साथ समाज ने अन्याय किया है
(इसे जनता की राय-- हिन्दी संग्रह 2-3 अंतर्गत हिन्दी संग्रह 2 भी पर देख सकते हैं)
-लीना मेहेंदले
सा. रविवार, मुंबई, १९९६

रूप कंवर सती हुई, और जाते-जाते इस देश की अंधविश्र्वासी जनता को और गहरे अंधविश्र्वास और गहरी रुढ़िवादिता के दौर में धकेल गयी जितने लोगों के मन में औरत की इस मजबुरी के विरुद्ध ज्वाला धधक उठी, उससे कहीं अधिक लोगों ने, अधिक तीव्रता से यह मान लिया कि नारी जीवन का आदर्श यही है,

जिसने यह आदर्श प्रस्तुत किया, वह 'देवी' हो गयी।
इस घटना के विभिन्न विवरण पढ़ने और सुनने के दौरान मैंने जाना कि अपना यह समाज न केवल वर्तमान महिलाओं पर अन्याय कर रहा है, बल्कि बीते हुए जमाने की एक ऐसी महान स्त्री पर भी अन्याय कर रहा है, जिसे न जाने कितने वर्षों से मैंने एक उच्चतम आदर्श के रूप में जाना है। वह स्त्री है, सावित्री, किसी समाज की अधोगति कि परिसीमा इससे अधिक क्या हो सकती है कि जो स्त्री शूरवीरता की प्रतीक है, चंडी से भी उग्र है, जेता है, मृत्युंजयी है, उसके नाम की दुहाई दे कर किसी स्त्री को दुर्बल-निरीह और मूक बलिदान के योग्य करार दिया जाता है।

सावित्री के चरित्र का कोई ऐसा पहलू नहीं था, जिसने मेरे किशोर मन को सम्मोहित न किया हो, एक बड़े साम्राज्य की राजकन्या, जो युद्ध कला और अश्र्व संचालन में निपुण थी। स्वयंवर तो तब भी हुआ करते थे और स्त्री को अपना पति चुनने का अधिकार भी था, पर सावित्री मातर इससे संतुष्ट नहीं थी, इच्छुक वरों को घर बुलाने के बजाय यह स्वयं अपने योग्य वर ढूंढ़ने निकल पड़ी, और ढूंढ़ लायी रिश्ता सत्यवान का, जो तब अत्यंत दरिद्र अवस्था में था और जिस पर अपने अंधे मां-बाप का बोझ भी था। क्यों? क्या इसलिए कि वह आत्मबलिदान का नमूना पेश करना चाहती थी? क्या वह लोगों को दिखाना चाहती थी कि कैसे वह सिर झुकाये और आंसू पीती हुई दरिद्रता में भी रह सकती है? जी नहीं! उसमी सत्यवादिता, शौर्य, धीरज और कष्ट सह कर भी पराजित न होने की क्षमता-ये सारे गुण देख कर सावित्री ने उसे अपना पति चुना।
जब वह वापस अपने पिता के पास आयी और सत्यवान से ब्याह करने का अपना निश्चय बताया, तो खलवली मच गयी, क्योंकि ज्योतिषियों की ज्योतिष विद्या के मुताबिक सत्यान को एक वर्ष के अंतराल में ही मृत्युयोग था।

अंधश्रद्धा उन्मूलन आंदोलन के कार्यकर्ताओ ने आज तक क्यों ध्यान नहीं दिया कि सावित्री ने उन ज्योतिषियों को चुनौती दी थी। उसने पूछा'क्या मेरी कुंडली में आपको वैधव्य योग नजर आता है?' 'नहीं !' 'फिर तो मैं' निश्चय ही यह विवाह करूंगी। आप जोड़ -घाटे का हिसाब लगाते रहिए कि मेरी कुंडली का फल मिलनेवाला है या सत्यवान की।'
ऐसी सावित्री, जो साधारण व्यवहार में अपने पिता और गुरुजनों कि प्रति संयम और आदर भाव बरतती थी। लेकिन जरूरत पड़ने पर उन्हें चुनौति देने से भी बाज नहीं आयी, यही उसका रूप उसके चरित्र में आगे भी दिखाई पड़ता है।

विवाह के बाद पिता ने प्रस्ताव रखा कि सावित्री और सत्यवान वहीं रहे, तो उन्हें सारी सुख-सुविधाएं मिल सकती है, पर सावित्री ने इसे कबूल नहीं किया। यदि यह सत्यवान के इसी गुण पर आकर्षित हुई हो कि राजपुत्र होते हुए भी वह कष्ट सहने से और दरिद्र रहने से नहीं डरता है, तो क्यों वह सत्यवान से उस गुण को तिलांजलि देने को कहे-क्यों न स्वयं उस गुण को अपनाने का प्रयत्न करे? और राजप्रासाद से उठ कर सावित्री आ गयी एक झोंपड़ी में रहने के लिए, और सहज भाव से रहने लगी, पर एक सामान्य गृहिणी कि तरह नहीं- वह सत्यवान के साथ उसके काम में हाथ बंटाने जंगलों में भी जा सकती थी- सारे कष्टों को दोनों एक साथ बांट सकते थे-और मुझे पूरा विश्र्वास है कि उनके जीवन में कष्ट के क्षण कम और आनंद के क्षण निश्चय ही कई गुने अधिक रहे होंगे।
और फिर वह दिन आया, जव सत्यवान की आत्मा को देह से छुड़ा कर ले जाने के लिए यमराज पधारे, हम सब जो मृत्यु से डरते है, मृत्यु को कल्पन मात्र से मुंह मोड़ लेगे आंखे बंद कर लेगे, लेकिन उसमें मृत्यु से आंखे मिलाने की हिम्मत थी, स्वयं यमराज ने उसकी प्रशंसा की, 'तू मुझसे डरती नहीं, इसलिए मुझे देख सहती है- और मुझे बाध्य कर सकती है कि यदि तू चाहती है, तो मैं तुझसे बात करूं।'

पलटिए अपने सारे धर्मग्रंथों को और दिखाइए निडरता का ऐसा दूसरा उदाहरण!

और केवल निडरता ही नहीं, आशंका से भरे उस वातावरण में भी सावित्री का मन अडोल था और बुद्धि सजग थी, यहां सावित्री की युद्ध कुशलता का कोई काम नहीं था, उसकी बुद्धि का टकराव था एक देवता से, अपनी बुद्धि और तर्क शक्ति बल पर उसने यमराज को पराजित कर दिया।

इस उपलब्धि का आनंद क्या रहा होगा ? मैंने बार-बार अपने से यह प्रश्न पूछा है, क्या हममें से कोई उस आनंद को दूर से भी छू सकता है?
वह विजयिनी, गर्व से सिर ऊंचा करके आयी होगी, उसी का नाम ले कर हम एक स्त्री को सिर झुकाने के लिए बाध्य कर देते हैं, जिसने मृत्यु को जीता, उसका नाम ले कर हम एक स्त्री को दयनीय और विनीत हो मृत्यु की शरण जाने को कहते हैं, सती का अर्थ होता है, वह सत्री जिसमें सत्य है, सत्य है और स्वत्व है, जिसमें ये गुण हों, वह मृत्यु पर विजय पाने की अधिकारिणी है, वही विशेषण हम लगाते हैं, 'एक ऐसी स्त्री के लिए जिसे समाज ने कुचल दिया और जो उस समाज से लड़ न सकी।'

मैंने सुना कि राजस्थान में जगह-जगह सती सावित्री के मंदिर हैं, यदि हैं, तो मंदिर में जानेवाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपने आप में पूछना पड़ेगा। क्या वह उस मंदिर में जाने का अधिकारी है।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2007

हिन्दी भाषा और मैं 06/3


हिन्दी भाषा और मैं
लीना मेहदले, भाप्रसे

हिन्दी भाषा से मेरा लगाव ऐसा ही है जैसा किसी लाड़ली बेटी का अपनी माँ से होता है। लाड़ली बेटी को अपने लाडले होने पर गरुर होता है, वह माँ से मित्रता का नाता भी जोड़ लेती है। माँ की अच्छाइयों को अधिक मननशीलता से परख सखती है और माँ के समर्थन में डट भी जाती है। बस कुछ वैसा ही।

इसका एक कारण यह भी था कि स्कूल में हिन्दी में हमेशा सर्वाधिक अंक पाना और उसका कारण शायद था कविताएँ एंव उदाहरण रटने की धुन। फिर हिन्दी के उत्तर पत्र या निबन्ध स्पर्धा में उनका खुलकर उपयोग करना। जहाँ तक हिन्दी का सवाल था बचपन के पहले दस वर्ष तक मध्य प्रदेश की हिन्दी बोलने सुनने के बाद बिहार की हिन्दी अपने आप में एक अद्भुत परिवर्तन था। साथ ही बिहार की क्षेत्रीय बोलियाँ जैसे मैथिली, भोजपूरी, मगधी और साथ में नेपाली और बंगाली सुनने को मिली। कविताएँ और दोहे रटने की धुन ने ब्रज और अवधी से परिचय कराया और उधर उर्दू ग.जलों ने उर्दू से। इन सबका ताना-बाना जुड़ता रहा हिन्दी से। कॉलेज के बाद सांसारिक जीवन में नौकरी, तबादले इत्यादी ने भारतभर नचवाया तो इस पट में और भी कई क्षेत्रीय बोलियाँ जुड़ती गई जैसे राजस्थानी, पहाड़ी, मारवाड़ी, हरियाणवी, पंजाबी, गुजराती और ओड़िया। इनका हिन्दी से रिश्ता भी मुझे वैसा ही मालूम पड़ता है जैसे दूध और पानी का, एक दूसरे में घुलमिल जाने वाला। इसके अलावा हिन्दी में एक और मनमोहक छटा लाई है दक्षिण भारतीय लोगों ने। उनकी बोलचाल की हिन्दी में एक गजब की मिठास होती है। भले ही अन्य कोई उसे टूटी-फूटी कहे। उधर असमिया हिन्दी, मुम्बइया हिन्दी, लखनवी अदब वाली हिन्दी, बंगाली हिन्दी, ओडिया हिन्दी, हैदराबादी हिन्दी या निजामी हिन्दी के भी अपने-अपने अनूठे रंग हैं। इन सभी ने मिलकर हिन्दी का पट बिलकुल रंग-बिरंगा इन्द्रधनुषी कर दिया है।
आज भारत की एक अरब की जनसंख्या में करीब चालीस करोड लोग किसी न किसी क्षेत्रीय भाषा का पुट चढ़ाकर हिन्दी बोलते हैं और करीब अस्सी करोड़ लोग हिन्दी को समझ लेते हैं। अर्थात्‌ विश्र्व की अबादी में हर आठ में एक व्यक्ति हिन्दी को समझता है। इतनी सर्वव्यापकता अंग्रेजी, और चीनी भाषाओं को छोड़ और किसी भी भाषा में नहीं है फिर भी हम यूनो (संयुक्त राष्टसंघ) में इस भाषा को अन्तर्राष्टीय मान्यता प्राप्त भाषा बनाने के प्रयत्नों पर जोर नहीं देते, यह एक दुखद बात है।
एक दुखद बात और है। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय हिन्दी की मान्यता इतनी अधिक बढ़ गई थी कि देश के दूर-दूर के कोने-कोने में हिन्दी प्रचारिणी सभा या तत्सम कई संस्थाएँ अपना-अपना योगदान हिन्दी के लिये दे रही थीं। लेकिन पिछले पचास वर्षों में यह पूरा प्रयास तेजी से शून्यवत्‌ हुआ है और इसका अपश्रेय दो तरफ जाता है, पहले तो देश के वे राजनेता हैं जिन्होनें अंग्रेजी के मोह में रहते हुए सम्पर्क भाषा के रुप में अंग्रेजी को स्वीकार किया।
जब तक आजादी पाने का जुनून था, हिन्दी को एक प्रतीक के रुप में स्वीकार किया गया था। आजादी के बाद इसे जुनून और प्रतीक के भावनात्मक धरातल से व्यवहार के धरातल तक लाने के लिए जो राजाश्रय आवश्यक था वह मिला नहीं, उलटे अंग्रजी की दुहाई होती रही। यहाँ तक कि आज अपनी देवनागरी लिपी के आँकड़े भी सरकारी कामका.ज में से रदद् किये जा चुके हैं जबकी संविधान में यह प्रावधान था कि पाँच वर्षों के अन्दर-अन्दर इन आंकडों की पुनर्स्थापना के लिये संसद या स्वयं राष्टपती कोई भी उचित दिशा निर्देश करेंगे।

दूसरा बड़ा दोष मैं मानती हूँ हिन्दी साहित्यकारों का। हिन्दी के इतिहास में कहीं भी न तो अन्य भाषाई भारतीयों के हिन्दी योगदान का मूल्यांकन और समादर किया गया, न उनका जिन्होंने हिन्दी के प्रचार कार्य में स्वतंत्रता से पहले हाथ बंटाया, न उनका जिन्होंने अपनी मातृभाषा के साथ-साथ हिन्दी में कुछ लेखन किया। आज भी कई हिन्दी साहित्यकार यह मानकर चलते हैं कि चूँकि उनका लिखा हुआ अधिक पाठकों की निगाह में आने की सम्भावना है अतएव उनका लेखन श्रेष्ठ है। अन्य भाषा में कोई लिखते हों तो कोई होंगे, नगण्य। हम क्यों उनको जानें? यही रवैया देखने को मिला। हिन्दी के कितने लेखक हैं जिन्होंने जानने का प्रयास किया कि कोई बंगाल की महाश्र्वेता या मराठी की दुर्गा बाई भागवत जा गुजराती के गुलाब दास ब्रोकर या तमिल के जानकी रामन क्या लिखते हैं। हाँ, विक्रम सेठ या अरुंधती राय जैसे गैर हिन्दी साहित्यकार अंग्रेजी में लिखते हैं तब हिन्दी साहित्य जगत में अवश्य उसकी चर्चा होती है।

एक जमाना था जब महाराष्ट में आंतर भारती नामक संकल्पना का उदय हुआ। इसके अन्तर्गत मराठी लोगों ने धडल्ले से अन्य भारतीय भाषाएँ सीखनी आरम्भ की। अधिक जोर रहा बंगाली और कन्नड का और उनकी कई रचनाएँ मराठी में अनुवादित हुई। तब तक हिन्दी भाषियों के रवैये के प्रति क्षोभ प्रकट होना शुरु हो गया और देखते-देखते मराठी लोगों ने अपनी कमजोरियों का दोष हिन्दी के सिर मढ़ना आरम्भ किया। अभिभावक दुख मनाने लगे कि उनके पाल्य जब आपस में बातें करते हैं तो हिन्दी में करते हैं, लेकिन थोड़े ही समय में चित्र पलटा और वही अभिभावक धन्यता महसूस करने लगे कि उनके पाल्य आपस में अंग्रेजी में बाते करते हैं। यानी अंग्रजी हो गई परम सखी, भले ही उसके कारण मातृभाषा भूलती हो, और हिन्दी हो गई दुश्मन भले ही लिंग्विस्टिक दृष्टिकोण से वह मराठी के नजदीक हो । यही घटनाक्रम हर राज्य में रहा, चाहे वह तमिलनाडु हो, आन्ध्रप्रदेश हो, बगांल हो, मणिपुर हो।
अब भी यदी हिन्दी भाषा के पक्षधर अन्य भारतीय भाषाओं के सम्मान में नही जुटेंगे तो आने वाले दिनों में अंग्रेजी के मुकाबले सारी भारतीय भाषाओं की हार के लिए वे जिम्मेदार होंगे।
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राष्ट्र भाषा का प्रश्न
डा कष्ण कमलेश

आज से ५० वर्ष पूर्व १४ सितंबर १९४९ को हिन्दी राष्ट्र भाषा और देवनागरी लिपी राष्ट्रीय लिपी घोषित कर स्वतंत्र भारत संविधान सभा ने मानसिक स्वतंत्रता का स्वर्णिम अध्याय प्रारंभ कर दिया। भारतवर्ष जैसे बहुवर्गीय, बहुजातीय राष्ट्र में सम्पर्क सूत्र के रूप में हिन्दी का महत्व समय-समय पर उठाने वाले प्रश्न चिन्हों के होते हुए भी असंदिग्ध है।
डा. इकबाल की पंक्ति में हिन्दी शब्द में निहित व्यापकता, गरिमा और सच्चाई सपष्ट है। राष्ट्रीय एकता के बिखरते सूत्रों में सिन्धु नदी के पूर्वी तट से लेकर बिहार तथा हिमाचल की दक्षिणी उपत्यका से लेकर ताप्ती के उत्तरीय तक फैली हुई हिन्दी ही भावनात्मक एकता और अनिवति का माध्यम है।
हिन्दी के सम्बंध में सबसे बड़ी विडम्ना यह है कि इसे अपने ही घर में अजनबी बना दिया गया है और हमारी मानसीक दासता की प्रतीक अंग्रजी भाषा कुछ व्यक्तिक व राजनीतिक स्वार्थों के कारण हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी लगभग सम्पर्क भाषा बनी हुई है, शासन से, धड़ल्ले से। अभिजात वर्ग में बोल-चाल और लिखी-पढ़ी की तो उसके बगैर कल्पना भी नहीं की जा सकती। लोकतन्त्र में बहुमत की आकांक्षा विरुध्द एक खास किस्म के सुविधा भोगी समुदाय की सहूलियत के लिए अंग्रेजी को बनाए रखना खेद एंव लज्जा का विषय है। स्वतंत्रता से पूर्व देश की सुदढ़ एकता के लिए एकमात्र सम्पर्क सूत्र हिन्दी की अनिवार्यता प्रत्येक देशवासी के सम्मुख स्पष्ट थी, किन्तु इन ५२ वर्षों में स्वार्थ पूर्ण राजनिति ने इस तथ्य को धुधंला दिया । वास्तव मे हिंदी का विरोध कुछ अंशो में ही विरोध है । यह कुछ अंश भी इसलिए है कि हम हिंदी भाषी प्रदेश के नागरिक अपनी श्रेष्ठता के दंभ में कोई दक्षिण भारतीय भाषा सीखना भी नहीं चाहते फिर भी दक्षिण में हिंदी के प्रचार संस्थाओं, सभाओ, हिंदी परीक्षाओं और सामान्य व्यवहार में हिदीं के बदले प्रयोग से यह सिद्व है कि वह सही मंचो में हिदी के प्रति अनन्य उत्साह है ।

हिंदी हमारी दुर्बल महत्वकांक्षाओं से जुडकर रह गई है या फिर गलत हाथों में इसकी बागडोर पहुंच गई है । 'हिंदुस्तानी' जैसी संज्ञा अपने आप में कितनी व्यर्थ रही है, फिर भी इसे 'अर्थवती' ,'महती' , जाने क्या क्या समझा गया।
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शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

हिंदी बरकरार रखने के लिये संगणक

हिंदी बरकरार रखने के लिये संगणक
published in Nagari Sangam of Nagari Lipi Parishad year 29 vol114 April-June 2007
बिना तंत्रज्ञान विकास के कोई देश, समाज या भाषा आगे नहीं आ सकते। हिंदी बरकरार रखने के लिये भी संगणक का माध्यम अत्यावश्यक है।
सरकारी कार्यालयों में नई पीढ़ी पूर्णतया संगणक प्रशिक्षित है और संगणक सुविधाओं का लाभ भी ले रही है। लेकिन केवल अंग्रेजी के माध्यम से। हिंदी माध्यम से अत्यल्प जुड़ाव है।
कारण यह कि संगणक सुविधाएँ हिंदी में एक प्रतिशत भी विकसित नही हैं।
इसका कारण यह कि हिंदी में संगणक सुविधा का विकास केवल सॉफ्टवेयर तक सामित रहा हैं जब कि पूरे विकास के लिये सॉफ्टवेयर को ऑपरेटिंग सिस्टम (ओ. एस्‌.) के साथ इंटिग्रेट करना आवश्यक होता है।
हिंदी संगणक विकास करने वालों में में सर्वप्रमुख है सीडैक जो सरकारी संस्था होने के कारण उसे संसाधनों की कोई कमी नहीं हैं।
सीडैक ने कई अच्छे संगणक सॉफ्टवेयर्स विकसित किये हैं लेकिन वे कस्टमर की आकांक्षा पर पचास प्रतिशत से अधिक खरे नहीं उतरते क्योंकि उन्हें ओएस से इंटिग्रेट नहीं किया गया है। और न ही कस्टमर के प्रश्नों का समाधान ढूँढने का प्रयास हुआ है।
सीडॅक या अन्य विकासक के दावे को कबूलते हुए भारी खर्च पर सरकार ने हिंदी के सॉफ्टवेयर खरीद लिये है लेकिन उनकी उपयोगिता परखने का या बढ़ाने का कोई कार्यक्रम सरकार के पास नहीं है। उदाहरण स्वरुप देखें अनुलग्नक - १।
सीडॅक के सभी सॉफ्टवेयर महंगे बना दिये गये हैं जिससे उनके खरीदार या तो नहीं के बराबर हैं या ऐसे सरकारी कार्यालय हैं जहाँ पैसे का व्यय न तो महत्व रखता है ना कोई इस पर सवाल उठाता है। कदाचित जो सवाल उठाये जाते हैं उन्हें राजभाषा या सीडॅक से कोई उत्तर या समाधान नहीं दिया जाता।
आधे अधूरे उपयोग वाले सॉफ्टवेयर को कार्यालय में लगाकर उनका आग्रह करने से समय का अपव्यय होता है क्योंकि सरकारी काम व टिप्पणियाँ दीर्घकालीन और विभिन्न उपयोगों के लिये होती हैं। ऐसे में हिंदी सॉफ्टवेयर के साथ किये गए काम को बार बार करना पड़ता है।

उपाय
यह जाँचा जाए कि जिन सरकारी कार्यालयों में हिंदी सॉफ्टवेयर लगे उनमें से कितनों के लिये कंज्यूमर रिस्पान्स माँगा गया या उनकी दिक्कतों को समझा गया और उसमें से कितनों को सुधारा गया।
पहले बायोस और ओएस दोनों को modify किये बगैर ओएस को विकसित करना संभव नहीं था Bios औरú OS integral थे। वैसी हालत में Bios के बगैर हिंदी ग््रच् बनाना बेमानी था और Bios modification में कई व्यवहारिक दिक्कतें थीं। अब Bios को संस्कारित किये बगैर को OS बदला जा सकता है।

लेकिन वर्तमान में OS development बड़ी scale की प्रक्रिया बन गई है। अतएव भारत में सरकारी कार्यालयों के अनुकूल दो OS हैं - MS तथा Linux.ºाीडैक अभी तक MS पर आधारित है। इसमें linux आधारित करने पर फायदेमंद रहेगा क्योंकि -
(ठ्ठ) Linux एक open system हैं। इसमें होने वाले हर बदलाव को तथा हर improvement को Public Domain में रखा जाता है ताकि उपभोक्ता इसमें अपनी आवश्यकतानुसार अगला development
कर सके। ऐसा नया development भी public domain में रखा जाता है। इस प्रकार उपभोक्ताओं के परामर्श और participation से ही Linux system विकसित हुई है। सीडॅक ने अपनी investment का हवाला देकर Linux को इसलिये ठुकराया है कि Public Domain में उनके सॉफ्टवेयर free to all हो जायेंगे और उनका income generation रूक जायेगा।

सरकार को यह नीति तय करनी चाहिए कि चूँकि सीडैक एक सरकारी संस्था है अतः income generation की परवाह किये बगैर उनके software को public domain में डाला जाय।
वर्तमान में संगणक शिक्षा के बिना शिक्षा भी अधूरी है। ऐसी हालत में चीन और भारत के ये आकड़े क्या कहते हैं -
चीन भारत
literacy ७५% ६५%
अंग्रेजी जानने वाले १०% ४०%
संगणक पर काम करने वाले ७०% २५%

इन आकड़ों में शायद थोड़ा परिवर्तन हो लेकिन ये trend दर्शाते हैं और बताते हैं' कि भारत में संगणक को अग्रेंजी आधारित रखने के कारण एक ओर शिक्षित व्यक्ति भी अग्रेंजी न जाने तो संगणक ज्ञान से वंचित रहेगा। दूसरी ओर जितना ही वह संगणक के करीब जायगा उतना ही उसे हिंदी या अपनी मातृभाषा से दूर रहना पड़ेगा। लेकिन चीन में संगणक चीनी भाषा पर आधरित हैं जिस कारण से अंग्रेजी न जानने पर भी उनकी भावी पीढ़ी आधुनिक ज्ञान को अपनी मातृभाषा के माध्यम से पा सकती हैं। यही कारण है कि चीन की उत्पादकता भारत की अपेक्षा कहीं अधिक है।
सीडॅक द्वारा विकसित कतिपय सॉफ्टवेयरों की चर्चा यहाँ औचित्यपूर्ण हैं।
पहला है leap office - खासकर उसमें विकसित inscript keyboard :-
पूरी तरह भारतीय वर्णमाला पर आधारित और सभी भारतीय लिपियों में तथा वर्णाक्षरों की एकात्मता
बनाये रखने वाला यह key board निःसंदेह भारतीय भाषाओं लिये बने तमाम की बोर्डों से अधिक सहज सरल और ''बीस मिनट में फटाफट' सीखने के लिये सर्वोत्तम है। सभी भारतीय भाषाओं के लिये एक वर्णाक्षर एक ही कुंजी का principle इसमें है और वह कुंजियाँ भी ऐसी arranged की हैं जिन्हें समझना बहुत ही आसान है। लेकिन आज inscript की बोर्ड और लीप प्रणाली की उपयोगिता केवल दस प्रतिशत है । आज इसकी कीमत है दस से पंद्रह हजार रूपये और कितनी गैरसरकारी संस्थाएँ इसे खरीदती हैं यह जानकारी eye opener होगी।

इसमें स्थिति में सुधार के उपाय -
1.a) कीमत को दस हजार से घटाकर मुफ्त या पांच सौ तक लाया जाय।
१.ड) leap office के sale figures की जाँच की जाय ताकि दुनियां को पता चले कि वह कितना कम बिका है।
१.ड़) सरकार सीडॅक को एक मुश्त development change देकर लीप ऑफिस प्रणाली खरीद ले और मुफ्त बांटे। इसके लिये किसी oil company को भी कहा जा सकता है जिनका profit १०००० करोड़ रूपये के range में होता है।
यह सब करने पर उपयोगिता होगी पचास प्रतिशत।


इसके बजाय यदि इसे Limix सिस्टम में Public Domain में डाला जाय चो इसकी उपयोगिता होगी सौ प्रतिशत। सीडॅक द्वारा विकसित पॅकेज लीला जो अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में अनुवाद के लिये बना है। इसकी उपयोगिता दो तरह से जांचनी होगी -

ऋ.१ भारतीय भाषा से भारतीय भाषा के अनुवाद के लिये उपयोगिता ५%
ऋ.२ भारतीय भाषा से अंग्रेजी अनुवाद के लिये १०%
ए-१ अंग्रेजी से भारतीय भाषा में अनुवाद के लिए ५०%
यहाँ केवल ए-१ की चर्चा प्रस्तुत है। सीडैक की ओर से कहा जाता है कि "मन्त्र" के द्वारा शब्द से शब्द का नहीं बल्कि lexical tree से lexical tree अर्थात्‌ वाक्यांश से वाक्यांश का अनुवाद किया जाता है।
सबसे पहले तो सीडैक को बधाई देनी पडेगी कि जब संगणक की दुनियाँ में भारतीय भाषाओं के लिए अनुवाद जैसा कुछ भी नहीं था, तब उन्होंने यह पॅकेज विकसित किया। कम से कम पचास प्रतिशत काम तो इससे हो ही जायेंगे। खासकर आज जब अंग्रेजी में ऐसा पॅकेज आ गया है जिसकी मार्फत हाथ से लिखी गई अंग्रेजी इबारत को पढ़ और समझ कर संगणक उसे टाईप-रिटन अंग्रेजी में convert कर रहा है। ऐसी अंग्रेजी इबारत से भारतीय भाषाओं में अनुवाद की संभावना के कारण बँकों को और सरकारी दफ्तरों की अंग्रेजी टिप्पणियों को बाद में हिंदी में उतार लेने की सुविधा उत्पन्न हो गई है। फिर भी उपयोगिता पचास प्रतिशत से अधिक नही है।
जब कि इसे आसानी से बढाया जा सकता है। तरीका फिर वही है। lexical tree to lexical tree के अनुवाद के लिये जो भी coding सीडैक ने की है असे यदि public domain में डाला जाये और वह linux OS में इस्तेमाल होने लगे तो जो भी व्यक्ति अलग तरह से अनुवाद करना चाहता हो वह इस coding की मदद से ऐसा कर सकेगा। इस coding से भारतीय भाषाएँ accessible होंगी अतः कोई अन्य बुद्धिमान और संगणक-प्रवीण व्यक्ति भारतीय भाषा से भारतीय भाषा तक या भारतीय भाषा से सीधे जापानी, चीनी, फ्रांसिसी, जर्मन इत्यादि भाषाओं तक पहुँच सकेगा। इस प्रकार दुनियाँ के अन्य देशों तक पहुँचने के लिए intermediary language के रूप में अंग्रेजी की आवश्यकता नही रहेगी। इससे विश्र्व बाजार में और विश्र्व राजनीति में भी भारत की साख बढेगी।
सारांश में चार मुद्दों पर सरकार को ठोस नीति और कार्यक्रम हाथ में लेने पडेंगे -
१) सीडैक द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर मुफ्त उपलब्ध कराये जायें।
२)संगणक बेचने वाली कंपनियों पर निर्बंध हो कि वे भारतीय भाषा सॉफ्टवेयर के बगैर संगणक न बेचें।
३) सीडैक सहित पहले भी जितने डेव्हलपर्स ने हिंदी सॉफ्टवेयर बनाये और बेचे हैं और जो आज भी लोगों के संगणकों में बिना improvement की संभावना के पडे हुए हैं, उनकी coding को open करके public domain में डाला जाये ताकि लोग linux OS platform के माध्यम से उनका उपयोग कर सकें। और एक तरह के हिंदी सॉफ्टवेयर में किया गया काम दूसरे सॉफ्टवेयर में भी काम आ सके। इस प्रकार पिठले दस - बीस वर्षों से लोगों का जमा किया data बचाया जा सकता है।
४)राजभाषा विभाग सभी विभागों में हिंदी में होनेवाले कामकाज के विषय में संगणक संबंधित कठिनाइयों का feed back लेता रहे और उन कठिनाइयों को निरस्त करने का प्रयास करे।
५)अंतर्राष्ट्रीय बाजार में आज भी देवनागरी वर्णमाला हर संगणक पर उपलब्ध नही है जबकि चायनीज और अरेबिक वर्णमालाएँ उपलब्ध हैं। इसका उत्तर और इलाज पाने के प्रयास हों।
६)MS office के (१) Excel बनाना (३) Power point जैसे कार्यक्रम, (४) ई मेल और (५) वेब पेज बनाने के लिये सरल कार्यक्रम, (६) ऍक्रोबॅट रीडर जैसे कार्यक्रम के साथ हिंदी का इंटिग्रेशन, (७) ई मेल को डाऊन लोड करने के बाद उससे सीधे भारतीय लिपियों में वर्ड फाईल बनाना Sorting अनुक्रम भारतीय वर्णमाला के अनुसार ये आठ कार्यक्रम जब तक सरलता से कार्यालयों में संपन्न नही हो पाते तब तक राजभाषा की प्रतिष्ठा के लिये जो भी किया जायेगा वह निष्फल रहेगा। (८) हिंदी में लिपिबद्ध पन्नों को चित्र या jpeg file से पढ़कर उससे हिंदी लिपि में वर्ड फाईल बनाना।
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20 क्या भारतीय प्रशासनिक सेवाएं गैर जरूरी बन गई है?

अपने पेशे से गंभीरता से जुड़े जन समय समय पर उस पेशे को लेकर गंभीर आत्मनिरीक्षण को बाध्य होते हैं। १९९६ के इस मोड़ पर जब राज्य तथा संसद, संसद तथा जनता, केंद्र और प्रांत सभी के संबंधों पर महत्वपूर्ण नए सोच- विचार सामने आ रहे हैं,यह अनिवार्य बनता हैंकि प्रशासनिक ढांचे की मार्फत तमाम नई नीतियों को अमली जामा पहनाने वाले तंत्र, यानी प्रशासनिक सेवाओं की गुणवत्ता और उपयोगिता पर भी बेबाकी से विचार हो। एक वरिष्ठ सेवा अधिकारी का यह आलेख उसी दिशा में एक प्रयास है
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भारतीय प्रशासनिक सेवा(पहले इसे आई.सी.एस. कहा जाता था,बाद में इसे संशोधित करके
नया नाम आई.ए. एस.दिया गया)ब्रितानी राज द्वारा पीछे छोड़ी गई कई व्यवस्थाओं में से एक
है। इसे नौकरशाही की मलाई क्रीम या उसका चरम बिंदु माना जाता है। क्योंकि इस सेवा के
सदस्य अखिल भारतीय स्तर पर प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिये चुने जाते है। अगर इसके चयन का औसत सालाना पॉच लाख से भी ज्यादा उम्मीदवारों में से एक सौ का है तो इसे पास कर
पाने में वास्तव में विशेष योग्यता की जरूरत है।इसी परीक्षा से पुलिस राजस्व,आयकर,रेलवे,
डाक सेवा,अंकेक्षण,लेखा परीक्षण आदि समेत दूसरे लगभग नौ सौ उम्मीदवार चुने जाते है।

पिछले दिनों ब्रितानी राज की कई व्यवस्थाओं की काफी आलोचना हुई है जो सही है। इसलिए
पाठकों को अपने महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक की नसीहत को जो उन्होने एक बेहतरीन आई.सी.एस. अधिकारी सी.डी. देशमुख को दी थी, याद दिलाना उचित होगा।
श्री देशमुख आई.सी.एस.में चुने तो गए लेकिन उन्होने इस नौकरी के प्रति अनिच्छा और अपने
को स्वतंत्रतासंग्राम में ही जुटे रहने की इच्छा जताई। उस वक्त श्री तिलक ने उन्हें समझाया-
स्वराज अब बहुत दिनों की बात नहीं रह गई है।जब भारत इसे प्राप्त कर लेता है तो हमें योग्य प्रशासकों की जरूरत पड़ेगी। आप जाइए और प्रशासन की कला और नियमों को सीखिए ताकि भविष्य में इसका इस्तेमाल किया जा सके। लोकमान्य तिलक की यह दूरदर्शिता
आई.ए.एस.से ब्रितानी राज का पूरा लांछन खत्म करने को काफी थी। आई.ए.एस. की वैसी
छवि जिसकी लोकमान्य तिलक या सी.डी. देशमुख ने परिकल्पना की थी,पिछले पैंतालीस साल
से नहीं रह पाई है। इसके कारणों की जांच हम बाद में करेंगे।

जैसा कि उनके नाम से ही लगता है कि दूसरी हरेक अखिल भारतीय सेवा किसी एक खास
विषय से संबंधित होती है और इसके सदस्य जल्दी ही उस विषय की विशेषज्ञता हासिल कर
लेते है।पुलिस,डाकसेवा, अंकेक्षण आयकर आदि के संदर्भ में भी यह बात सच है। दूसरे तकनीकी सेवाओं जैसे-इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कृषि,अंतरिक्ष विशेषज्ञों आदि के संदर्भ में भी
यह सच है। पहले इन सभी सेवाओं के सर्वोच्च पदों पर कोई आई. ए. एस. अफसर ही आसीन होता था। धीरे धीरे कई विभागों ने दावा करके उसी सेवा के अधिकारियों ने विभाग के
सर्वोच्च पद पर बैठना शुरू किया और इस तरह आई. ए. एस. का तथाकथित एकाधिकार खत्म हो गया।
फिर भी आई. ए.एस. अधिकारियों को अपेक्षाकृत उंची तनख्वाह मिलती रही और उन्होने यह कह कर कि वे सभी सेवाओं को मिलाकर प्रत्येक बैच में हजार में से शीर्ष सौ में से चुने गए
है,वे इसको न्यायोचित भी ठहराते रहे।धीरे धीरे उनके उस दावे को भी चुनौती मिली और
सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों ने बहुत हद तक उनके इस विशेषाधिकार को भी खत्म किया। इस तरह
आई.ए.एस. के फालतू होने का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।
सर्वप्रथम विस्तृत बहस के माध्यम से लोगों द्वारा इसका फैसला किया जाना है।जिस तरह हमें
अच्छी सेना,अच्छे उद्योगपतियों आदि की आवश्यकता है, उसी तरह हमें अच्छे प्रशासन की
आवश्यकता है या नहीं।अगर इसका उत्तर हां में है तो फिर सवाल उठेगा कि हम कैसे अच्छे
प्रशासक पाएं और उन्हें अच्छा बनाएं रख सकें।प्रशासन राजनीतिक कार्यपालिका और नौकर-
शाही खासकर आई.ए. एस. शामिल होते है।जहां नौकरशाही का प्रधान आई.ए.एस. होता है,
सार्वजनिक जिंदगी को भूमि राजस्व,शिक्षा,स्वास्थ्य,सार्वजनिक आपूर्ति, पालिका,प्रशासन,शहर
विकास,आदिवासी विकास,कृषि, ग्रामीण विकास,सामाजिक कल्याण,महिला व शिशु कल्याण,
खेल कूद,सांस्कृतिक गतिविधि,उर्जा विद्युत शक्ति,टैक्सटाइल्स, उद्योग, वित्त, आदि विषय प्रभावित करते है। जहां विभागों के शीर्ष पदों पर आई.ए.एस. को हटा कर विशेषज्ञों को
बैठाया गया है।वैसे विभाग है पुलिस, सिंचाई, भवन निर्माण कार्य, सड़क,आयकर,रेलवे, डाक
सेवा, अंकेक्षण आदि।इसलिए जनमत यह है कि आई.ए. एस.और उनको दिया गया प्रशासन
दोनो अनावश्यक है तो इन दोनों बातों की आम जनता और राजनीतिक कार्यपालिका के
नजरिए से जांच की जानी चाहिए।

शासकों के बारे में साधारण रूप से राय यही होती है कि वे पैसा कमाने और अपने सगे संबंधियों को फायदा पहंचाने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं और आमतौर पर वे ऐसे नियम बनाते है जिससे आम लोगों की जिंदगी कष्टप्रद हो और वे अपने चहेतों को लाभ पहुंचा सकें।
लेकिन शासकों के लिए ऐसे नियम बनाना और ऐसी स्थितियां पैदा करना जिससे आम जनता
की जिंदगी अधिक कष्टप्रद हो कैसे संभव हो पाता है।लेकिन, ऐसी बातों का आरोप निश्च्िात
रूप से आई.ए.एस. अधिकारियों पर ही लगता है।आम जनता आई.ए.एस. को ऐसे दल के रूप
में देखती है जो आम लोगों के कष्टों को समझने और उनके लिए जमकर काम करने में विफल रहा है।मसलन एक साधारण आदमी जानता है कि कोई भी आई.ए.एस. अधिकारी किसी साधारण बस जैसे एस.टी बेस्ट या रेड लाइन से सफर नहीं करता या किरोसिन तेल
की लाइन में खड़ा नहीं होता इसलिए माना जाने लगता है कि न तो उसे किसी साधारण
आदमी की दिक्कतों की जानकारी होगी और न ही वह उसका सही समाधान कर सकेगा।
आम जनता यह जानती है कि एक संवेदनशील अधिकारी बिना क्यू में खड़ा हुआ किरासिन
की समस्याओं को जान सकता है और उसका समाधान कर सकता है लेकिन क्या वे सभी इतने संवेदनशील है?आम व्यक्ति को सार्वजनिक जीवन में सुविधाएं मुहैया कराने में उनकी विफलताएं अब दिन- ब-दिन इतनी स्पष्ट हो गई है कि जनता के बीच उनसे सहानुभूति रखने
वालों की संख्या भी कम होती जा रही है।
आई.ए.एस. के समर्थन में भी कुछ तर्क दिए जा सकते है।पहली बात यह है कि जैसा कि प्रतीत होता है, आई.ए.एस. अधिकारी कोई 'गैर विशेषज्ञ' नही होते। वास्तव में उन्हें समग्र रुप
से समस्याओं को सुलझाने और निति निर्माण के लिए दो सालों के प्रशिक्षण अवधि से गुजरना पडता है, जिससे वे संबंधित विषयों में विशेषज्ञता हासिल कर सके। उन्हे इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है, जिससे वे किसी विषय को एंकाग रुप से न देखे। जैसे उन्हें यह समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि सिंचाई केवल किसी बांध का निर्माण नही है बल्कि यह इससे संबंधित सभी सामाज शास्त्रीय, पारिस्थितिकी, भौगोलिक और आर्थिक सवालों को अपने में समेटे है, या मलेरिया प्रबंधन का मतलब किसी डॉक्टर का किसी मरीज को ' प्राइमांक्कीन टेबलेट' देना भर नहीं है बल्कि इससे तात्पर्य डाक्टरों की नियुक्ति से लेकर खून जांचने वाले
उपकरणों की उपलब्धता, दूसरे वैकल्पिक दवाओं का परीक्षण, सड़कों का अच्छा नेटवर्क आदि
सभी चीजों से है।
यह ज्ञान या प्रशिक्षण किसी आई.ए.एस. के पास उसके प्रशिक्षण के प्रथम दो सालों में नही आ
जाता बल्कि विभिन्न विभागों में विभिन्न नियुक्तियों के दौरान मिली जानकारी से प्राप्त होता है
आई.ए.एस. अधिकारियों को सेवा नियमों, वित्त के मामलों, बजट, योजना आदि में प्रशिक्षित
किया जाता है जो एक अलग तरह की विशेषज्ञता है उन्हें संसाधनो के निर्माण आदि में प्रशिक्षित किया जाता है और यह संसाधन भूमि,भूमि के उत्पाद,उपलब्ध सामग्री कामकाजी श्रम-
शक्ति प्रशिक्षक आदि हो सकते है।उन्हें योजना निर्माण, नीति निर्माण संसाधन विकास नीति
को बनाने आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण् बात यह है कि एस.डी.ओ.
कलक्टर और सी.ई.ओ.(जिन्हें फील्ड नियुक्ति कहा जाता है) पदों पर नियुक्त होने के बाद यह अधिकारी 'फील्ड' की स्थिति का बहुत नजदीकी से मुआयना करते है जो कि योजना निमार्ण
के लिए अनिवार्य है।
एक अच्छा प्रशासक( चाहें वह आई.ए. एस. हो या गैर आई.ए.एस.)वह होता है जो नियमों का
पालन करता है, जो त्रुटिपूर्ण नियमों को बदलने की मांग करता है, जो कुछ को फायदा पहुंचाने के लिए दूसरों को अन्याय का शिकार बनने से रोकने में सहायक होता है,जो उचित
नीतियों की सिफारिश करता है और उन पर दृढ़ रहता है,जो एक राजनीतिक शासक की जिसकी दिलचस्पी सिर्फ कुछ लोगों का समर्थन करना,उन्हें फायदा पहुंचाना भर है,की आंखों की किरकिरी तथा चुनौती है।अगर एक राजनैतिक नेता और किसी प्रशासक में बुरे कार्यों के
लिए किसी तरह की सांठगांठ है तो वे दोनों दूसरों की कीमत पर अपना काम करेंगे और पैसे
कमाएंगे।
कभी कभी एक अच्छा नेता और एक अच्छा प्रशासक एक साथ काम करके बहुत अच्छा
परिणाम दे सकते है।जहां पहली स्थिति होती है वहां नेता प्रशासक को पसंद नहीं करते है
और जहां दूसरी स्थिति होती है,लोगों के लिए वह वांछनीय नहीं समझा जाता।इस तरह दोनों
ही स्थितियों में जनता के लिए उसका प्रभावशाली उपयोग नहीं हो पाता और जब तक जनता इसे समझे कुछ कहे तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
पर एक तीसरी तरह की स्थिति भी होती है जो किसी विकासशील लोकतंत्र में अपेक्षित है।
विभिन्न क्षेत्रों में विकास की रणनीतियों को बनाने के लिए योजना निमार्ण,उनके क्रियान्वयन तथा प्रोत्साहन की जरूरत पड़ती है और इसमें किसी सामान्य-ज्ञान सम्पन्न,जरनलिस्ट की सेवाओं का बड़ा महत्व होता है । लेकिन उसके बाद? किसी विकासशील समाज का उददेश्य
क्या है? विकास के अतिरिक्त यह उद्देश्य और क्या हो सकता है।एक बार जब यह चरण आ
जाता है तब समाज को महत्वपूर्ण स्थानों पर विशेषज्ञों की जरूरत पड़ती है।
संक्षेप में आई.ए.एस. सेवा ( या कोई भी नियमों के अनुसार चलने वाली सेवा) का न तो किसी
अपराध से भरी राजनीतिक व्यवस्था में स्वागत होता है और न ही जेनेरलिस्ट होने के नाते किसी विकसित समाज में आई.ए.एस. की सेवाओं की जरूरत होती है। उसका महत्व केवल
विकास के चरण के दौरान है,और सिर्फ विकास के उद्देश्य से है और किसी उद्देश्य से नहीं।
आज राजनैतिक नेतृत्व और नौकरशाही के स्तर पर अच्छा परिणाम दिखाने का माद्दा तेजी से
खत्म होता जा रहा है।पचास के दशक में जब देश ने कई विकास तथा उपलब्धि के ख्वाब
देखे थे तब किसी जेनेरलिस्ट की सेवाओं की सबसे ज्यादा जरूरत थी। आज भी हम विकास
से काफी दूर है। लेकिन क्या हम खुद को सही दिशा में जाते देख रहे हैं?क्या हम महसूस करते हैं कि जो लक्ष्य हमने निर्धारित किए थे उनमें से कम से कम कुछ हमारी पहुंच के भीतर
है? अगर नहीं तो विफलता की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी आई.ए.एस.पर ही आएगा।आज क्या हम आई.ए.एस. अधिकारियों को देश की विकास संबंधी समस्याओं के समाधान में राजनीतिक
नेताओं के कंधे से कंधा मिलाकर काम करते देखते है या केवल नेताओं की सनक के आगे कातरता से झुक जाते हुए देखते है।क्या हम महसूस करते है कि दूसरी सभी सेवाओं पर आई.
ए.एस. के वर्चस्व को बरकरार रख कर हम अपने सभी उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते है।
अभी हाल में ही एक अंग्रेजी दैनिक में छपे सर्वेक्षण के अनुसार शिक्षाविद और आम जनता
अभीभी आई.ए.एस. अधिकारियों में काफी विश्र्वास रखती है और वे महसूस करते है कि देश की उम्मीदों की वे एकमात्र किरण है।यह निष्कर्ष त्वरित सर्वेक्षण के बाद का है।जेनेरलिस्ट की
सेवाओं की इस जरूरत और आई.ए.एस. में विश्र्वास को गंभीर सार्वजनिक बहसों द्वारा भी बढ़ाया जाना चाहिए।

लेकिन आई.ए.एस. तबके को अपने में एक सामूहिक अतःपरीक्षण अवश्य करना चाहिए कि
अपने सभी संयोगों के साथ क्या आई.ए.एस. अच्छा परिणाम दे सकने की स्थिति में है? क्या
आई.ए.एस.के सदस्य सामूहिक चिंतन करने में सक्षम है और क्या वे अतःपरीक्षण के लिए तैयार है?क्या वे अपने प्रति लोगों के विश्र्वास को न्यायोचित ठहराने के लिए अपने को उसके
अनुकूल बनाने में सक्षम है?क्या वे सामूहिक रूप से आई. ए.एस. के भीतर घुसते जा रहे भ्रष्टाचार और दूसरी विध्वंसात्मक प्रवत्त्िायों को निकाल कर दूर कर सकते है?क्या आई. ए.
एस. निहित राजनीतिक हितों के साथ सांठगांठ को तोड़ सकेगें?क्या आई.ए.एस.आम जनता
और राजनीतिक नेतृत्व को साबित करने में सक्षम हो पाएंगे कि एक सामान्य ( जेनेरलिस्ट)
प्रशासकीय सेवा की आवश्यकता क्यों है? अगर नहीं, तो माना जाना चाहिए आज आई.ए.एस.
एक दुर्दिन में पड़ चुकी सेवा बन चुकी है।