गुरुवार, 27 मार्च 2008

00 वकालत हमें ही करनी है।

वकालत हमें ही करनी है।

मेरे सामाजिक लेखों का पहला आलेख संग्रह, ‘जनता की राय’ काफी चर्चित रहा | उसीसे तय हुआ कि यह दूसरा आलेख संग्रह भी संकलित किया जाय | पहला लेख ‘है कोई वकील’ मुंबई के कुख्यात अंडरवर्ल्ड सरगना माया डोलस के पुलिस एनकाऊंटर से संबंधित और अन्तिम लेख ‘यह व्यर्थ न हो बलिदान’ राष्ट्रीय महामार्ग के भ्रष्टाचार उजागर करने के प्रयास में जिसने जान की बाजी लगाई उस सत्येंद्र दुबेसे संबंधित | ये सारे लेख प्राय: पिछली सदी के अन्तिम दशक के हैं | दोनों घटनाओं में दाँव पर लगा है हमारा लोकतंत्र | पहले लेख मे 16 नवंबर, 1991 मे मैंने सवाल उठाया था कि लोकतंत्र की वकालत करने के लिये कहाँ हैं कोई उचित न्यायालय और कहाँ हैं उचित वकील? और आज भी मुझे लोकतंत्र को न्याय मिले यह चिन्ता तो है, पर यह भी पता है कि इसकी वकालत में हमें ही आगे आना है |
इस आलेख संग्रह में ऐसे कई मुद्दे उठाये हैं जिनके लिये हमें किसी न किसी मंच पर वकालत करनी है | क्योंकि उन सभी मुद्दों में लोकतंत्र ही दाँव पर लगा नजर आता है - चाहे वह हर्षद मेहता या हवाला या फेयर ग्रोथ जैसा आर्थिक काण्ड हो या रूपकुंवर के जलाये जाने को सती सावित्री के नामसे जोडने का मामला हो या अगस्त क्रान्ति दिवस पर मुंबई में महिला स्वतंत्रता सेनानियों पर अपने ही लोकतंत्र में लाठी बरसाने का मामला हो |

लोकतंत्र को सुदृढ बनाना है तो विकास कार्यक्रमों की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी - कानूनी हतबलता को संभालने की और कुरीतियों पर प्रहार करने की | विकास कार्यक्रमों में नए और विविध पर्याय भी ढँूढने होंगे | मसलन क्या बडे बांध ही विकास हैं या छोटे बाँधोका पर्याय भी है? क्या ऍलोपथी ही स्वास्थ्य - सुरक्षा दे सकता है या आयुर्वेद, और निसर्ग-उपचार की प्रणालियों का पर्याय भी हमें चाहिये? क्या हमें महिलाओं के प्रति अपराध रोकने हैं या स्त्री-भ्रूण हत्या को ही इसका समाधान मान लें और सारी स्त्रियों को ही समाप्त कर दें? इसी प्रकार गरीब, शोषित, दलितों के लिये आरक्षण नीती के मुद्दे हैं - क्या हम करें जिससे सामाजिक विषमता दूर हो?

ऐसे हजारों प्रश्न पडे हैं | देश के तमाम न्यायालयों में जितने केसेस आज पडे हैं शायद उतने ही प्रश्न प्रशासकीय व्यवस्था को लेकर भी है | लेकिन न्यायालयों में व्यवस्था संबंधी प्रश्न कम ही आते हैं या लाये जा सकते हैं | गरज तो यह है कि हम सभी के अंदर एक न्यायालय हो, एक वकील हो और न्यायोचित फैसला करने का, संवेदनशीलता के साथ फैसला करने का और उस पर अमल करने का जज्बा भी हो | और जहाँ एक चने से भाड नही फूटे - हमें एकत्रित चर्चा कर, टीम बना कर काम करने का गुर भी आना चाहिये | यह टीम स्पिरिट आये यह भी लोकतंत्र की माँग है |

ये सारे लेख विभिन्न अखबारों से प्रकाशित हुए | अतएव उन सभी अखबारोंका मैं धन्यवाद करती हँूै | मुंबई से दै. हमारा महानगर, साप्ताहिक रविवार, दिल्ली से हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा आदि अखबारों मे छपे ये लेख अपने अपने समय में चर्चित रहे | इन्हें एकत्र करने में पीसीआरए की मेरी सहकर्मी रीना का भारी योगदान रहा | आलोकपर्व प्रकाशन के उर्मिलाजी और रामगोपाल शर्मा का धन्यवाद तो है ही | साथ में उनके पुत्र आलोक के लिये शुभाकांक्षा भी है जो एक अच्छी सूझ बूझ, लगन और वैचारिक परिपक्वता लेकर प्रकाशन क्षेत्र में उतर रहा है | इस पुस्तक के तैयार होने में उसका तथा उनके चित्रकार राय का योगदान भी उल्लेखनीय है |

चलते चलते एक उल्लेख करना ठीक रहेगा | देश की पाठक संस्कृति घटती जा रही है और इस पर चिन्ता व्यक्त की जाती है | इसीके साथ पाठकों की रूचि भी बदल रही है | क्या केवल कथा, कविता और उपन्यास ही साहित्य है - या समाज-दर्शन से जुडे आलेख भी साहित्य की श्रेणी में आते हैं? इनकी चर्चा और वकालत के लिये भी कोई मंच अवश्य उपलब्ध करवाना आवश्यक है | तभी हिन्दी साहित्य अधिक मुखर और प्रखर हो सकेगा |
लीना मेहेंदळे
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Also kept doc file in dvbtt, mangal and shruti font.

बुधवार, 5 मार्च 2008