कौन करेगा ये वादा?
-लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
संगीता ऊर्फ रिंकू पाटील शिकार हुई - एक बर्बर समाजकी पाशविकता की, निष्क्रीयता की और कायरता की | लेकिन अफसोस, कि इसके साथ अभी भी हमारी आत्मसंतुष्टि और धन्यता नही मिट पाई है | किसका खून खौल उठा इस घटना के दौरान ? या इसके बाद तुरंत ? या आज भी ? और हमने क्या किया ?
समाचार पत्रोंने इस दर्दनाक और शर्मनाक घटना का विवरण तत्काल प्रकाशित किया और एक प्रश्नचिन्ह जनता के सामने खडा कर दिया, पर उसके बाद ? शायद इस प्रश्नचिन्ह को कायम लोगोंकी निगाह में रखने का प्रयत्न | विधानसभा में प्राय: हर सदस्यने इस अपराध पर गहरा क्षोभ प्रकट किया | उसके बाद ? चर्चा की दिशा बदलकर यह अधिक महत्त्वपूर्ण बात बन गई कि इस प्रश्न पर स्थगन प्रस्ताव लाया जाना चाहिये या नही, सरकार गिरनी चाहिये या नही, मुख्यमंत्री या शिक्षामंत्री को पदत्याग करना चाहिये या नही ? कई नागरिकोंने पत्रलेखन या स्तंभलेखन द्बारा अपनी तीव्र प्रतिक्रिया दर्शाई - शायद मैं भी उसी समूह की मात्र एक और सदस्य बन जाऊँ | शिक्षकोने और मानसशास्त्रियों ने क्या किया ? एक केस स्टडी, कि कैसे इन मौकोंपर लोग हतप्रभ और किंकर्तव्य विमूढ हो जाते है | उल्हासनगर की जनता ने क्या किया ? पुलिस का धिक्कार और तीन चार संदेहपूर्ण व्यक्तियों को पकडने में सहायता |
पुलिस ने क्या किया ? कभी मंथर गति और कभी तेज चाल दिखाई | वह भी किसी प्रयोजनसे नही | जिससे जो बन पडा उसने उतना ही किया | मसलन रेलवे पुलिससे मृतदेहकी पहचान जल्दी नही कराई जाती - सो नही कराई गई | कोर्ट के सम्मुख केस जल्दी उपस्थित नही कराई जा सकती - सो नही कराई जायेगी | क्रूरकर्मा अपराधियों के आरोप की सुनवाई जल्दी नही कराई जा सकती, उन्हें सजा जल्दी नही दी जा सकती - सो वह बातें भी जल्दी नही कराई जायेंगी | पुलिस के कुछ अधिकारी भगोडे अपराधियोंको ढूॅढ निकालने में माहिर हैं, तो उन्हें जल्दी ढूॅंढा गया | लेकिन उनके रिवाल्वर आये कहाँसे ? वे लायसेंस किसके नाम से थे ? कया वे रद्द कराये जायेंगे ? या उनसे प्रश्न पूछे जायेंगे ? या उनके विषयमें जनता को कुछ बताया जायगा ? नही - क्यों कि पुलिस या प्रशासन के काम करनेका वह तरीका नही होता - इसलिये वैसा नही किया जायगा |
इनके अलावा बाकि लोगोंने क्या किया ? शायद कुछ चर्चा - बस | एक हताशा की भावना, एक दीर्घ उच्छ्वास और एक भविष्यवाणी, कि यह बस अब ऐसे ही चलेगा |
किंकर्तव्यविमूढता तो हमारे घर भी कुछ देर तक छाई रही | बच्चे दस और बारह वर्ष के हैं | यदा कदा अखबार पढ लेते हैं | कभी कुतूहलवश - जो कि कभी ही कभी होता है - और कभी खास लेख के लिये हमारे कहने पर | उन्हें क्या कहा जाय - कि आजका अखबार पढो और पहचान कर लो उस क्रूरतापूर्ण समाजसे ? या उन्हें अज्ञान के सुखमें रखा जाय, ताकि उनके दिमाग को एक गहरे, दुष्ट असर से बचाया जाये | उन्हें पता लगने दें या नही, कि ऐसे बर्बर अपराध आज हो रहे है ?
मैं जानना चाहती हूँ कि हमारे जैसे कितने माँ-बाप हैं जिन्होंने इस प्रश्न को झेला हैं और क्या तय किया ? कितने माँ-बाप है जिन्होंने इस दुर्घटना से पहले कभी अपने बच्चोंसे समाज में पनपती गुंडागर्दी, और बर्बरता की चर्चा की है | संगीता की हत्याके पहले क्या कभी हमने अपने आपको यह बताया है कि बर्बरता और अन्याय जहाँ भी दिखे, हमें उसे रोकनेके लिये तत्काल सामने आना है ? क्या कभी अपने बच्चोंको यह बताया है ? क्या उनके स्कूलमें जाकर कभी पूछा है कि उन्हें ऐसे मौके के लिये क्या सिखाया जाता है ?
हमने आप भी यही सीखा और बच्चोंको भी यही सिखाया कि इस समाजमें मनमानी ही सबकुछ है| कुछ बेईमानी कर सकें, कुछ अकड दिखायें, कुछ लूट-खसोट करें, तभी हम टिक सकते हैं | दूसरे भी जब ऐसे अनुचित कुकर्म करते हैं तो वह उचित है - इसलिये नही कि वह सही है बल्कि इसलिये कि उनके पास अधिक ताकत है, अधिक पैसा है, और यदि वे हमसे भी ज्यादा मनमानी या अत्याचार कर सकते हैं तो बेशक करें - केवल हमपर आँच नही आये | हम हर उपायसे उस आँचसे बच सकें | जहाँ अपराध हो रहा है, - या तो हम उसमें शामिल होकर लूटका हिस्सेदार बनें | या फिर हर प्रयत्नसे वहाँसे अलग हट जायें - उंगली तो क्या आँखे भी न उठायें | आँख उठाना तो क्या, एक विचार तक दिमाग में नही कौंधे कि कैसे उस अपराध को रोका जा सकता है | यही हम आपभी सीख रहे हैं और बच्चोंको भी सिखा रहे हैं |
और आज संगीता की हत्या के बाद क्या हम कुछ और करने को तैयार हैं ? जो बच्चे इस जघन्य अपराधके मूक और कायर साक्षी बने रहे, उनमेंसे किसके मनमें आक्रोश जागा ? किसने अपने माँ-बाप से पूछा कि उनके इस व्यवहारके लिये कौन जिम्मेदार है ? क्या किसी माँ बाप ने चाहा है कि काश उनका बच्चा कुछ और करता | या हर माँ-बाप ने भगवानको सराहा है कि उनका बच्चा इस शिकारकांड में सुरक्षित बच गया - चाहे अकर्मण्यतासे ही सही ?
क्या मैंने खुद कभी अपने बच्चोंसे कहा है कि वे ऐसे अपराध का -- आगे आकर मुकाबला करें ? क्या मैंने ऐसे मौकेपर मुकाबले के लिये उन्हें तैयार किया है? आज यदि मेरे बच्चोंके स्कूलमें यही बर्बरता घट रही हो तो मैं उनसे किस बर्ताव की अपेक्षा करूँगी ? और संगीता के माता पिता या खासकर उसकी बहन मेरे बच्चोंसे किस बर्ताव की आशा करेंगे ?
क्या हम अभिभावक संगीताके बलिदान की वेदी पर यह वादा कर सकते हैं कि भविष्यकालीन ऐसी हर घटना मे हमारा बच्चा मूक साक्षी नही बना रहेगा ? संगीताके प्रति जो अपराध हुआ उसके गुनहगार और सजावार तो हम सभी है | लेकिन यदि इस वादे को अपनाकर और पूरा कर हम अपना ऋण चुका सकें तभी हम भविष्यमें शिकार बननेसे बच सकते हैं |
हम अभिभावक आगे आयें - यह मेरी अपील है | यही एक उपाय है इस अपराधको रोकनेका और प्रायश्चित्त का | हम न केवल अपने अपने घरोंमे, बल्कि इकठ्ठे आकर, समूहमें जुट कर अपने बच्चोंको तैयार कराने में लग जायें | कि उन्हें अन्याय और अपराध के सम्मुख भागना नही, लडना है | कि उन्हें अपनी सुख सुविधा जुटानेके लिये अन्याय का सहारा नही लेना है, तथा औरोंका भी रोकना है |
इस सामूहिक प्रक्रिया में हम क्यों न हरीष के माँ-बाप को भी शामिल करें ? वे अपने बेटे को तो खो ही चुके हैं | साथ ही इस पाशविक, जघन्य अपराध का कलंक भी अपने सर पर लेकर उन्हें जीवन गुजारना है | समाजके क्षोभ का आज उनके पास कोई उत्तर नही है | क्या वे संगीता का ऋण चुकाने की बात सोचेंगे ? क्या वे साहस जुटाकर कह पायेंगे कि उनके बेटेने जो कुछ किया उससे बचनेके लिये और उसका मुकाबला करनेके लिये वे अन्य बच्चोंको तैयार करेंगे | और यदि उन्होने साहस जुटाया तो क्या समाज उन्हें एक मौका देगा ?
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दै हमारा महानगर में प्रकाशित, मार्च 1990
kept on web 13, mangal and pdf
शनिवार, 7 जून 2008
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