रविवार, 4 जुलाई 2021

औरत के विरूद्ध -- पश्यंति मासिक

 

औरत के विरूद्ध

किसी समाज की अच्छाई की माप क्या हो सकती है यहि कि उसके विभिन्न वर्गों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है। इसिलिए यह जानना जरूरी है कि किसी भी समाज में गुन्हगारी कितनी है, खासकर महिलाओं के प्रति घटने वाले अपराध किस तरह के और कितने हैं। इनमें भी बलात्कार के अपराधों का विश्लेषण अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकी औरत जात के विरूद्ध यह सबसे अधिक घृणित अपराध है।

भारत सरकार के नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो की मार्फत यह लेखा- जोखा रखा जाता है कि प्रतिवर्ष देश में कहां- कहां कितने अपराध घट रहे हैं। पिछले तीन वर्षों के आंकडे बताते हैं कि अन्य राज्यों की तुलना में महाराष्ट्र में अधिक अपराध घटते हैं। मसलन 1998 में देश की जनसंख्या 97 करोड 9 लाख थी जबकि भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दर्ज कराए अपराधों की संख्या थी 17 लाख 80 हजार। अर्थात प्रति लाख जनसंख्या में 183 अपराध घटे थे। लेकिन महाराष्ट्र के लिए यही औसत प्रति लाख 202 था।

बलात्कार के आंकडे जांचने पर पता चलता हा कि 1998 में 15031 बलात्कार दर्ज हुए जो औसतन प्रति करोड 155 थे, लेकिन महाराष्ट्र के लिए यही औसत 124 था। अर्थात देश के अन्य भागों की तुलना में महाराष्ट्र की छवि कुछ अच्छी रही। यहां यह भी ध्यान रखना पडेगा कि असली औसत दर 155 या 124 से दुगनी माननी पडेगी क्योंकि यह अपराध केवल स्त्रियों के विरूद्ध होता है।

इस संबंध में एक विस्तृत पढाई का संकल्प बनाकर सबसे पहले मैंने पिछले दशक में महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में घटित बलात्कार के अपराधों का ब्यौरा लिया। इसके लिए 1996 की जनसंख्या के आकडों को आधारभूत माना जो समूचे महाराष्ट्र के लिए 9. 27 करोड थी। जनसंख्या के आकडे मैंने जनगणना कार्योलय से प्राप्त किए जबकि जिलावार अपराधों के आकडे ब्यूरो से प्राप्त हुए।

कुल अपराधों का ब्यौरा

सबसे पहले महाराष्ट्र के विभिन्न प्रमंडलों और उनके जिलों में पिछले दस वर्षों में घटित बलात्कार के अपराधों का ब्योरा लें। प्रत्येक प्रमंडल के लिए वहां के डिविजनल कमिश्नर तथा डी. आई. जी. पुलिस की जिम्मेदारी होती है, इसी प्रकार प्रत्येक जिले में वहां के कलेक्टर तथा एस. पी. की जिम्मेदारी होती है। कि वे अपराधों की रोकथाम करें। अतएव इस ब्योरे से उम्मीद की जा सकती है कि संबंधित जिले और प्रमंडल के अधिकारी अपने- अपने आकडों से कुछ सीख लेंगे और अपराधों को कम करने का प्रयत्न करेंगे। साथ ही यह आशा भी की जा सकती है कि उक्त जिले या प्रमंडल के विधायक, लोकसभा सदस्य और सामाजिक संस्थाएं भी अपने- अपने कार्यक्षेत्र में इन अपराधों के विरूद्ध आवाज उठाएंगे या नीति- निर्धारण के लिए उपाय सुझाएंगे।

इस ब्योरे से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं जैसे-

*महाराष्ट्र में प्रति वर्ष हजार से अधिक बलात्कार होते हैं। 1990 से 1999 तक कुल 11675 अर्थात् प्रति वर्ष औसतन 1168 बलात्कार हुए ।

*1996 में बलात्कार की घटनाओं में अचानक वृद्धि हुई और प्रायः हर जिले में हुई। और प्रायः हर जिले में हुई। 32 में से केवल पांच जिले रत्नागिरी , कोल्हापूर, सांगली, नांदेड और उस्मानाबाद ही इससे अछूत रहे। रत्नागिरी में 1999 में एकाएक बढोत्तरी देखी जा सकती है। जबकि नांदेड, बीड और उस्मानाबाद में भी इसी दौरान अपराधों की संख्या में दुगनी वृद्धि हुई। समाजशास्त्रियों के लिए यह एक सोच का विषय है कि एक साथ हर तरफ बलात्कार की घटनाएं क्योंकर बढी ?

* 1995 और 1996 में अधिकतम बलात्कार दर्ज हुए जो 1997 में कम होकर फिर धीरे- धीरे बढकर 1999 के स्तर पर पहुंच गए। इसकी कोई वजह होगी।

* ंतव्य है कि समय था जब टी. वी पर विभिन्न चैनलौं का प्रसरण जोर- शोर से आरंभ हुआ। इस विषय में विशेष अध्ययन है कि इन प्रसारणों का समाज में बढते बलात्कार के अपराधों से किस तरह का संबंध या प्रभाव है। दूसरी विचारणीय बात है कि 1995 में विधानसभा चुनाव तथा 1996 में लोकसभा चुनाव हुए और महाराष्ट्र में सत्ता पलट हुआ।

* दस वर्षों में कुल घटित अपराधों में से आधे अपराध केवल सात जिलों में हुए हैं जो हैं मुंबई, नागपुर, पुणे, अमरावती, ठाणे, भंडारा और यवतमाला। अतएव यहां की पुलिस से अधिक मेहनत से इन अपराधों के लिए न्याय दिलाने की जिम्मेदारी लेनी पडेगी।

गुनाह की दर एवं आदिवासी क्षेत्र

गुनाह की संख्या के साथ – साथ गुनाह की दर देखना भी आवश्यक है। संख्या का महत्व पुलिस की दृष्टि से है क्योंकि इन्हें हर गुनाह की जांच करनी है और से अंतिम उद्देश्य तक पहुंचाना है, जबकि सामाजिक संस्थाओं या महाविद्यायीन अध्ययन के लिए गुनाह की दर का महत्व अधिक है क्योंकि इससे सामाजिक ढांचे के सुधार के विकल्प समझ में आते हैं।

*अन्य जिलों की तुलना में नागपुर तथा अमरावती प्रमंडल के जिलों यथा नागपुर ,अमरावती, वर्धा, गडचिरोली, भंडारा, चंद्रपुर और यवतमाल में बलात्कार की दर अत्याधिक है। यह सारे ही आदिवासी बहुत जिले हैं। ठाणे जिला भी इसी श्रेणी में है। लेकिन महाराष्ट्र के अन्य के अन्य आदिवासी बहुत जिले जैसे पुणे, नासिक, धुले और रायगढ में यह ट्रेंड नहीं पाया गया। यहां भी विचारणीय है कि धले और नासिक जिले में आदिवासी नागरिकों के पास जमीन है जबकि नागपुर एवं अमरावती में वे प्रायः भूमिहीन हैं।

*एक चित्र यह है कि यद्यपि महाराष्ट्र में घट रहे कुल अपराधों की दर देशभर में घट रहे अपराधों की दर से अधिक है, फिर भी बलात्कार के मामले में महाराष्ट्र की दर देश की दर से कम है। उसी प्रकार महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों का चित्र क्या है मैंने दो नक्शों पर कुल अपराधों की दर तथा बलात्कार की दर की तुलना की। यह देखा गया कि रत्नागिरी, कोल्हापुर, सांगली, नांदेड, उस्मानाबाद, रायगढ और सिंधु दुर्ग में दोनों प्रकार के अपराध की दर कम है जबकि नागपुर, अमरावती, ठाणे, पुणे और यवतमाल में दोनों प्रकार के अपराधों की दर अधिक है।

*गडचिरोली जैसे आदिवासी जिले में इतर अपराध कम लेकिन बलात्कार काफी अधिक हैं जबकि अकोला जैसे बिगर आदिवासी जिले में बलात्कार की दर कम परंतु अन्य अपराधों की दर अधिक है। यह और एक कारण है कि बलात्कार की शिकार महिलाएं कौन हैं, इसका भी ब्योरा लेना आवश्यक है। भले ही राजधानी मुंबई या दिल्ली के स्तर पर यह संभव न हे, लेकिन कम से कम उक्त जिले के जिलाधिकारी के स्तर पर यह ब्योरा आवश्यक है।

शहरीकरण और बलात्कार

  • पिछले पचास वर्षों में देश के अन्य प्रांतो की तुलना में महाराष्ट्र का तेजी से शहरीकरण हुआ है। यहां करीब चालीस प्रतिशत जनसंख्या शहरों में रहती है। ब्यूरो के पास शहरों के लिए अलग से उपलब्ध आकंडे बताते हैं कि मुंबई , नई मुंबई पुणे, ठाणे, नासिक, नागपुर, अमरावती, औरंगाबाद और सोलापूर जो कि महानगर माने जाते हैं वहां कुल 2786 बलात्कार घटे जो कुल अपराधों का पच्चीस प्रतिशत है। लेकिन ऐसा नहीं कि हर शहरी इलाका ग्रामीण इलाके की अपेक्षा अधिक सुरक्षित हो।

  • पुणे, सोलापुर और औरंगाबाद जिले में शहरी जनसंख्या की अपेक्षा शहरों में घटने वाले बलात्कार काफी अधिक हैं जबकि ठाणे, नासिक, अमरावती और नागपुर जैसे चारों आदिवासी बहुल जिलों में शहरी इलाका ग्रामीण इलाके की अपेक्षा अधिक सुरक्षित हो।

  • शहरी और ग्रामीण दरों तथा इन शहरों के पुरूष और महिला वर्ग में साक्षरता के प्रतिशत की तुलना करने पर देखा गया कि इन सभी शहरों में महिला साक्षरता का प्रतिशत काफी अच्छा माना जा सकता है। अतएव यह मानना पडेगा कि बलात्कार के अपराध की शिकार महिलाएं अपनी अशिक्षा के कारण से शिकार नहीं हुई हैं। शायद शहरों का तनावग्रस्त माहौल, जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि और समुचित पुलिस फोर्स का न होना इत्यादि कारण हो सकते हैं।

साक्षरता विचार

  • शिक्षा और साक्षरता का विचार करें तो एक अजीब परिस्थिति दिखाई पडती है। मराठवाडा प्रमंडल के औरंगाबाद , जलाना, परभणी, नांदेड बीड जिलों में स्त्री शिक्षा का प्रतिशत सबसे कम है, इसके विपरीत अमरावती और नागपुर प्रमंडल के सभी जिलों में स्त्री शिक्षा का प्रतिशत अधिक है। फिर भी बलात्कार की दर मराठवाडा प्रमंडल में सबसे कम और नागपुर तथा अमरावती प्रमंडलों में सबसे अधिक है।

इस सारे विवेचन से जो प्रमुख निष्कर्ष गिनाये जा सकते हैः

  • महाराष्ट्र प्रशासन को नागपुर तथा अमरावती प्रमंडलों में बलात्कार के अपराधों की छानबीन तथा रोकथाम के लिए अधिक ध्यान देना होगा। इसके लिए यदि समुचित मात्रा में पुलिस फोर्स उपलब्ध नहीं है तो उपलब्ध कराना एवं उसकी कार्यक्षमता बढाना आवश्यक है।

  • बलात्कार की शिकार महिलाओं के बाबत अधिक गहराई से अध्ययन होना आवश्यक है, खासकर यह कि इसमें आदिवासी स्त्रियों का प्रतिशत कितना है और आरोपी व्यक्ति किस श्रेणी अथवा व्यवसाय से संबंधित है।

  • एक अन्य अध्ययन में मैंने पाया है (मेहेंदले 2001) कि अन्य राज्यों की तुलना में महाराष्ट्र में यह बात केवल बलात्कार के लिए नहीं बल्कि सभी तरह के अपराधों पर लागू है। इस बात का भी अध्ययन, विधि महाविद्यालयों द्वारा करवाना आवश्यक है।

  • रत्नागिरी, नांदेड, उस्मानाबाद जैसे कम अपराध वाले जिलों में 1996 में अचनक बलात्कार में वृद्धि क्यों हुई अन्य सभी जिलों में 1996 में यह वृद्धि क्यों हुई, इसकी जांच होनी आवश्यक है।

उपरोक्त तमाम विश्लेषण के बावजूद यह मानना पडेगा कि महाराष्ट्र में पिछले दशक में कुछ ऐसी भी घटनाएं हुई हैं जो महज सांख्यिकी या आकडों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। इनके लिए एन. सी. आर. बी. के मौजुदा ढरें से हटकर एक नए सिरे से रिपोर्टिंग आवश्यक है। यह मामले हैं सुनियोजित बलात्कार कांडों के। जलगांव तथा सतारा जिले में घटित दो कांडो में यह हुआ कि नौकरी का लालच देकर मध्य और निम्न मध्य वर्ग की थोडा पढी- लिखी औरतों को वासना का शिकार बनाया गया और फिर उनकी वीडियो फिल्म के जरिये उन्हें ब्लैकमेल करके बार- बार यौनाचार के शोषण का शिकार बनाया गया। परभणी जिले में अगले दिन की परीक्षा के प्रश्न-पत्र देने का लालच दिखाकर कुछ शिक्षकों ने ही एक विद्यार्थिनी का सामूहिक बलात्कार किया। ऐसे सारे सुनियेजित अपराधों के लिए अधिक प्रभावी जांच- पडताल और अधिक कडी शिक्षा अत्यावश्यक है। लेकिन यह तभी होगा जब इसकी रिपोर्टिंग अधिक गंभीरता से दर्ज कराई जाए।

एक बार ग्रामीण महिलाओं के एक कार्यक्रम में मै इन निष्कर्षों की चर्चा कर रही थी कि एक प्रौढ महिला ने मुझे ग्रामीण जीवन की एक वास्तविकता से परिचय कराया । उसने कहा कि महिलाओं से बचपन को यही सुनना पडता है कि उसकी जिंदगी तो चूल्हे में है। गांव की लडकियां भी देखती हैं कि उनके अगल- बगल की तमाम प्रौढ महिलाएं केवल रसोईघर में मेहनत का जीवन जीती हैं- चाहे वह मां हो या सास हो या बडी बहन हो या भाभी हो। फिर लडकियां सोचती हैं कि यदि वे पढकर कोई नौकरी ढूंढ लेती हैं तो इस रसोईघर की कैद से उनका छुटकारा हो सकता है। इसीलिए वे उन तमाम लोगों की शिकार बन जाती हैं जो उन्हें थोडा- बहुत फुसला सकें। यदि जलगांव और सतारा जैसे कांडकोरने हैं तो स्त्रियों के लिए व्यवसाय शिक्षा का प्रबंध आवश्यक है। उस अनपढ ग्रामीण किंतु भुक्तभोगी औरत ने मुझे वह वास्तविकता बताई जो मेरे विचारों से कहीं छूट गई थी।

लेकिन इससे भी भयावह वह घटना है जो पिछले वर्ष अहमदनगर जिले के कोठेवाडी गांव में घटी। देखा जा सकता है कि सामान्यतः अहमदनगर में बलात्कार के मामले कम थे। फिर भी इतने बडे पैमाने पर इतनी जघन्यता के साथ महाराष्ट्र में कभी अपराध नहीं हुए थे जैसे कोठेवाडी में हुआ। इस घटना में किसी भी पारंपारिक पद्धति से अपराध का विश्लेषण नहीं किया जा सकता है। इस घटना में गांव में सामूहिक डकैती करने के लिए गए युवक डकैती के पश्चात् गांव में अकेली रहनेवाली महिलाओं पर झुंड में टूट पडे और सामूहिक बलात्कार किया। इससे पहले उन्होंने अलाव जलाया, खाया, शराब पी और गांव वालों को रस्सियों से बांधकर मारा- पीटा भी। यह पूरी घटना एक संकेत है कि आने वाले दिनों में सिनेमा तथा अन्य प्रसार माध्यमों में दिखाये जानेवाली घटनाएं समाज के अपराधों को कितना भयावह रूप दे सकती हैं। इस घटना से यह भी आभास मिलता है कि महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके में बढती हुई बेकारी और निराशा समाज को कहां ले जा रही है। मुंबई जैसे कार्यक्षम पुलिस के दबाव में यह बेकारी आर. डी. एक्स. गैंगवार और शार्प शूटर्स के रूप में प्रगट होती है लेकिन ग्रामीण इलाके में यह अवश्यमेव स्त्री- विरोधी अपराधों के रूप में प्रगट होगी जो कि महिलाओं के लिए चिंता का विषय है। यह जरूरी है कि कोठेवाडी की घटना से कुछ सीख लेकर हम अपनी रोजगार की नितियों को अधिक प्रभावी बनायें ।



हिंदू धर्म में संन्यास -- महानगर बुधवार 3 मई 1995

 

हिंदू धर्म में संन्यास -- महानगर बुधवार 3 मई 1995

पश्चिमी दुनिया में बहु-चर्चित जितनी भी आधुनिक मैनेजमेंट टेकनिक की किताबें हैं, उन सब में एक सूत्र समान है, वह यह कि किसी उद्योग या व्यवसाय में सफल होने के लिए मनुष्य का महत्वाकांक्षी होना आवश्यक है, यही सूत्र वहां के वरिष्ठ प्रशासकीय अधिकारियों पर भी लागू किया जाता है और कई बार भारतीय अधिकारी भी इस सूत्र से प्रभावित हो ही जाते बृहै, इसके बावजूद भारतीय प्रशासन में कई ऐसे अधिकारी पाये जाते हैं जो अपनी कर्तव्यदक्षता, ईमानदारी और काम में अच्छा अंजाम देनेवाले हैं, जनसामान्य के प्रश्नों के प्रति संवेदनशील हैं पर फिर भी उन्हें महत्वाकांक्षी नहीं कहा जा सकता. वे अपना काम अच्छी तरह निभा लेने में ही अपनी महारत समझते हैं और इस बात की परवाह नहीं करते कि उन्हें अच्छा पद दिया जा रहा है या नहीं थोडे शब्दों में कहा जाय तो उनके लिए उचित शब्द होगा अलमस्त या फक्कङ इसिलिए एक दिन हमारी चर्चा मंडली में यह चर्चा चली कि हमारा आदर्श कौन है और बडा ही महत्वकांक्षी है. या वह जो काम का तो पक्का है लेकिन अपनी अलमस्ती में खुश है संतुष्ट है, यह भी तय रहा कि ऐसा प्रश्न किसी पश्चिमा चर्चा मंडली में उठेगा ही नहीं क्योंकि उस सोसायटी में महत्वाकांक्षी न होना ही एक कमी या कमजोरी मानी जायेगी. लेकिन भारतीय मानसिकताने ने संतोष को एक कमजोरी नहीं बल्कि गुण कहकर जाना है. जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान. अतः सवाल उठा कि क्या यह संतोष की मानसिकता आज के युग में भी कोई मायने रखती है, यह भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में खतरनाक हो सकती है, वहां से फिर बात आयी धर्म पर और संन्यास पर.

हिंदू फिलोसफी में चार पुरूषार्थ बताये गये हैं- वे भी एक नियम क्रम से. पहले मनुष्य धर्म नामक पुरूषार्थ को हासिल करें. फिर अर्थ को, फिर काम को और फिर मोक्ष को. यहां अर्थ शब्द के माने है संपत्ति या संपन्नता- लेकिन वही जो धर्म का आचरण करते हुए मिली हो- अर्थात अपने श्रम, कार्य कुशलता और उत्पादकता के कारण मिली हो न कि चोरी, डकैती, छल- कपट, घूसखोरी या जुएबाजी से. तीसरा पुरूषार्थ है काम- या उपभोग अर्थात् जो धन कमाया है उसका उपभोग या योग्य कार्य में उस धन का विनियोग करना. यह योग्य उपभोग इसलिए आवश्यक है कि इससे जीवन में एक प्रकार की स्थिरता, सुरक्षिरतता आती है और ऐसा माहौल तैयार होता है जिस माहौल में ज्ञान और कला सुचारू ढंग से पनप सकते हैं- बढ सकते हैं. इन पुरूषार्थों को जो हासिल कर लेता है- वही अगली सीढी .

अर्थात् मोक्ष के चौखट तक पहुंच सकता है और वहां पहुंचना हरेक के लिए वांछनीय बताया गया है. वहां से अंदर जाने का उपाय बताया है संन्यास ग्रहण. लेकिन संन्यास का अधिकार भी हर व्यक्ति को उपलब्ध नहीं है. मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करते हुए ज्ञान अर्जन करे- पढाई करे. फिर गृहस्थ आश्रम का पालन करते हुए अपनी कार्यकुशलता से धन अर्जन करेसाथ ही धर्म का पालन भी करता रहे जिसकी रीति उसे ब्रहमचर्य आश्रम में सिखायी गयी है. दोनों आश्रमों के लिए पच्चीस- पच्चीस वर्ष का काल उपयोगी बताया है. इसी काल में मनुष्य अपने धन का उपभोग भी करे- उसके माध्यम से अपनी परिवार की वृद्धि औस समृद्धी भी करे. लेकिन फिर वह वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करे. अर्थात् जिस व्यवसाय को उसने गृहस्थ आश्रम के दौरान चलाया या बढाया- उसकी जिम्मेदारी बाल- बच्चों को, नयी पीढी को सौंप दे नयी पीढी को जिम्मेदारी उठाने के लिए सक्षम करे. इस दौरान वह नयी पीढी के लिए दूर से पथ- प्रदर्शक का काम करता रहे. कभी- कभार सलाह मशविरा दे दे. संकटकाल हो तो वापस आकर मदद करे. लेकिन रोजाना कामकाज की जिम्मेदारी और अधिकार दोनों को ही नयी पीढी पर सौंप दे. खुद यदि संभव हो तो वन में जाकर रहे- इसीलिए आयु की इस अवस्था का नाम है वानप्रस्थ आश्रम- अर्थात् वन की ओर, प्रकृति की ओर,प्रस्थान करने की अवस्था.वहां वन में वह अपनी जरूरतों को कम- से कम करता रहे. साथ ही कुछ और ज्ञानार्जन भी करता रहे.

इन सारे अनुभवों से गुजरने के बाद यदि वह अपने आपको योग्य और सक्षम समझे तो फिर किसी योग्य गुरू के परामर्श से संन्यास-आश्रम की दीक्षा ले.

इस प्रकार हम देखतेहैं कि ब्रहमचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम का विधान तो सबके लिए बताया गया है लेकिन संन्यास- आश्रम का विधान सबके लिए नहीं है- यह केवल सुयोग्य और दृढ व्यक्तियों के लिए है.

यह इसलिए कि हिंदू फलसफे के अनुसार संन्यासी पर बडी जिम्मेदारी है समाज को रास्ता दिखाने की. संन्यास लेने वाला मनुष्य अपना पहला नाम या परिवार के साथ जुडी हुई अपनी आयडेंटिटी को छोड देता है- फिर वह न किसी का पिता है न पुत्र, न किसी की माता है ना बहन ना पत्नी. इसका प्रतीक है मुंडन. यहां उसका व्यक्तिगत जीवन समाप्त हो जाता है और सामाजिक जीवन प्रांरभ हो जाता है. फिर वह केवल समाज के लिए ही जीता है- वह भी समाज से न्यूनतम दान को स्वीकार कर.

संन्यासी के लिए भिक्षा का विधान है- ताकि उसे यह अहसास हर पल रहे कि वह समाज के दिये पर जी रहा है और इस दान को उसे चुकाना भी है बदले में समाज को ज्ञानदान देकर और सही रास्ता समझाकर. उसके लिए विधान है कि वह पांच से अधिक घरों में भिक्षा न मांगे. जूठा या बासी अन्न भिक्षा में स्वीकार न करें इस नियम में कभी भूखा रहना पडे तो रह ले. एक गांव में तीन दिन से अधिक दिन तक न रहे. वह केसरिया वस्त्र धारण करे और अपने सामान में केवल एक कमंडल रखे. यह कमंडल या तूंबा जंगली लाल कद्दू का बना होता है जिसमें दो खाने बने रहते हैं. निचले खाने में वह अपने लिए एक दूसरा वस्त्र रख सकता है. ऊपर के खाने में भिक्षा का अन्न या पानी. इसके अलावा वह और कुछ संग्रह नहीं कर सकता है.

संन्यासी केसरिया रंग का वस्त्र ही धारणा कर सकता है. इसका कारण है कि केसरिया रंग को त्याग, तपस्या, उत्सर्ग, बलिदान, वीरता, ज्ञान और संतोष का रंग माना गया है. मानस शास्त्र में रंगों का मन पर पडने वाला प्रभाव जिस किसी ने पढा होगा या प्रयोग किये होंगे वही बता सकता है कि केसरिया रंग इन गुणों के साथ कैसे जुड गया. भारत में जो सब कुछ त्यागकर संन्यासी बन गया हो वह केसरिया वस्त्र पहनता है या फिर जो वीरमरण के लिए सारे मोह को त्याग चुका है वह केसरिया वस्त्र पहनता है. साथ ही जो लंबी तीर्थयात्रा पर जा रहा है वह केसरिया पताका लिए चलता है. क्योंकि केसरिया रंग सांसारिक मोह से लग हटने का प्रतीक तो है, लेकिन समाज से दूर हटने का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि अपने आप को समाज के लिए उपलब्ध और उत्सर्ग तभी संभव है जब मनुष्य के पास संतोष हो. एक संन्यासी संसार को तभी लीडरशीप दे सकता है यदि वह ज्ञानी हो, अपने काम में कार्यकुशल और प्रवीण रह चुका हो, जिसने अपने ज्ञान को खूब घिस कर और तपा कर सोने की तरह खरा कर लिया हो. अब ऐसे संन्यासी को देखकर कोई आलसी आदमी सोच सकता है कि मैं भी केसरिया वस्त्र पहन कर भिक्षा मांगता चलूं तो बिना काम किये ही मेरा पेट भर सकता है. लेकिन केवल केसरिया वस्त्र पहन कर एक आलसी आदमी एक ज्ञानी संन्यासी के समकक्ष नहीं हो सकता है.

यही अंतर है संतोष या अलमस्ती के प्रसंग में भी .एक निखटटू और एवरेज अफसर भी कहा सकता है कि भई मैं तो खुश हूं, संतुष्ट हूं, मुझे कोई ज्यादा काम नहीं करना पडता है और ज्यादा सिर भी नहीं खपाना पडता है. पर उसकी संतुष्टि उसके आलस के कारण उपजी है और वह संतुष्टि किसी गुण का प्रतिक नही है, उससे वह अफसर भला जो महत्वाकांक्षी है और अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मेहनत और अच्छा काम करने को तत्पर है. लेकीन उससे भी अच्छा वह अधिकारी है जो कर्तव्यतत्पर होते हुए भी अपने आप में संतुष्ट है, परिपूर्ण है,अलमस्त है, इस या उस पोस्ट के पीछे नहीं दौडता. क्योंकी वह जानता है कि उसका बडप्पन उसके बडप्पन उसके पोस्ट पर निर्भर नहीं है. वह तो उसका अपना अंदरूनी बडप्पन है. क्योंकी उसमें अपना काम बेहतर से बेहतर कर दिखाने की खुद की धनु है. इस बेहतर काम को कर निभाने का आनंद और उससे उपजी संतुष्टि उसके पास है. बेहतर काम से एक अलग तरह का अहंकार कार्यकुशलता के लिए घातक भी हो सकता है यह अंहकार भी महत्वाकांक्षा का दूसरा रूप है. लेकिन महत्वाकांक्षा और अहंकार से ऊपर उठकर जिसने कार्यकुशलता से संतोष की अवस्था प्राप्त की है उसकी अवस्था उस ज्ञानी- संन्यासी जैसी है. इस प्रकार हम देखते हैं कि सच्चा संतोष और आनंद तो कार्यकुशलता के कारण ही उपज सकता है लेकिन मूढ व्यक्ति अपने आलस को ही अपनी अलमस्ती बतायेगा, उसे संतोष का नाम देगा, उसमें और कार्यकुशलता से उत्पन्न होने वाले संतोष में फर्क कर सकें यह समझ हमारे अंदर होनी चाहिए.

और धर्म भी क्या है धारयति सः धर्मः जो हमें अपने आपको धारण करने की, अर्थात् अपनी अंदरूनी और साथ ही समाज की भी आंतरिक हार्मोनी को बनाने रखने की सामर्थ्य देता है- वही धर्म है वह धर्म कार्यकुशलता के बगैर भी नहीं आता लेकिन संतोष के बगैर भी नहीं आता. कार्यकुशल व्यक्ति का महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक है. इसलिए पश्चिमी मैंनेजमेंट के गुरू आज चीख- चीखकर कहते हैं- महत्वाकांक्षी बनो- क्योंकि महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए ही सही- तुम्हें अपने काम में कुशलता लानी होगी. लेकिन कार्यकुशलता और महत्वाकांक्षा के बाद तीसरी सीढी है संतोष जिसके बगैरे व्यक्ति या समाज की हार्मोनी अधिक दिन तक नहीं टिकेगी. इसीलीए चाहिए संन्यासी वृत्ति भी. यहीं भारतीय मानसिकता पश्चिमी मैनेजमेंट से अलग हो जाती है.

(खुद यदि संभव हो तो वन में जाकर रहे- इसीलिए आयु की इस अवस्था का नाम है वानप्रस्थ आश्रम- अर्थात् वन की ओर, प्रकृति की ओर, प्रस्थान करने की अवस्था. वहां वन में वह अपनी जरूरतों को कम- से- कम करता रहे. साथ ही कुछ और ज्ञानार्जन भी करता रहे. इन सारे अनुभवों से गुजरने के बाद यदि वह अपने आपको योग्य और सक्षम समझे तो फिर किसी योग्य गुरू के परामर्श से संन्यास- आश्रम की दीक्षा ले. इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम का विधान तो सबके लिए बताया गया है लेकिन संन्यास आश्रम का विधान सबके लिए नहीं है- यह केवल सुयोग्य और दृढ व्यक्तियों के लिए है.)