प्रस्तावना
-- डॉ. अरूण गद्रेके उपन्यासके भाषान्तर की--
हजारों वर्षों पहले जब आदिमानव गुफा रहता था, जब उसने केवल आग जलाना और झुण्ड में रहना सीखा था लेकिन गिनती, खेती, वस्त्र, चित्रकला, जख्मी का इलाज आदि से अभी कोसों दूर था, उस जमाने के मानव से आज के मानव तक का उन्ननय का इतिहास क्या है?
प्रसिद्ध मानववंश शास्त्रज्ञ डॉ मार्गरेट मीड अपने एक लेख में कहती हैं-"A healed femur is the first sign of human civilization"
डॉ मीड कहती हैं, उत्खननों में मानवों की कई हड्डियाँ मिली थीं, जो टूटी हुई थीं। ये वे लोग थे जिनकी हड्डियाँ जानवर के आक्रमण या अन्य दुर्घटना में टूटीं और इस प्रकार असहाय, रूद्धगति बना मनुष्य मौत का भक्ष्य हो गया। कई हड्डियाँ मिली जो अपने प्राकृतिक रूप में थी- अखण्डित। ये वे मनुष्य थे जो हड्डी टूटकर, लाचार होकर नही, वरन् अन्य कारणों से मरे थे। लेकिन कई सौ उत्खननों में, कई हजार हड्डियों में कभी एक हड्डी ऐसी मिली, जो टूटकर फिर जुड़ी हुई थी। यह तभी संभव था जब लाचार बने उस आदमी को किसी दूसरे आदमी ने चार छः महीने सहारा दिया हो, खाना दिया हो, जिलाया हो। जब सबसे पहली बार ऐसा सहारा देने का विचार मनुष्य के मन में आया, वहाँ से मानवी संस्कृती की, करूणा की संस्कृति की, एक दूसरे की कदर करने की संस्कृती की शुरूआत हुई। जाँघ की टूटकर जुड़ी हुई हड्डी साक्षी है उस मनुष्य के अस्तित्व की जिसमें करूणा की धारा, और उसे निभाने की सक्षमता पहली बार फूटी।
डॉ. मीड के लेख को पढने के बाद पेशे से डॉक्टर श्री अरूण गद्रे को लगा कि यह एक बड़े ही मार्मिक संक्रमण काल का चिह्न है। कैसा रहा होगा वह मुनष्य, वह हीरो, जिसके ह्रदय में पहली बार यह दोस्ती और सहारे का झरना फूटा होगा।
डॉ. गद्रे ने इस विषय पर डॉ. पॉल ब्रॅण्डट् से चर्चा की। डॉ. ब्रॅण्डट् तीस वर्ष तक वेल्लोर के ख्रिश्चन मेडिकल कॉलेज में कुष्ठरोगियों के बीच रहे और उनके गले हुए हाथों पर सर्जरी की पद्धति विकसित करने के लिए प्रख्यात हैं। एक पत्र में ब्रॅण्डट् ने गद्रे को ऐसी ही दूसरी कहानी लिखी है- 'कोपेनहेगेन की एक म्यूजियम में छः सौ मानवी कंकाल जतन कर रखे गए हैं। ये सारे कंकाल उन कुष्ठरोगियों के हैं जिन्हें पाँच सौ वर्ष पूर्व एक निर्जन द्वीप पर मरने के लिए छोड़ दिया गया था। इन सभी कंकालों के पैर की हड्डियाँ रोग के कारण घिसी हुई हैं। लेकिन इनमें कुछ कंकाल अलग रखे गए हैं क्योंकि उनकी पाँव की हड्डियों पर बाद में भर जाने के चिहन स्पष्ट हैं। इसलिए कि कुछ मिशनरी उस द्वीप पर गए थे और जितना बन सका उन कुष्ठ रोगियों की सेवा की। इसी से कुछ रोगियों के पैर की घिसी हड्डियाँ भर गई। वे अलग रखे गए कंकाल साक्षी हैं उन मिशनरियों की सेवा के।
डॉ. ब्रॅण्डट् से विचार विनिमय के पश्चात डॉ. गद्रे ने जिन संदर्भ ग्रंथों को पठन और मनन किया वे थे- दि ऍसेन्ट ऑफ मॅन, कॅम्ब्रीज फील्ड गाइड टू प्रीहिस्टोरिक लाइफ, दि डॉन ऑफ ऍनिमल लाइफ, इमर्जन्स ऑफ मॅन, तथा गाइड टू फॉसिल मॅन।
इन सभी के मंथन और डॉ. गद्रे की अपनी साहित्यिक प्रतिभा से एक उपन्यास के चरित्र तैयार हुए वे थे फेंगाडया, बापजी और बाई के। उन्हीं से ताना बाना बुना गया टोलियों और बस्तीयों के बनने, उजड़ने और आगे बढ़ने का- मानवी संस्कृति के विकास का। वही उतरा है मराठी उपन्यास 'एक होता फेंगाडया' में।
मराठी में यह उपन्यास १९९५ में प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष इसकी बडी जीवट वाली वृद्ध प्रकाशिका श्रीमती देशमुख से मैं मिली थी। तब तक मैं सिद्धहस्त अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध हो गई थी क्योंकि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से कई कहानियाँ मैंने मराठी में अनूदित की थीं और उसी कथा संग्रह का प्रकाशन देशमुख कंपनी करने वाली थी। चूँकि मेरी चुनी हुई कथाओं के कथानक नितान्त विभिन्न रंग-ढंग-इतिहास-भूगोल के थे, तो उसे मेरी रूचि जानकर मुझे यह पुस्तक पढने के लिये कहा। अगले तीन दिनों में ही मेरे दिमाग में यह इच्छा दर्ज हो गई कि इसका हिंदी अनुवाद करना है। ऐसी ही इच्छा अन्य पांच पुस्तकों के लिये है जिनपर मैंने अभी तक काम शुरू नही किया है। ज्ञानपीठ के श्री श्रोत्रिय से एक बार मैंने फेंगाडया की चर्चा की तो उनका आग्रह शुरू हो गया कि इसका अनुवाद जल्द से जल्द किया जाये।
फेंगाडया के कथानक में एक बडी कठिनाई यह है कि यह प्रागैतिहासिक काल से जुडी हुई रचना है। मैं नही जानती की हिंदी में रांगेच राघव जी के अलावा किसी ने इस प्रकार का प्रयास किया है। यह वह काल है जब मनुष्य ने खेती नही सीखी- वस्त्र पहनना नही सीखा- यहाँ तक कि पेड की छाल लपेटना भी नही। केवल बांस की खपच्चियों से बने कुटीर का उपयोग सीखा है। आग का उपयोग सीखा है। फिर भी कंदरा और गुफा पूरी तरह से नही छूटी है। भाषा विकसित नही हुई है। फिर भी मनुष्य विकसित हो रहा है- उसमें एक 'हिरोइक स्पिरिट' है। नया सीखने की ललक है। कलाकार की प्रतिभा है, दार्शनिक का तत्व-चिंतन है।
इसी लिये उपन्यास में एक हीरो या एक हीरोईन नही है- कई हैं। एक फेंगाडया है जिसमें शक्ति-सामर्थ्य है, दूरदृष्टि है, करूणा है और अपने विश्र्वास के प्रति अडिगता है। एक पंगुल्या है जो खोजी है- वैज्ञानिक है, गणितज्ञ है। एक पायडया है जो कथाकार है, कलाकार है और संगीतकार है। एक बाई है जो नेता है, दिशादर्शक है, अनुशासन और शासन करना जानती है। एक चांदवी है जो किशोर बयीन है और हर बार सवाल उठा सकती है- क्यों? एक कोमल है जो अपनी समझदारी से सबके लिये आधार बनकर डटी है।
और एक बापजी है- जो सत्ता के खेल को अच्छी तरह समझ सकता है, खेल सकता है और अपनी विध्वंसक आकांक्षा के लिये मकड जाल बुन सकता है। उस जाल को तोडकर- समाज को विकास के अगले सोपान पर ले जाने वाला उपन्यास है- फेंगाडया।
भाषा- भले ही उपन्यास का प्रकाशन इक्कीसवीं सदी का हो, लेकिन उसका घटनाकाल यदि दस पंद्रह हजार वर्ष पुराना है तो उसकी भाषा कैसी होगी? इसी लिये उपन्यास में जरूरत पडी कि इसका शब्द-भंडार सीमित रखा जाय, सरल रख्खा जाय- और फिर भी अभिव्यक्ति पूरी हो। हाँ, पठन को नादमय, और लयात्मक बनाने के लिये कुछ शब्दों को खास तौर पर रखा गया है जैसे ऋतुचक्र, मरण, मृतात्मा, सूर्यदेव।
भाषा- उस काल में व्यक्तियों का नाम देने का चलन तो था (बिना नामों में उपन्यास कैसे
बने?) लेकिन उसका तरीका क्या हो सकता है? तो सबसे सरल है कि व्यक्ति की देहयाष्टि के अनुरूप नाम दिया जाय। और मराठी में यह चलन भी है कि किसी नाम को आदरपत्र बनाना हो तो अन्त में 'बा' लगे और उसे मित्रता या छोटेपन के भाव से जोडना हो तो 'या' लगे। इसी लिये कथानक के पात्रों के नाम बने- फेंगाडया- जो पांवों को तिरछा फेंक कर चलता है, पंगुल्या- जो पंगु है। वाघोबा- अर्थात् वाघ का भयकारी रूप।
आयुर्वेद की कई मान्यताओं का प्रयोग भी इस उपन्यास में बखूबी हुआ है। मसलन, महाराष्ट्र में अब भी माना जाता है कि कुछ बच्चे जिनके जन्म के समय पैर पहले बाहर निकलते हैं और सिर बाद में, उनमें कुछ विशेषता होती है। उन्हें पायडया कहा जाता है। ग्रामीण भागों में अब भी माना जाता है कि किसी औरत का बच्चा आसानी से पेट से न निकल रहा हो और कोई पायडया उसके पेट पर हल्की सी लात मारे तो बच्चे का जन्म तुरंत हो जाता है। सारे पायडया प्रायः कलाकार होते हैं। यह भी माना जाता है कि उन्हें जमीन के नीचे पानी होने का संकेत मिल जाता है- और धन के होने का भी। जाहिर है कि ये मान्यताएँ हजारों वर्षों में बनी हैं। लेखक ने इनका अच्छा उपयोग उपन्यास में किया है।
उपन्यास में सारे भाव, सारे रसों की सृष्टि आखिरकार शब्दों से ही होती है। और इस उपन्यास का शब्द भांडार है सीमित। इसी लिये कई ध्वन्यात्मक शब्दों को मैंने मराठी से ज्यों का त्यों लिया है- मराठी मूलतः एक कठिन स्वरोच्चारों की भाषा है जबकि हिंदी मृदु स्वरोच्चारों की भाषा है। मराठी का शब्द भांडार भी अधिक विस्तृत है। अतएव कुछ शब्दों का चयन मराठी से करना पडा। पहली बार उन्हें पढना थोडा अटपटा जरूर लगता है, लेकिन दूसरी तीसरी बार पढते पढते उनके अर्थ, उपयोगिता और सटीकता भी सामने आने लगते हैं। ये शब्द हिंदी में इतने आसानी से घुल मिल जाते हैं कि उनका अटपटापन समाप्त हो जाता है।
अनुवाद पूरा कर लेने के बाद श्रोत्रिय जी ने सुझाया कि इस पर श्री रामकुमार 'कृषक' से सलाह ली जाय, उधर मैंने अपने तईं श्री दिनेश शुक्ल जी से भी राय सलाह कर ली थी। इन दोनोंके सुझावों ने उपन्यास के अनुवाद को निखारा है।
एक तो प्रागैतिहास कालीन उपन्यास- तिस पर एक खास ऍन्थ्रोपोलॉजिकल तथ्य को आधार बनाकर लिखा हुआ- फिर भी मुझे विश्वास है कि हिंदी के प्रबुद्ध पाठक इसका स्वागत करेंगे, क्योंकि किसी पाठक के मन में जिज्ञासा और नवीनता के लिये जो अकुलाहट होती है- यह उपन्यास उसका समाधान करता है।
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शनिवार, 4 अप्रैल 2009
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