हवाला घपले के मुद्दे -- २
भ्रष्टाचार और घोटाले की रो.ज नई नई कहानी सामने आ रही है । जनता इन कहानियों से सिर्फ परेशान ही नहीं है, बल्कि यह सोचने लगी है कि यह सब कैसे और क्यों होता है तथा इससे निजात पाने का कोई उपाय है या नहीं। लेखक ने उन कारणों पर विस्तार से विचार किया है जिनकी वजह से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना मुश्किल होता है । सबसे बड़ी बाधा यह है कि किसी आरोप को अदालत में साबित कैसे किया जाए । --संपादक
- लीना मेहेंदले -
आज यदि जनता सोचती है कि सी. बी. आई. किसी बड़े व्यक्ति की पूरी जाँच नहीं करती तो फिर इसकी मांग भी जनता को ही करनी पड़ेगी और यह भी संहिता बनानी होगी कि जाँच की लेखाजोखा जल्दी से जल्दी और लगातार जनता के सामने आता रहे । इस जाँच को बलात्कार के समकक्ष नहीं माना जाना चाहिए और इसमें गुप्त रूप से सुनवाई की कोई गुजाइश नहीं होनी चाहिए । इसके लिए यह भी आवश्यक है कि जाँच करने वाली एजेंसी मल्टी-डिसिप्लिनरी हो । आज हालत यह है कि बाहरी आदमी चाहे लाख सिर पटक ले लेकिन जाँच पड़ताल का हक केवल पुलिस विभाग को और इस विभाग की वर्दी की सख्ती इतनी अधिक है कि कई बार अच्छे-अच्छे और ईमानदार पुलिस अफसर छटपटाकर रह जाते हैं और गुनहगारों के विरूद्ध जाँच का काम उन्हें रोक देना पड़ता है ।
बजट और घपला
हमारे आई. पी. सी. और सी. आर. पी. सी. में आर्थिक गुनाहों के संदर्भ में जो भी प्रणाली है वह बड़ी ढीली ढाली है । सोचने की बात है कि जिस देश का बजट ४०,००० करोड़ रूपए का है और जहाँ घपले भी उसी अनुपात में होते है यानी ३५०० करोड़ का घपला, १००० करोड़ का घपला आदि, जहाँ एक घपले का बजट हमारे राष्ट्रीय बजट, जितना बड़ा होता है वहाँ भी हम आर्थिक दुर्व्यवहार और घपले के गुनहगारों को ऐसी ही सजा दे सकते हैं जो नहीं के बराबर हैं । घर में सेंध लगाकर ट्रांजिस्टर सैट चुराने की सजा अधिक है और देश के लाखों रुपये का इनकम टैक्स डकार जाने की सजा उससे कम है । उस पर तुर्रा यह कि आर्थिक दुर्व्यवहार के केसों में सजा आज तक बहुत ही कम मिली है । आज भी हमारे देश में कंपनियाँ है जो गर्व से छपवाती है कि उनका लाभ इतने हजार करोड़ का है और आयकर भुगतान नहीं के बराबर । कुछ लोगों ने सरकार और इसके नीति नियमों को इस कदर काबू में रखा है कि लाभ तो हो जाता है और टैक्स भी नहीं चुकाना पड़ता है । तो फिर इसी के पीछे लोग उस कंपनी के कुछ और ज्यादा शेयर्स खरीद लेते है। कोई यह नहीं सोचता कि यह गलत हो रहा है। हर कोई यह सोचता हैं कि जब बाकी शेयर होल्ङर इसी ट्रिक के कारण अच्छा डिविडेंड ले रहे है और कुछ शेयर मैं भी लूँ । उधर शेयर घोटालों में भी तीन चार हजार करोड़ का स्कैम हो गया, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री को भी एक करोड़ रुपये रिश्र्वत देने का दावा किया गया और फिर भी न उस केस की कोई जाँच, न सुनवाई और न केस आगे बढ़ा ।
खैर, तो मुद्दा यह है कि हमारे देश में आर्थिक गुनाहों की सजा कोई अघिक नहीं होती । कल मान लो हवाला घपला साबित हो भी गया और कोर्ट में गुनाह भी साबित हो गया तो प्रस्तावित सजा क्या होगी ? यह सवाल लोगों को आज ही पूछना चाहिए कि आई. पी. सी. के किस सेक्शन में केस दर्ज हो रहा है और उसमें अघिकतम सजा क्या हो सकती है । एक महत्वपूर्ण मुद्दा और भी है ।
इस मामले के कागजात तो १९९० के आसपास से ही धीरे- धीरे इकट्ठे हो रहे हैं । अर्थात् प्रधानमंत्री को उन नामों की जानकारी भी जो जैन की लिस्ट में थे और जिनके विरूद्ध सी. बी. आई. कुछ और जानकारी भी जुटा पाई थी जैसे उनकी संपत्त्िा का ब्यौरा । यह सारे कागज प्रधानमंञी ने अवश्य देखें होंगे । फिर भी उन लोगों को मंञिमंडल में शामिल कर लिया । क्या जनता को यह जानने का हक नहीं कि ऐसा क्यों किया गया ? जनता तो चाहती है कि हर पक्ष में कम से कम पक्ष का हाईकमान ऐसा व्यक्तित्व हो जो नीति अनीति में फर्क करता है, और अपने पक्ष में केवल नीतिमान लोगों को ही लेता है । जनता चाहती तो है, लेकिन फिर आग्रह क्यों नहीं करती? पक्ष नेताओं से प्रश्न पूछ पाने का हक क्यों नहीं करती ? पक्ष नेताओं से प्रश्न पूछ पाने का हक क्यों नहीं मांगती ?
लोकतंत्र के स्तभ्भ
लोकशाही के चार स्तभ्भ होते है - कानून बनाने वाली संसद, देश चलाने वाली सरकार, जिससे मंञिमंडल और नौकरशाही शामिल है, न्याय व्यवस्था और पञकारिता। कानून बनाने वालों ने भी कभी इस बात को जरूरी नहीं समझा कि चुनावी कानूनों में सुधार किए जांए ताकि कौन किससे रुपये ले रहा है यह किताब जनता के सामने खुली हो । यह प्रश्न केवल चुनावी कानूनों का ही नहीं । धीरे - धीरे हमारे देश का कानून ऐसे बनने लगे है जिससे जानकारी का मूलभूत हक लोगों से छीना जा रहा है जो कि वास्तव में लोकतंञ की जान है । वही बात है सरकार की । उनके नियम भी वैसे ही बने है । उनके पास तो है समर्थन के लिए दो अन्य हथियार भी है - एक है गोपनीयता का और दूसरा सुरक्षा का । इन दोनों तर्कां को कई बार हास्यास्पद ढंग तक खींचकर सरकारी गैर-व्यवहार करने वाले बच निकलते हैं । अक्सर न्यायालय भी इन मुद्दों के कवच में लिपटी फ़ाइलों को छेङने से इंकार ही करते हैं ।
लेकिन जनता के लिए तिनके का सहारा इस बात से है कि कभी -कोई न्यायालय, कभी कोई पञकार, कभी कोई नौकरशाह, कभी कोई सामाजिक कार्यकर्ता इस बात को लेकर अड़ जाता है कि रूको, जनता का अपना हक जनता को वापिस सौंप दो । यह जब तक नहीं हो जाता, मैं लड़ता रहूंगा । यह लड़ाई धीरे धीरे जोर पकड़ती है । उठाया हुआ मुद्दा अपने आप में चाहे सही हो या गलत, लेकिन यदि उसमें यह मांग हो कि जनता को अमुक बात की जानकारी पाने का हक है, तो धीरे धीरे उस हक की आवा.ज उठाने वाले के पीछे लोग जमा हो ही जाते हैं । दुख इस बात का है कि आज तक कोई ऐसा ठोस केस सामने नहीं आया जिसमें समय रहते और पूरी तरह से
जनता को यह अधिकार मिल पाया हो और जो जानकारी मिली उसके चलते जनता ने ही देश को किसी गहन संकट से या प्रश्न से बचा लिया । अक्सर यह देखा गया है कि यह जानकारी सामने
आने में भी कई वर्ष लग जाते है । जनता इसके लिए अधिक सतर्क और अधिक आग्रही क्यों नहीं जबकि इसके अच्छे नतीजे को जनता देख चुकी है ? इस सिलसिले में एक छोटा उदाहरण पेश है। आजकल कई बड़े स्टेशनों पर रिजर्वेशन चार्ट लगे होते है कि कौन सी तिथि के लिए कौन सी गाड़ी में कितने स्थान उपलब्ध है । दूसरा नमूना भी है महाराष्ट्र में इंजीनियरिंग कॉलेज के नामांकन के नियम पांच - छह महीने पहले जाहिर किए जाते है, सभी अर्जी देने वाले विद्यार्थियों की लिस्ट चिपकाई जाती है और खुलेआम सब विद्यार्थियों के समक्ष मेधावी छाञों की लिस्ट के मुताबिक सीटों बंटवारा किया जाता है । यह कदम भी महाराष्ट्र शासन ने उठाया तो न्यायालय के आदेश से ही ।
लेकिन इससे विद्यार्थियों में अन्याय की भावना खत्म हो गई और न्यायालय में इस मुद्दे पर दाखिल होने वाली केस भी कम हो गए ।
कहने का अर्थ यह है कि इस प्रकार का कानून बनाने से जनता की सुविधा और जानकारी का हक सुरक्षित रहता है और किन कानूनों से नहीं, यह समझने की शक्ति और जनता को केंद्र बनाकर कानून बनाने कि सामर्थ्य दोनों ही हमारे शासनकर्ता भूल से गए है । इसमें यदि बड़ा हिस्सा राजनीतिक लोगों का है तो छोटा हिस्सा नौकरशाही का भी है । और कोई आश्श्रर्य नहीं कि हवाला कांड में कुछ अफ़सरों के नाम भी शामिल हों ।
आर्थिक अपराघियों के लिए कड़ी सजा हो
अब जो महत्वपूर्ण सुधार देश के नेतागण, नौकरशाही और न्यायपंडितों को तुरंत अपने हाथ में लेना चाहिए वह दो-तीन प्रकार का है । एक तो आर्थिक गुनहगारों की सजा कड़ी से कड़ी करने का सुधार । साथ ही आर्थिक गुनाहों की अच्छी खासी विवेचना । दूसरे कोर्ट में सुधार ताकि वकीलों पर यह बंधन हो को वे कोर्ट को सच्चाई प्रस्थापित करने में मदद करें । यह सुधार किस प्रकार हो यह अमरीका में भी एक विवादास्पद मुद्दा है जबकि हम लोग तो उसकी तुलना में कई गुना पिछड़े हैं । अधिकांश वकीलों की दलील है - हमारी व्यावसायिक नैतिकता कहती है कि हमें अपने मुवक्किल को बचाना है, चाहे उसने कितना ही बड़ा गुनाह क्यों न किया हो । साथ ही वकील यह भी मानते है कि मुवक्किल को बचाने के लिए यदि झूठ का सहारा लेना पड़े तो बेशक लिया जाना चाहिए । व्यावसायिक नैतिकता की यह एक ऐसी दुहाई है जो मेरी और सामान्य जनता की समझ से परे है । आखिर वकील भी समाज में रहता है, समाज का अंग है और हमारे आसपास का समाज सच्चाई पर चलने वाला हो - इसके प्रति क्या वकीलों की कोई जिम्मेदारी नहीं ? आज वकीलों के अपनाए तीन हथकंडे ऐसे है जिनसे हमारी न्याय व्यवस्था अन्यायपरक हो रही है और लोकतंञ प्रणाली खोखली हो रही है । इसमें पहला हथकंडा है झूठ का सहारा लेना, दूसरा है कि फालतू मुद्दे निकाल कर कोर्ट का समय बर्बाद करना । तीसरा हथकंड़ा है अपने विरोधी गवाहों का चरिञ हनन करने का पूरा-पूरा प्रयास करना । यह तीनों ही कारनामे व्यावसायिक नैतिकता के नाम पर किए जाते हैं । लेकिन सवाल यह है कि जब वकील हमारे समाज का ही एक अंग है तो
क्या यह उनकी भी जिम्मेदारी नहीं कि समाज में सच्चाई और शीघ्र गति से न्याय प्रस्थापित करने में और चरिञ हनन के दुर्गुण का खात्मा करने में उनका भी योगदान हो ? फिर भी आज तक ऐसा
नहीं देखा गया कि किसी कोर्ट ने किसी वकील के इन तीन तरह के हथंकंड़ो के प्रति कड़ी कार्रवाई की है । शायद कोर्ट भी मानती है कि वकील यदि यह सब करते हैं तो कोई गलती नहीं ।
आज जनमानस में हवाला कांड से एक आशा सी बंध गई है । एक तीर की तरह उच्चतम न्यायालय का आदेश निकला और हवाला जांच पर पड़े हुए मोटे पर्दे को चीरता चला गया । सो लोगों को यह विश्र्वास हो गया कि भले ही कानून बनाने वाली व्यवस्था हवाला जैसे कांडों का पर्दाफाश नहीं कर पाई हो लेकिन अभी तक न्याय व्यवस्था और पञकारिता के खंभे तो बचे हुए हैं, लोकतंञ को सुरक्षित रखने के लिए लेकिन इस खुशफहमी में फंसी जनता को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि हमारा सारा हौसला ऐसी इक्का-दुक्का घटना पर टिका होगा तो यह बड़ी चेतावनी हैं और जनता को अपने हक़ों के लिए जल्दी ही चेतना होगा । हम कैसे भुला दें कि अभी तक शेयर स्कैम, नकली शेयर बिक्री बोफोर्स आदि ऐसे कई कांड बचे है जिसमें गुनाहों की जांच या कोर्ट में पेशी या सुनवाई या सजा की कार्रवाई पूरी नहीं हुई है । अर्थात् कोर्ट भी हर जगह, हर केस में कारगर नहीं हो सकता है । इसके लिए जनता को ही चेतना है और माँग करनी है कि हमारे देश में जांच की कार्रवाई अधिक से अधिक पारदर्शी हो ।
----------------------------------------------------------------------
मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010
21 दिल्ली में महिला सुरक्षा--पूरा है
दिल्ली में महिला सुरक्षा
-- लीना मेहेंदले
पिछले एक महीने में दिल्ली शर्म में डूबी हुई है। बलात्कार की घटनाओं से सहम जाना, उनकी निंदा करना आदि अपनी जगहों पर हैं। लेकिन जब महिला विरोधी अपराधियों के हाथ विदेशी दूतावास की महिलाओं तक पहुँचते हैं तो पूरे राष्ट्र को शर्म में डूब जाना पड़ता है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के सुरक्षाकर्मियों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार की शर्म से दिल्लीवासी अभी उभरे भी नहीं थे कि संसार भर के दूसरे देशों के आगे भी शर्म उठानी पडी। फिर एक बार जोर शोर से चर्चा हुई कि दिल्ली कितनी सुरक्षित है। कई अखबारों ने छापना आरंभ कर दिया कि यह शहर महिलाओं के लिये सुरक्षित नही है। इसी विषय को सिद्ध करने के लिए कई चर्चाएँ आयोजित हुईं।
लेकिन अभी तक किसी ने ऐसी चर्चा नही आयोजित की कि दिल्ली में महिलाएँ किस प्रकार सुरक्षित रह सकती हैं और न यही चर्चा सुनने में आई कि दिल्ली को महिलाओं के लिये सुरक्षित कैसे बनाया जाय। गौर से देखें तो ये दोनों प्रश्न अलग अलग हैं। महिलाएँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? कइयों की मान्यता है कि यह प्रश्न बड़ा आसान है। इसका उत्तर बड़ा सीधा सादा और जाना माना है। महिलाओं को सुरक्षित रखना है, उन्हें बलात्कार की जघन्यता से बचाना है, तो उन्हें घर के अंदर रखो- बाहर मत निकलने दो।
कितना सरल, सुंदर, सुलभ उपाय है! औरत घर के अंदर कितनी अच्छी लगती है- कितनी सुरक्षित रहती है। उनसे सड़क पर, काम के लिए, अकेले, मत निकलने दो- खासकर शाम के बाद तो बिल्कुल ही नही। क्या जरूरत है औरतों से बाहरी काम करवाने की। वे घर के अंदर रहें, घर के कामकाज को देखें। गृहलक्ष्मी ही रहें।
लेकिन क्या घर के अंदर वे पूरी सुरक्षित हैं? शायद नहीं- आजकल रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की घटनाएँ भी तेजी से सामने आ रही हैं। तो अब क्या किया जाए? इसका भी सरल एवं सुंदर उत्तर है। उन्हें बाहरी कमरों में मत आने दो। रसोईघर एवं शयनघर के आगे मत आने दो। उन्हें पडदे, घूंघट या बुरके में रखो। ताकि घर के अंदर भी वे आदमियों के सामने न पडें। औरत को असूर्यम्पश्या होना चाहिए- वह जिसे सूरज ने भी न देखा हो। वह उजाले में कभी नही आएगी तो यह खतरा कम हो जायगा कि कोई उसे देखेगा और उसे अपनी हवस का शिकार बनाएगा। औरत की जगह मुकर्रर कर दो- घर के किसी अंदरूनी कमरे के एक अंधेरे कोने में- फिर वे सुरक्षित रहेगी।
लेकिन क्या फिर भी वह पूरी तरह सुरक्षित रहेगी? शायद नही। आखिर अंदरूनी कमरे के अंधेरे कोने में भी कोई न कोई उसे देख ही लेगा- उस पर बलात्कार कर ही लेगा। इससे भी सुरक्षित जगह चाहिए।
और ऐसी जगह है भी। अति सुरक्षित जगह। जहाँ मौत के आने तक हर औरत अत्यंत सुरक्षित रह सकती है। वह जगह है गर्भ के अन्दर। वहाँ बलात्कार का कोई डर नही है। औरत को वहीं रहने दो- वहीं मरने दो। वहाँ से बाहर मत निकलने दो। निकलने के दिन पूरे हों, इससे पहले उसकी मौत का इंतजाम कर दो। भला हो डॉक्टर कम्यूनिटी का। कानून-व्यवस्था की रक्षा में उनका कितना बड़ा योगदान हो सकता है। कर दें वे स्त्री-भ्रूण हत्या। न होगी औरत, न होंगे बलात्कार। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
यह सब पढ़कर क्या ऐसा नही लगता कि यह गलत निष्कर्ष है और इसके पीछे जरूर कोई गलती हुई है। जी हाँ। इसीलिए वह दूसरा प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि दिल्ली को किस तरह महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जा सकता है। सो सवाल है दिल्ली को सुधारने का न कि महिलाओं को घर के अंदर बंद रखने का। सवाल है दिल्ली को अधिक सौहार्दपूर्ण बनाने का और साथ ही अपराधियों को तत्परता से पकड़ने और दंड देने का। आज की दिल्ली औरतों के घूमने-फिरने या घर से बाहर निकलने के लिए माकूल ढंग से नही बनी है।
हम साऊथ दिल्ली को ही लें। यह एक खूबसूरती से प्लान किया हुआ इलाका है जिसमें चौडी सडकें हैं, पार्क हैं, शिक्षा-संस्थाएँ हैं, फ्लाई ओवर हैं। इसी इलाके में सरकारी दफ्तर हैं- ढेर सारे दफ्तर- बड़े-बड़े ओहदों वाले दफ्तर- जिनमें राष्ट्रपति भवन, नार्थ व साऊथ ब्लाक, तमाम मंत्रालय, विदेशी दूतावास, राज्यों के निवास इत्यादि भी हैं। इन सब की सुंदरता बनाए रखने के लिए यह खास ध्यान दिया गया है कि यहाँ रहाइशी इलाकें अधिक न हों। लोक संख्या कम हो। चीजें बेचने वालों की भीड़ न हो। और
उससे भी बड़ी बात यह कि हर घर, हर बिल्डिंग एक लम्बे चौड़े क्षेत्र में बनाई जाए जहाँ उसकी विशालता और विस्तार भी उसकी खूबसूरती का एक अंग हो।
एक आर्किटेक्ट की निगेहवानी से यह सब कुछ बिल्कुल सही है। लेकिन यही बातें हैं जो असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती हैं।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि दिल्ली को घूमने फिरने के योग्य बनाया जाय और औरतें भी घर से बाहर निकलकर बड़ी तादाद में घूमें। पैदल चलने को और साइकलिंग को बढावा दिया जाय।
पुणे या बैंगलोर शहर में कई अकेली औरतें घूमने निकल जाती हैं- किसी भी सड़क पर केवल घूमने के शौक से निकली औरतें देखी जा सकती हैं। कई परिवार और यार-दोस्तों की टोलियाँ घूमती हुई देखी जा सकती हैं। लेकिन दिल्ली में ऐसा नही दीखता। यदि दिल्ली की कॉलनीज में रहने वाले लोग एक अभियान के तौर पर अपने अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ सुबह-शाम पैदल या साइकिल पर घूमने लगें तो कैसा हो?
मुझे लगता है कि यदि दिल्ली को महिलाओं के प्रति सुरक्षित बनाना है तो चार पांच काम किए जाने चाहिए। सड़कों व पार्कों में अधिक से अधिक लोग घूमने निकलें- इसे बढावा दिया जाय। प्रभात फेरियाँ भी निकाली जा सकती हैं। दिल्ली में अच्छी साइकिलिंग का इन्तजाम किया जाय और इसे बढावा दिया जाय। महिलाओं के प्रति अपराधों को, खासकर छेड़खनी के मामलों को तत्काल दंड दिया जाय। इसके लिए मौके पर ही जुर्माने के अधिकार पुलिस को दिए जाएं। खासतौर से अभियान चलाया जाय ताकि सार्वजनिक वाहनों में होने वाले छेड़छाड़ के अपराधों को तत्काल दंडित किया जा सके। बलात्कार के अपराधी ऐसे ही नही बन जाते। अक्सर वे शुरूआत छेड़खानी से करते हैं। कई छेड़खानियाँ करने के बाद भी जब वे दंडित नही होते तो धीरे धीरे उन्हें शह मिलती जाती है और वे बड़ा अपराध करने का दुःसाहस धारण करने लगते हैं।
देशभर की पुलिस से नॅशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो ने जो आँकडे इकट्ठे किये वे बताते हैं कि सन् २००१ में दिल्ली में बलात्कार की ३८१ घटनाएँ दर्ज हुईं, किडनॅपिंग की १६२७ जबकि लैंगिक छेड़छाड़ की घटनाएँ केवल ५०२ दर्ज हुईं। ये आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली में छेड़छाड़ की घटनाओं को न ही गंभीरता से लिया जाता है और न दर्ज कराया जाता है। जब कि पूरे देश में छेड़छाड़ की करीब पैंतीस हजार घटनाएँ दर्ज हुईं- यानी दिल्ली से सत्तर गुनी अधिक, बलात्कार के अपराध में सोलह हजार यानी दिल्ली से चालीस गुनी अधिक घटनाएँ दर्ज हुईं। अतः आवश्यक है कि छेड़छाड़ की घटनाओं को हम प्रभावी ढंग से दर्ज करायें और तत्काल दंडित भी करें। यही नही, छेड़छाड़ की घटना का विरोध करने वालों की यथोचित सराहना भी होनी चाहिए।
कार से चलने वालों की सुविधा ध्यान में रखते हुए दिल्ली की सड़कों पर जगह जगह उंचे उंचे रोड डिवायडर लगा दिए गए हैं। अर्थात यदि मैं किसी रास्ते से गुजरते हुए देख भी लूँ कि परली तरफ से चलने वाली किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार हो रहा है, तब भी मैं शीघ्रता से वहाँ पहुँचकर अपराध को रोकने का कोई उपाय नही कर सकती। दिल्ली के आर्किटेक्चर की प्लानिंग में यह भी एक बड़ी कमी है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नही है।
यह भी जरूरी है कि जहाँ कहीं संगठन हैं, वहाँ उनके बड़े अधिकारी ज्यूनियर्स के कार्यकलापों का ध्यान रखें। राष्ट्रपति भवन के सुरक्षा कर्मी- या होमगार्ड के जवान या पुलिसकर्मी- जब बलात्कार जैसे मामलों में दोषी पाए जाते हैं तो पूछा जाना चाहिए कि उनके सिनियर्स क्या कर रहे थे। कई वरिष्ठ अधिकारियों का अपना वैल्यू सिस्टम ही ऐसा होता है जिससे उनके ज्यूनियर्स को जाने अनजाने लगने लगता है कि महिलाओं से दुर्व्यवहार करना ही मर्दानगी है। इस मानसिकता को बदलने के लिए सरकार को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। यदि पुलिस में अधिक संख्या में महिलाएँ आने लगें और हर स्तर पर आने लगें तो यह मानसिकता थोड़ी बदल सकती है।
महीने पहले हुई घटना के बाद भी बलात्कार और दुर्व्यवहार के अपराध थमे नही हैं। पुलिस उलझ कर रह गई है चुनावी इन्तजाम में। नेताओं के भाषण, पदयात्रा, रैलियाँ, जनसभाएँ जोरों पर हैं। किसी नेता या पार्टी ने अपने अजेंडे में नही कहा है कि दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने का कोई सोच उनके दिमाग में है। क्या दिल्ली की महिलाएँ अपने अमूल्य बोट का धौंस जमाकर उन्हें इसके लिए घेर सकती हैं?
------------------------------------------
-- लीना मेहेंदले
पिछले एक महीने में दिल्ली शर्म में डूबी हुई है। बलात्कार की घटनाओं से सहम जाना, उनकी निंदा करना आदि अपनी जगहों पर हैं। लेकिन जब महिला विरोधी अपराधियों के हाथ विदेशी दूतावास की महिलाओं तक पहुँचते हैं तो पूरे राष्ट्र को शर्म में डूब जाना पड़ता है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के सुरक्षाकर्मियों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार की शर्म से दिल्लीवासी अभी उभरे भी नहीं थे कि संसार भर के दूसरे देशों के आगे भी शर्म उठानी पडी। फिर एक बार जोर शोर से चर्चा हुई कि दिल्ली कितनी सुरक्षित है। कई अखबारों ने छापना आरंभ कर दिया कि यह शहर महिलाओं के लिये सुरक्षित नही है। इसी विषय को सिद्ध करने के लिए कई चर्चाएँ आयोजित हुईं।
लेकिन अभी तक किसी ने ऐसी चर्चा नही आयोजित की कि दिल्ली में महिलाएँ किस प्रकार सुरक्षित रह सकती हैं और न यही चर्चा सुनने में आई कि दिल्ली को महिलाओं के लिये सुरक्षित कैसे बनाया जाय। गौर से देखें तो ये दोनों प्रश्न अलग अलग हैं। महिलाएँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? कइयों की मान्यता है कि यह प्रश्न बड़ा आसान है। इसका उत्तर बड़ा सीधा सादा और जाना माना है। महिलाओं को सुरक्षित रखना है, उन्हें बलात्कार की जघन्यता से बचाना है, तो उन्हें घर के अंदर रखो- बाहर मत निकलने दो।
कितना सरल, सुंदर, सुलभ उपाय है! औरत घर के अंदर कितनी अच्छी लगती है- कितनी सुरक्षित रहती है। उनसे सड़क पर, काम के लिए, अकेले, मत निकलने दो- खासकर शाम के बाद तो बिल्कुल ही नही। क्या जरूरत है औरतों से बाहरी काम करवाने की। वे घर के अंदर रहें, घर के कामकाज को देखें। गृहलक्ष्मी ही रहें।
लेकिन क्या घर के अंदर वे पूरी सुरक्षित हैं? शायद नहीं- आजकल रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की घटनाएँ भी तेजी से सामने आ रही हैं। तो अब क्या किया जाए? इसका भी सरल एवं सुंदर उत्तर है। उन्हें बाहरी कमरों में मत आने दो। रसोईघर एवं शयनघर के आगे मत आने दो। उन्हें पडदे, घूंघट या बुरके में रखो। ताकि घर के अंदर भी वे आदमियों के सामने न पडें। औरत को असूर्यम्पश्या होना चाहिए- वह जिसे सूरज ने भी न देखा हो। वह उजाले में कभी नही आएगी तो यह खतरा कम हो जायगा कि कोई उसे देखेगा और उसे अपनी हवस का शिकार बनाएगा। औरत की जगह मुकर्रर कर दो- घर के किसी अंदरूनी कमरे के एक अंधेरे कोने में- फिर वे सुरक्षित रहेगी।
लेकिन क्या फिर भी वह पूरी तरह सुरक्षित रहेगी? शायद नही। आखिर अंदरूनी कमरे के अंधेरे कोने में भी कोई न कोई उसे देख ही लेगा- उस पर बलात्कार कर ही लेगा। इससे भी सुरक्षित जगह चाहिए।
और ऐसी जगह है भी। अति सुरक्षित जगह। जहाँ मौत के आने तक हर औरत अत्यंत सुरक्षित रह सकती है। वह जगह है गर्भ के अन्दर। वहाँ बलात्कार का कोई डर नही है। औरत को वहीं रहने दो- वहीं मरने दो। वहाँ से बाहर मत निकलने दो। निकलने के दिन पूरे हों, इससे पहले उसकी मौत का इंतजाम कर दो। भला हो डॉक्टर कम्यूनिटी का। कानून-व्यवस्था की रक्षा में उनका कितना बड़ा योगदान हो सकता है। कर दें वे स्त्री-भ्रूण हत्या। न होगी औरत, न होंगे बलात्कार। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
यह सब पढ़कर क्या ऐसा नही लगता कि यह गलत निष्कर्ष है और इसके पीछे जरूर कोई गलती हुई है। जी हाँ। इसीलिए वह दूसरा प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि दिल्ली को किस तरह महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जा सकता है। सो सवाल है दिल्ली को सुधारने का न कि महिलाओं को घर के अंदर बंद रखने का। सवाल है दिल्ली को अधिक सौहार्दपूर्ण बनाने का और साथ ही अपराधियों को तत्परता से पकड़ने और दंड देने का। आज की दिल्ली औरतों के घूमने-फिरने या घर से बाहर निकलने के लिए माकूल ढंग से नही बनी है।
हम साऊथ दिल्ली को ही लें। यह एक खूबसूरती से प्लान किया हुआ इलाका है जिसमें चौडी सडकें हैं, पार्क हैं, शिक्षा-संस्थाएँ हैं, फ्लाई ओवर हैं। इसी इलाके में सरकारी दफ्तर हैं- ढेर सारे दफ्तर- बड़े-बड़े ओहदों वाले दफ्तर- जिनमें राष्ट्रपति भवन, नार्थ व साऊथ ब्लाक, तमाम मंत्रालय, विदेशी दूतावास, राज्यों के निवास इत्यादि भी हैं। इन सब की सुंदरता बनाए रखने के लिए यह खास ध्यान दिया गया है कि यहाँ रहाइशी इलाकें अधिक न हों। लोक संख्या कम हो। चीजें बेचने वालों की भीड़ न हो। और
उससे भी बड़ी बात यह कि हर घर, हर बिल्डिंग एक लम्बे चौड़े क्षेत्र में बनाई जाए जहाँ उसकी विशालता और विस्तार भी उसकी खूबसूरती का एक अंग हो।
एक आर्किटेक्ट की निगेहवानी से यह सब कुछ बिल्कुल सही है। लेकिन यही बातें हैं जो असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती हैं।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि दिल्ली को घूमने फिरने के योग्य बनाया जाय और औरतें भी घर से बाहर निकलकर बड़ी तादाद में घूमें। पैदल चलने को और साइकलिंग को बढावा दिया जाय।
पुणे या बैंगलोर शहर में कई अकेली औरतें घूमने निकल जाती हैं- किसी भी सड़क पर केवल घूमने के शौक से निकली औरतें देखी जा सकती हैं। कई परिवार और यार-दोस्तों की टोलियाँ घूमती हुई देखी जा सकती हैं। लेकिन दिल्ली में ऐसा नही दीखता। यदि दिल्ली की कॉलनीज में रहने वाले लोग एक अभियान के तौर पर अपने अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ सुबह-शाम पैदल या साइकिल पर घूमने लगें तो कैसा हो?
मुझे लगता है कि यदि दिल्ली को महिलाओं के प्रति सुरक्षित बनाना है तो चार पांच काम किए जाने चाहिए। सड़कों व पार्कों में अधिक से अधिक लोग घूमने निकलें- इसे बढावा दिया जाय। प्रभात फेरियाँ भी निकाली जा सकती हैं। दिल्ली में अच्छी साइकिलिंग का इन्तजाम किया जाय और इसे बढावा दिया जाय। महिलाओं के प्रति अपराधों को, खासकर छेड़खनी के मामलों को तत्काल दंड दिया जाय। इसके लिए मौके पर ही जुर्माने के अधिकार पुलिस को दिए जाएं। खासतौर से अभियान चलाया जाय ताकि सार्वजनिक वाहनों में होने वाले छेड़छाड़ के अपराधों को तत्काल दंडित किया जा सके। बलात्कार के अपराधी ऐसे ही नही बन जाते। अक्सर वे शुरूआत छेड़खानी से करते हैं। कई छेड़खानियाँ करने के बाद भी जब वे दंडित नही होते तो धीरे धीरे उन्हें शह मिलती जाती है और वे बड़ा अपराध करने का दुःसाहस धारण करने लगते हैं।
देशभर की पुलिस से नॅशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो ने जो आँकडे इकट्ठे किये वे बताते हैं कि सन् २००१ में दिल्ली में बलात्कार की ३८१ घटनाएँ दर्ज हुईं, किडनॅपिंग की १६२७ जबकि लैंगिक छेड़छाड़ की घटनाएँ केवल ५०२ दर्ज हुईं। ये आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली में छेड़छाड़ की घटनाओं को न ही गंभीरता से लिया जाता है और न दर्ज कराया जाता है। जब कि पूरे देश में छेड़छाड़ की करीब पैंतीस हजार घटनाएँ दर्ज हुईं- यानी दिल्ली से सत्तर गुनी अधिक, बलात्कार के अपराध में सोलह हजार यानी दिल्ली से चालीस गुनी अधिक घटनाएँ दर्ज हुईं। अतः आवश्यक है कि छेड़छाड़ की घटनाओं को हम प्रभावी ढंग से दर्ज करायें और तत्काल दंडित भी करें। यही नही, छेड़छाड़ की घटना का विरोध करने वालों की यथोचित सराहना भी होनी चाहिए।
कार से चलने वालों की सुविधा ध्यान में रखते हुए दिल्ली की सड़कों पर जगह जगह उंचे उंचे रोड डिवायडर लगा दिए गए हैं। अर्थात यदि मैं किसी रास्ते से गुजरते हुए देख भी लूँ कि परली तरफ से चलने वाली किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार हो रहा है, तब भी मैं शीघ्रता से वहाँ पहुँचकर अपराध को रोकने का कोई उपाय नही कर सकती। दिल्ली के आर्किटेक्चर की प्लानिंग में यह भी एक बड़ी कमी है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नही है।
यह भी जरूरी है कि जहाँ कहीं संगठन हैं, वहाँ उनके बड़े अधिकारी ज्यूनियर्स के कार्यकलापों का ध्यान रखें। राष्ट्रपति भवन के सुरक्षा कर्मी- या होमगार्ड के जवान या पुलिसकर्मी- जब बलात्कार जैसे मामलों में दोषी पाए जाते हैं तो पूछा जाना चाहिए कि उनके सिनियर्स क्या कर रहे थे। कई वरिष्ठ अधिकारियों का अपना वैल्यू सिस्टम ही ऐसा होता है जिससे उनके ज्यूनियर्स को जाने अनजाने लगने लगता है कि महिलाओं से दुर्व्यवहार करना ही मर्दानगी है। इस मानसिकता को बदलने के लिए सरकार को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। यदि पुलिस में अधिक संख्या में महिलाएँ आने लगें और हर स्तर पर आने लगें तो यह मानसिकता थोड़ी बदल सकती है।
महीने पहले हुई घटना के बाद भी बलात्कार और दुर्व्यवहार के अपराध थमे नही हैं। पुलिस उलझ कर रह गई है चुनावी इन्तजाम में। नेताओं के भाषण, पदयात्रा, रैलियाँ, जनसभाएँ जोरों पर हैं। किसी नेता या पार्टी ने अपने अजेंडे में नही कहा है कि दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने का कोई सोच उनके दिमाग में है। क्या दिल्ली की महिलाएँ अपने अमूल्य बोट का धौंस जमाकर उन्हें इसके लिए घेर सकती हैं?
------------------------------------------
सदस्यता लें
संदेश (Atom)