गुरुवार, 20 दिसंबर 2007

05 गुनहगारी के बदलते चेहरे

गुनहगारी के बदलते चेहरे
---- लीना मेहेंदले
फिजिक्सकी पढाई करते हुए कभी एक नियम पढा था कि किसी सिस्टम को अपने आप पर छोड दिया जाय तो उसकी एन्ट्रापी अर्थात बेतरतीबी हमेशा बढती है। तरबीती लाने के लिये बाहरी उपयोंकी जरूरत होती है। फिजिक्स निर्जीव पदार्थों का शास्त्र है। लेकिन आधुनिकतम जीवशास्त्रियों ने सजीवता की व्याख्या करने के लिये इसी नियम का उपयोग किया है। उनका कहना है कि जहाँ जीवन है, जीवन्तता है, वहाँ खुद ब खुद बेतरबीती को सँवारकर तरतीबी लाने का ज्ञान और सामर्थ्य दोनों मौजूद होते हैं। जिस सिस्टम मे ये दोंनो हैं वह सजीव है, जिस सिस्टम में यह नहीं है वह निर्जीव है।

जो नियम जीवशास्त्रियों ने किसी एक जीवजन्तु की सजीवता या निर्जीवता परखने के लिये बनाया है वही नियम मनुष्य के लिये भी है और मानव समाज के लिये भी। ऐसा कोई समाज नही होता जहाँ कभी कोई उथल पुथल, हलचल या बेतरबीती नही आये। लेकिन जब तक उसे सँवारने का ज्ञान और सामर्थ्य समाज में होगा तभी तक वह समाज जीवन्त रहेगा।

सामाजिक बेतरतीबी को मापने का एक मापदण्ड है गुनहगारी। इस मापदण्ड को लगाने पर भारतीय समाज का कौनसा रूप हमें दिखता है? यही कि गुनहगारी का चेहरा, लिबास, और आकार दिन पर दिन अधिक से अधिक भयानक होते जा रहे हैं।

कोई जमाना था जब सिनेमा टिकटों को ब्लैक में बेचने का गुनाह जोरों पर था । इस गुनहगारी की व्यापकता के बावजूद समाज में इसके प्रति कलंककी भावना थी और इस विषय को लेकर काला बाजार जैसी फिल्में भी बनी थी ।

संगठित गुनहगारी के क्षेत्र में दूसरा बडा धंधा था बच्चों को उठाकर ले जाना, उनकी अंगुलियाँ, हाथ पाँव तोडना या आँख फोडना और उनसे भीख मंगवाना । मराठी फिल्म 'जगाच्या पाठीवर' में इसका विदारक चित्रण था । धीरे धीरे यह धंधा कम हो गया हालाँकि बच्चों का गलत उपयोग अब भी कायम है । भोली भाली किशोरियों को जाल में फाँसकर वेश्यावृति में लगाने का गुनाह हमेशा तेजी पर ही रहा है और इसमें कमी हो ऐसी कभी भी कोई संभावना नहीं दिखती ।

इसके बाद दौर चला मटका और लोगों से जुआ खिलवाने का। कोई मटका सम्राट पकडा जाता तो किसी मटका सम्राट को पुलिस सहयोग की दृष्टि से देखती। यानी धीरे धीरे पुलिस ने यह फलसफा अपनाना शुरू किया कि जिसके पास दो नंबर का पैसा बहुत अधिक है उसे पकडने की बजाय उसे राजाश्रय देकर उससे पैसा कमाना ही ज्यादा अच्छा है। इस प्रकार गुनहगारी की व्यापकता ने पुलिस को भी लपेट लिया।

उन्नीस सौ साठ और सत्तर के दशर्कों में स्मगलिंग भी एक ऐसा ही पनपता और बरकरार गुनाह था। घडियाँ, बैटरी के छोटे सेल, कॅसेट, सिंथेंटिक साडियाँ जैसी आज के लिहाज से नगण्य वस्तुओं से तस्करीका आरंभ हुआ। फिर सोने के बिस्कुट, हीरे इत्यादि की तस्करी होती रही। अब स्मगलिंग अधिक डरावना हो गया है क्यों कि इसमें ड्रग्स भी आ गये हैं और कस्टम विभाग के अधिकारी भी।

इसी दशक में गावठी शराब या हातभट्टी का धंधा भी पनपता गया । १९४७ की तुलना में आज लोग अधिक निराश, हताश, कर्तव्यचुत और शराबप्रिय होते जा रहे हैं। शराबबंदी एक के बाद राज्यों में उठाई जा चुकी है। गाँव गाँव में देसी शराब के दुकान खुले हैं। बियरबार में जाना पहले संकोच या शर्म की बात हुआ करती थी आज वह स्टेटस, स्पोर्टसमन शिप और स्मार्टनेस की द्योतक बन गई है । पहले बियर बार शाम को खुला करते थे।अब दिनभर चालू रहते हैं। पहले वहाँ केवल बुजुर्ग जाते थे अब कॉलेज स्टुडैण्ट्स तक सभी जाते हैं । आज शराब न पीना एक हेय बात है और हो सकता है कभी वह जुर्म भी बन जाये ।

पहले सरकारी ऑफिसो में भ्रष्टाचार की एक लक्ष्मण रेखा थी। सामान्य भ्र्रष्टाचार या तो बिलकुल छोटे तबके के कर्मचारी करते थे और यदा कदा अत्यंत वरिष्ट अफसर या मंत्रीगण । जैसे पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैंरों को भ्रष्टाचार के आरोप पर जाना पडा। लेकिन बिचले तबके के कर्मचारी और अधिकारी जिनके बलपर सरकार चलती है और जिनके कामकाज पर ही जनता की सुख सुविधाएँ निर्भर करती थीं वे सामान्यतया ईमानदार थे। आज का चित्र पूरा ही बदला हुआ है। और इसे अबला जनता ने स्वीकार भी कर लिया है। अतः आज सरकारी दफ्तरो का भ्र्रष्टाचार एक जानी पहचानी और लाइलाज बिमारी की तरह है। कई बिमारियाँ अब स्टेटसधारी भी होने लगी हैं जैसे डाइबेटिस, हार्ट डिसीज, इत्यादि। उसी प्रकार सरकारी भ्रष्टाचार भी अब इज्जतदार हो गया है।

अस्सी के दशक के आते आते संगठित गुनहगारी और बिल्डर्स का एक अजीब सा नाता चल गया । एक ओर सामान्य जनता के लिये अर्बन लैण्ड सीलींग ऍक्ट था । दूसरी ओर उसमें कई लूपहोल्स थे और कई एक्झेम्शन्स और अलॉटमेंट्स भी जिनका उपयोग लेन देन के व्यवहार में जमकर हुआ ।

दलितों पर अत्याचार, दलित और आदिवासी स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों में कमी आने का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन अब इसमें पुलिस और सेना भी शामिल होती सुनाई पडती है जो बडी भयावह परिस्थिति है। दहेज बलि की ओर सतीकी घटनाएँ मध्यम और उच्च वर्गो की गुनहगारी का खास चेहरा बेनकाब करती हैं। पूरे अस्सी के दशक में आंतकवाद का बढता हुआ राक्षस भी अपनी पूरी भयानकता के साथ सामने आया है। पंजाब, तामिलनाडू , काश्मीर, गुरखा लैण्ड, आसाम और अन्य उत्तर पूर्वी राज्यों में यह विकट समस्या है। और अब नक्षलवादियों का पुनरोत्थान होकर वे महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश मे फैल रहे हैं। इन आंतंकवादियों का अड्डा चाहे कहीं भी हो, उनका खतरा सारे देश में हर जगह पर है जो एक नई बात है।

आज का चित्र यह है कि गुनहकारी का दायरा काफी बडा है और बढता ही जा रहा है। एक गुनहगारी है जो गुण्डागर्दी, मसल पावर, भाले बरछी, बन्दूक और एके ४७ मशीनगन के बल पर चलती है । सामान्य आदमी सोचता है कि मैं उस जगह से भाग जांऊँ, वहाँ दखल अन्दाजी न करूँ तो मैं सुरक्षित रह सकता हूँ। हालाकिं यह गलतफहमी है। बिहार के कोयला खानों पर माफिया राज और मुंबई के वसई विरार ठाणे, कल्याण उल्हासनगर के इलाकों का माफिया राज यही दर्शाता है कि सामान्य व्यक्ति की असुरक्षिता धीरे धीरे बढती रहेगी ।

यह जानीमानी बात है कि चुनाव लडने के लिये कई बार राजनितिक पार्टियों और कई उम्मीदवार काफी पैसा जुडाते हैं। पहले बडे बडे उद्योगपति और कंपनियाँ चुनाव में पार्टी उम्मीदवारों के लिये पैसा खर्च करती थीं। धीरे धीरे वे बिल्डर्स और माफिया गैंग के दादा जिन्होंनें नेतागणों के आशीर्वाद से पैसे कमाये, उन्होनें भी चुनाव में खुलकर पैसा लगाना आरंभ किया । ऐसी हालत में जीतने वाले नेता और इन दादाओं के गठबंधन गहरे होते गये। यह सिलसिला ऐसा बढा कि पिछले चुनाव में कई उम्मीदवार ऐसे भी उतरे और चुने गये जिन्हे सामान्य जनता गुंडागर्दी और गुनहगारी के लिये जानती थी।

लेकिन जो सबसे लेटेस्ट है वह है आर्थिक गुनहगारी जिससे कोई भी व्यक्ति अछूता या सुरक्षित नहीं रहेगा। तीन प्रकार की आर्थिक गुनहगारी जोर शोर से चल रही है। पहली है आंतर्राष्ट्रीय आयात में दलाली का मामला । बाहर के देशों से बडे बडे यंत्र या हथियार खरीदे जाते हैं । वे कम्पनियाँ दलालों के मार्फत ही भारत सरकार से ये व्यवहार पूरा करवा सकती हैं। करवाने के लिये भारत सरकार में किसे, कैसे और कितना कमिशन देना पडेगा यह दलाल जानता है और वहाँ तक उसकी पहुँच भी होती है। इस प्रकार सौ करोड की वस्तु दो सौ करोड में खरीदी जाती है। उसकी क्वालिटी की कोई गारंटी नहीं होती सो अलग। यह जो सौ करोड ज्यादा खर्चा हुए वह गये सामान्य जनता की जेब से और पहूँचे दलाल एवं सरकार के उस व्यक्ति की जेब में। ।

दूसरा गुनाह है भीखमंगी में उत्सव मनाने का। इधर देश की जनता पर कर्जे का बोझा बढ रहा है। कर्जा देनेवाला साहूकार खुश है। हमें सिखाया जा रहा है कि हम कर्जा नहीं लेगें तो हमारा विकास नही होगा। सिखाने वाले भी वही हें जो आज साहूकार का अन्न खा रहे हैं और रिटायरमेंट के बाद उनके देश में जा बसने का सपना देख रहे है। और इधर उधर से आने वाले कर्जे से अपने राजसी थाट चला रहे हैं। कोई सरकारी पैसे से बीसियों फॉरेन ट्रिप लगा रहा है। कोई अपने आफिस के परदे हर दो महीने में बदलवा रहा है, तो किसी के लिये पचीसों पुलिस गार्ड तो किसी के लिये सेंट्रली एअर- कंडिशन्ड ऑफिस। बेजरूरती स्कीमें बन रही हैं। हर कोई अपने ऑफिस को अपना साम्राज्य समझता है और उसे निरंतर बढाना चाहता है क्योंकि उसका रोब दाब उसी बढोतरी पर टिका हुआ है। सरकारी अफसर के रोब का मापदण्ड यह है कि आपके ऑफिस का बजट कितना है, आपके नीचे कितने कर्मचारी काम करते हैं, आप कितनी फॉरेन ट्रिप्स पर जाते हैं , आपके नीचे कितनी गाडियाँ हैं, आपका ऑफिस रूम कितना बडा है इत्यादि। तो यह सब बडा करने के लिये पैसा चाहिये। वह ले आओ माँगकर, लगा दो किसी स्कीम का बहाना। यही रवैया आजकल सरकारी दफ्तरों मे चल रहा है।

लेकिन जो इन सब गुनाहों को पीछे छोड दे वह था स्कॅम जिसमें बैंकों के बडें अफसरों ने और उनके मार्फत देश के बडे बडे उद्योगपतियों और नेताओं ने जनता की सबसे बडी लूट की है। इनमें विदेशी बैंक भी शामिल हैं। लूट का अंदाजा आप कुछ उदाहरणों से लगा सकते हैं।

१९८१ में सिमेंट के अलॉटमेंट में जो घोटाला हुआ उसमे महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमान अंतुले पर एक करोड रूपये के भ्रष्टाचार का आरोप था। बोफोर्स कांड में दी गई दलाली का आरोप एक सौ करोड रूपया का है। बैंक स्कॅम में हुए घोटाले में से जो कागज हासिल हुए हैं उनका घोटाला तीन हजार करोड रूपयों से अधिक है और जो कागज हासिल नहीं हो पाये लेकिन उनके होने की जानकारी मौजूद है उनके घोटाले का अनुमान तैंतीस हजार करोड रूपयों से अधिक है। यह इसलिये संभव हुआ कि बैंकिग क्षेत्र में जहाँ कही नियमों मे गलतियाँ या खामियाँ रह गई - उनमें सुधार करने के लिये सरकार को आवश्यक जानकारी देने के बजाय बैंक के कुछ वरिष्ट अधिकारियों ने उन गनतियों का फायदा उठाकर अपनी जेबें भरीं। लेकिन इस प्रकार जेब भरने के लिये पहले सामान्य जनता की जेब से पैसा निकालना पडता है। इसके लिये उन्हे किसी इंडस्ट्री के लाभ के सब्जबाग दिखायें जायें तो वह इंडस्ट्री जमकर पैसा बटोर सकती है। सामान्य जनता उस उद्योगपति के पीछे दिवानी होकर पैसा उसके शेयरों में लगाती है। इधर वह उद्योगपति और उसकी कंपनियाँ पैसे कमाती है। उधर शेयर मार्केट के दलाल। उधर बैंक और सरकार के वरिष्ट अधिकारी और मंत्रीगण। ऊपर से सरकार को यह जताने का मौका मिलता है कि बैंको का बहुत लाभ हो रहा है ( अर्थात वह बहुत एफिशियंट है ) और सरकार की उद्योग नीति के कारण उद्योग कितने सुधर गये है । सामान्य आदमी की जेब से पैसा जाता रहता है। बाद मे पता चलता है कि ये सारे ही सब्जबाग थे। न तो उद्योंगो में अधिक उत्पादन हुआ न तो बैंको से लोगों को अच्छी सर्विस मिली न तो सरकारी खर्चा घटा, न ही सरकारी उद्योगों का कामकाज सुधरा और न महँगाई कम हुई। स्कॅम के घोटाले का अंदाज आप इस बात से भी लगाइये कि अपने देश का वार्षिक बजट तीस हजार करोड रूपये के लगभग है और स्कॅम का का घोटाला भी कराब उतना ही। वह बजेट जो देश की सौ करोड जनता के लिये कुछ कर सकता है उतना ही पैसा देश के बडे उद्योगपति बैंक अधिकारी और नेता खा जाते हैं। क्या है आप में वह सामर्थ्य और ज्ञान जो इस बेतरबीती सँवार सके?
--दै. हमारा महानगर, मुंबई, सितम्बर 1992
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