सोने के हथियार से लडने के लिये
हम किले पर रहते थे |
मजबूत दीवारों का अभेद्य किला
बुर्जों पर चौकसी करते हुए
हमें कोई तनाव न था |
हमें दीखते थे सामने फैले
विस्तृत मैदान
और वहीं झाडियों में छिपा हमारा शत्रु
वे हमें क्योंकर जीत पाते ?
हमारे पास शस्त्र-अस्त्र थे भरपूर
हमारे सैनिक जाँबाज - शूर
और मैदान पार के रास्तों पर
निश्चित रुप से पास आ रही थीं
हमारे मित्र देशों की सेनाएँ |
पर हाँ ....
हमारे किले के कोने में एक छोटा मायावी द्बार था |
द्बारपाल ने एक दिन उसे खोल दिया |
शत्रु उसी रास्ते से आया |
बिना लडे ही हमपर जय किया |
शर्म की बात, पर सच्चाई की है |
सोने का हथियार
लोहे के हथियार पर भारी है |
किसी जमाने में पढी थी एडविन मूर की यह कविता The Castle | उसी का भावानुवाद मैंने किया है, जो मुंबई पर हुए आतंकी हमले की घटना पर फिट है | 26/11 की रात यह कविता बारबार चेतना में गूँजती रही |
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रविवार, 21 दिसंबर 2008
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1 टिप्पणी:
सही कविता है। घृणा का हथियार भी बेहद शक्तिशाली होता है। हमारे शत्रु के पास आज यह हथियार है । जब इस हथियार को धर्म नाम की वस्तु की ढाल मिल जाए तो फिर विनाश ही विनाश होगा।
घुघूती बासूती
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