मेरा तीसरा लेख संग्रह -- मेरी प्रांतसाहबी
श्वेताभ अश्क
संकेत प्रकाशन, लखनऊ
अनुक्रम --
मेरी प्रांतसाहबी
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शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
एक था फेंगाडया
प्रस्तावना
-- डॉ. अरूण गद्रेके उपन्यासके भाषान्तर की--
हजारों वर्षों पहले जब आदिमानव गुफा रहता था, जब उसने केवल आग जलाना और झुण्ड में रहना सीखा था लेकिन गिनती, खेती, वस्त्र, चित्रकला, जख्मी का इलाज आदि से अभी कोसों दूर था, उस जमाने के मानव से आज के मानव तक का उन्ननय का इतिहास क्या है?
प्रसिद्ध मानववंश शास्त्रज्ञ डॉ मार्गरेट मीड अपने एक लेख में कहती हैं-"A healed femur is the first sign of human civilization"
डॉ मीड कहती हैं, उत्खननों में मानवों की कई हड्डियाँ मिली थीं, जो टूटी हुई थीं। ये वे लोग थे जिनकी हड्डियाँ जानवर के आक्रमण या अन्य दुर्घटना में टूटीं और इस प्रकार असहाय, रूद्धगति बना मनुष्य मौत का भक्ष्य हो गया। कई हड्डियाँ मिली जो अपने प्राकृतिक रूप में थी- अखण्डित। ये वे मनुष्य थे जो हड्डी टूटकर, लाचार होकर नही, वरन् अन्य कारणों से मरे थे। लेकिन कई सौ उत्खननों में, कई हजार हड्डियों में कभी एक हड्डी ऐसी मिली, जो टूटकर फिर जुड़ी हुई थी। यह तभी संभव था जब लाचार बने उस आदमी को किसी दूसरे आदमी ने चार छः महीने सहारा दिया हो, खाना दिया हो, जिलाया हो। जब सबसे पहली बार ऐसा सहारा देने का विचार मनुष्य के मन में आया, वहाँ से मानवी संस्कृती की, करूणा की संस्कृति की, एक दूसरे की कदर करने की संस्कृती की शुरूआत हुई। जाँघ की टूटकर जुड़ी हुई हड्डी साक्षी है उस मनुष्य के अस्तित्व की जिसमें करूणा की धारा, और उसे निभाने की सक्षमता पहली बार फूटी।
डॉ. मीड के लेख को पढने के बाद पेशे से डॉक्टर श्री अरूण गद्रे को लगा कि यह एक बड़े ही मार्मिक संक्रमण काल का चिह्न है। कैसा रहा होगा वह मुनष्य, वह हीरो, जिसके ह्रदय में पहली बार यह दोस्ती और सहारे का झरना फूटा होगा।
डॉ. गद्रे ने इस विषय पर डॉ. पॉल ब्रॅण्डट् से चर्चा की। डॉ. ब्रॅण्डट् तीस वर्ष तक वेल्लोर के ख्रिश्चन मेडिकल कॉलेज में कुष्ठरोगियों के बीच रहे और उनके गले हुए हाथों पर सर्जरी की पद्धति विकसित करने के लिए प्रख्यात हैं। एक पत्र में ब्रॅण्डट् ने गद्रे को ऐसी ही दूसरी कहानी लिखी है- 'कोपेनहेगेन की एक म्यूजियम में छः सौ मानवी कंकाल जतन कर रखे गए हैं। ये सारे कंकाल उन कुष्ठरोगियों के हैं जिन्हें पाँच सौ वर्ष पूर्व एक निर्जन द्वीप पर मरने के लिए छोड़ दिया गया था। इन सभी कंकालों के पैर की हड्डियाँ रोग के कारण घिसी हुई हैं। लेकिन इनमें कुछ कंकाल अलग रखे गए हैं क्योंकि उनकी पाँव की हड्डियों पर बाद में भर जाने के चिहन स्पष्ट हैं। इसलिए कि कुछ मिशनरी उस द्वीप पर गए थे और जितना बन सका उन कुष्ठ रोगियों की सेवा की। इसी से कुछ रोगियों के पैर की घिसी हड्डियाँ भर गई। वे अलग रखे गए कंकाल साक्षी हैं उन मिशनरियों की सेवा के।
डॉ. ब्रॅण्डट् से विचार विनिमय के पश्चात डॉ. गद्रे ने जिन संदर्भ ग्रंथों को पठन और मनन किया वे थे- दि ऍसेन्ट ऑफ मॅन, कॅम्ब्रीज फील्ड गाइड टू प्रीहिस्टोरिक लाइफ, दि डॉन ऑफ ऍनिमल लाइफ, इमर्जन्स ऑफ मॅन, तथा गाइड टू फॉसिल मॅन।
इन सभी के मंथन और डॉ. गद्रे की अपनी साहित्यिक प्रतिभा से एक उपन्यास के चरित्र तैयार हुए वे थे फेंगाडया, बापजी और बाई के। उन्हीं से ताना बाना बुना गया टोलियों और बस्तीयों के बनने, उजड़ने और आगे बढ़ने का- मानवी संस्कृति के विकास का। वही उतरा है मराठी उपन्यास 'एक होता फेंगाडया' में।
मराठी में यह उपन्यास १९९५ में प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष इसकी बडी जीवट वाली वृद्ध प्रकाशिका श्रीमती देशमुख से मैं मिली थी। तब तक मैं सिद्धहस्त अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध हो गई थी क्योंकि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से कई कहानियाँ मैंने मराठी में अनूदित की थीं और उसी कथा संग्रह का प्रकाशन देशमुख कंपनी करने वाली थी। चूँकि मेरी चुनी हुई कथाओं के कथानक नितान्त विभिन्न रंग-ढंग-इतिहास-भूगोल के थे, तो उसे मेरी रूचि जानकर मुझे यह पुस्तक पढने के लिये कहा। अगले तीन दिनों में ही मेरे दिमाग में यह इच्छा दर्ज हो गई कि इसका हिंदी अनुवाद करना है। ऐसी ही इच्छा अन्य पांच पुस्तकों के लिये है जिनपर मैंने अभी तक काम शुरू नही किया है। ज्ञानपीठ के श्री श्रोत्रिय से एक बार मैंने फेंगाडया की चर्चा की तो उनका आग्रह शुरू हो गया कि इसका अनुवाद जल्द से जल्द किया जाये।
फेंगाडया के कथानक में एक बडी कठिनाई यह है कि यह प्रागैतिहासिक काल से जुडी हुई रचना है। मैं नही जानती की हिंदी में रांगेच राघव जी के अलावा किसी ने इस प्रकार का प्रयास किया है। यह वह काल है जब मनुष्य ने खेती नही सीखी- वस्त्र पहनना नही सीखा- यहाँ तक कि पेड की छाल लपेटना भी नही। केवल बांस की खपच्चियों से बने कुटीर का उपयोग सीखा है। आग का उपयोग सीखा है। फिर भी कंदरा और गुफा पूरी तरह से नही छूटी है। भाषा विकसित नही हुई है। फिर भी मनुष्य विकसित हो रहा है- उसमें एक 'हिरोइक स्पिरिट' है। नया सीखने की ललक है। कलाकार की प्रतिभा है, दार्शनिक का तत्व-चिंतन है।
इसी लिये उपन्यास में एक हीरो या एक हीरोईन नही है- कई हैं। एक फेंगाडया है जिसमें शक्ति-सामर्थ्य है, दूरदृष्टि है, करूणा है और अपने विश्र्वास के प्रति अडिगता है। एक पंगुल्या है जो खोजी है- वैज्ञानिक है, गणितज्ञ है। एक पायडया है जो कथाकार है, कलाकार है और संगीतकार है। एक बाई है जो नेता है, दिशादर्शक है, अनुशासन और शासन करना जानती है। एक चांदवी है जो किशोर बयीन है और हर बार सवाल उठा सकती है- क्यों? एक कोमल है जो अपनी समझदारी से सबके लिये आधार बनकर डटी है।
और एक बापजी है- जो सत्ता के खेल को अच्छी तरह समझ सकता है, खेल सकता है और अपनी विध्वंसक आकांक्षा के लिये मकड जाल बुन सकता है। उस जाल को तोडकर- समाज को विकास के अगले सोपान पर ले जाने वाला उपन्यास है- फेंगाडया।
भाषा- भले ही उपन्यास का प्रकाशन इक्कीसवीं सदी का हो, लेकिन उसका घटनाकाल यदि दस पंद्रह हजार वर्ष पुराना है तो उसकी भाषा कैसी होगी? इसी लिये उपन्यास में जरूरत पडी कि इसका शब्द-भंडार सीमित रखा जाय, सरल रख्खा जाय- और फिर भी अभिव्यक्ति पूरी हो। हाँ, पठन को नादमय, और लयात्मक बनाने के लिये कुछ शब्दों को खास तौर पर रखा गया है जैसे ऋतुचक्र, मरण, मृतात्मा, सूर्यदेव।
भाषा- उस काल में व्यक्तियों का नाम देने का चलन तो था (बिना नामों में उपन्यास कैसे
बने?) लेकिन उसका तरीका क्या हो सकता है? तो सबसे सरल है कि व्यक्ति की देहयाष्टि के अनुरूप नाम दिया जाय। और मराठी में यह चलन भी है कि किसी नाम को आदरपत्र बनाना हो तो अन्त में 'बा' लगे और उसे मित्रता या छोटेपन के भाव से जोडना हो तो 'या' लगे। इसी लिये कथानक के पात्रों के नाम बने- फेंगाडया- जो पांवों को तिरछा फेंक कर चलता है, पंगुल्या- जो पंगु है। वाघोबा- अर्थात् वाघ का भयकारी रूप।
आयुर्वेद की कई मान्यताओं का प्रयोग भी इस उपन्यास में बखूबी हुआ है। मसलन, महाराष्ट्र में अब भी माना जाता है कि कुछ बच्चे जिनके जन्म के समय पैर पहले बाहर निकलते हैं और सिर बाद में, उनमें कुछ विशेषता होती है। उन्हें पायडया कहा जाता है। ग्रामीण भागों में अब भी माना जाता है कि किसी औरत का बच्चा आसानी से पेट से न निकल रहा हो और कोई पायडया उसके पेट पर हल्की सी लात मारे तो बच्चे का जन्म तुरंत हो जाता है। सारे पायडया प्रायः कलाकार होते हैं। यह भी माना जाता है कि उन्हें जमीन के नीचे पानी होने का संकेत मिल जाता है- और धन के होने का भी। जाहिर है कि ये मान्यताएँ हजारों वर्षों में बनी हैं। लेखक ने इनका अच्छा उपयोग उपन्यास में किया है।
उपन्यास में सारे भाव, सारे रसों की सृष्टि आखिरकार शब्दों से ही होती है। और इस उपन्यास का शब्द भांडार है सीमित। इसी लिये कई ध्वन्यात्मक शब्दों को मैंने मराठी से ज्यों का त्यों लिया है- मराठी मूलतः एक कठिन स्वरोच्चारों की भाषा है जबकि हिंदी मृदु स्वरोच्चारों की भाषा है। मराठी का शब्द भांडार भी अधिक विस्तृत है। अतएव कुछ शब्दों का चयन मराठी से करना पडा। पहली बार उन्हें पढना थोडा अटपटा जरूर लगता है, लेकिन दूसरी तीसरी बार पढते पढते उनके अर्थ, उपयोगिता और सटीकता भी सामने आने लगते हैं। ये शब्द हिंदी में इतने आसानी से घुल मिल जाते हैं कि उनका अटपटापन समाप्त हो जाता है।
अनुवाद पूरा कर लेने के बाद श्रोत्रिय जी ने सुझाया कि इस पर श्री रामकुमार 'कृषक' से सलाह ली जाय, उधर मैंने अपने तईं श्री दिनेश शुक्ल जी से भी राय सलाह कर ली थी। इन दोनोंके सुझावों ने उपन्यास के अनुवाद को निखारा है।
एक तो प्रागैतिहास कालीन उपन्यास- तिस पर एक खास ऍन्थ्रोपोलॉजिकल तथ्य को आधार बनाकर लिखा हुआ- फिर भी मुझे विश्वास है कि हिंदी के प्रबुद्ध पाठक इसका स्वागत करेंगे, क्योंकि किसी पाठक के मन में जिज्ञासा और नवीनता के लिये जो अकुलाहट होती है- यह उपन्यास उसका समाधान करता है।
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-- डॉ. अरूण गद्रेके उपन्यासके भाषान्तर की--
हजारों वर्षों पहले जब आदिमानव गुफा रहता था, जब उसने केवल आग जलाना और झुण्ड में रहना सीखा था लेकिन गिनती, खेती, वस्त्र, चित्रकला, जख्मी का इलाज आदि से अभी कोसों दूर था, उस जमाने के मानव से आज के मानव तक का उन्ननय का इतिहास क्या है?
प्रसिद्ध मानववंश शास्त्रज्ञ डॉ मार्गरेट मीड अपने एक लेख में कहती हैं-"A healed femur is the first sign of human civilization"
डॉ मीड कहती हैं, उत्खननों में मानवों की कई हड्डियाँ मिली थीं, जो टूटी हुई थीं। ये वे लोग थे जिनकी हड्डियाँ जानवर के आक्रमण या अन्य दुर्घटना में टूटीं और इस प्रकार असहाय, रूद्धगति बना मनुष्य मौत का भक्ष्य हो गया। कई हड्डियाँ मिली जो अपने प्राकृतिक रूप में थी- अखण्डित। ये वे मनुष्य थे जो हड्डी टूटकर, लाचार होकर नही, वरन् अन्य कारणों से मरे थे। लेकिन कई सौ उत्खननों में, कई हजार हड्डियों में कभी एक हड्डी ऐसी मिली, जो टूटकर फिर जुड़ी हुई थी। यह तभी संभव था जब लाचार बने उस आदमी को किसी दूसरे आदमी ने चार छः महीने सहारा दिया हो, खाना दिया हो, जिलाया हो। जब सबसे पहली बार ऐसा सहारा देने का विचार मनुष्य के मन में आया, वहाँ से मानवी संस्कृती की, करूणा की संस्कृति की, एक दूसरे की कदर करने की संस्कृती की शुरूआत हुई। जाँघ की टूटकर जुड़ी हुई हड्डी साक्षी है उस मनुष्य के अस्तित्व की जिसमें करूणा की धारा, और उसे निभाने की सक्षमता पहली बार फूटी।
डॉ. मीड के लेख को पढने के बाद पेशे से डॉक्टर श्री अरूण गद्रे को लगा कि यह एक बड़े ही मार्मिक संक्रमण काल का चिह्न है। कैसा रहा होगा वह मुनष्य, वह हीरो, जिसके ह्रदय में पहली बार यह दोस्ती और सहारे का झरना फूटा होगा।
डॉ. गद्रे ने इस विषय पर डॉ. पॉल ब्रॅण्डट् से चर्चा की। डॉ. ब्रॅण्डट् तीस वर्ष तक वेल्लोर के ख्रिश्चन मेडिकल कॉलेज में कुष्ठरोगियों के बीच रहे और उनके गले हुए हाथों पर सर्जरी की पद्धति विकसित करने के लिए प्रख्यात हैं। एक पत्र में ब्रॅण्डट् ने गद्रे को ऐसी ही दूसरी कहानी लिखी है- 'कोपेनहेगेन की एक म्यूजियम में छः सौ मानवी कंकाल जतन कर रखे गए हैं। ये सारे कंकाल उन कुष्ठरोगियों के हैं जिन्हें पाँच सौ वर्ष पूर्व एक निर्जन द्वीप पर मरने के लिए छोड़ दिया गया था। इन सभी कंकालों के पैर की हड्डियाँ रोग के कारण घिसी हुई हैं। लेकिन इनमें कुछ कंकाल अलग रखे गए हैं क्योंकि उनकी पाँव की हड्डियों पर बाद में भर जाने के चिहन स्पष्ट हैं। इसलिए कि कुछ मिशनरी उस द्वीप पर गए थे और जितना बन सका उन कुष्ठ रोगियों की सेवा की। इसी से कुछ रोगियों के पैर की घिसी हड्डियाँ भर गई। वे अलग रखे गए कंकाल साक्षी हैं उन मिशनरियों की सेवा के।
डॉ. ब्रॅण्डट् से विचार विनिमय के पश्चात डॉ. गद्रे ने जिन संदर्भ ग्रंथों को पठन और मनन किया वे थे- दि ऍसेन्ट ऑफ मॅन, कॅम्ब्रीज फील्ड गाइड टू प्रीहिस्टोरिक लाइफ, दि डॉन ऑफ ऍनिमल लाइफ, इमर्जन्स ऑफ मॅन, तथा गाइड टू फॉसिल मॅन।
इन सभी के मंथन और डॉ. गद्रे की अपनी साहित्यिक प्रतिभा से एक उपन्यास के चरित्र तैयार हुए वे थे फेंगाडया, बापजी और बाई के। उन्हीं से ताना बाना बुना गया टोलियों और बस्तीयों के बनने, उजड़ने और आगे बढ़ने का- मानवी संस्कृति के विकास का। वही उतरा है मराठी उपन्यास 'एक होता फेंगाडया' में।
मराठी में यह उपन्यास १९९५ में प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष इसकी बडी जीवट वाली वृद्ध प्रकाशिका श्रीमती देशमुख से मैं मिली थी। तब तक मैं सिद्धहस्त अनुवादक के रूप में प्रसिद्ध हो गई थी क्योंकि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं से कई कहानियाँ मैंने मराठी में अनूदित की थीं और उसी कथा संग्रह का प्रकाशन देशमुख कंपनी करने वाली थी। चूँकि मेरी चुनी हुई कथाओं के कथानक नितान्त विभिन्न रंग-ढंग-इतिहास-भूगोल के थे, तो उसे मेरी रूचि जानकर मुझे यह पुस्तक पढने के लिये कहा। अगले तीन दिनों में ही मेरे दिमाग में यह इच्छा दर्ज हो गई कि इसका हिंदी अनुवाद करना है। ऐसी ही इच्छा अन्य पांच पुस्तकों के लिये है जिनपर मैंने अभी तक काम शुरू नही किया है। ज्ञानपीठ के श्री श्रोत्रिय से एक बार मैंने फेंगाडया की चर्चा की तो उनका आग्रह शुरू हो गया कि इसका अनुवाद जल्द से जल्द किया जाये।
फेंगाडया के कथानक में एक बडी कठिनाई यह है कि यह प्रागैतिहासिक काल से जुडी हुई रचना है। मैं नही जानती की हिंदी में रांगेच राघव जी के अलावा किसी ने इस प्रकार का प्रयास किया है। यह वह काल है जब मनुष्य ने खेती नही सीखी- वस्त्र पहनना नही सीखा- यहाँ तक कि पेड की छाल लपेटना भी नही। केवल बांस की खपच्चियों से बने कुटीर का उपयोग सीखा है। आग का उपयोग सीखा है। फिर भी कंदरा और गुफा पूरी तरह से नही छूटी है। भाषा विकसित नही हुई है। फिर भी मनुष्य विकसित हो रहा है- उसमें एक 'हिरोइक स्पिरिट' है। नया सीखने की ललक है। कलाकार की प्रतिभा है, दार्शनिक का तत्व-चिंतन है।
इसी लिये उपन्यास में एक हीरो या एक हीरोईन नही है- कई हैं। एक फेंगाडया है जिसमें शक्ति-सामर्थ्य है, दूरदृष्टि है, करूणा है और अपने विश्र्वास के प्रति अडिगता है। एक पंगुल्या है जो खोजी है- वैज्ञानिक है, गणितज्ञ है। एक पायडया है जो कथाकार है, कलाकार है और संगीतकार है। एक बाई है जो नेता है, दिशादर्शक है, अनुशासन और शासन करना जानती है। एक चांदवी है जो किशोर बयीन है और हर बार सवाल उठा सकती है- क्यों? एक कोमल है जो अपनी समझदारी से सबके लिये आधार बनकर डटी है।
और एक बापजी है- जो सत्ता के खेल को अच्छी तरह समझ सकता है, खेल सकता है और अपनी विध्वंसक आकांक्षा के लिये मकड जाल बुन सकता है। उस जाल को तोडकर- समाज को विकास के अगले सोपान पर ले जाने वाला उपन्यास है- फेंगाडया।
भाषा- भले ही उपन्यास का प्रकाशन इक्कीसवीं सदी का हो, लेकिन उसका घटनाकाल यदि दस पंद्रह हजार वर्ष पुराना है तो उसकी भाषा कैसी होगी? इसी लिये उपन्यास में जरूरत पडी कि इसका शब्द-भंडार सीमित रखा जाय, सरल रख्खा जाय- और फिर भी अभिव्यक्ति पूरी हो। हाँ, पठन को नादमय, और लयात्मक बनाने के लिये कुछ शब्दों को खास तौर पर रखा गया है जैसे ऋतुचक्र, मरण, मृतात्मा, सूर्यदेव।
भाषा- उस काल में व्यक्तियों का नाम देने का चलन तो था (बिना नामों में उपन्यास कैसे
बने?) लेकिन उसका तरीका क्या हो सकता है? तो सबसे सरल है कि व्यक्ति की देहयाष्टि के अनुरूप नाम दिया जाय। और मराठी में यह चलन भी है कि किसी नाम को आदरपत्र बनाना हो तो अन्त में 'बा' लगे और उसे मित्रता या छोटेपन के भाव से जोडना हो तो 'या' लगे। इसी लिये कथानक के पात्रों के नाम बने- फेंगाडया- जो पांवों को तिरछा फेंक कर चलता है, पंगुल्या- जो पंगु है। वाघोबा- अर्थात् वाघ का भयकारी रूप।
आयुर्वेद की कई मान्यताओं का प्रयोग भी इस उपन्यास में बखूबी हुआ है। मसलन, महाराष्ट्र में अब भी माना जाता है कि कुछ बच्चे जिनके जन्म के समय पैर पहले बाहर निकलते हैं और सिर बाद में, उनमें कुछ विशेषता होती है। उन्हें पायडया कहा जाता है। ग्रामीण भागों में अब भी माना जाता है कि किसी औरत का बच्चा आसानी से पेट से न निकल रहा हो और कोई पायडया उसके पेट पर हल्की सी लात मारे तो बच्चे का जन्म तुरंत हो जाता है। सारे पायडया प्रायः कलाकार होते हैं। यह भी माना जाता है कि उन्हें जमीन के नीचे पानी होने का संकेत मिल जाता है- और धन के होने का भी। जाहिर है कि ये मान्यताएँ हजारों वर्षों में बनी हैं। लेखक ने इनका अच्छा उपयोग उपन्यास में किया है।
उपन्यास में सारे भाव, सारे रसों की सृष्टि आखिरकार शब्दों से ही होती है। और इस उपन्यास का शब्द भांडार है सीमित। इसी लिये कई ध्वन्यात्मक शब्दों को मैंने मराठी से ज्यों का त्यों लिया है- मराठी मूलतः एक कठिन स्वरोच्चारों की भाषा है जबकि हिंदी मृदु स्वरोच्चारों की भाषा है। मराठी का शब्द भांडार भी अधिक विस्तृत है। अतएव कुछ शब्दों का चयन मराठी से करना पडा। पहली बार उन्हें पढना थोडा अटपटा जरूर लगता है, लेकिन दूसरी तीसरी बार पढते पढते उनके अर्थ, उपयोगिता और सटीकता भी सामने आने लगते हैं। ये शब्द हिंदी में इतने आसानी से घुल मिल जाते हैं कि उनका अटपटापन समाप्त हो जाता है।
अनुवाद पूरा कर लेने के बाद श्रोत्रिय जी ने सुझाया कि इस पर श्री रामकुमार 'कृषक' से सलाह ली जाय, उधर मैंने अपने तईं श्री दिनेश शुक्ल जी से भी राय सलाह कर ली थी। इन दोनोंके सुझावों ने उपन्यास के अनुवाद को निखारा है।
एक तो प्रागैतिहास कालीन उपन्यास- तिस पर एक खास ऍन्थ्रोपोलॉजिकल तथ्य को आधार बनाकर लिखा हुआ- फिर भी मुझे विश्वास है कि हिंदी के प्रबुद्ध पाठक इसका स्वागत करेंगे, क्योंकि किसी पाठक के मन में जिज्ञासा और नवीनता के लिये जो अकुलाहट होती है- यह उपन्यास उसका समाधान करता है।
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गुरुवार, 19 मार्च 2009
महिला समस्या सहारा (18-04-2001)
महिला समस्या सहारा
(mahila samasya sahara) नोट:- यह लीना मेहेंदले के व्यक्तिगत विचार और सुझाव हैं।
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राष्ट्रीय सहारा
१८/४/२००१ के लिये
प्रश्न १:- शादीके नौ वर्ष हो गये। दहेजके लियेे पतिने तंग करना आरंभ किया तो मैं मैके आ गई। साथमें दो बच्चियाँ भी हैं । पति कोई पैसे नही देता। मुझे क्या करना चाहिये?
शादी के सात वर्ष बाद पति आपसे दहेज माँगना शुरु करे यह बात कुछ समझ में नही आती। आप शारिरिक यातनाओंके विरुध्द भी रपट दर्ज करा सकती हैं और दहेज माँगने के बाबत भी। गुजारा भत्तेके लिये भी आप भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के अंतर्गत पुलिस व कोर्ट में जा सकती हैं। या फिर राष्ट्रीय महिला आयोग में विस्तार से अपनी शिकायत भेज सकती हैं। गुजारा भत्ता केवल आपको ही नही, लडकियों को भी मिलेगा।
प्रश्न २:- मैं तेइस वर्षकी हूँ। जिस लडकेसे प्यार करती हूँ वह माँ-पिताको पसंंद नही है, वे शादीके लिये राजी नही। हमारे शारिरिक संबंध बन गये और अब मैं पेटसे हूँ। क्या मैं माता-पिताकी इच्छा विरुद्ध शादी कर सकती हूँ?
आप बालिग हैं। यदि लडका आपसे शादी करने के लिये तैयार है तो आपको रजिस्टर्ड मॅरिज कर लेना चाहिये, वरना गर्भ की बात कितने दिन छुपी रहेगी? फिर इस दौरान जो मानसिक तनाव होगा उसका गर्भ पर बुरा असर पड सकता है। आपको तुरंत रजिस्टर्ड मॅरिज कर लेना चाहिये।
प्रश्न ३:- हमारी शादी के चार साल हो चुके और हम सास-ससुरसे अलग घरमें रहना चाहतेे हैं, परन्तु ससुरने धमकी दी है कि वे हमें संपत्तिसे बेदखल कर देंगे। संपत्तिमें अपना हक पाने के लिये मेरे पति को क्या करना चाहिये ?
आपके ससुर की अपनी मेहनतसे कमाई संपत्ति में आपके पति का कोई हक नही बनता है। पैतृक संपत्ति में अवशय ही आपके पति हक माँग सकते हैं और न मिलता हो तो सिविल कोर्ट में केस कर सकते हैं। दूसरी ओर आप यह भी सोच सकती हैं कि यदि पति की कमाई ठीक ठाक है और आप दोनो आपस में खुश हैं तो असल कमाई तो आपने पा ही ली। आगे की सलाह इस बात पर निर्भर करेगी कि आपके पति के अन्य भाई-बहन कितने हैं और आपका उनसे व्यवहार कैसा है। लेकिन मैं अपने व्यक्तिगत उदाहरणसे जानती हूँ कि छोटेमोटे झगडे हों तो उन्हें टालकर एकत्र रहनेमें सबका फायदा होता है। सरसे पानी गुजर जाय तो ही अलग होना चाहिये।
प्रश्न ४:- मेरी आयु 12 वर्ष की है और घरमें सौतेली माँ, सौतेले भाई-बहन हैं जिस कारण पिा मेरी पिटाई और शारिरिक शोषण करे हैं। मैं किससे मदद माँगू ?
तुम्हारा शारिरिक शोषण क्या होता है, यह तुम्हें खुलासेवार बताना होगा। बच्चों को मारपीट करना कानून की आँखों में गंभीर अपराध है और तुम पुलिस में या महिला आयोग या अपने राज्यके मानवधिकार आयोग में जा सकती हो। लेकिन उससे पहले क्या तुम्हारे ऐसे कोई रिश्तेदार नही बचे, जो तुम्हारे पिता को समझा
सकें, मसलन दादा-दादी, चाचा, बुआ, नानी, मामा, मौसी इत्यादि? तुम अपने स्कूल के प्रिंसिपल से भी बिनती कर सकती हो कि वे पिता को बुलाकर समझायें। क्या तुम्हारे सौतेले भाई बहन हैं? यदि हाँ तो तुम बडप्पन के नाते उनसे कैसा व्यवहार करती हो यह भी तुम्हें देखना पडेगा।
प्रश्न ५:- मेरी उम्र 73 वर्षकी है, पहली पत्नी व दूसरी पत्नी का देहान्त हुआ है। मेरी कमाई का कोई जरिया नही। परन्तु मेरा सौतेला बेटा जो सरकारमें ऊँचे ओहदेपर है, वह मुझे कोई मदद नही देता। क्या मैं महिला आयोगसे शिकायत कर सकता हूँ ?
अभी के कानून के मुताबिक सौतेले बेटेसे गुजारा भत्ता नही माँगा जा सकता।
प्रश्न ६:- मैं एक मुसलमान लडकी हूँ। मेरे पतिने दूसरी शादी करके मुझे व बच्ची को मायके भेज दिया है और कोई गुजारा नही देता। कोर्ट में उसने केस दे दी है कि वह मेहर की रकम तथा तीन महिने के गुजारे की रकम मुझे देने की पेशकश कर चुका है, लेकिन मैंने मना कर दिया था इसलिये उसे तलाकशुदा घोषित किया जाय। क्या मुझे कोई हक नही?
नसरीन (बदला हुआ नाम), फरीदाबाद
मुसलमान धर्मग्रंथों के मुताबिक भी पति दूसरी शादी तभी कर सकता है, जब वह दोनों बीवियोंसे समान रूप से व्यवहार करे और दोनों का समान रूप से खयाल रखे। तलाक चाहने पर गुजारा भी केवल ३ महीने का नही बल्कि पूरी उमर का देना पडेगा, जैसा कि हाल में मुंबई हायकोर्ट ने फैसला दिया है। इसके अलावा आप भारतीय दंड- प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ में भी कोर्ट से गुजारा भत्ते की माँग कर सकती हैं।
(mahila samasya sahara) नोट:- यह लीना मेहेंदले के व्यक्तिगत विचार और सुझाव हैं।
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राष्ट्रीय सहारा
१८/४/२००१ के लिये
प्रश्न १:- शादीके नौ वर्ष हो गये। दहेजके लियेे पतिने तंग करना आरंभ किया तो मैं मैके आ गई। साथमें दो बच्चियाँ भी हैं । पति कोई पैसे नही देता। मुझे क्या करना चाहिये?
शादी के सात वर्ष बाद पति आपसे दहेज माँगना शुरु करे यह बात कुछ समझ में नही आती। आप शारिरिक यातनाओंके विरुध्द भी रपट दर्ज करा सकती हैं और दहेज माँगने के बाबत भी। गुजारा भत्तेके लिये भी आप भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के अंतर्गत पुलिस व कोर्ट में जा सकती हैं। या फिर राष्ट्रीय महिला आयोग में विस्तार से अपनी शिकायत भेज सकती हैं। गुजारा भत्ता केवल आपको ही नही, लडकियों को भी मिलेगा।
प्रश्न २:- मैं तेइस वर्षकी हूँ। जिस लडकेसे प्यार करती हूँ वह माँ-पिताको पसंंद नही है, वे शादीके लिये राजी नही। हमारे शारिरिक संबंध बन गये और अब मैं पेटसे हूँ। क्या मैं माता-पिताकी इच्छा विरुद्ध शादी कर सकती हूँ?
आप बालिग हैं। यदि लडका आपसे शादी करने के लिये तैयार है तो आपको रजिस्टर्ड मॅरिज कर लेना चाहिये, वरना गर्भ की बात कितने दिन छुपी रहेगी? फिर इस दौरान जो मानसिक तनाव होगा उसका गर्भ पर बुरा असर पड सकता है। आपको तुरंत रजिस्टर्ड मॅरिज कर लेना चाहिये।
प्रश्न ३:- हमारी शादी के चार साल हो चुके और हम सास-ससुरसे अलग घरमें रहना चाहतेे हैं, परन्तु ससुरने धमकी दी है कि वे हमें संपत्तिसे बेदखल कर देंगे। संपत्तिमें अपना हक पाने के लिये मेरे पति को क्या करना चाहिये ?
आपके ससुर की अपनी मेहनतसे कमाई संपत्ति में आपके पति का कोई हक नही बनता है। पैतृक संपत्ति में अवशय ही आपके पति हक माँग सकते हैं और न मिलता हो तो सिविल कोर्ट में केस कर सकते हैं। दूसरी ओर आप यह भी सोच सकती हैं कि यदि पति की कमाई ठीक ठाक है और आप दोनो आपस में खुश हैं तो असल कमाई तो आपने पा ही ली। आगे की सलाह इस बात पर निर्भर करेगी कि आपके पति के अन्य भाई-बहन कितने हैं और आपका उनसे व्यवहार कैसा है। लेकिन मैं अपने व्यक्तिगत उदाहरणसे जानती हूँ कि छोटेमोटे झगडे हों तो उन्हें टालकर एकत्र रहनेमें सबका फायदा होता है। सरसे पानी गुजर जाय तो ही अलग होना चाहिये।
प्रश्न ४:- मेरी आयु 12 वर्ष की है और घरमें सौतेली माँ, सौतेले भाई-बहन हैं जिस कारण पिा मेरी पिटाई और शारिरिक शोषण करे हैं। मैं किससे मदद माँगू ?
तुम्हारा शारिरिक शोषण क्या होता है, यह तुम्हें खुलासेवार बताना होगा। बच्चों को मारपीट करना कानून की आँखों में गंभीर अपराध है और तुम पुलिस में या महिला आयोग या अपने राज्यके मानवधिकार आयोग में जा सकती हो। लेकिन उससे पहले क्या तुम्हारे ऐसे कोई रिश्तेदार नही बचे, जो तुम्हारे पिता को समझा
सकें, मसलन दादा-दादी, चाचा, बुआ, नानी, मामा, मौसी इत्यादि? तुम अपने स्कूल के प्रिंसिपल से भी बिनती कर सकती हो कि वे पिता को बुलाकर समझायें। क्या तुम्हारे सौतेले भाई बहन हैं? यदि हाँ तो तुम बडप्पन के नाते उनसे कैसा व्यवहार करती हो यह भी तुम्हें देखना पडेगा।
प्रश्न ५:- मेरी उम्र 73 वर्षकी है, पहली पत्नी व दूसरी पत्नी का देहान्त हुआ है। मेरी कमाई का कोई जरिया नही। परन्तु मेरा सौतेला बेटा जो सरकारमें ऊँचे ओहदेपर है, वह मुझे कोई मदद नही देता। क्या मैं महिला आयोगसे शिकायत कर सकता हूँ ?
अभी के कानून के मुताबिक सौतेले बेटेसे गुजारा भत्ता नही माँगा जा सकता।
प्रश्न ६:- मैं एक मुसलमान लडकी हूँ। मेरे पतिने दूसरी शादी करके मुझे व बच्ची को मायके भेज दिया है और कोई गुजारा नही देता। कोर्ट में उसने केस दे दी है कि वह मेहर की रकम तथा तीन महिने के गुजारे की रकम मुझे देने की पेशकश कर चुका है, लेकिन मैंने मना कर दिया था इसलिये उसे तलाकशुदा घोषित किया जाय। क्या मुझे कोई हक नही?
नसरीन (बदला हुआ नाम), फरीदाबाद
मुसलमान धर्मग्रंथों के मुताबिक भी पति दूसरी शादी तभी कर सकता है, जब वह दोनों बीवियोंसे समान रूप से व्यवहार करे और दोनों का समान रूप से खयाल रखे। तलाक चाहने पर गुजारा भी केवल ३ महीने का नही बल्कि पूरी उमर का देना पडेगा, जैसा कि हाल में मुंबई हायकोर्ट ने फैसला दिया है। इसके अलावा आप भारतीय दंड- प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ में भी कोर्ट से गुजारा भत्ते की माँग कर सकती हैं।
रविवार, 25 जनवरी 2009
Petetion for my Voting Right : Time to revise the outdated Rule 49-O<
The following petetion is found on net, meant for Election Commission of India.
It asks you to sign it so that our Voting Right which is a Fundamental Right, can be protected.
To sign one has to klick on
http://www.petitiononline.com/mod_perl/signed.cgi?fix_49_o&1
Time to revise the outdated Rule 49-O
Ref Election Commission Press Note No.ECI/PN/35/2008
Dated: 5th December, 2008
To:
The Chief Election Commissioner of India
Sir,
You are aware that Section 49-O of �The Conduct of Electoral Rules, 1961� reads as under :
Sec. 49-O Elector deciding not to vote:--
-----
If an elector, after his electoral roll number has been duly entered in the register of voters in Form-17A and has put his signature or thumb impression hereon as required under sub-rule (1) of rule 49L, decided not to record his vote, a remark to this effect shall be made against the said entry in Form 17A by the presiding officer and the signature or thumb impression of the elector shall be obtained against such remark.
-----
This rule was framed in 1961 after 2 general elections had been held in the country. It appears that in these 2 elections it came to the notice of ECI (Election Commission of India) that there are some voters who may not want to cast vote It is for such people that the Rules provided for the procedure of using form No.17-A as detailed in Section 49-O. For long people in this country have thought that this provision is made for those voters who have not liked the candidature of any of the contesting candidate. Otherwise why would any voter, who feels that none of the contesting candidates is worthy will still take the trouble to reach the polling booth and appear for voting? Would he/she not go to enjoy the holiday as indeed many of the voters who know that ECI does not care for their opinion do go away to a holiday picnic. Sadly your notification suggests that they were right and some of us who trusted our democratic principles were wrong.
We wish to submit that the Rules framed in 1961 are today outdated and insufficient and fail to take proper cognizance of the feelings, decision and voting right of a voter as regards the candidates contesting the election. Most important aspect is that voting choice expressed through from 17-A is not counted � its value is that of a waste-paper as indeed your notification seeks to confirm.
Any voter, who feels that none of the contesting candidates is worthy of being elected and has still taken the trouble to reach the polling booth and appear for voting, definitely wishes his or her vote to be recorded and counted. Hence the present Section 49-O needs to be modified. It should now be provided that the Ballot paper will indicate �NO CHOICE� or �None of the Above� as one of the possible voting choices and the electronic machine will also provide for this choice and have a system to record and count the same.
The Right to Express our choice through Vote is the highest right given in a democracy. Even when we wish to declare all the contesting candidates unworthy, our opinion MUST be recorded and counted during Election. Today�s rules deny us this Fundamental Right. It is a matter of abrogation of our right. People in this country look up to you and expect you to be proactive and give a platform to their feeling. Hence we the undersigned request that necessary change in the Rules be made so that all the thinking voters get a right to record their opinion which should then be counted during the process of counting of votes and be declared while declaring the results of election. This will necessitate some further reforms which we hope, will occur eventually.
Sincerely,
The Undersigned
To sign one has to klick on
http://www.petitiononline.com/mod_perl/signed.cgi?fix_49_o&1
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Also see a Navbharat Times news here.
And a TOI news
And yet another TOI news
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Time to revise the outdated Rule 49-O
Ref Election Commission Press Note No.ECI/PN/35/2008
Dated: 5th December, 2008
To:
The Chief Election Commissioner of India
Sir,
You are aware that Section 49-O of �The Conduct of Electoral Rules, 1961� reads as under :
Sec. 49-O Elector deciding not to vote:--
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If an elector, after his electoral roll number has been duly entered in the register of voters in Form-17A and has put his signature or thumb impression hereon as required under sub-rule (1) of rule 49L, decided not to record his vote, a remark to this effect shall be made against the said entry in Form 17A by the presiding officer and the signature or thumb impression of the elector shall be obtained against such remark.
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This rule was framed in 1961 after 2 general elections had been held in the country. It appears that in these 2 elections it came to the notice of ECI (Election Commission of India) that there are some voters who may not want to cast vote It is for such people that the Rules provided for the procedure of using form No.17-A as detailed in Section 49-O. For long people in this country have thought that this provision is made for those voters who have not liked the candidature of any of the contesting candidate. Otherwise why would any voter, who feels that none of the contesting candidates is worthy will still take the trouble to reach the polling booth and appear for voting? Would he/she not go to enjoy the holiday as indeed many of the voters who know that ECI does not care for their opinion do go away to a holiday picnic. Sadly your notification suggests that they were right and some of us who trusted our democratic principles were wrong.
We wish to submit that the Rules framed in 1961 are today outdated and insufficient and fail to take proper cognizance of the feelings, decision and voting right of a voter as regards the candidates contesting the election. Most important aspect is that voting choice expressed through from 17-A is not counted � its value is that of a waste-paper as indeed your notification seeks to confirm.
Any voter, who feels that none of the contesting candidates is worthy of being elected and has still taken the trouble to reach the polling booth and appear for voting, definitely wishes his or her vote to be recorded and counted. Hence the present Section 49-O needs to be modified. It should now be provided that the Ballot paper will indicate �NO CHOICE� or �None of the Above� as one of the possible voting choices and the electronic machine will also provide for this choice and have a system to record and count the same.
The Right to Express our choice through Vote is the highest right given in a democracy. Even when we wish to declare all the contesting candidates unworthy, our opinion MUST be recorded and counted during Election. Today�s rules deny us this Fundamental Right. It is a matter of abrogation of our right. People in this country look up to you and expect you to be proactive and give a platform to their feeling. Hence we the undersigned request that necessary change in the Rules be made so that all the thinking voters get a right to record their opinion which should then be counted during the process of counting of votes and be declared while declaring the results of election. This will necessitate some further reforms which we hope, will occur eventually.
Sincerely,
The Undersigned
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मंगलवार, 20 जनवरी 2009
महाराष्ट्र की भक्ति परंपरा में विठ्ठल
महाराष्ट्र की भक्ति परंपरा में विठ्ठल
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
भक्ति व श्रध्दा मनुष्य जीवन में बडे सशक्त संबल का काम करते हैं| समाज को संभालने, चलाने और संपुष्ट करने में जिन सामूहिक या सांघिक गुणों का बडा उपयोग रहा है, भक्ति उनमे प्रमुख है | प्रेम, भक्ति, मैत्री, करुणा आदि कई छटाएँ हैं जो मनुष्य के निजी और सामाजिक जीवन को एक अलग ही रंग में रंग देते हैं |
किसीने भगवान से पूछा कि तुम कहाँ रहते हो, तो उत्तर मिला - भक्तों के हृदय में रहता हूँ | उससे कहा - सिद्ब कर दिखाओ | तो भगवान ने हनुमान जी को प्रेरणा दी और हनुमान ने अपना हृदय चीर कर दिखा दिया कि वहाँ राम थे | महाभारत के समर प्रसंग में अर्जुन को विश्र्वरुप दिखाने के बाद भगवान ने कहा - इस तरह से मेरे रुप को देख पाना उनके लिये नही है जो केवल ज्ञानी हैं या तपस्वी हैं या दान पुण्य करने वाले हैं | तुम मेरे अनन्य भक्त हो, इसी अनन्य भक्ति के कारण मुझे तुम देख सकते हो |
किंवदंती है कि महाराष्ट्र के पंढरपुर गांव में पुण्डलीक नामक एक युवक रहता था | वृध्द माँ-बाप बिमार हो गए अतएव उनकी सेवा कर रहा था और विपन्न अवस्था से चल रहा था | तो कृष्ण और रुक्मिणी मे संवाद हुआ | रुक्मिणी ने कहा - तुम्हे जाकर उस युवक से मिलना चाहिए और उसकी सहायता करनी चाहिए |
कृष्ण चलकर पुण्डलीेक के घर आए | वह सेवा में जुटा था | दरवाजे सें अंदर किसी व्यक्ति के आने का भान हुआ तो बिना उधर देखे पूछा - कौन हो ? इसने बताया मैं विठ्ठल हूँ, तुम्हारी सहायता करना चाहता हूँ | पुण्डलीक ने फिर बिना देखे एक ईंट उसकी तरफ फेंक दी और कहा - इसी पर विश्राम करो, मैं माँ पिता की सेवा समाप्त कर लूँ तो तुमसे मिलता हँू | सेवा लम्बी चली और विठ्ठल महाशय ईट पर खडे के खडे | बडी देर हुई तो रुक्मिणी खोजते हुए आई | पुण्डलीक ने यह जानकर कि और कोई व्यक्ति घर के अंदर आया है, उसके लिए भी एक ईट सरका दी |
तबसे दोनों - विठ्ठल और रुक्मिणी - वहीं ईट पर खडे, कमर पर हाथ धरे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पुण्डलीक की माता - पिता - सेवा समाप्त हो, वह उनकी तरफ देखे तो आगे बात बढे | फँस कर रह गए | लोग पुण्डलीक के घर आते गए, भगवान के दर्शन कर धन्य होते गए | ताँता लग गया | बेचारे विठ्ठल और रुक्मिणी भक्त के बंधन में फँस गए | अब भागकर निकले कैसे ?
माना जाता है कि यह घटना करीब एक हजार वर्ष पूर्व की है | तब से महाराष्ट्र, कर्नाटक और अन्य दक्षिणी राज्यों में विठ्ठल भक्ति की परंपरा है | प्राय: हर बडे गाँव में छोटा या बडा विठ्ठल मंदिर अवश्य होता है | महाराष्ट्रमें कृष्ण मंदिर कम ही मिलते हैं उनका विठ्ठल रूप ही मंदिरोंमे विराजना है - वह भी रुक्मिणी के साथ | विठ्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर जाने की परिपाटी भी चल पडी | सो भी अपने गाँव से निकलकर पैदल | खासकर आषाढ की एकादशी से कार्तिक एकादशी तक | यही वह समय है जब चातुर्मास भी चल रहा होता है | किसान भी बोआई कर चुके होते हैं और अगले दो महीनों तक खेतोंको उनकी आवश्यकता नही होती | चूँकि विठ्ठल के साथ साथ रुक्मिणी भी है अतएव दर्शनार्थियों में महिलाओं की भी भारी संख्या होती है | पंढरपुर में कुछ काल रहकर भक्ति सागर में डुबकी लगाने की परंपरा भी चली आ रही हैं |
वैसे पंढरपुर देवालय के एक ट्रस्टी बताते हैं कि न्यायिक जाँच के दौरान जो इतिहास दर्ज हुआ वह यों है कि जब अल्लाउद्दिन खिलजी ने विजयनगर राज्य पर चढाई की और लूटपाट मचाते हुए देव - मंदिरों की मूतियाँ तोडने लगा तो विजयनगर के राजा ने चाहा कि उसके राज्य के मंदिर में स्थित इन मूर्तियों की पूजा भी न रूके और खिलजी के सिपाहियों को भनक भी न लगे | अतएव उसने एक साधारण गरीब परिवार में इन मूर्तियों को रखवा दिया और फिर वहीं पर मंदिर बन गया |
पश्चिम महाराष्ट्र की एक महत्वपूर्ण नदी भीमा है | इसका उगम पुणे जिले के भीमाशंकर स्थान से होता है जो कि भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है | दक्षिण - पूरब की और बहती हुई यह भीमा जब पंढरपुर पहुँचती है तो चंद्राकृति मे पुरे शहर की परिक्रमा करती हुई विठ्ठल मंदिर के पास से गुजरती है | यहाँ इसका नाम पड जाता है -चंद्रभागा | विशाल, संथ जलप्रवाह और दोनो ओर काफी चौडाई में फैला हुआ चमकता बालुकामय किनारा | श्रद्घालुओं के लिए सारी मनभावन रचना | यह भी विठ्ठल का ही प्रताप माना जाता है |
तेरहवी सदी में पुणे के पास एक विद्बान विठ्ठल कुलकर्णी और उनकी पत्नी रखुमाबाई ( रुक्मिणी नाम का ग्रामीण रुप ) के घर तीन पुत्र निवृत्ति, ज्ञानदेव, सोपानदेव और कन्या मुक्ताबाई ने जन्म लिया | उनकी पूरी कथा वेदना, परिश्रम, ज्ञान, साधना और मुक्ति की कथा है| यही ज्ञानदेव आगे ज्ञानेश्वर कहलाए जिन्हे महाराष्ट्र का संत शिरोमणी माना जाता हैं | उन्होंने प्राकृत मराठी में भगवद्गीता का विस्तृत विवेचन काव्य बद्घ किया है | करीब साढे तीन हजार अभंगोवाली यह ज्ञानेश्वरी अपने आप में एक अद्भूत महाग्रंथ है जिसकी तुलना केवल ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य या तुलसी रामायण से की जा सकती है |
ज्ञानेश्र्वरी की रचना के बाद चारों बहन भाइयों ने पंढरपूर की यात्रा की | जिनके माता पिता के नाम भी रखुमाई और विठ्ठल ही हों, वे पंढरपूर निवासी रखुमाई - विठ्ठल की स्तुति मे जब लिखेंगे तो कैसा अद्भूत लिखेंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है | उनके समकालीन कई संत तथा भक्त उन दिनों पंढरपुर या आसपास निवास कर रहे थे | उनमे नामदेव हैं, संत जनाबाई है, गोरा कुम्हार है, नरहरि सोनार है | पंढरपुर मे इस संत समागम से जो समाँ बंधा, उसके प्रतीक के रुप में भी आषाढ और कार्तिक एकादशी के दिन वहाँ पहुँचने की परंपरा ने जो जोर पकडा वह आज तक कायम है और निरंतर बढ रहा है |
महाराष्ट्र में विठ्ठल को एक ओर रखुमाईवरु अर्थात रखुमाई का पति तो साथ साथ माउली अर्थात माता के रूप में भी देखा जाता है। विठू(पुरुषवाचक), विठा(स्त्रीवाचक) सखा, राया जैसे अपनत्वभरे संबोधन जहाँ कोई तर्क नही केवल श्रद्धा है। विठ्ठलभक्ति किस उंचाई पर पहुँची है इसका अंदाज नामदेव के एक अभंग से लगाया जा सकता है |
देव म्हणे नाम्या पाहे परतून
तुज आलो असे मी शरण
न करि उदास, चाली तू पंढरी
ऐसे बोले हरि, नामियासी |
अर्थात् विठ्ठल पर रूठ कर जब नामदेव ने पंढरी छोडकर जाने का निश्चय किया, और गांव की सीमा लांघनेही वाला था कि विठ्ठल ने पीछे पीछे जाकर कहा - हे नामदेव, वापस मुडकर देखो, मैं तुम्हारी शरण आया हूँ, तुम मेरे से यूं मत रूठो और पंढरी छोड कर मत जाओ, ऐसे हरी ने नामदेव को मनाया |
ऐसा धन्य है पंढरपुर जहाँ भगवान ही भक्त की शरण में आता हैं | बाद में ज्ञानेश्वर और नामदेव ने पूरे उत्तर भारत की एकत्रित यात्रा की | इसके उपरान्त ज्ञानेश्वर ने समाधी ग्रहण की |
इससे दुखी नामदेवने पुन: उत्तर भारत के उन स्थानों पर यात्रा की जहाँ वेपहले ज्ञानेश्वर के साथ आए थे | इस यात्रा में उन्होंने हिंदी में दोहे और अभंग रचे जिनमें से कई गुरु ग्रंथ साहब में शामिल हैं | नामदेव के करीब सौ वर्षों के अंतर से गुरु नानक देव अवतीर्ण हुए थे और नामदेव के पदोंने उन्हें काफी प्रभावित किया था | इसी कारण उन्होंने नामदेव के पदोंको गुरू ग्रंथ साहिब में शामिल किया और स्वयं भी तीर्थयात्रा करते हुए नाशिक तक पधारे थे | कितने दुख की बात है कि नामदेव के इन हिंदी दोहोंकी पढाई महाराष्ट्र में नही होती और नामदेव के मराठी साहित्य की पढाई हिंदी या पंजाबी में नही होती | भारत के राष्ट्रपती के कार्यकाल के दौरान श्री ज्ञानी जैल सिंह ने पुणे विश्वविद्यालय में एक नामदेव - चेअर की स्थापना करवा दी है, बस !
सत्रहवीं सदी में महाराष्ट्र के अनन्य संत तुकाराम भी विठ्ठल भक्ति में पूरी तरह रंगे हुए थे, इतने कि वे विठ्ठल को डाँट फटकार भी सकते थे। कहा जाता है की महाराष्ट्र की भक्ति परंपरा की नींव रचकर और उसे ठोक पीट कर मजबूत करने का काम ज्ञानेश्वर ने किया तो तुकाराम उस भक्ति मंदिर के स्वर्ण शिखर बने | मराठी में कहते हैं - ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झालासे कळस ।
इसी लिए जब आषाढ के महिने में पंढरपुर की वारी (यात्रा) का समय आता है तो पहले आलंदी ग्राम से ज्ञानदेव की पालकी चलती है, बाद में देहू ग्राम से तुकाराम की पालकी आती है, और ये दोनों पंढरपुर तक जाते हैं | बीच बीच में अन्य लोग और छोटी मोटी पालकियाँ जुडती रहती हैं | विदर्भ, मराठवाडा जैसे महाराष्ट्र के दूर-दराज के सूबों से चलकर लोग आते रहते हैं, कोई पचास किलोमीटर से तो कोई पांचसौ किलोमीटर से | आषाढ के महिने में ये वारकरी अलग अलग समूहों में चलते रहते है | कई समूहोंमें केवल महिलाएँ ही होती है | कई बार दो-तीन के गुट में या इक्का दुक्का भी बेझिझक चलनेवाली महिलाएँ देखी जा सकती है | वैसे तो यात्रा परंपरा पूरे भारतवर्ष में है | वैद्यनाथ धाम, हरिद्बार, ऋषीकेश और गंगोत्री से रामेश्र्वर तक की यात्रा करनेवाले कितने काँवडिये हर वर्ष देखे जा सकते हैं | लेकिन उनमें महिलाओं को मैंने कभी कभार ही देखा है | इसे भी मैं महाराष्ट्र की एक विशेषता मानती हूँ |
वारकरी परंपरा सामाजिक प्रबोधन की एक सशक्त पाठशाला है | आषाढ और कार्तिक के महिने में हर दिन एक एक लाख के करीब वारकरी पंढरपुर पहुँचते है | वहाँ इन में से कई हजार पंढरपुर की “माला धारण” करते है | फिर इन्हें वारकरी नही बल्कि माळकरी कहा जाता है | ऐसा व्यक्ति जब तक माला धारण करे, वह तंबाखू, शराब या कोई अन्य दुर्व्यसन नही करता, न ही मांसाहार करता है | माला उतारने के लिये वापस पंढरपुर जाना पडता है |
मैनें अपनी नौकरी के सिलसिले में महाराष्ट्र के कई गाँवों में घूमते हुए ऐसे कई माळकरी देखे हैं जिनके जीवन में माला लेने के बाद एक अनोखा परिवर्तन आया है | महाराष्ट्र में कई तथाकथित नीची जातियों में भी शाकाहार और वैष्णव धर्म की परंपरा है जिसके पीछे पंढरपूर एक बडा प्रभावी कारण रहा है |
कई वर्षो से मेरे मन में एक सपना है | महीने दो महीने की पैदल यात्रा करते हुए पंढरपुर पहुँचने वाले वारकरियों के भोजन, विश्राम आदि के लिये गांव-गांव के श्रद्घालु छावनी, भोजन इत्यादि की व्यवस्था करते है | यदि उसी दौरान इनके हाथ में रुई की पुनियाँ और तकली सौंपी जाये, और उनके द्बारा काते गए सूत को अगले पडाव पर खरीद लेने की व्यवस्था हो, तो कितने अधिक मानव - श्रम का सदुपयोग किया जा सकेगा ! उसी सूत से चादर या गमछा बुनकर उसे चढावे के रुप में विठ्ठल पर चढाकर फिर उन्ही वारकरियों को प्रसाद स्वरुप भेंट दिया जाय तो कैसा रहेगा ? ऐसा प्रसाद जब घर घर पहुँचेगा तो उस श्रम - प्रतिष्ठा से हमारा समाज धन्य हो जायगा |
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पत्ता : 15, सुनिती अपार्टमेंट, जगन्नाथ भोसले मार्ग, मंत्रालय के सामने, मुंबई - 21.
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
भक्ति व श्रध्दा मनुष्य जीवन में बडे सशक्त संबल का काम करते हैं| समाज को संभालने, चलाने और संपुष्ट करने में जिन सामूहिक या सांघिक गुणों का बडा उपयोग रहा है, भक्ति उनमे प्रमुख है | प्रेम, भक्ति, मैत्री, करुणा आदि कई छटाएँ हैं जो मनुष्य के निजी और सामाजिक जीवन को एक अलग ही रंग में रंग देते हैं |
किसीने भगवान से पूछा कि तुम कहाँ रहते हो, तो उत्तर मिला - भक्तों के हृदय में रहता हूँ | उससे कहा - सिद्ब कर दिखाओ | तो भगवान ने हनुमान जी को प्रेरणा दी और हनुमान ने अपना हृदय चीर कर दिखा दिया कि वहाँ राम थे | महाभारत के समर प्रसंग में अर्जुन को विश्र्वरुप दिखाने के बाद भगवान ने कहा - इस तरह से मेरे रुप को देख पाना उनके लिये नही है जो केवल ज्ञानी हैं या तपस्वी हैं या दान पुण्य करने वाले हैं | तुम मेरे अनन्य भक्त हो, इसी अनन्य भक्ति के कारण मुझे तुम देख सकते हो |
किंवदंती है कि महाराष्ट्र के पंढरपुर गांव में पुण्डलीक नामक एक युवक रहता था | वृध्द माँ-बाप बिमार हो गए अतएव उनकी सेवा कर रहा था और विपन्न अवस्था से चल रहा था | तो कृष्ण और रुक्मिणी मे संवाद हुआ | रुक्मिणी ने कहा - तुम्हे जाकर उस युवक से मिलना चाहिए और उसकी सहायता करनी चाहिए |
कृष्ण चलकर पुण्डलीेक के घर आए | वह सेवा में जुटा था | दरवाजे सें अंदर किसी व्यक्ति के आने का भान हुआ तो बिना उधर देखे पूछा - कौन हो ? इसने बताया मैं विठ्ठल हूँ, तुम्हारी सहायता करना चाहता हूँ | पुण्डलीक ने फिर बिना देखे एक ईंट उसकी तरफ फेंक दी और कहा - इसी पर विश्राम करो, मैं माँ पिता की सेवा समाप्त कर लूँ तो तुमसे मिलता हँू | सेवा लम्बी चली और विठ्ठल महाशय ईट पर खडे के खडे | बडी देर हुई तो रुक्मिणी खोजते हुए आई | पुण्डलीक ने यह जानकर कि और कोई व्यक्ति घर के अंदर आया है, उसके लिए भी एक ईट सरका दी |
तबसे दोनों - विठ्ठल और रुक्मिणी - वहीं ईट पर खडे, कमर पर हाथ धरे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पुण्डलीक की माता - पिता - सेवा समाप्त हो, वह उनकी तरफ देखे तो आगे बात बढे | फँस कर रह गए | लोग पुण्डलीक के घर आते गए, भगवान के दर्शन कर धन्य होते गए | ताँता लग गया | बेचारे विठ्ठल और रुक्मिणी भक्त के बंधन में फँस गए | अब भागकर निकले कैसे ?
माना जाता है कि यह घटना करीब एक हजार वर्ष पूर्व की है | तब से महाराष्ट्र, कर्नाटक और अन्य दक्षिणी राज्यों में विठ्ठल भक्ति की परंपरा है | प्राय: हर बडे गाँव में छोटा या बडा विठ्ठल मंदिर अवश्य होता है | महाराष्ट्रमें कृष्ण मंदिर कम ही मिलते हैं उनका विठ्ठल रूप ही मंदिरोंमे विराजना है - वह भी रुक्मिणी के साथ | विठ्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर जाने की परिपाटी भी चल पडी | सो भी अपने गाँव से निकलकर पैदल | खासकर आषाढ की एकादशी से कार्तिक एकादशी तक | यही वह समय है जब चातुर्मास भी चल रहा होता है | किसान भी बोआई कर चुके होते हैं और अगले दो महीनों तक खेतोंको उनकी आवश्यकता नही होती | चूँकि विठ्ठल के साथ साथ रुक्मिणी भी है अतएव दर्शनार्थियों में महिलाओं की भी भारी संख्या होती है | पंढरपुर में कुछ काल रहकर भक्ति सागर में डुबकी लगाने की परंपरा भी चली आ रही हैं |
वैसे पंढरपुर देवालय के एक ट्रस्टी बताते हैं कि न्यायिक जाँच के दौरान जो इतिहास दर्ज हुआ वह यों है कि जब अल्लाउद्दिन खिलजी ने विजयनगर राज्य पर चढाई की और लूटपाट मचाते हुए देव - मंदिरों की मूतियाँ तोडने लगा तो विजयनगर के राजा ने चाहा कि उसके राज्य के मंदिर में स्थित इन मूर्तियों की पूजा भी न रूके और खिलजी के सिपाहियों को भनक भी न लगे | अतएव उसने एक साधारण गरीब परिवार में इन मूर्तियों को रखवा दिया और फिर वहीं पर मंदिर बन गया |
पश्चिम महाराष्ट्र की एक महत्वपूर्ण नदी भीमा है | इसका उगम पुणे जिले के भीमाशंकर स्थान से होता है जो कि भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है | दक्षिण - पूरब की और बहती हुई यह भीमा जब पंढरपुर पहुँचती है तो चंद्राकृति मे पुरे शहर की परिक्रमा करती हुई विठ्ठल मंदिर के पास से गुजरती है | यहाँ इसका नाम पड जाता है -चंद्रभागा | विशाल, संथ जलप्रवाह और दोनो ओर काफी चौडाई में फैला हुआ चमकता बालुकामय किनारा | श्रद्घालुओं के लिए सारी मनभावन रचना | यह भी विठ्ठल का ही प्रताप माना जाता है |
तेरहवी सदी में पुणे के पास एक विद्बान विठ्ठल कुलकर्णी और उनकी पत्नी रखुमाबाई ( रुक्मिणी नाम का ग्रामीण रुप ) के घर तीन पुत्र निवृत्ति, ज्ञानदेव, सोपानदेव और कन्या मुक्ताबाई ने जन्म लिया | उनकी पूरी कथा वेदना, परिश्रम, ज्ञान, साधना और मुक्ति की कथा है| यही ज्ञानदेव आगे ज्ञानेश्वर कहलाए जिन्हे महाराष्ट्र का संत शिरोमणी माना जाता हैं | उन्होंने प्राकृत मराठी में भगवद्गीता का विस्तृत विवेचन काव्य बद्घ किया है | करीब साढे तीन हजार अभंगोवाली यह ज्ञानेश्वरी अपने आप में एक अद्भूत महाग्रंथ है जिसकी तुलना केवल ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य या तुलसी रामायण से की जा सकती है |
ज्ञानेश्र्वरी की रचना के बाद चारों बहन भाइयों ने पंढरपूर की यात्रा की | जिनके माता पिता के नाम भी रखुमाई और विठ्ठल ही हों, वे पंढरपूर निवासी रखुमाई - विठ्ठल की स्तुति मे जब लिखेंगे तो कैसा अद्भूत लिखेंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है | उनके समकालीन कई संत तथा भक्त उन दिनों पंढरपुर या आसपास निवास कर रहे थे | उनमे नामदेव हैं, संत जनाबाई है, गोरा कुम्हार है, नरहरि सोनार है | पंढरपुर मे इस संत समागम से जो समाँ बंधा, उसके प्रतीक के रुप में भी आषाढ और कार्तिक एकादशी के दिन वहाँ पहुँचने की परंपरा ने जो जोर पकडा वह आज तक कायम है और निरंतर बढ रहा है |
महाराष्ट्र में विठ्ठल को एक ओर रखुमाईवरु अर्थात रखुमाई का पति तो साथ साथ माउली अर्थात माता के रूप में भी देखा जाता है। विठू(पुरुषवाचक), विठा(स्त्रीवाचक) सखा, राया जैसे अपनत्वभरे संबोधन जहाँ कोई तर्क नही केवल श्रद्धा है। विठ्ठलभक्ति किस उंचाई पर पहुँची है इसका अंदाज नामदेव के एक अभंग से लगाया जा सकता है |
देव म्हणे नाम्या पाहे परतून
तुज आलो असे मी शरण
न करि उदास, चाली तू पंढरी
ऐसे बोले हरि, नामियासी |
अर्थात् विठ्ठल पर रूठ कर जब नामदेव ने पंढरी छोडकर जाने का निश्चय किया, और गांव की सीमा लांघनेही वाला था कि विठ्ठल ने पीछे पीछे जाकर कहा - हे नामदेव, वापस मुडकर देखो, मैं तुम्हारी शरण आया हूँ, तुम मेरे से यूं मत रूठो और पंढरी छोड कर मत जाओ, ऐसे हरी ने नामदेव को मनाया |
ऐसा धन्य है पंढरपुर जहाँ भगवान ही भक्त की शरण में आता हैं | बाद में ज्ञानेश्वर और नामदेव ने पूरे उत्तर भारत की एकत्रित यात्रा की | इसके उपरान्त ज्ञानेश्वर ने समाधी ग्रहण की |
इससे दुखी नामदेवने पुन: उत्तर भारत के उन स्थानों पर यात्रा की जहाँ वेपहले ज्ञानेश्वर के साथ आए थे | इस यात्रा में उन्होंने हिंदी में दोहे और अभंग रचे जिनमें से कई गुरु ग्रंथ साहब में शामिल हैं | नामदेव के करीब सौ वर्षों के अंतर से गुरु नानक देव अवतीर्ण हुए थे और नामदेव के पदोंने उन्हें काफी प्रभावित किया था | इसी कारण उन्होंने नामदेव के पदोंको गुरू ग्रंथ साहिब में शामिल किया और स्वयं भी तीर्थयात्रा करते हुए नाशिक तक पधारे थे | कितने दुख की बात है कि नामदेव के इन हिंदी दोहोंकी पढाई महाराष्ट्र में नही होती और नामदेव के मराठी साहित्य की पढाई हिंदी या पंजाबी में नही होती | भारत के राष्ट्रपती के कार्यकाल के दौरान श्री ज्ञानी जैल सिंह ने पुणे विश्वविद्यालय में एक नामदेव - चेअर की स्थापना करवा दी है, बस !
सत्रहवीं सदी में महाराष्ट्र के अनन्य संत तुकाराम भी विठ्ठल भक्ति में पूरी तरह रंगे हुए थे, इतने कि वे विठ्ठल को डाँट फटकार भी सकते थे। कहा जाता है की महाराष्ट्र की भक्ति परंपरा की नींव रचकर और उसे ठोक पीट कर मजबूत करने का काम ज्ञानेश्वर ने किया तो तुकाराम उस भक्ति मंदिर के स्वर्ण शिखर बने | मराठी में कहते हैं - ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झालासे कळस ।
इसी लिए जब आषाढ के महिने में पंढरपुर की वारी (यात्रा) का समय आता है तो पहले आलंदी ग्राम से ज्ञानदेव की पालकी चलती है, बाद में देहू ग्राम से तुकाराम की पालकी आती है, और ये दोनों पंढरपुर तक जाते हैं | बीच बीच में अन्य लोग और छोटी मोटी पालकियाँ जुडती रहती हैं | विदर्भ, मराठवाडा जैसे महाराष्ट्र के दूर-दराज के सूबों से चलकर लोग आते रहते हैं, कोई पचास किलोमीटर से तो कोई पांचसौ किलोमीटर से | आषाढ के महिने में ये वारकरी अलग अलग समूहों में चलते रहते है | कई समूहोंमें केवल महिलाएँ ही होती है | कई बार दो-तीन के गुट में या इक्का दुक्का भी बेझिझक चलनेवाली महिलाएँ देखी जा सकती है | वैसे तो यात्रा परंपरा पूरे भारतवर्ष में है | वैद्यनाथ धाम, हरिद्बार, ऋषीकेश और गंगोत्री से रामेश्र्वर तक की यात्रा करनेवाले कितने काँवडिये हर वर्ष देखे जा सकते हैं | लेकिन उनमें महिलाओं को मैंने कभी कभार ही देखा है | इसे भी मैं महाराष्ट्र की एक विशेषता मानती हूँ |
वारकरी परंपरा सामाजिक प्रबोधन की एक सशक्त पाठशाला है | आषाढ और कार्तिक के महिने में हर दिन एक एक लाख के करीब वारकरी पंढरपुर पहुँचते है | वहाँ इन में से कई हजार पंढरपुर की “माला धारण” करते है | फिर इन्हें वारकरी नही बल्कि माळकरी कहा जाता है | ऐसा व्यक्ति जब तक माला धारण करे, वह तंबाखू, शराब या कोई अन्य दुर्व्यसन नही करता, न ही मांसाहार करता है | माला उतारने के लिये वापस पंढरपुर जाना पडता है |
मैनें अपनी नौकरी के सिलसिले में महाराष्ट्र के कई गाँवों में घूमते हुए ऐसे कई माळकरी देखे हैं जिनके जीवन में माला लेने के बाद एक अनोखा परिवर्तन आया है | महाराष्ट्र में कई तथाकथित नीची जातियों में भी शाकाहार और वैष्णव धर्म की परंपरा है जिसके पीछे पंढरपूर एक बडा प्रभावी कारण रहा है |
कई वर्षो से मेरे मन में एक सपना है | महीने दो महीने की पैदल यात्रा करते हुए पंढरपुर पहुँचने वाले वारकरियों के भोजन, विश्राम आदि के लिये गांव-गांव के श्रद्घालु छावनी, भोजन इत्यादि की व्यवस्था करते है | यदि उसी दौरान इनके हाथ में रुई की पुनियाँ और तकली सौंपी जाये, और उनके द्बारा काते गए सूत को अगले पडाव पर खरीद लेने की व्यवस्था हो, तो कितने अधिक मानव - श्रम का सदुपयोग किया जा सकेगा ! उसी सूत से चादर या गमछा बुनकर उसे चढावे के रुप में विठ्ठल पर चढाकर फिर उन्ही वारकरियों को प्रसाद स्वरुप भेंट दिया जाय तो कैसा रहेगा ? ऐसा प्रसाद जब घर घर पहुँचेगा तो उस श्रम - प्रतिष्ठा से हमारा समाज धन्य हो जायगा |
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पत्ता : 15, सुनिती अपार्टमेंट, जगन्नाथ भोसले मार्ग, मंत्रालय के सामने, मुंबई - 21.
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