रविवार, 4 जुलाई 2021

हिंदू धर्म में संन्यास -- महानगर बुधवार 3 मई 1995

 

हिंदू धर्म में संन्यास -- महानगर बुधवार 3 मई 1995

पश्चिमी दुनिया में बहु-चर्चित जितनी भी आधुनिक मैनेजमेंट टेकनिक की किताबें हैं, उन सब में एक सूत्र समान है, वह यह कि किसी उद्योग या व्यवसाय में सफल होने के लिए मनुष्य का महत्वाकांक्षी होना आवश्यक है, यही सूत्र वहां के वरिष्ठ प्रशासकीय अधिकारियों पर भी लागू किया जाता है और कई बार भारतीय अधिकारी भी इस सूत्र से प्रभावित हो ही जाते बृहै, इसके बावजूद भारतीय प्रशासन में कई ऐसे अधिकारी पाये जाते हैं जो अपनी कर्तव्यदक्षता, ईमानदारी और काम में अच्छा अंजाम देनेवाले हैं, जनसामान्य के प्रश्नों के प्रति संवेदनशील हैं पर फिर भी उन्हें महत्वाकांक्षी नहीं कहा जा सकता. वे अपना काम अच्छी तरह निभा लेने में ही अपनी महारत समझते हैं और इस बात की परवाह नहीं करते कि उन्हें अच्छा पद दिया जा रहा है या नहीं थोडे शब्दों में कहा जाय तो उनके लिए उचित शब्द होगा अलमस्त या फक्कङ इसिलिए एक दिन हमारी चर्चा मंडली में यह चर्चा चली कि हमारा आदर्श कौन है और बडा ही महत्वकांक्षी है. या वह जो काम का तो पक्का है लेकिन अपनी अलमस्ती में खुश है संतुष्ट है, यह भी तय रहा कि ऐसा प्रश्न किसी पश्चिमा चर्चा मंडली में उठेगा ही नहीं क्योंकि उस सोसायटी में महत्वाकांक्षी न होना ही एक कमी या कमजोरी मानी जायेगी. लेकिन भारतीय मानसिकताने ने संतोष को एक कमजोरी नहीं बल्कि गुण कहकर जाना है. जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान. अतः सवाल उठा कि क्या यह संतोष की मानसिकता आज के युग में भी कोई मायने रखती है, यह भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में खतरनाक हो सकती है, वहां से फिर बात आयी धर्म पर और संन्यास पर.

हिंदू फिलोसफी में चार पुरूषार्थ बताये गये हैं- वे भी एक नियम क्रम से. पहले मनुष्य धर्म नामक पुरूषार्थ को हासिल करें. फिर अर्थ को, फिर काम को और फिर मोक्ष को. यहां अर्थ शब्द के माने है संपत्ति या संपन्नता- लेकिन वही जो धर्म का आचरण करते हुए मिली हो- अर्थात अपने श्रम, कार्य कुशलता और उत्पादकता के कारण मिली हो न कि चोरी, डकैती, छल- कपट, घूसखोरी या जुएबाजी से. तीसरा पुरूषार्थ है काम- या उपभोग अर्थात् जो धन कमाया है उसका उपभोग या योग्य कार्य में उस धन का विनियोग करना. यह योग्य उपभोग इसलिए आवश्यक है कि इससे जीवन में एक प्रकार की स्थिरता, सुरक्षिरतता आती है और ऐसा माहौल तैयार होता है जिस माहौल में ज्ञान और कला सुचारू ढंग से पनप सकते हैं- बढ सकते हैं. इन पुरूषार्थों को जो हासिल कर लेता है- वही अगली सीढी .

अर्थात् मोक्ष के चौखट तक पहुंच सकता है और वहां पहुंचना हरेक के लिए वांछनीय बताया गया है. वहां से अंदर जाने का उपाय बताया है संन्यास ग्रहण. लेकिन संन्यास का अधिकार भी हर व्यक्ति को उपलब्ध नहीं है. मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करते हुए ज्ञान अर्जन करे- पढाई करे. फिर गृहस्थ आश्रम का पालन करते हुए अपनी कार्यकुशलता से धन अर्जन करेसाथ ही धर्म का पालन भी करता रहे जिसकी रीति उसे ब्रहमचर्य आश्रम में सिखायी गयी है. दोनों आश्रमों के लिए पच्चीस- पच्चीस वर्ष का काल उपयोगी बताया है. इसी काल में मनुष्य अपने धन का उपभोग भी करे- उसके माध्यम से अपनी परिवार की वृद्धि औस समृद्धी भी करे. लेकिन फिर वह वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करे. अर्थात् जिस व्यवसाय को उसने गृहस्थ आश्रम के दौरान चलाया या बढाया- उसकी जिम्मेदारी बाल- बच्चों को, नयी पीढी को सौंप दे नयी पीढी को जिम्मेदारी उठाने के लिए सक्षम करे. इस दौरान वह नयी पीढी के लिए दूर से पथ- प्रदर्शक का काम करता रहे. कभी- कभार सलाह मशविरा दे दे. संकटकाल हो तो वापस आकर मदद करे. लेकिन रोजाना कामकाज की जिम्मेदारी और अधिकार दोनों को ही नयी पीढी पर सौंप दे. खुद यदि संभव हो तो वन में जाकर रहे- इसीलिए आयु की इस अवस्था का नाम है वानप्रस्थ आश्रम- अर्थात् वन की ओर, प्रकृति की ओर,प्रस्थान करने की अवस्था.वहां वन में वह अपनी जरूरतों को कम- से कम करता रहे. साथ ही कुछ और ज्ञानार्जन भी करता रहे.

इन सारे अनुभवों से गुजरने के बाद यदि वह अपने आपको योग्य और सक्षम समझे तो फिर किसी योग्य गुरू के परामर्श से संन्यास-आश्रम की दीक्षा ले.

इस प्रकार हम देखतेहैं कि ब्रहमचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम का विधान तो सबके लिए बताया गया है लेकिन संन्यास- आश्रम का विधान सबके लिए नहीं है- यह केवल सुयोग्य और दृढ व्यक्तियों के लिए है.

यह इसलिए कि हिंदू फलसफे के अनुसार संन्यासी पर बडी जिम्मेदारी है समाज को रास्ता दिखाने की. संन्यास लेने वाला मनुष्य अपना पहला नाम या परिवार के साथ जुडी हुई अपनी आयडेंटिटी को छोड देता है- फिर वह न किसी का पिता है न पुत्र, न किसी की माता है ना बहन ना पत्नी. इसका प्रतीक है मुंडन. यहां उसका व्यक्तिगत जीवन समाप्त हो जाता है और सामाजिक जीवन प्रांरभ हो जाता है. फिर वह केवल समाज के लिए ही जीता है- वह भी समाज से न्यूनतम दान को स्वीकार कर.

संन्यासी के लिए भिक्षा का विधान है- ताकि उसे यह अहसास हर पल रहे कि वह समाज के दिये पर जी रहा है और इस दान को उसे चुकाना भी है बदले में समाज को ज्ञानदान देकर और सही रास्ता समझाकर. उसके लिए विधान है कि वह पांच से अधिक घरों में भिक्षा न मांगे. जूठा या बासी अन्न भिक्षा में स्वीकार न करें इस नियम में कभी भूखा रहना पडे तो रह ले. एक गांव में तीन दिन से अधिक दिन तक न रहे. वह केसरिया वस्त्र धारण करे और अपने सामान में केवल एक कमंडल रखे. यह कमंडल या तूंबा जंगली लाल कद्दू का बना होता है जिसमें दो खाने बने रहते हैं. निचले खाने में वह अपने लिए एक दूसरा वस्त्र रख सकता है. ऊपर के खाने में भिक्षा का अन्न या पानी. इसके अलावा वह और कुछ संग्रह नहीं कर सकता है.

संन्यासी केसरिया रंग का वस्त्र ही धारणा कर सकता है. इसका कारण है कि केसरिया रंग को त्याग, तपस्या, उत्सर्ग, बलिदान, वीरता, ज्ञान और संतोष का रंग माना गया है. मानस शास्त्र में रंगों का मन पर पडने वाला प्रभाव जिस किसी ने पढा होगा या प्रयोग किये होंगे वही बता सकता है कि केसरिया रंग इन गुणों के साथ कैसे जुड गया. भारत में जो सब कुछ त्यागकर संन्यासी बन गया हो वह केसरिया वस्त्र पहनता है या फिर जो वीरमरण के लिए सारे मोह को त्याग चुका है वह केसरिया वस्त्र पहनता है. साथ ही जो लंबी तीर्थयात्रा पर जा रहा है वह केसरिया पताका लिए चलता है. क्योंकि केसरिया रंग सांसारिक मोह से लग हटने का प्रतीक तो है, लेकिन समाज से दूर हटने का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि अपने आप को समाज के लिए उपलब्ध और उत्सर्ग तभी संभव है जब मनुष्य के पास संतोष हो. एक संन्यासी संसार को तभी लीडरशीप दे सकता है यदि वह ज्ञानी हो, अपने काम में कार्यकुशल और प्रवीण रह चुका हो, जिसने अपने ज्ञान को खूब घिस कर और तपा कर सोने की तरह खरा कर लिया हो. अब ऐसे संन्यासी को देखकर कोई आलसी आदमी सोच सकता है कि मैं भी केसरिया वस्त्र पहन कर भिक्षा मांगता चलूं तो बिना काम किये ही मेरा पेट भर सकता है. लेकिन केवल केसरिया वस्त्र पहन कर एक आलसी आदमी एक ज्ञानी संन्यासी के समकक्ष नहीं हो सकता है.

यही अंतर है संतोष या अलमस्ती के प्रसंग में भी .एक निखटटू और एवरेज अफसर भी कहा सकता है कि भई मैं तो खुश हूं, संतुष्ट हूं, मुझे कोई ज्यादा काम नहीं करना पडता है और ज्यादा सिर भी नहीं खपाना पडता है. पर उसकी संतुष्टि उसके आलस के कारण उपजी है और वह संतुष्टि किसी गुण का प्रतिक नही है, उससे वह अफसर भला जो महत्वाकांक्षी है और अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मेहनत और अच्छा काम करने को तत्पर है. लेकीन उससे भी अच्छा वह अधिकारी है जो कर्तव्यतत्पर होते हुए भी अपने आप में संतुष्ट है, परिपूर्ण है,अलमस्त है, इस या उस पोस्ट के पीछे नहीं दौडता. क्योंकी वह जानता है कि उसका बडप्पन उसके बडप्पन उसके पोस्ट पर निर्भर नहीं है. वह तो उसका अपना अंदरूनी बडप्पन है. क्योंकी उसमें अपना काम बेहतर से बेहतर कर दिखाने की खुद की धनु है. इस बेहतर काम को कर निभाने का आनंद और उससे उपजी संतुष्टि उसके पास है. बेहतर काम से एक अलग तरह का अहंकार कार्यकुशलता के लिए घातक भी हो सकता है यह अंहकार भी महत्वाकांक्षा का दूसरा रूप है. लेकिन महत्वाकांक्षा और अहंकार से ऊपर उठकर जिसने कार्यकुशलता से संतोष की अवस्था प्राप्त की है उसकी अवस्था उस ज्ञानी- संन्यासी जैसी है. इस प्रकार हम देखते हैं कि सच्चा संतोष और आनंद तो कार्यकुशलता के कारण ही उपज सकता है लेकिन मूढ व्यक्ति अपने आलस को ही अपनी अलमस्ती बतायेगा, उसे संतोष का नाम देगा, उसमें और कार्यकुशलता से उत्पन्न होने वाले संतोष में फर्क कर सकें यह समझ हमारे अंदर होनी चाहिए.

और धर्म भी क्या है धारयति सः धर्मः जो हमें अपने आपको धारण करने की, अर्थात् अपनी अंदरूनी और साथ ही समाज की भी आंतरिक हार्मोनी को बनाने रखने की सामर्थ्य देता है- वही धर्म है वह धर्म कार्यकुशलता के बगैर भी नहीं आता लेकिन संतोष के बगैर भी नहीं आता. कार्यकुशल व्यक्ति का महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक है. इसलिए पश्चिमी मैंनेजमेंट के गुरू आज चीख- चीखकर कहते हैं- महत्वाकांक्षी बनो- क्योंकि महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए ही सही- तुम्हें अपने काम में कुशलता लानी होगी. लेकिन कार्यकुशलता और महत्वाकांक्षा के बाद तीसरी सीढी है संतोष जिसके बगैरे व्यक्ति या समाज की हार्मोनी अधिक दिन तक नहीं टिकेगी. इसीलीए चाहिए संन्यासी वृत्ति भी. यहीं भारतीय मानसिकता पश्चिमी मैनेजमेंट से अलग हो जाती है.

(खुद यदि संभव हो तो वन में जाकर रहे- इसीलिए आयु की इस अवस्था का नाम है वानप्रस्थ आश्रम- अर्थात् वन की ओर, प्रकृति की ओर, प्रस्थान करने की अवस्था. वहां वन में वह अपनी जरूरतों को कम- से- कम करता रहे. साथ ही कुछ और ज्ञानार्जन भी करता रहे. इन सारे अनुभवों से गुजरने के बाद यदि वह अपने आपको योग्य और सक्षम समझे तो फिर किसी योग्य गुरू के परामर्श से संन्यास- आश्रम की दीक्षा ले. इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम का विधान तो सबके लिए बताया गया है लेकिन संन्यास आश्रम का विधान सबके लिए नहीं है- यह केवल सुयोग्य और दृढ व्यक्तियों के लिए है.)

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