सोमवार, 4 अप्रैल 2011

**** भूखमरी (2001 ) --पूरा है।

भूखमरी   (2001 में कभी लिखा गया -- डायरी भी २००१ की)
लांछन : भूखमरी का या प्रभावहीनताका

         यों तो हमारे देशमे अकाल पडने और भूखमरी की घटनाएँ कई बार घट चुकी हैं। ब्रह्मर्षि विश्वामित्रको भी भीषण अकाल में भूखमरी से बचने के लिये कुत्ते के पैरकी हड्डी, वह भी जो किसी दूसरे के द्वारा पहलेसे उच्छिष्ट
थी, खानी पडी और एक नया शब्द प्रचलन मे आ गया -आपद्धर्म। दूसरी ऐतिहासिक घटना थी पिछली सदीके आरंभ की जब भीषण अकाल से  इतनी मौतें हुई और इतना स्थलांतरण हुआ कि सुदूर बंगालसे अकालपीडीत लोग महाराष्ट्र में आये और मराठीमें एक नया शब्द बन गया- भुके-बंगाल- यानी अकाल पीडित बंगालियोंकी तरह- भूखा और अधमरा ।

      लेकिन यदि अपने ही जीवन काल मे अपने ही देश के हिस्सोंमे लोगोंकी भूखमरी की घटनाएँ पढने को मिलती है तो लगता है यह केवल इंद्र देवता या मायबाप सरकार पर ही नही अपने ऊपर भी लांछन है। 

     शायद माया और ब्रह्मका  विरोधाभास भी यही है । एक तरफ माया ही माया है -- अर्थात् धनधान्यसे भरे पडे सरकारी गोदाम। कहीकहीं तो खुले आसमान और धरती के बीच भी एफसीआय के अनाज भंडार देखनेको मिल जाते हैं, उनमेंसे कितने टन चूहोंकी, या फिर बारिशकी कृपासे नष्ट हो जाते हैं।  कई टन अनाज चौर्य-कर्म-वश गायब हो जाता है। सैंकडों टन अनाज मालगाडी के वॅगन्समें सफर कर रहा होता है और ये वॅगन्स खुद ""लाइन क्लीयर सिग्नल"" की प्रतीक्षा करती किसी स्टेशनके शंटिंग यार्डमें पडी होती हैं। यह सब सरकारी माया है। दूसरी ओर ब्रह्म है -- अर्थात् इस असार संसारसे मुक्ति पानेकी लालसा जगाती हुई, विरक्तिको बढावा देती हुई मरणकी व्यवस्था।  लेकिन यदि सच पूछा जाय तो क्या यही है हमारी ब्रह्मकी व्याख्या ? पुराने राजे महाराजे ऐसे समय अपने अनाज भंडार खोल देते थे कि चाहे जितना ले जाओ । आजकी सरकार अगर वैसा नही कर पाती है तो पूछना होगा कि क्यों नही ?

      भूखमरीके प्रश्न पर दो तीन पहलुओं से गंभीरता से  विचार करना आवश्यक है। देश में कई भागोंमे अकाल और भूखमरी एक सालाना बात हो गई है। ये भाग हैं ओडिसा में कालाहंडी-कोरापुट-बेल्ट, छत्तीसगड के कुछ जिले और महाराष्ट्र का मेलघाटका हिस्सा।  इसके अलावा कभी कभी गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के कुछ अन्य हिस्से भी इसकी चपेट मे आ जाते हैं।

       भूखमारी की समस्यासे निपटनेकी पहली दिक्कत है झूठ । सरकारका कोई भी विभा़ग, कोई अफसर, कोई मंत्री इस लांछनको स्वीकार करनेके लिये  तैयार नही होता कि देशमें भूखमरीकी समस्या है या लोग भूखमरीसे मर रहे हैं। कोई भी आदमी एक दिन भूृृखा रहने से मर नही जाता। जब अकाल पडता है तो गरीब आदमीकी क्रय शक्ती कम हो जाती है। तब वह दौर शुरु हो जाता है जिससे आदमीको भरपेटकी बजाये आधा पेटही खाने को मिले। शरीर को पोषक तत्व  मिलने  बंद हो जाते है। शरीर धीरे धीरे छीजता है- कमजोर पडता है। यह प्रक्रिया कई दिनों तक चलती है। बाद मे अक्सर ऐसा अधमरा व्यक्ति किसी अन्य रोग का शिकार बन जाता है।

      सरकारी अफसर और सरकारी डॉक्टरोंकी  दूरदृष्टि यदि कमजोर है तो वे पिछले महिनोंकी बातको नही पकड सते -- केवल पिछले दिनकी बात को पकड सकते हैं। इसलिये कह देते हैं कि मृत्यूकी वजह भूृृखमरी नही बल्कि कोई रोग  है। अक्सर ये रोग डिसेंट्री और बदहजमी इत्यादि होते हैं।  लेकिन असली वजह होती है भूखा रहने की लाचारीसे कमजोर बना शरीर।

     हालमें ही कुछ मौतें हुई तो डॉक्टरोंने कह दिया कि खानेके अभावमें नही बल्कि सडा गला बासी खाना खानेेसे मौत हुई। लेकिन कोई व्यक्ति वैसा खाना तभी खाता है जब ताजा खाना नही जुटा पाता । इसे वे अपने रिपोर्टमें लिखना भूल गये।

       मेलघाटमें कई वर्षोंतक  भूखमरी के आँकडें छिपानेकी गरजसे मरनेवालोंको किसी रोग का शिकार बताया जाता था। एक दिन अचानक लोग पूछ बैठे -- तो डॉक्टर क्या करते हैं? स्वास्थ्य विभाग क्या करता है ? स्वास्थ्य मंत्री क्या करते हैं ? फिर तो भागदौड मच गई। डॉक्टरोंने कहना आरंभ किया कि असली कारण तो भूखमरी है, रोग तो निमित्तमात्र हैं। 

       अब यदि मरनेवालोंको  रोग का  शिकार माना जाय तो जिम्मेदारी आई स्वास्थ्य मंत्री की और यदि उन्हें भूखमरीका शिकार माना जाय तो जिम्मेदारी आई भूराजस्व विभाग के मंत्री की ।  तो उनकी आपसी जिम्मेदारी का बचाव अधिक मह्त्वपूर्ण हो जाता है और सरकारी तंत्रकी आधी शक्ती उसी में अपव्यय होने लगती है। बाकी में से भी आधी तो जाती है रिपोर्ट देने में। फिर सरकारी कार्यक्षमता बढे तो कैसे ? इसका एक  उपाय यह है की उस क्षेत्रके जिलाधिकारी को  जिम्मेदारी और अधिकार दोनों  दिये जायें। लेकिन सरकारी ढाँचेमें हर डिपार्टमेंट को उँची ऊँची दिवारोंसे अलग अलग कर दिया गया है। अतः क्षेत्रीय अधिकारी की बात अब किसीके पल्ले नही पडती।  अब वे सामूहिक जिम्मेदारीकी बात नही करते। लेकिन हाँ, मेरे नौकरीमें आनेके पहले कुछ वर्षोंमें ऐसी व्यवस्था थी जो धीरे धीरे बिखर गई।  

      सरकारी तंत्र की दूसरी समस्या हे तैयारी का अभाव। घर जलने लगा तो चले कुआँ खोदने। इस  बीच घर जल गया। संदर्भ बदल गया  तो कुएँ का काम भी अधरमें लटक गया। दुबारा जब घर जला तो  फिर नया कुआँ खोदने की तैयारी। 

       इसी कारण जरुरत पडने पर अनाज पहुँचानेकी संतोषजनक व्यवस्था नही हो पाती है। सार्वजनिक वितरण व्यवस्थामें जो रखरखाव होना चाहिये वह कहीं नही रहता।     

      यह एक शोध का विषय हो सकता हे की राशन का अनाज वाकई कितने जरूरतमंदो को मिलता है। लेकिन उसके साथ यह शोध भी करना पडेगा की गरीबी रेखाके नीचे  रहनेवाले कितने लोगो मे राशन के अनाज के लायक भी क्रय-शक्ती नही है । उनके लिए सरकारी योजनाएँ  क्या हैं या क्या हो सकती हैं? उनकी उत्पादकता कैसे बढे ? हमारा मानवी संसाधन विकास विभाग भी इस दिशामें कमजोर है। शिक्षासंस्थाओं द्वारा ऐसे शोध कार्य करवाये जाने चाहिये । हमारे बीस-तीस लाख कॉलेजोंके छात्रोंको ऐसे कामोंका प्रशिक्षण देकर उनसे ये करवाया जा सकता है।

       १९७२-  ७३-७४ के दौरान महाराष्ट्र मे लगातार अकाल पडा। लाखों लोग काम की तलाश मे गाँव छोडकर इधर उधर भटके।  मवेशी मर गये। तब सरकार ने एक योजना चलाई थी- एम्प्लॉयमेंट  गॅरंटी स्कीम अर्थात् रोजगार हमी योजना। 1975 से 1990 तक इस योजना के अंतर्गत अच्छा काम हुआ। यह प्रयास किये गये कि काम माँगनेवालेको कमाकर खाने लायक अकुशल काम अपने अपने जिलेके अंदर ही मिले -यथासंभव अपने ब्लॉक में ही। भ्रष्टाचार के किस्से इस योजना मे भी खूब सुने गये लेकिन कई सफलताएँ भी हाथ लगीं। एक बडी बात थी कि पूरे राज्य में सरकारी माध्यम से जिन जरुरतमंद लोगोंको काम दिया जाता था उनकी संख्या कई बार तीस लाख तक पहुँच जाती थी। इतनी बडी संख्या में और इतने विस्तृत  क्षेत्र में किसी अन्य तरीकेसे काम नही दिलाया जा सकता। लेकिन इस योजना  के लिये उस समय महाराष्ट्र में कुछ नेताओं व कई अफसरोंने अत्यंत समर्पित भावसे काम किया । वह समर्पण-भाव  एक टीम के रुप में सरकारी तंत्र में आज भी जुट पायेगा या नही इसपर कईयोंको  संदेह है।

      ओडीसाके कालाहंडी-कोरापुट-बोलांगीर इलाके सदैव  सूखा-पीडीत रहे है। भूखमरी की अधिकतर घटनाएँ इसी आदिवासी क्षेत्र मे होती है। दसेक वर्ष पूर्व एक  युवा अधिकारीने इसके विषय में विस्तारसे जानकारी लेकर 
अपने जिलाधिकारीको एक रिपोर्ट कर दी तो वह सबकी आँखोंका नासूर बन गया। बाद में उसी क्षेत्रमें दुबारा हुए एक अकाल के कारण मानव-अधिकार आयोग तथा सुप्रीम कोर्टने इस संदर्भ में अपना ध्यान लगाना आरंभ किया तो वह रिपोर्ट बस्तेसे निकल कर बाहर आई। मानवाधिकार-आयोगकी रिपोर्ट या सुझावोंपर आगे अधिक कुछ नही सुना गया और अब तीसरी बार उस इलाकेमें फिरसे भयानक सूखा पडा है। ऐसे मौके  पर  सरकारमे कई बार  यह मानसिकता अपनाई जाती है कि अब जो भी होगा कोर्ट देखे । अब हमें क्या करना है ?

       भूखमरी को रोक सकें ऐसी दो अच्छी योजनाएँ केंद्र सरकार द्वारा पूरे देश मे चलाई गई थीं। एक थी आयआरडीपी या एकात्मिक ग्रामीण विकास योजना जिसके अंतर्गत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारोंको पूरक कमाई के लिये कर्ज की व्यवस्था थी। इसकी मंशा यह थी की लोग अपनी उत्पादकता आंशिक रुप से बढा सकेंगे। लेकिन जहाँ उत्पादकताकी बात हो  वहाँ विक्री जरूरी है, उसके लिये एक मार्केटिंग व्यवस्था जरूरी है,  उसके लिये हुनर शिक्षा, कच्चे मालका व्यवस्थापन इत्यादि कई लिंकेजेस जरूरी हैं जो नजरअंदाज हो गये। जिन अधिकारियोंने ऐसे प्रयास किये उनके अधिकारपर प्रश्नचिह्न लगे।  यह योजना आज भी चल रही है लेकिन टॉप हेवी हो जानेसे यह योजना अब इसका उत्साह और प्रभाव दोनों ही समाप्ति की कगार पर हैं।

        दूसरी अच्छी योजना थी  आईसीडीएस या एकात्मिक बाल विकास । इस योजना में पूरी संभावना है कि बच्चोंके कुपोषण को सही समय पर पहचाना जा सके और समय रहते उन बच्चोंको पौष्टिक आहार देकर कुपोषणसे बचाया जा सके।  इस योजना का सबसे सरल और महत्वपूर्ण अंग यह है की हर बच्चे का वजन समय समय पर  किया जाये क्योंकि कुपोषण पहचाननेके लिये वह एक अच्छा इंडिकेटर  है। लेकिन अक्सर
पाया गया की इस छोटे से कार्य पर भी व्यवस्थित निगरीनी नही रखी जाती। और न ही वजन-यंत्र उपलब्ध कराना या अंगनवाडी वर्करको कुपोषणकी रोकथामके लिए कुछ तत्कालिक अधिकार देना  सरकारकी प्राथमिकतामें आता है।

        इस योजनामें भी सरकारी-तंत्र  टॉप हेवी हो गया है। निचले स्तर पर जहाँ भी योजना की डिलीवरी होती है वहाँ काम करनेवालोंको न कोई अधिकार होते हैं, न उनके  पास कोई ढंगकी कंटिन्जन्सी रकम होती है और ऩ उनके प्रति कोई  विश्वास या अपनापन दर्शाया जाता है। इस प्रकार  सरकारके निचले स्तरके कर्मचारी हर क्षेत्रमें अपना आत्मविश्वास, अपनी ईमानदारी और अपने वजूदको खो रहे हैं . उनके लिये  कॅरेट और स्टिक वाली नीति कितने दिन चलाई जा सकती है? 

      सरकारकी तीसरी समस्या है नये सोचके अभावकी। यदि सूखाग्रस्त लोगोंको राहत दिलानी है तो सबसे पहले उन क्षेत्रों में और राजधानीमें भी ऐसे लोगोंको लगाया जाय जिनकी कार्यक्षमता पहले देखी जा चुकी है, जिन्हें ऐसे कामोंमें कमिटमेंट है । फिर उन्हें पर्याप्त अधिकार दिये जायें। ओरिसाके महात्सुनामी के दिनोंमें भी देखा गया कि ट्रान्सपोर्टके संसाधन कम पड रहे थे, साथ ही जहाँ रिलीफका सामान भेजा जा रहा था वहाँ देखनेसुनने वाला कोई  नही था कि सामानका आगे क्या हो रहा है। यह जानकारीभी समयसमय पर दूरदर्शनके माध्यमसे दी जानी चाहिये ताकि सरकारी कार्रवाईपर लोगोंकी निगाह रहे और उन्हें भी सरकारके साथ इन कामोंमें योगदान देनेके लिये प्रोत्साहन मिले।

      आज जब देश मे कई भू - क्षेत्रोमें फिरसे सूखेका का माहौल बना हे,  तो सरकारी तंत्रके दरवाजे खटखट बज उठेंगे। कुछ ही दिनों में फिर सब बंद हो जायगा क्य़ों कि तब हम किसी और समस्या से युद्ध कर रहे होंगे। अगले वर्ष फिर भूखमरी फैलेगी और फिर यही बातें दोहराई जायेंगी। क्या इस बेतरकीब, बेतैयार माहौल से उभरने की चर्चा भी हम कभी करेंगे ? ------****---------

---(समाप्त)
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