रविवार, 21 दिसंबर 2008

सोने के हथियार से लडने के लिये

सोने के हथियार से लडने के लिये

हम किले पर रहते थे |
मजबूत दीवारों का अभेद्य किला
बुर्जों पर चौकसी करते हुए
हमें कोई तनाव न था |
हमें दीखते थे सामने फैले
विस्तृत मैदान
और वहीं झाडियों में छिपा हमारा शत्रु
वे हमें क्योंकर जीत पाते ?
हमारे पास शस्त्र-अस्त्र थे भरपूर
हमारे सैनिक जाँबाज - शूर
और मैदान पार के रास्तों पर
निश्चित रुप से पास आ रही थीं
हमारे मित्र देशों की सेनाएँ |
पर हाँ ....
हमारे किले के कोने में एक छोटा मायावी द्बार था |
द्बारपाल ने एक दिन उसे खोल दिया |
शत्रु उसी रास्ते से आया |
बिना लडे ही हमपर जय किया |
शर्म की बात, पर सच्चाई की है |
सोने का हथियार
लोहे के हथियार पर भारी है |
किसी जमाने में पढी थी एडविन मूर की यह कविता The Castle | उसी का भावानुवाद मैंने किया है, जो मुंबई पर हुए आतंकी हमले की घटना पर फिट है | 26/11 की रात यह कविता बारबार चेतना में गूँजती रही |
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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

युगान्तर के पर्व में

युगान्तर के पर्व में
- लीना मेहेंदळे

हम कहते सुनते हैं कि हिंदु धर्म मे चार वेद कहे गये हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद | चार वर्ण भी कहे गये हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | चार आश्रम हैं - ब्रह्मचर्य गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास | इसी प्रकार चार युग भी कहे गये हैं - सत्य युग, त्रेता युग, द्बापर युग और कलि युग | मेरी मान्यता हैं ये सभी संकल्पनाएँ एक दूसरे में गुंथी हुई हैं |

देखा जा सकता हैं कि सत्य युग में समाज की परिकल्पना तो उदित हो चुकी थी लेकिन राजा और राज्य की परिकल्पना अभी दूर थी | आग का आविष्कार हो चुका था, उसी प्रकार भाषा का भी | आँकडों के गणित का भी ज्ञान था और वर्णमाला तथा लेखन कला का भी | मनुष्य अपने आविष्कारों से नए नए आयाम छू रहा था | कृषि और पशुपालन दैनंदिन व्यवहार बन चुके थे और कृषि संस्कृति का विस्तार भी हो रहा था | ज्ञान और विज्ञान की साधना हो रही थी |

मनुष्य यद्यपि समाज में रहने लगा था फिर भी गाँव समाज और खेती पर ही पूरी तरह निर्भर नही था | अभी भी वन - जंगल उसे प्रिय थे और वनचर बन कर रहना उसे आता था | ज्ञान साधना के लिये अनगिनत नए आयाम अभी खोजने बाकी थे | जो ज्ञान मिला उसकी सिद्घता, फिर प्रचार, प्रसार और समाज के लिये उपयोगिता - सारे एक सूत्रबद्घ कार्यक्रम थे | तभी वह ज्ञान उपजीविका का साधन बन सकता था |

इसीलिये वनों मे रहकर ही ज्ञानसाधना चलतीं | इसके लिये वनों में गुरूकुल थे | बडें बडे ज्ञानी ऋषि बच्चोंको गुरूकुल में लाकर रखते | उनसे ज्ञान साधना करवाते | उनके भोजन आवास का प्रबन्ध करते थे तो उनसे काम भी करवाते थे | जिस ऋषि के आश्रम मे भारी संख्या में विद्यार्थी हों उन्हें कुलगुरू कहा जाता | इस संबोधन का प्रयोग महाभारत में भी हुआ है |

दूसरी ओर व्यवसाय ज्ञान का प्रसार भी हो रहा था | खेती, पशुसंवर्धन, शस्त्रास्त्रों की खोज व निर्माण हो रहे थे | आरोग्यलाभ और परिरक्षा के लिये आयुर्वेद फैल रहा था | द्रुतगामी वाहन ढूँढे जा रहे थे | शंकरजी के लिये नंदी, दुर्गा के लिये सिंह, विष्णु के लिये गरूड, यम के लिये भैंसा, इन्द्र का ऐरावत हाथी, कार्तिकेय के लिये मयूर, गणेश के लिये मूषक, लक्ष्मी का उल्लू और सूर्य का घोडा - ये सारे किस बात का संकेत देते हैं ? इसकी कल्पना तो आज की जा सकती है लेकिन तथ्य समझना मुश्किल ही है | फिर भी वायुवेग से चलने वाला, और ऐसी गति के लिये पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर ही ऊपर चलनेवाला इंद्र का रथ था जिसका सारथ्य मातली किया करता था | उससे भी आगे की शताब्दियों में आकाश मार्ग से विचरण करनेवाला विमान पुष्पक कुबेर के पास था जिसे बाद में रावण नें छीन लिया | रामायण की कथा देखें तो इसी विमान से राम लंका से अयोध्या आये और फिर विमान को विभीषण वापस लंका ले गया | इससे कई गुना अधिक प्रभावी क्षमता थी नारद के पास - वे मन के वेग से चलते थे | जिस पल जहाँ चाहा, पहुँच गये | इतना ही नही, आवश्यक हुआ तो वे औरों को भी अपने साथ ले ला सकते थे | एक ऐसे ही प्रसंग में वे एक राजा तथा उसकी विवाह योग्य कन्या रेवती को ब्रह्मदेव के पास ले गए | जब वापस लौटे तो युग बदल गया था, और पृथ्वी पर रेवती के अनुरूप वर भी मिल गया - बलराम |
सारांश में तीव्र गति वाहनों की खोज, खगोल शास्त्र, अंतरिक्ष शास्त्र इत्यादि विषय उस युग में ज्ञात थे | इन भौतिक जगत्‌ की विषय वस्तुओं के साथ साथ जीवन और मृत्यु से संबंधित विचार और चर्चाएँ भी खूब होती थीं और विभिन्न मतों का आदान - प्रदान होता था | जीवन, मृत्यू क्या है ? आत्मा और चैतन्य क्या है ? मरणोपरान्त मनुष्य का क्या होता है यह भी कौतुहल का विषय था | सत्य और अमृतत्व का कहीं न कहीं कोई गहरा रिश्ता है लेकिन वह क्या रिश्ता है यह चर्चां बारबार हुई है | मेरी व्यक्तिगत मत है कि इन चर्चाओंको भविष्य के लिये लेखाबद्ध किया गया और हो न हो, यही उपनिषद हैं।
कठोपनिषद में यम नचिकेत संवाद का कुछ हिस्सा मुझे हर बार विस्मित कर देता है | पिता ने कह दिया - जा मैंने तुझे यम को दान में दिया तो नचिकेत उठकर यम के घर पर पहुँचा और चूँकि यम कहीं बाहर गया हुआ था, तो नचिकेत तीन दिन भूखा प्यासा बैठा रहा | यह प्रसंग बताता है की यम कोई पहुँचसें परे व्यक्ति नही थी | आगे भी सावित्री की कथा या कुंती द्वारा यम को पाचारण करके उससे युधिष्ठिर जैसा पुत्र प्राप्त करना इसी बात का संकेत देते है |
यम लौटा तो यम-पत्नी ने कहा - एक ब्राह्मण अपने दवार पर तीन दिन-रात भूखा प्यासा बैठा रहा - पहले उसे कुछ देकर शांत करो वरना उसका कोप हुआ तो अपना बडा नुकसान होगा | यम नचिकेत से तीन वर मॉगने को कहता है | पहले दो वरोंसे नचिकेत अपने पिता का खोया हुआ प्रेम और पृथ्वीके सुख मॉगता है लेकिन तीसरे वरसे वह जानना चाहता है की मृत्यु के बाद क्या होता है | इस ज्ञान से उसे परावृत्त करने के लिये यम उसे स्वर्गसुख और अमरत्व भी देना चाहता है लेकिन नचिकेत अड जाता है | यदि तुम मुझे अमरत्व और स्वर्ग देने की बात करते हो तो इसका अर्थ हुआ की यह ज्ञान उनसे श्रेष्ठ है | इस संवाद से संकेत मिलता है की मरणोपरान्त का अस्तित्व अमरत्व से कुछ अलग है और श्रेष्ठ भी है | इसपर यम प्रसन्न होकर नचिकेत को बताता है कि यज्ञ की अग्नि कैसे सिध्द की जाती है और उस यज्ञ से सत्य की प्राप्ति और फिर उस सत्य से मृत्यु के परे होनेवाले गूढ रहस्यों का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है |
दूसरी कथा है सत्यकाम जाबाली की - जिसमें सत्यकाम के आचरण और सत्यव्रत से प्रसन्न होकर स्वयं अग्नि हंस का रुप धरकर उसके पास आया और उसे चार बार ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया | उसका वर्णन यों है “सुन आज मैं तुम्हें सत्य का प्रथम पाद बताता हूँ” | फिर एक एक करके सत्यके द्बितीय पाद, तृतीय पाद और चतुर्थ पाद बताये | यहाँ भी सत्य को ही ब्रह्मज्ञान बताया है |
इसी प्रकार त्रिलोकों के पार अंतरिक्ष में जो सात लोक होने की बात की गई है उसमें सबसे श्रेष्ठ और सबसे तेजोमय लोक का नाम सत्यलोक ही है | ईशावास्योपनिषद में इसी ज्ञान के लिये विद्या और पृथ्वीतल के भौतिक ज्ञानोंके लिये अविज्ञा शब्द का प्रयोग करते हुए दोनों को एक सा महत्वपूर्ण बताया है - “जानकार व्यक्ति विद्या और अविद्या दोनों को पूरी तरह समझ लेता है, फिर अविद्या की सहायता से मृत्यु को तरकर - उससे पार होकर, अगला प्रवास आरंभ करता है, और उस रास्ते चलते हुए परा विद्या की सहायता से अमृतत्व का प्राशन करता है” | इसीसे ईशावास्य में प्रार्थना है “सत्यधर्माय दृष्टये ” और माण्डूक्थोपनिषद की प्रार्थना है - “सत्यमेव जयते नानृतम्‌ ”.
तो ऐसे सत्ययुग में गणितशास्त्र की पढाई काफी प्रगत थी | खासकर कालगणना का शास्त्र | पृथ्वी पर कालगणना अलग थी और ब्रह्मलोक की अलग थी | इसीलिये रेवती की कथा में वर्णन है की जब ब्रह्मलोक का एक दिन पूरा होता है तो उतने समय में पृथ्वीपर सैकडों वर्ष निकल जाते है | उनका भी गणित दीर्घतमस्‌ ऋषि के कुछ सूक्तोंमें मिलता है |
वर्णन है कि विविध देवता और असुरों ने कई कई सौ वर्ष तपश्चर्या की | पार्वती ने शंकर को पाने के लिये एक सहस्त्र वर्ष तपस्या की | और भी कईयों ने | अगर ये सारे वर्णन सुसंगत हों तो उनका संबंध निश्चित ही अन्तरिक्ष के इन अलग अलग लोकों से होगा |
काल गणना का एक अति विस्तृत आयाम हमारे ऋषि मुनियों ने दिया है | उनकी गणना मानें तो ब्रह्मदेव की आयु सौ वर्ष की है | लेकिन ब्रह्मा का एक दिन पृथ्वी लोक के एक सहस्त्र महायुगों जितना बडा होता है | उतनी ही बडी ब्रह्मदेव की रात्री भी होती है | एक महायुग में सत्ययुग के 1728 हजार वर्ष, त्रेता के 1296 हजार वर्ष, द्बापर के 864 हजार वर्ष और कली के 432 हजार वर्ष इस प्रकार कुल 4320 हजार वर्ष होते हैं | इस गणित से ब्रह्मदेव की आयु के 50 वर्ष बीत चुके हैं अर्थात्‌ पृथ्वी की आयु भी 8000 करोड वर्ष हो चुकी है |
सत्य युग में ज्ञान के नये आयामों की खोज और विस्तार और उससे समाज उपयोगी पद्घतियाँ विकसित करना ही प्रमुख ध्येय था |
इसके बाद आये त्रेतायुग में राजा और राज्य की परिकल्पना का उदय हुआ | ज्ञान का विस्तार हो ही रहा था | अब उसमें नगर रचना, वास्तुशास्त्र, भवन निर्माण, शिल्प जैसे व्यावहारिकता में उपयोगी शास्त्र जुडने लगे | ज्ञान से सृजन और उससे संपत्ति का रक्षण महत्त्वपूर्ण हुआ | तब शस्त्र निर्माण का महत्त्व बढ गया | इसी काल में धनुर्वेद का उदय हुआ | आग्नेयास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वज्र, सुदर्शन चक्र, ब्रह्मास्त्र, महेंद्रास्त्र जैसे शक्तिशाली अस्त्र और शस्त्रों का निर्माण हुआ | समाज की रक्षा करने के लिये और समाज व्यवस्था के लिये राजे - रजवाडों की प्रथा चल पडी | उन्हें सेना रखने की जरूरत पडी | सेना का खर्चा चलाने के लिये कर वसूलने की प्रथा भी चली | खेती योग्य जमीन पर स्वामित्व की प्रथा भी चल पडी | उत्पादन पर भी कर लगा | यह सब कुछ संभालने का जिम्मा क्षत्रियों के कंधों पर पडा |
ज्ञान साधना के लिये ब्राह्मणों का मान-सम्मान और आदर कायम रहा | लेकिन नेतृत्व अब क्षत्रियों के पास आ गया | महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ब्राह्मणों की राय ली जाती थी | ब्रह्मदंड का मान अब भी राजदण्ड से अधिक था | लेकिन ब्रह्मदण्ड और राजगुरू दोनों का काम किसी निमित्त ही होता था | रोजमर्रा की व्यवस्था के लिये राजा ही प्रमाण था | एक विश्र्वास फैल गया कि राजा के रूप में स्वयं विष्णु विराजते हैं |
संपत्ति के निर्माण के लिये कई प्रकार के तंत्रज्ञान और उससे जुडे व्यवसायों की आवश्यकता होती है | भवन निर्माण के लिये धातुशास्त्र का अध्ययन चाहिये लेकिन साथ में कुशल लुहार, बढई चाहिये | इसी तरह अन्य कई शास्त्रों की पढाई के साथ कुशल बुनकर, रंगरेज, ग्वाला, जुलाहा, गडेरिया, चमार, शिल्पकार इत्यादि भी चाहिये | आयुर्वेद में भी स्वस्थ वृत्त में वर्णित यम - नियम, संयम, उचित आहार इत्यादि सिद्घान्त पीछे छूट गये और दवाइयाँ बनाने का महत्त्व बढा क्यों कि युद्घ में घायल हुए लोगों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिये वह अधिक जरूरी था | पशुवैद्यक इतना प्रगत हुआ कि सहदेव, नकुल और भीम स्वयं राजपुत्र होते हुए भी क्रमश: गाय, घोडे और हाथियों की अच्छी प्रजातियों के संवर्द्घन में निष्णात थे | रथों का निर्माण, सारथ्य, नौका निर्माण, रास्ते, तालाब और नहर बनाना आदि शास्त्र भी प्रगत थे | कथा के अनुसार भगीरथ ने तो गंगा को ही स्वर्ग से पृथ्वी पर उतार दिया | व्यवहार के दृष्टिकोण से भी जिस तरह से पश्चिम वाहिनी गंगा का विशाल प्रवाह मुड कर गंगा पूर्व वाहिनी हो गई है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि धरण बनाने का शास्त्र भी प्रगत रहा होगा | एक अन्य कथानुसार रामने तो समुद्र में ही पुल बंधवा लिया |
ईंट, सिक्के, आईने, धातु शिल्प इत्यादि नये व्यवसाय उदय होने लगे | सत्ययुग में कृषि शास्त्र तो विस्तृत हो चुका था | द्वापर में आते आते हस्तकला और हस्त - उद्योगों की संख्या ऐसी बढी कि वर्णाश्रम व्यवस्था का उदय हुआ | ज्ञान साधन और ज्ञान प्रचार करे सो ब्राह्मण, राज्य और युद्घ करे सो क्षत्रिय, कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करे सो वैश्य और हस्त-उद्योग, सेवा तथा देखभाल करे सो शूद्र इस प्रकार वर्ण व्यवस्था बनी | लेकिन यह वर्णभेद जन्म से नही बल्कि गुण और कर्मों से था | भगवद्गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा कि चातुर्वण्यं मया सृष्टं, गुणकर्मविभागश: | और यह सच भी था क्यों कि विष्णुको क्षत्रिय, परंतु उसके पुत्र ब्रह्मदेव को ब्राह्मण कहा गया | शंकर वर्णों से परे है लेकिन उसके पुत्र कार्तिकेय क्षत्रिय तो गणेश ब्राह्मण कहलाये | अश्विनीकुमार तथा धन्वन्तरी के वर्ण की बाबत मैंने कुछ नही पढा है | विश्वामित्र पहले क्षत्रिय थे फिर ब्रह्मर्षि कहलाये | लेकिन इन गिने चुने उदाहरणोंको छोड दें तो अगले सैकडों वर्षों मे ऐसा उदाहरण देखने को नही मिलता जिसमें मनुष्य के जन्मजात वर्ण के अलावा गुणों और कर्मोंके अनुरूप उसका परिचय अन्य वर्णीय किया गया हो | उस काल के साहित्य या अन्य वाड्.मय ऐसा उदाहरण नही दिखाते | क्या हम यह कहें कि इस प्रकार गुणकर्म-आधारित वर्णव्यवस्था समाजधुरिणों का एक दिवास्वप्न मात्र बनकर रह गया |
त्रेता के बाद आये द्बापर युग में राज्य की संकल्पना अपने चरम पर थी | माना जाता है कि महाभारत युद्घ भी द्बापर के अंतिम चरण में घटा है | महाभारत युद्घ में पृथ्वी के प्रायः सभी राजे और क्षत्रिय योद्घा मारे गये | फिर समाज व्यवस्था और नियम-कानून टिकाये रखने के लिये उस जमाने के समाज शास्त्रियों ने क्या किया ? पहले त्रेता युग में भी परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को निःक्षत्रिय कर दिया था | तब, या फिर महाभारत युद्घ के बाद कोई उल्लेखनीय राज्यव्यवस्था न होते हुए भी समाजव्यवस्था कैसे टिक पाई यह चर्चा किसी ग्रंथ में नही मिली |
इसके बाद आया कलियुग | इसकें पिछले दो-अढाई हजार वर्षों का इतिहास हमारें सामने है | इस काल में गणराज्यों की कल्पना उदित हुई जिसमें लोगों के एकत्रित सोच विचार से राज्य व्यवस्था चलाने की बात थी | भारत में यह परम्परा 2500 वर्ष पहले चली और फिर खंडित हो गई | लेकिन करीब 500 वर्ष पहले पश्चिमी देशों मे लोकतंत्र की परिकल्पना ने अच्छी तरह जड पकड ली और अब संसार के कई देशों मे यही राज्य यंत्रणा है | जहाँ नही है, उस देशको मानवी विकास की दृष्टि से कम आँका जाता है |

इसका अर्थ हुआ कि त्रेता और द्बापर युग में राजा नामक जो संकल्पना उदित हुई वह कलियुग के इस दौर में कालबाह्य हो रही है |

चौदहवीं सदी से पहले खुष्की के रास्ते पश्चिमी देशों के आक्रमण भारत पर होते रहे | लेकिन चौदहवीं सदि में समुद्री रास्ते भी खुलने लगे और उन रास्तों से व्यापार बढने लगा | सिंदबाद की साहसी समुद्री यात्रा की कथाओं को अरेबियन नाइट्स कथासंग्रह में एक सम्माननीय स्थान प्राप्त था | इस कालमे इंग्लंड, स्पेन, पोर्तुगाल, डेन्मार्क, फ्रान्स आदि देशों में समुद्र यात्राएँ, सागरी मार्गोंके नक्शे बनाना, उच्च कोटि की नौकाएँ बनाना और नौसेना की टुकडियाँ तैयार रखना महत्त्वपूर्ण बात हो गई |
उन दिनों खुष्की के रास्तें भारत से यूरोप में लाया जानेवाला माल उच्च कोटी का हुआ करता था | उसमें कपडा, रेशम, मोती, मूँगे, बेशकीमती नगीने, जवाहरात, मसाले, औषधी वनस्पतियाँ आदि प्रधान थे | उसके बदले में व्यापार करने के लिये युरोपीय देशों के पास कुशलता से बने शस्त्र, तोप, बन्दूक आदि थे | तलवार और तीरों के दिन बीते नही थे लेकिन अब तोपें भी साथ में आ गईं, उनके पीछे पीछे बन्दूकें भी |
भारत के साथ व्यापार कायम रखने के लिये बडे पैमाने पर शस्त्र निर्माण का काम किया जाने लगा | इस प्रकार शस्त्रनिर्माण एक ऐसा बडा उद्योग बना कि आज भी वह संसार के प्रमुख उद्योंगो में एक है |
वास्को-द-गामा ने तय किया कि वह यूरोप से भारत आने का समुद्री मार्ग खोजकर उसके नक्शे बनाएगा | इस प्रकार समुद्र के रास्ते भारत पहुँचनेवाला वह पहला व्यक्ती था | उसके बाद कोलंबस भी चल पडा भारत की खोजमे और उसने ढूँढ लिया एक नया प्रदेश जिसका नाम पडा अमरीका | इस प्रदेश में खनिज संपत्ति प्रचुरता से थी जिसका उपयोग आगे चलकर शस्त्र निर्माण के लिये होता रहा |
इस प्रकार युरोपीय देशों से समुद्र के रास्तें बडी बडी व्यापारी संस्थाएँ भारत में आने लगीं | इधर हमने स्वयं ही अपने आप पर निर्बन्ध लाद लिये और समुद्र को लांघना धर्म निषिद्घ करार दे दिया | मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि जिस संस्कृती में पृथ्वी प्रदक्षिणा की बात कही गई, वसुधैव कुटुम्बकम्‌ की बात की गई, समुद्र को लांघकर लंका में प्रवेश करने वाला मारूती पूजनीय हो गया, उसी देशमें समुद्र यात्रा को कब क्यों और कैसे धर्म निषिद्घ कहा गया ?
अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी एक अलग महत्त्व रखती है | इन दो सौ वर्षों में विज्ञान की प्रगति अभूतपर्व गति से हुई | साथ ही उद्योग-जगत की क्रान्ति का महत्त्व इसलिये है कि इस नई क्रान्ति ने हस्त उद्योगों की छुट्टी कर दी और मशीनों द्बारा असेंब्ली लाइन पर एक साँचे में ढले सैंकडों उत्पादन बनने लगे |
यही समय था जब शस्त्र और नौसेना रखने वाले देशों ने अन्य देशोंपर अपना राज जमा लिया | उधर लोकतंत्र की जडें भी मजबूत हो रही थीं | अतएव बीसवीं सदि में जिन जिन देशों ने स्वतंत्रता की लडाई लडीं, उन सभी ने लोकतंत्र के आदर्शों पर, खास कर तीन आदर्शोंपर - न्याय समता, और बन्धुता पर जोर दिया | यही कारण है कि आज इतने अधिक देशों ने लोकतंत्र को अपनाया | इस नई राज्यव्यवस्था में सेना की आमने सामने लडाईयाँ, भूभाग जीतना आदि अवधारणाएँ भी पीछे छूटने लगीं | वायुसेना और बम के आविष्कार के कारण लडाइयों में एक नया आयाम आ गया |
साथ ही आक्रमण के बजाय व्यापारी संबंध बढाने का दौर चल पडा | मुगल शासन काल में अंग्रेज, फ्रान्सिसी, डच, पुर्तगाली लोगों ने अपने व्यापारी केंद्र भारत में बना लिये थे जिसके लिये उन्हें मुगल शासकों ने मंजूरीयाँ दी थी | इस प्रकार जहाँ त्रेता और द्बापर युग में राज्य जीतना प्रमुख लक्ष्य था उसकी जगह व्यापार जीतना लक्ष्य बन गया |
आज राजे महाराजाओं की अपेक्षा उत्पादन मे अग्रगण्य उद्यमी, व्यावसायिक कंपनियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं | जिसे हम सर्विस सेक्टर कहते हैं, जैसे बँकिंग, कम्प्यूटर्स, आवागमन, मोबाइल, इंटरनेट - आदि सेवाएँ देने वाले सेक्टर्स आगे आने लगे हैं | अर्थात्‌ अब ब्रह्मदण्ड या राजदण्ड के नही बल्कि अर्थदण्ड का युग चल रहा है | और इसके सेवाकारी (सेवाभावी नही) युग में बदलने की संभावना भी खूब है |
सारांश यह की जैसे जैसे युग बदलते गए - सत्य से त्रेता, त्रेता से द्बापर और द्बापर से कलियुग आया वैसे ही वर्णोंका महत्त्व भी बदलने लगा - पहले ब्राह्मण, फिर क्षत्रिय, फिर वैश्य और शूद्र वर्ण अधिक प्रभावी होते गये |
आर्थिक संपत्ति की माप करने के लिये कभी कृषि - जमीन और पशुधन - जैसे गोधन, अश्वधन और हाथी - प्रमाणभूत थे | लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के बाद जैसे जैसे मशीन से वस्तुएँ बनने लगीं और उनका उत्पादन आदमी की हाथ की बनी वस्तुओं की तुलना में हजारो - लाखों गुना अधिक बढ गया, वैसे वैसे उद्योग और उद्यमी अर्थात्‌ जिसे हम सेकंडरी सेक्टर ऑफ प्रॉडक्शन कहते हैं, उसका महत्त्व बढ गया | फिर व्यापार बढा, तो टर्शियरी सेक्टर अर्थात्‌ सर्विस सेक्टर का महत्त्व बढा |
जो चार पुरूषार्थ बताये गये - अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, उनमें से काम अर्थात्‌ उपभोग का महत्त्व कलियुग में अत्यधिक बढ गया | हम अधिक से अधिक उपभोगवादी हो रहे हैं | हालाँकि काम भी एक पुरूषार्थ है - क्यों कि इसीसे कलात्मकता को प्रश्रय मिलता है | फिर भी उपभोगवाद की अति हो जाती है तो सर्वनाश हो जाता है | इसका उदाहरण महाभारत मे मिलता है | जब युद्घ समाप्त हुआ तो पृथ्वी के प्राय: सभी राजे और राज्य नष्ट हो चुके थे | हस्तिनापुर से दूर द्वारका में यदुवंशी - राजाओं ने युद्घ में भाग नही लिया था | अब वे निश्चिंत थे | अगले कई वर्षों में कोई युद्घ नही आने वाला था | उन्हें क्षत्रियोचित पराक्रम दिखाने की कोई गरज नही आने वाली थी | वे भोग की तरफ मुडे | क्रीडा, द्यूत और शराब, इन्हीं मे ऐसे डूबे कि आखिर आपस में ही लडकर यदुवंश के सारे क्षत्रियों का नाश हुआ |
आज के युग में अर्थव्यवहार को अत्यधिक महत्त्व है और इसका आरंभ अठारहवीं सदी में जो औद्योगिक क्रान्ति आई वहाँ से है | पहले उत्पादन और व्यापार विकेंद्रित थे लेकिन औद्योगिक क्रान्ति ने दिखा दिया कि वे केंद्रित तरीके से भी किये जा सकते हैं | आज इक्कीसवीं सदि में हम केंद्रित और विकेंद्रित दोनों व्यवस्थाओं को तौल सकते हैं | विकेंद्रित व्यवस्था सर्वसमावेशक होती है | वह अधिक टिकाऊ भी होती है - दीर्घकालीन होती है | लेकिन केंद्रित व्यवस्था में हजारों गुना अधिक उत्पादनक्षमता होती हैं | इसीलिये उसके आगे-पीछे के ताने-बाने भी उसी तरह बुनने पडते हैं | यदि एक फलों का जूस बनाने की फॅक्टरी हो तो उसे रोजाना अमुक टन फल, इतना पानी, इतनी बिजली, इतने खरीदार भी चाहिये - उन्हें आकर्षित करने को ऍडव्हर्टाइजमेंट भी चाहिये | ऐसे समय कई बार नैतिक, अनैतिक का विचार भी दूर रखना पडता है | यदि अमरीका में शस्त्र बनाने फॅक्टरियाँ हैं, और उन्हें चलना हैं तो जरूरी है कि संसार में कोई न कोई दो देश युद्घ की स्थिती में हों और उन्हें शस्त्र खरीदने की जरूरत बनी रहे | या जब कोई कंपनी लाखों युनिट इन्सुलिन बनानेवाली फॅक्टरी चलाती है तो जरूरी हो जाता है कि लोगों को डायबिटीज हो |
औद्योगिक क्रान्ति आई तो उसमें उतरनेवाले लोगों को नए हुनर, नए तरीके सीखने की आवश्यकता पडी | इसी प्रकार आज का युग जो टर्शियरी सेक्टर का युग है, इसके लिये आवश्यक हुनर भी कुछ अलग तरह के हैं। जैसे - फाइनान्सियल मेनेजमेंट, कम्प्यूटर्स, फिल्में बनाना, इव्हेंट मॅनेजमेंट, ये ऐसे हुनर हैं जो खेती करने या प्रॉडक्शन इंजिनियरिंग से नितान्त भिन्न है |
आज तीन नए सेक्टर्स सर्विस सेक्टर से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं | चाहें तो हम उन्हें चतुर्थ, पंचम और षष्ठ सेक्टर कह सकते है | एक है इन्फ्रास्ट्रक्चर का सेक्टर - जैसे नए रास्ते, नए मकान, नई ओएफसी केबल की लाइनें इत्यादि | दूसरा है इन्फार्मेशन टेक्नॉलॉजी का सेक्टर | इसे भले ही सर्विस सेक्टर में माना जाता था पर अब इसे अपना अलग दर्जा दिया जाये इतना इसका स्वरूप बदल रहा है | तीसरा अति महत्त्वपूर्ण सेक्टर है RD - HRD का | अर्थात्‌ एक ओर रिसर्च और उसके साथ ह्यूमन रिसोर्स डेव्हलपमेंट भी | हुनर अर्थात्‌ कौशल्य की शिक्षा, पेटंट, इन्टलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट, आदि अब एक नये सेक्टर के रूप में आगे आ रहे हैं | शायद इन्हीं के कारण भविष्यकाल युगान्तर घटेगा |
औद्यागिक क्रान्ति ने एक नए युग को जन्म दिया था| इसी प्रकार बिजली और उससे अधिक बल्ब की खोज ने एक नया युग ला दिया | एडीसन ने बल्ब का सफल निर्माण किया, उससे पहले तेल जला कर उजाला किया जाता था | उसकी सीमाएँ थीं | रात्रीपर अंधेरे का साम्राज्य हुआ करता | बहुत कम जगहों पर ही रात में कोई व्यवहार चल पाते | लेकिन अब चौबीस घंटे काम में लगाये जा सकते हैं | बल्बके आविष्कार के साथ साथ रात्री की अपनी एक अलग संस्कृति बन गई जो दिन की संस्कृति से अलग लेकिन उतनी ही कर्मशील है | इसी प्रकार रेडियो, टीव्ही, मोबाईलों ने अलग क्रान्ति लाई है | टिश्यु कल्चर और क्लोनिंग से एक नई क्रान्ति आ रही है|

लेकिन मेरी मान्यता है कि केवल आविष्कार से या क्रान्ति से युगान्तर नही होता | जब उस आविष्कार के कारण समाज में जीवन मूल्य बदलते हैं और समाज व्यवस्था बदलती है, तब युगान्तर होता है | और इसके लिये आवश्यक है कि मूल्यों की चर्चा होती रहे |
महात्मा गांधी और बाबासाहेब आंबेडकर ने अस्पृश्यता को खतम कर एक नये जीवन-मूल्य में लोगों को ढाल दिया - और इस प्रकार एक युग परिवर्तन कर दिया | राजा राममोहन रॉय ने सती की प्रथा बंद करवा कर और जिन जिन मनीषियों ने स्त्री शिक्षा को बढावा दिया - उन सबों ने एक और युग परिवर्तन किया | ऐसे युगान्तर के पर्व में वर्ण व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, कौशल्य प्रबंधन (स्किल मॅनेजमेंट), राज्य व्यवस्था इन सबको कसौटी पर चढना पडता है और यदि वे खरे उतरे, तभी टिक पाते हैं | यदि नही टिक पाये तो अराजक की स्थिती निर्माण होती है जो कई समाजों और सभ्यताओं को मिटा जाती है | कुछेक किसी खास गुट के आसरेसे टिक जाती हैं | आवश्यक है कि ऐसी टिकनेवाली और डूबनेवाली सभ्यताओं का लेखा जोखा हम रख सकें | इसीलिये RD-HRD का महत्त्व है |
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शनिवार, 7 जून 2008

03/3 कौन करेगा ये वादा ? -- रिंकू पाटील हत्याकाण्ड पर, मार्च 1990 -- मेरी प्रांत साहबी (आलेख संग्रह 3)

कौन करेगा ये वादा?
-लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.

संगीता ऊर्फ रिंकू पाटील शिकार हुई - एक बर्बर समाजकी पाशविकता की, निष्क्रीयता की और कायरता की | लेकिन अफसोस, कि इसके साथ अभी भी हमारी आत्मसंतुष्टि और धन्यता नही मिट पाई है | किसका खून खौल उठा इस घटना के दौरान ? या इसके बाद तुरंत ? या आज भी ? और हमने क्या किया ?

समाचार पत्रोंने इस दर्दनाक और शर्मनाक घटना का विवरण तत्काल प्रकाशित किया और एक प्रश्नचिन्ह जनता के सामने खडा कर दिया, पर उसके बाद ? शायद इस प्रश्नचिन्ह को कायम लोगोंकी निगाह में रखने का प्रयत्न | विधानसभा में प्राय: हर सदस्यने इस अपराध पर गहरा क्षोभ प्रकट किया | उसके बाद ? चर्चा की दिशा बदलकर यह अधिक महत्त्वपूर्ण बात बन गई कि इस प्रश्न पर स्थगन प्रस्ताव लाया जाना चाहिये या नही, सरकार गिरनी चाहिये या नही, मुख्यमंत्री या शिक्षामंत्री को पदत्याग करना चाहिये या नही ? कई नागरिकोंने पत्रलेखन या स्तंभलेखन द्बारा अपनी तीव्र प्रतिक्रिया दर्शाई - शायद मैं भी उसी समूह की मात्र एक और सदस्य बन जाऊँ | शिक्षकोने और मानसशास्त्रियों ने क्या किया ? एक केस स्टडी, कि कैसे इन मौकोंपर लोग हतप्रभ और किंकर्तव्य विमूढ हो जाते है | उल्हासनगर की जनता ने क्या किया ? पुलिस का धिक्कार और तीन चार संदेहपूर्ण व्यक्तियों को पकडने में सहायता |

पुलिस ने क्या किया ? कभी मंथर गति और कभी तेज चाल दिखाई | वह भी किसी प्रयोजनसे नही | जिससे जो बन पडा उसने उतना ही किया | मसलन रेलवे पुलिससे मृतदेहकी पहचान जल्दी नही कराई जाती - सो नही कराई गई | कोर्ट के सम्मुख केस जल्दी उपस्थित नही कराई जा सकती - सो नही कराई जायेगी | क्रूरकर्मा अपराधियों के आरोप की सुनवाई जल्दी नही कराई जा सकती, उन्हें सजा जल्दी नही दी जा सकती - सो वह बातें भी जल्दी नही कराई जायेंगी | पुलिस के कुछ अधिकारी भगोडे अपराधियोंको ढूॅढ निकालने में माहिर हैं, तो उन्हें जल्दी ढूॅंढा गया | लेकिन उनके रिवाल्वर आये कहाँसे ? वे लायसेंस किसके नाम से थे ? कया वे रद्द कराये जायेंगे ? या उनसे प्रश्न पूछे जायेंगे ? या उनके विषयमें जनता को कुछ बताया जायगा ? नही - क्यों कि पुलिस या प्रशासन के काम करनेका वह तरीका नही होता - इसलिये वैसा नही किया जायगा |

इनके अलावा बाकि लोगोंने क्या किया ? शायद कुछ चर्चा - बस | एक हताशा की भावना, एक दीर्घ उच्छ्वास और एक भविष्यवाणी, कि यह बस अब ऐसे ही चलेगा |

किंकर्तव्यविमूढता तो हमारे घर भी कुछ देर तक छाई रही | बच्चे दस और बारह वर्ष के हैं | यदा कदा अखबार पढ लेते हैं | कभी कुतूहलवश - जो कि कभी ही कभी होता है - और कभी खास लेख के लिये हमारे कहने पर | उन्हें क्या कहा जाय - कि आजका अखबार पढो और पहचान कर लो उस क्रूरतापूर्ण समाजसे ? या उन्हें अज्ञान के सुखमें रखा जाय, ताकि उनके दिमाग को एक गहरे, दुष्ट असर से बचाया जाये | उन्हें पता लगने दें या नही, कि ऐसे बर्बर अपराध आज हो रहे है ?

मैं जानना चाहती हूँ कि हमारे जैसे कितने माँ-बाप हैं जिन्होंने इस प्रश्न को झेला हैं और क्या तय किया ? कितने माँ-बाप है जिन्होंने इस दुर्घटना से पहले कभी अपने बच्चोंसे समाज में पनपती गुंडागर्दी, और बर्बरता की चर्चा की है | संगीता की हत्याके पहले क्या कभी हमने अपने आपको यह बताया है कि बर्बरता और अन्याय जहाँ भी दिखे, हमें उसे रोकनेके लिये तत्काल सामने आना है ? क्या कभी अपने बच्चोंको यह बताया है ? क्या उनके स्कूलमें जाकर कभी पूछा है कि उन्हें ऐसे मौके के लिये क्या सिखाया जाता है ?

हमने आप भी यही सीखा और बच्चोंको भी यही सिखाया कि इस समाजमें मनमानी ही सबकुछ है| कुछ बेईमानी कर सकें, कुछ अकड दिखायें, कुछ लूट-खसोट करें, तभी हम टिक सकते हैं | दूसरे भी जब ऐसे अनुचित कुकर्म करते हैं तो वह उचित है - इसलिये नही कि वह सही है बल्कि इसलिये कि उनके पास अधिक ताकत है, अधिक पैसा है, और यदि वे हमसे भी ज्यादा मनमानी या अत्याचार कर सकते हैं तो बेशक करें - केवल हमपर आँच नही आये | हम हर उपायसे उस आँचसे बच सकें | जहाँ अपराध हो रहा है, - या तो हम उसमें शामिल होकर लूटका हिस्सेदार बनें | या फिर हर प्रयत्नसे वहाँसे अलग हट जायें - उंगली तो क्या आँखे भी न उठायें | आँख उठाना तो क्या, एक विचार तक दिमाग में नही कौंधे कि कैसे उस अपराध को रोका जा सकता है | यही हम आपभी सीख रहे हैं और बच्चोंको भी सिखा रहे हैं |

और आज संगीता की हत्या के बाद क्या हम कुछ और करने को तैयार हैं ? जो बच्चे इस जघन्य अपराधके मूक और कायर साक्षी बने रहे, उनमेंसे किसके मनमें आक्रोश जागा ? किसने अपने माँ-बाप से पूछा कि उनके इस व्यवहारके लिये कौन जिम्मेदार है ? क्या किसी माँ बाप ने चाहा है कि काश उनका बच्चा कुछ और करता | या हर माँ-बाप ने भगवानको सराहा है कि उनका बच्चा इस शिकारकांड में सुरक्षित बच गया - चाहे अकर्मण्यतासे ही सही ?

क्या मैंने खुद कभी अपने बच्चोंसे कहा है कि वे ऐसे अपराध का -- आगे आकर मुकाबला करें ? क्या मैंने ऐसे मौकेपर मुकाबले के लिये उन्हें तैयार किया है? आज यदि मेरे बच्चोंके स्कूलमें यही बर्बरता घट रही हो तो मैं उनसे किस बर्ताव की अपेक्षा करूँगी ? और संगीता के माता पिता या खासकर उसकी बहन मेरे बच्चोंसे किस बर्ताव की आशा करेंगे ?

क्या हम अभिभावक संगीताके बलिदान की वेदी पर यह वादा कर सकते हैं कि भविष्यकालीन ऐसी हर घटना मे हमारा बच्चा मूक साक्षी नही बना रहेगा ? संगीताके प्रति जो अपराध हुआ उसके गुनहगार और सजावार तो हम सभी है | लेकिन यदि इस वादे को अपनाकर और पूरा कर हम अपना ऋण चुका सकें तभी हम भविष्यमें शिकार बननेसे बच सकते हैं |

हम अभिभावक आगे आयें - यह मेरी अपील है | यही एक उपाय है इस अपराधको रोकनेका और प्रायश्चित्त का | हम न केवल अपने अपने घरोंमे, बल्कि इकठ्ठे आकर, समूहमें जुट कर अपने बच्चोंको तैयार कराने में लग जायें | कि उन्हें अन्याय और अपराध के सम्मुख भागना नही, लडना है | कि उन्हें अपनी सुख सुविधा जुटानेके लिये अन्याय का सहारा नही लेना है, तथा औरोंका भी रोकना है |

इस सामूहिक प्रक्रिया में हम क्यों न हरीष के माँ-बाप को भी शामिल करें ? वे अपने बेटे को तो खो ही चुके हैं | साथ ही इस पाशविक, जघन्य अपराध का कलंक भी अपने सर पर लेकर उन्हें जीवन गुजारना है | समाजके क्षोभ का आज उनके पास कोई उत्तर नही है | क्या वे संगीता का ऋण चुकाने की बात सोचेंगे ? क्या वे साहस जुटाकर कह पायेंगे कि उनके बेटेने जो कुछ किया उससे बचनेके लिये और उसका मुकाबला करनेके लिये वे अन्य बच्चोंको तैयार करेंगे | और यदि उन्होने साहस जुटाया तो क्या समाज उन्हें एक मौका देगा ?

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दै हमारा महानगर में प्रकाशित, मार्च 1990
kept on web 13, mangal and pdf

गुरुवार, 27 मार्च 2008

00 वकालत हमें ही करनी है।

वकालत हमें ही करनी है।

मेरे सामाजिक लेखों का पहला आलेख संग्रह, ‘जनता की राय’ काफी चर्चित रहा | उसीसे तय हुआ कि यह दूसरा आलेख संग्रह भी संकलित किया जाय | पहला लेख ‘है कोई वकील’ मुंबई के कुख्यात अंडरवर्ल्ड सरगना माया डोलस के पुलिस एनकाऊंटर से संबंधित और अन्तिम लेख ‘यह व्यर्थ न हो बलिदान’ राष्ट्रीय महामार्ग के भ्रष्टाचार उजागर करने के प्रयास में जिसने जान की बाजी लगाई उस सत्येंद्र दुबेसे संबंधित | ये सारे लेख प्राय: पिछली सदी के अन्तिम दशक के हैं | दोनों घटनाओं में दाँव पर लगा है हमारा लोकतंत्र | पहले लेख मे 16 नवंबर, 1991 मे मैंने सवाल उठाया था कि लोकतंत्र की वकालत करने के लिये कहाँ हैं कोई उचित न्यायालय और कहाँ हैं उचित वकील? और आज भी मुझे लोकतंत्र को न्याय मिले यह चिन्ता तो है, पर यह भी पता है कि इसकी वकालत में हमें ही आगे आना है |
इस आलेख संग्रह में ऐसे कई मुद्दे उठाये हैं जिनके लिये हमें किसी न किसी मंच पर वकालत करनी है | क्योंकि उन सभी मुद्दों में लोकतंत्र ही दाँव पर लगा नजर आता है - चाहे वह हर्षद मेहता या हवाला या फेयर ग्रोथ जैसा आर्थिक काण्ड हो या रूपकुंवर के जलाये जाने को सती सावित्री के नामसे जोडने का मामला हो या अगस्त क्रान्ति दिवस पर मुंबई में महिला स्वतंत्रता सेनानियों पर अपने ही लोकतंत्र में लाठी बरसाने का मामला हो |

लोकतंत्र को सुदृढ बनाना है तो विकास कार्यक्रमों की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी - कानूनी हतबलता को संभालने की और कुरीतियों पर प्रहार करने की | विकास कार्यक्रमों में नए और विविध पर्याय भी ढँूढने होंगे | मसलन क्या बडे बांध ही विकास हैं या छोटे बाँधोका पर्याय भी है? क्या ऍलोपथी ही स्वास्थ्य - सुरक्षा दे सकता है या आयुर्वेद, और निसर्ग-उपचार की प्रणालियों का पर्याय भी हमें चाहिये? क्या हमें महिलाओं के प्रति अपराध रोकने हैं या स्त्री-भ्रूण हत्या को ही इसका समाधान मान लें और सारी स्त्रियों को ही समाप्त कर दें? इसी प्रकार गरीब, शोषित, दलितों के लिये आरक्षण नीती के मुद्दे हैं - क्या हम करें जिससे सामाजिक विषमता दूर हो?

ऐसे हजारों प्रश्न पडे हैं | देश के तमाम न्यायालयों में जितने केसेस आज पडे हैं शायद उतने ही प्रश्न प्रशासकीय व्यवस्था को लेकर भी है | लेकिन न्यायालयों में व्यवस्था संबंधी प्रश्न कम ही आते हैं या लाये जा सकते हैं | गरज तो यह है कि हम सभी के अंदर एक न्यायालय हो, एक वकील हो और न्यायोचित फैसला करने का, संवेदनशीलता के साथ फैसला करने का और उस पर अमल करने का जज्बा भी हो | और जहाँ एक चने से भाड नही फूटे - हमें एकत्रित चर्चा कर, टीम बना कर काम करने का गुर भी आना चाहिये | यह टीम स्पिरिट आये यह भी लोकतंत्र की माँग है |

ये सारे लेख विभिन्न अखबारों से प्रकाशित हुए | अतएव उन सभी अखबारोंका मैं धन्यवाद करती हँूै | मुंबई से दै. हमारा महानगर, साप्ताहिक रविवार, दिल्ली से हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा आदि अखबारों मे छपे ये लेख अपने अपने समय में चर्चित रहे | इन्हें एकत्र करने में पीसीआरए की मेरी सहकर्मी रीना का भारी योगदान रहा | आलोकपर्व प्रकाशन के उर्मिलाजी और रामगोपाल शर्मा का धन्यवाद तो है ही | साथ में उनके पुत्र आलोक के लिये शुभाकांक्षा भी है जो एक अच्छी सूझ बूझ, लगन और वैचारिक परिपक्वता लेकर प्रकाशन क्षेत्र में उतर रहा है | इस पुस्तक के तैयार होने में उसका तथा उनके चित्रकार राय का योगदान भी उल्लेखनीय है |

चलते चलते एक उल्लेख करना ठीक रहेगा | देश की पाठक संस्कृति घटती जा रही है और इस पर चिन्ता व्यक्त की जाती है | इसीके साथ पाठकों की रूचि भी बदल रही है | क्या केवल कथा, कविता और उपन्यास ही साहित्य है - या समाज-दर्शन से जुडे आलेख भी साहित्य की श्रेणी में आते हैं? इनकी चर्चा और वकालत के लिये भी कोई मंच अवश्य उपलब्ध करवाना आवश्यक है | तभी हिन्दी साहित्य अधिक मुखर और प्रखर हो सकेगा |
लीना मेहेंदळे
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Also kept doc file in dvbtt, mangal and shruti font.

बुधवार, 5 मार्च 2008

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

जानो अपनी समृध्दि को

जानो अपनी समृध्दि को
-लीना मेहेंदळे

हमारा देश और संस्कृति दोनों अतिप्राचीन हैं | अतएव इतका
जतन करना भी हमारी जिम्मेदारी बन जाती है | जतन करने की कई
विधाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण है नामकरण और गिनती |
कया पशुपक्षी भी एक दूसरे को नाम से पहचानते या बुलाते हैं ?
शायद नही | कमसे कम हम मनुष्यों को तो यह नही मालूम | लेकिन
हम अपने संगी साथियोंको नाम से पहचानते हैं | घर में नया शिशु
ज-म लेता है ती जल्दी से उसका नामकरण करते है | घर मे कोई प्रिय
जानवर हो, जैसे गाय, बकरी, कुत्ता, घोडा, सांड तो उनका भी हम
नामकरण करते हैं | इस प्रकार नामकरण से यह सुविधा होती है कि
उस व्यकित की बाबत बात करना आसान हो जाता है | हम वस्तुओं
के भी नाम देते हैं | व्याकरण मे सबसे पहले हम नाम या संज्ञा के
विषय में ही पढते हैं | किसी वस्तु के नाम के साथ जब हम उसका
बखान करते हैं तो इससे ज्ञानके विस्तार में सुविधा होती है | यही बात
गणित और गिनती के साथ भी है |
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हिमालयन ओऍसिस, सिमला के अंक में प्रकाशित