गुरुवार, 20 दिसंबर 2007

05 गुनहगारी के बदलते चेहरे

गुनहगारी के बदलते चेहरे
---- लीना मेहेंदले
फिजिक्सकी पढाई करते हुए कभी एक नियम पढा था कि किसी सिस्टम को अपने आप पर छोड दिया जाय तो उसकी एन्ट्रापी अर्थात बेतरतीबी हमेशा बढती है। तरबीती लाने के लिये बाहरी उपयोंकी जरूरत होती है। फिजिक्स निर्जीव पदार्थों का शास्त्र है। लेकिन आधुनिकतम जीवशास्त्रियों ने सजीवता की व्याख्या करने के लिये इसी नियम का उपयोग किया है। उनका कहना है कि जहाँ जीवन है, जीवन्तता है, वहाँ खुद ब खुद बेतरबीती को सँवारकर तरतीबी लाने का ज्ञान और सामर्थ्य दोनों मौजूद होते हैं। जिस सिस्टम मे ये दोंनो हैं वह सजीव है, जिस सिस्टम में यह नहीं है वह निर्जीव है।

जो नियम जीवशास्त्रियों ने किसी एक जीवजन्तु की सजीवता या निर्जीवता परखने के लिये बनाया है वही नियम मनुष्य के लिये भी है और मानव समाज के लिये भी। ऐसा कोई समाज नही होता जहाँ कभी कोई उथल पुथल, हलचल या बेतरबीती नही आये। लेकिन जब तक उसे सँवारने का ज्ञान और सामर्थ्य समाज में होगा तभी तक वह समाज जीवन्त रहेगा।

सामाजिक बेतरतीबी को मापने का एक मापदण्ड है गुनहगारी। इस मापदण्ड को लगाने पर भारतीय समाज का कौनसा रूप हमें दिखता है? यही कि गुनहगारी का चेहरा, लिबास, और आकार दिन पर दिन अधिक से अधिक भयानक होते जा रहे हैं।

कोई जमाना था जब सिनेमा टिकटों को ब्लैक में बेचने का गुनाह जोरों पर था । इस गुनहगारी की व्यापकता के बावजूद समाज में इसके प्रति कलंककी भावना थी और इस विषय को लेकर काला बाजार जैसी फिल्में भी बनी थी ।

संगठित गुनहगारी के क्षेत्र में दूसरा बडा धंधा था बच्चों को उठाकर ले जाना, उनकी अंगुलियाँ, हाथ पाँव तोडना या आँख फोडना और उनसे भीख मंगवाना । मराठी फिल्म 'जगाच्या पाठीवर' में इसका विदारक चित्रण था । धीरे धीरे यह धंधा कम हो गया हालाँकि बच्चों का गलत उपयोग अब भी कायम है । भोली भाली किशोरियों को जाल में फाँसकर वेश्यावृति में लगाने का गुनाह हमेशा तेजी पर ही रहा है और इसमें कमी हो ऐसी कभी भी कोई संभावना नहीं दिखती ।

इसके बाद दौर चला मटका और लोगों से जुआ खिलवाने का। कोई मटका सम्राट पकडा जाता तो किसी मटका सम्राट को पुलिस सहयोग की दृष्टि से देखती। यानी धीरे धीरे पुलिस ने यह फलसफा अपनाना शुरू किया कि जिसके पास दो नंबर का पैसा बहुत अधिक है उसे पकडने की बजाय उसे राजाश्रय देकर उससे पैसा कमाना ही ज्यादा अच्छा है। इस प्रकार गुनहगारी की व्यापकता ने पुलिस को भी लपेट लिया।

उन्नीस सौ साठ और सत्तर के दशर्कों में स्मगलिंग भी एक ऐसा ही पनपता और बरकरार गुनाह था। घडियाँ, बैटरी के छोटे सेल, कॅसेट, सिंथेंटिक साडियाँ जैसी आज के लिहाज से नगण्य वस्तुओं से तस्करीका आरंभ हुआ। फिर सोने के बिस्कुट, हीरे इत्यादि की तस्करी होती रही। अब स्मगलिंग अधिक डरावना हो गया है क्यों कि इसमें ड्रग्स भी आ गये हैं और कस्टम विभाग के अधिकारी भी।

इसी दशक में गावठी शराब या हातभट्टी का धंधा भी पनपता गया । १९४७ की तुलना में आज लोग अधिक निराश, हताश, कर्तव्यचुत और शराबप्रिय होते जा रहे हैं। शराबबंदी एक के बाद राज्यों में उठाई जा चुकी है। गाँव गाँव में देसी शराब के दुकान खुले हैं। बियरबार में जाना पहले संकोच या शर्म की बात हुआ करती थी आज वह स्टेटस, स्पोर्टसमन शिप और स्मार्टनेस की द्योतक बन गई है । पहले बियर बार शाम को खुला करते थे।अब दिनभर चालू रहते हैं। पहले वहाँ केवल बुजुर्ग जाते थे अब कॉलेज स्टुडैण्ट्स तक सभी जाते हैं । आज शराब न पीना एक हेय बात है और हो सकता है कभी वह जुर्म भी बन जाये ।

पहले सरकारी ऑफिसो में भ्रष्टाचार की एक लक्ष्मण रेखा थी। सामान्य भ्र्रष्टाचार या तो बिलकुल छोटे तबके के कर्मचारी करते थे और यदा कदा अत्यंत वरिष्ट अफसर या मंत्रीगण । जैसे पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैंरों को भ्रष्टाचार के आरोप पर जाना पडा। लेकिन बिचले तबके के कर्मचारी और अधिकारी जिनके बलपर सरकार चलती है और जिनके कामकाज पर ही जनता की सुख सुविधाएँ निर्भर करती थीं वे सामान्यतया ईमानदार थे। आज का चित्र पूरा ही बदला हुआ है। और इसे अबला जनता ने स्वीकार भी कर लिया है। अतः आज सरकारी दफ्तरो का भ्र्रष्टाचार एक जानी पहचानी और लाइलाज बिमारी की तरह है। कई बिमारियाँ अब स्टेटसधारी भी होने लगी हैं जैसे डाइबेटिस, हार्ट डिसीज, इत्यादि। उसी प्रकार सरकारी भ्रष्टाचार भी अब इज्जतदार हो गया है।

अस्सी के दशक के आते आते संगठित गुनहगारी और बिल्डर्स का एक अजीब सा नाता चल गया । एक ओर सामान्य जनता के लिये अर्बन लैण्ड सीलींग ऍक्ट था । दूसरी ओर उसमें कई लूपहोल्स थे और कई एक्झेम्शन्स और अलॉटमेंट्स भी जिनका उपयोग लेन देन के व्यवहार में जमकर हुआ ।

दलितों पर अत्याचार, दलित और आदिवासी स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों में कमी आने का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन अब इसमें पुलिस और सेना भी शामिल होती सुनाई पडती है जो बडी भयावह परिस्थिति है। दहेज बलि की ओर सतीकी घटनाएँ मध्यम और उच्च वर्गो की गुनहगारी का खास चेहरा बेनकाब करती हैं। पूरे अस्सी के दशक में आंतकवाद का बढता हुआ राक्षस भी अपनी पूरी भयानकता के साथ सामने आया है। पंजाब, तामिलनाडू , काश्मीर, गुरखा लैण्ड, आसाम और अन्य उत्तर पूर्वी राज्यों में यह विकट समस्या है। और अब नक्षलवादियों का पुनरोत्थान होकर वे महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश मे फैल रहे हैं। इन आंतंकवादियों का अड्डा चाहे कहीं भी हो, उनका खतरा सारे देश में हर जगह पर है जो एक नई बात है।

आज का चित्र यह है कि गुनहकारी का दायरा काफी बडा है और बढता ही जा रहा है। एक गुनहगारी है जो गुण्डागर्दी, मसल पावर, भाले बरछी, बन्दूक और एके ४७ मशीनगन के बल पर चलती है । सामान्य आदमी सोचता है कि मैं उस जगह से भाग जांऊँ, वहाँ दखल अन्दाजी न करूँ तो मैं सुरक्षित रह सकता हूँ। हालाकिं यह गलतफहमी है। बिहार के कोयला खानों पर माफिया राज और मुंबई के वसई विरार ठाणे, कल्याण उल्हासनगर के इलाकों का माफिया राज यही दर्शाता है कि सामान्य व्यक्ति की असुरक्षिता धीरे धीरे बढती रहेगी ।

यह जानीमानी बात है कि चुनाव लडने के लिये कई बार राजनितिक पार्टियों और कई उम्मीदवार काफी पैसा जुडाते हैं। पहले बडे बडे उद्योगपति और कंपनियाँ चुनाव में पार्टी उम्मीदवारों के लिये पैसा खर्च करती थीं। धीरे धीरे वे बिल्डर्स और माफिया गैंग के दादा जिन्होंनें नेतागणों के आशीर्वाद से पैसे कमाये, उन्होनें भी चुनाव में खुलकर पैसा लगाना आरंभ किया । ऐसी हालत में जीतने वाले नेता और इन दादाओं के गठबंधन गहरे होते गये। यह सिलसिला ऐसा बढा कि पिछले चुनाव में कई उम्मीदवार ऐसे भी उतरे और चुने गये जिन्हे सामान्य जनता गुंडागर्दी और गुनहगारी के लिये जानती थी।

लेकिन जो सबसे लेटेस्ट है वह है आर्थिक गुनहगारी जिससे कोई भी व्यक्ति अछूता या सुरक्षित नहीं रहेगा। तीन प्रकार की आर्थिक गुनहगारी जोर शोर से चल रही है। पहली है आंतर्राष्ट्रीय आयात में दलाली का मामला । बाहर के देशों से बडे बडे यंत्र या हथियार खरीदे जाते हैं । वे कम्पनियाँ दलालों के मार्फत ही भारत सरकार से ये व्यवहार पूरा करवा सकती हैं। करवाने के लिये भारत सरकार में किसे, कैसे और कितना कमिशन देना पडेगा यह दलाल जानता है और वहाँ तक उसकी पहुँच भी होती है। इस प्रकार सौ करोड की वस्तु दो सौ करोड में खरीदी जाती है। उसकी क्वालिटी की कोई गारंटी नहीं होती सो अलग। यह जो सौ करोड ज्यादा खर्चा हुए वह गये सामान्य जनता की जेब से और पहूँचे दलाल एवं सरकार के उस व्यक्ति की जेब में। ।

दूसरा गुनाह है भीखमंगी में उत्सव मनाने का। इधर देश की जनता पर कर्जे का बोझा बढ रहा है। कर्जा देनेवाला साहूकार खुश है। हमें सिखाया जा रहा है कि हम कर्जा नहीं लेगें तो हमारा विकास नही होगा। सिखाने वाले भी वही हें जो आज साहूकार का अन्न खा रहे हैं और रिटायरमेंट के बाद उनके देश में जा बसने का सपना देख रहे है। और इधर उधर से आने वाले कर्जे से अपने राजसी थाट चला रहे हैं। कोई सरकारी पैसे से बीसियों फॉरेन ट्रिप लगा रहा है। कोई अपने आफिस के परदे हर दो महीने में बदलवा रहा है, तो किसी के लिये पचीसों पुलिस गार्ड तो किसी के लिये सेंट्रली एअर- कंडिशन्ड ऑफिस। बेजरूरती स्कीमें बन रही हैं। हर कोई अपने ऑफिस को अपना साम्राज्य समझता है और उसे निरंतर बढाना चाहता है क्योंकि उसका रोब दाब उसी बढोतरी पर टिका हुआ है। सरकारी अफसर के रोब का मापदण्ड यह है कि आपके ऑफिस का बजट कितना है, आपके नीचे कितने कर्मचारी काम करते हैं, आप कितनी फॉरेन ट्रिप्स पर जाते हैं , आपके नीचे कितनी गाडियाँ हैं, आपका ऑफिस रूम कितना बडा है इत्यादि। तो यह सब बडा करने के लिये पैसा चाहिये। वह ले आओ माँगकर, लगा दो किसी स्कीम का बहाना। यही रवैया आजकल सरकारी दफ्तरों मे चल रहा है।

लेकिन जो इन सब गुनाहों को पीछे छोड दे वह था स्कॅम जिसमें बैंकों के बडें अफसरों ने और उनके मार्फत देश के बडे बडे उद्योगपतियों और नेताओं ने जनता की सबसे बडी लूट की है। इनमें विदेशी बैंक भी शामिल हैं। लूट का अंदाजा आप कुछ उदाहरणों से लगा सकते हैं।

१९८१ में सिमेंट के अलॉटमेंट में जो घोटाला हुआ उसमे महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमान अंतुले पर एक करोड रूपये के भ्रष्टाचार का आरोप था। बोफोर्स कांड में दी गई दलाली का आरोप एक सौ करोड रूपया का है। बैंक स्कॅम में हुए घोटाले में से जो कागज हासिल हुए हैं उनका घोटाला तीन हजार करोड रूपयों से अधिक है और जो कागज हासिल नहीं हो पाये लेकिन उनके होने की जानकारी मौजूद है उनके घोटाले का अनुमान तैंतीस हजार करोड रूपयों से अधिक है। यह इसलिये संभव हुआ कि बैंकिग क्षेत्र में जहाँ कही नियमों मे गलतियाँ या खामियाँ रह गई - उनमें सुधार करने के लिये सरकार को आवश्यक जानकारी देने के बजाय बैंक के कुछ वरिष्ट अधिकारियों ने उन गनतियों का फायदा उठाकर अपनी जेबें भरीं। लेकिन इस प्रकार जेब भरने के लिये पहले सामान्य जनता की जेब से पैसा निकालना पडता है। इसके लिये उन्हे किसी इंडस्ट्री के लाभ के सब्जबाग दिखायें जायें तो वह इंडस्ट्री जमकर पैसा बटोर सकती है। सामान्य जनता उस उद्योगपति के पीछे दिवानी होकर पैसा उसके शेयरों में लगाती है। इधर वह उद्योगपति और उसकी कंपनियाँ पैसे कमाती है। उधर शेयर मार्केट के दलाल। उधर बैंक और सरकार के वरिष्ट अधिकारी और मंत्रीगण। ऊपर से सरकार को यह जताने का मौका मिलता है कि बैंको का बहुत लाभ हो रहा है ( अर्थात वह बहुत एफिशियंट है ) और सरकार की उद्योग नीति के कारण उद्योग कितने सुधर गये है । सामान्य आदमी की जेब से पैसा जाता रहता है। बाद मे पता चलता है कि ये सारे ही सब्जबाग थे। न तो उद्योंगो में अधिक उत्पादन हुआ न तो बैंको से लोगों को अच्छी सर्विस मिली न तो सरकारी खर्चा घटा, न ही सरकारी उद्योगों का कामकाज सुधरा और न महँगाई कम हुई। स्कॅम के घोटाले का अंदाज आप इस बात से भी लगाइये कि अपने देश का वार्षिक बजट तीस हजार करोड रूपये के लगभग है और स्कॅम का का घोटाला भी कराब उतना ही। वह बजेट जो देश की सौ करोड जनता के लिये कुछ कर सकता है उतना ही पैसा देश के बडे उद्योगपति बैंक अधिकारी और नेता खा जाते हैं। क्या है आप में वह सामर्थ्य और ज्ञान जो इस बेतरबीती सँवार सके?
--दै. हमारा महानगर, मुंबई, सितम्बर 1992
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शनिवार, 15 दिसंबर 2007

कथा अधूरी -- मन ना जाने मन को

मन ना जाने मन को
नन्हा पौधा बहुत दूर कहीं पर था । सच पूछो तो वह पौधा भी नही - केवल एक बीज था । या, बीज भी नही, बस एक खयाल! ना, वह भी नही ! कुछ भी नही था। बस एक अनाम सा अस्तित्व बोध, कि कुछ है !
फिर कैसे वह धीरे धीरे तुम्हारे पास आ गया ? अमूर्त से मूर्त बन कर ! अनाम से नामधारी बनकर ! क्यों तुमने उसे पुकारा ? उसे छुआ? बाँहो में भरकर उसकी सांवली, कोमल पत्त्िायों पर अपने होंठ टेक दिये ?
कहीं से तुमने मिट्टी जमा की, कहीं से गमला और कहीं से पानी! फिर पौधे को उसमें जमा दिया और गमला घर ले आयें । पडा रहेगा यहाँ अपनी बाल्कनी में, तुमने मनोरमा से कहा!
इसे रोज रोज पानी कौन डालेगा? मुझसे नहीं होगा वो सब! मनोरमा ने कहा।
'चिंता न करो। मैं डाल दूँगा। '
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कई दिन बीते। तुम विदेश से आकर अपनी नोकरीमें उलझ गये थे। रोज सुबह देर से उठना और भाग दौड करते हुए आफिस पहुचना! वापसी में कभी बच्चों को लेना, तो कभी सब्जी! कभी स्कूटर सर्विसिंग तो कभी शेअर्स! अक्सर दोस्तोंके साथ बैठकर बियर! रोज रात देर से सोना - रोज थकान लेकर जागना ।
एक दिन अचानक तुम जल्दी उठ गये। बाल्कनी में आए। पौधे को देखा, असीसा। वाह! अभी टिका हुआ है, मैं तो पानी ही नही दे पाया इतने दिन! माफ करना यार! तुमने पूरी बालटी गमले में उलट दी - आधा पानी जमीन पर !
एक दिन नाश्ते पर मनोरमा ने कहा -' आज जल्दी घर आना । लखनऊ वाले फूफाजी के .यहाँ शादी में जाना है। और वह तिवारी के बेटे के जनम दिन पर भी तो जाना था ।'
'वह परसों है! क्या बात है कि तिवारी के घर जाने के लिये इतने उतावले हो!
'भाई, मेरा पुराना दोस्त है, हम दोनों ने एक साथ ही तो नौकरी शुरू की थी।'
'यह क्यों नहीं कहते कि उसकी बीबी बडी खूबसूरत है। और तुम उसे घाल डालना चाहते हो ।
'कैसी बातें करती हो? जरा सोचो, कभी सुन लिया तो बेचारे तिवारी पर क्या गुजरेगी!'
तुम उठकर बाल्कनी में चले आये। बहुत दिन बाद आये। पौधा हवा में झूले झूल रहा था। तुमने कहा - आज समय नही है। मुझे तुरंत आफिस पहुँचना है। पौधे ने सोचा कोई बात नही, इतने दिन तुम नहीं दिखे, तो मैंने तो कुछ नही पूछा! पर तुमने शायद वह नही सुना। तुम वापस चल चुके थे।
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अजीब है तुम्हारा आफिस भी । या शायद सभी आफिस ऐसेही होते है। काम करने वाले के सिर पर चार गुने काम और न करनेवाले को आराम का इनाम! पर तुम अपने काम में मस्त हो। दुसरे काम करं या न करें, तुम करोगे। देर रात तक आफिस में बैठोगे। ब्रिज और ओवर ब्रिजेस के ड्राइंग बनवाना, टेंडर शर्तों को तय करना, टेंडर्स मंगवाना, आडर्स निकालना, मशीनरी जाँचना, कन्सल्टंट लगवाना साइट इन्स्पेक्शन सारे काम तो एक ही तरह के, एक ही रूटीन के होते हैं। तुम्हें उनमें हर बार क्या नया दिख जाता है कि हर ब्रिज को नये नये ज्यूनियर इंजिनियर की तरह ध्यान से पढे बगैर तुम रह नहीं सकते? टेक्निकल किताबें मँगवाते रहते हो। मैं कहाँ का नया टेकनीक अपनामा जा रहा है, तुम्हें उसकी जानकारी होती है। फिर बास तुम्हें रोक लेते हैं - 'जरा बताना जो इस बारे में!' वह खुद क्यों नहीं कुछ पढते?
न पढें, मुझे पढना अच्छा लगता है, पढता हूँ - इसीसे साइट इन्स्पेक्शन भी करता हूँ - क्या पढा था और वह जमीन पर कैसे उतरा है।
'फिर तुम्हें प्रमोशन क्यों नहीं मिल रही?
बास भी न जाने कहाँ कहाँ से अपने चमचों को उठा लाते हैं और उन्हीं को प्रमोशन देते हैं। मुझे भी दे सकते थे। मेरे और कई कलिग्स को दे सकते थे, पर नहीं दिया। हमारा मंत्री भी वैसा ही है। तभी तो कहता हूँ, सरकार में काम करने वाले को काम है और न करने वाले को इनाम है।
'फिर तुम काम क्यों करतो हो? '
'वह मेरी आदत है। क्या काम न करूँ?'
'नही, तुम उस तरह की बेईमानी में नहीं जी सकोगे।'
फिर मेरे काम की इतनी जाँच और जिद्द क्यों?
'यों ही, जाओ तुम अपना काम करते रहो।'
'आज एक अमरीकन एक्सपर्ट अपना प्रेझेंटेशन दे रहा है। मुझे जाना है उसे सुनने के लिये। रात देर हो जायेगी। घर पहुँचूँगा तो थक चुका हूँगा।'
और तुम्हारे उस पौधे का क्या हुआ जिसके बारे में बता रहे थे?
अरे, उसे तो देखा ही नहीं - बहुत दिन हो गये। पता नहीं किस जात का है कि बिना पानी दिये भी इतने दिन जी लेता है! अच्छा मिल गया था।
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मनोरमा ने नौकरी छोडने का फैसला किया। तुमने समझाना चाहा, देखो,पंकज और नन्दिनी वैसे भी होस्टल में हैं, रहा गुड्डू! तुम्हारी नौकरी के पैसे की जरूरत तो हमें कभी नहीं थी। फिर भी तुम्हारा मन लगा रहेगा लेकिन मनोरमा अपनी जिद में किसी की नहीं सुनती।
तुम सिगरेट का डब्बा उठाकर बाल्कनी में आ गये। यंत्रचलित सा पौधे के पास आ खडे हुए, फिर सिगरेट सुलगा दी। एक अजीब अनमनेपन में भर कर पौधे को सहलाते लगे। उसने धीरे से कहा - सिगरेट से पौधोंको तकलिफ होती है। 'अच्छा', तुमने चुटकी लेकर कहा - तुम्हारी दो नई डालियाँ निकलेगी तब मैं छोड दूँगा। 'तुम अपनी खातिर भी तो छोड सकते हो', पौधा मचलने लगा। और तुम भी अपनी ही खातिर डालियाँ फैल सकते हो। पौधे ने हार मान ली। फिर झूमने लगा।
बच्चे एक से एक अच्छा रिझल्ट कर फुर्र से उड रहे हैं। नंदिनी ब्याह रचा कर और पंकज इंजिनियरिंग के बाद अमेरिका जा चुके हैं। छोटा गुड्डू भी चेन्नई में पढाई कर रहा है। तुमने नई कार खरेदी ली है। एक प्रमोशन मिल चुका है, अगला भी तय है, बस, कुछ प्रोसिजाल डिले है। अब आफिस में तुम और भी डूब गये हो।
अगली बार तुम पानी डालने लगे तो पौधे की दो नन्हीं नन्हीं टहनियाँ निकल आई थी।
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अपने सिगरेट क्यों छोडी? मनोरमा ने पूछा। यू लुक्ड व्हेरी स्मार्ट व्हाईल स्मोकिंग!
आई डोण्ट वाम्ट गुड्डू टू पिक अप धिस हॅबिट!
ओके, अपनी सूटकेस पॅक कर लो शिमला के लिये। कल सुबह हमें जल्दी निकलना है। लेकिन तुम तो आफिस से आज भी देर से ही आओगे। और मेरी पॅकिंग तुम्हें पसंद नहीं आती। और देखो, आज रात मैं खाना नहीं बनाऊँगी। तुम कलेवा से कुछ लेते आना।
वहीं चलेंगे, मैं आज आफिस से जल्दी निकल आऊँगा। या ऐसा करो, मैं ड्राइवर भेज देता हूँ। तुम और गुड्डू पहुँच जाना। मैं मिश्रा से लिफ्ट लेकर आ जाऊँगा। आठ बजे, राइट?
क्या आजकल मिश्रा की वाइफ के साथ कुछ चल रहा है?
'मनोरमा, प्लीज!'
तुम सिगरेट भी गुड्डू की वजह से नहीं छोड रहे। कोई और बात है।
ठीक कहती हो, अपनी खातिर छोड रहा हूँ। अपने हेल्थ की खातिर!
हेल्थ का खयाल है तो फिर अपनी अम्बिशन्स को भी कम करो।
वो भी कर लूँगा, अब मुझे फटाफट दो स्लाइस टोस्ट मिलेगा नाश्ते के लिये?
मनोरमा से बहस से बचना हो, तो उसे खाने पीने के किसी काम में उलझा देना एक अच्छा रास्ता है।
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'मैं उड जाऊँ? एक दिन पौधे ने पूछा!
तुम हँसे। पागल, पौधे कभी उडते हैं क्या?'
'मैं उड जाना चाहता हूँ।'
तुमने चौंककर पौधे को देखा । क्यों? बडी देर तक कोई उत्तर नहीं आया तो तुमने कहा - पेड की जडें मिट्टी में ही रहनी चाहियें, वरना वह कैसे जिएगा? पौधा फिर भी चुप! तुमने मन ही मन फैसला किया - इसे रोज सुबह शाम पानी दूँगा, लकिन फैसला उस शाम तक ही टिक पाया। पौधा भी तुम्हारे दिये पानी पर कहाँ जी रहा था?
अचानक तुम्हारी आफिस की रुटिन बदल गई। नॅशनल हायवेज पर जहाँ जहाँ रेल्वे ओवर ब्रिज या क्रासिंग फ्लाई ओवर बनने थे, सबका एक मास्टर प्लान बनाने का जिम्मा तुम्हें दिया गया। अब रात दस बजे तक आफिस में बैठना एक आम बात हो गई। कई बरसों बाद तुम्हें मौका मिला था अपनी प्रोफेशनल योग्यता दिखाने का। तुमने अपने कलिग्स से कहा - बाद में कभी भी इन रास्तों पर से गुजरूँगा तो यही सारे स्पाटस्‌ मेरी पहचान बनेंगे। जिंदगी जैसे कंपार्टमेंट्स में बँट गई। अम्बिशन नंबर एक - आफिस की नई जिम्मेदारी पूरा करना। अम्बिशन नंबर दो - मनोरमा के साथ दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच समय गुजारना।
मनोरमा मूडी है। पार्टियों का शौक उसे भी है। खासकर वहाँ तुमपर इतराना। लेकिन अचानक कोई औरत उसके दिमाग में बैठ जाती है और वह कल्पना करने लगती है कि तुम्हारा और उसका कोई संबंध बन रहा है। फिर घर आकर तुम्हें उलाहने देना और खुद डिप्रेस्ड हो जाना। हर बार एक नये उत्साह से तुम पार्टीमें जाते हो। कुछ तो ठीक रहती हैं पर कई बार वे मनोरमा के डिप्रेशन का कारण बन जाती हैं। फिर उसे कहीं बाहर ले जाना पडता है। अक्सर टूरिंग में वह साथ आने लगी है। चलो, आफिस का काम बढा है तो यह फायदा भी हुआ है कि मनोरमा को घुमाने ले जा सको।
बच्चे एक एक कर पढाई के लिये बाहर जा चुके है। अब केवल आफिस, दोस्त-रिश्तेदार और मनोरमा! जिंदगी भरी-पूटी है, सार्थक है। लेकिन नन्हे पौधे के सामने आओ तो लगता है जिन्दगी का कुछ अलग ही अर्थ है - शायद कोई अलग ही रास्ता है - अभी वह नही दिखेगा। एक धुँध सी पडी है उसपर!
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पौधे ने उसे एक दिन कहानी सुनाई। एक पंछी था। वह उड कर चाँद तक पहुँचना चाहता था। सब उसकी बात पर हँसते। रोज रात जब सारे पंछी सो जाते तो वह उठता और चाँद की तरफ चल पडता। चक्कर लगाता उसके चारों ओर। अपने पंखों को समेट कर ऊँचा, और ऊँचा उठता चला जाता था - फिर थकान में चूर होकर नीचे आ जाता था। कभी कभी ऊँचाई पर पहुँच कर भी उसके पंखों में इतनी हिम्मत होती थी कि वो खुल जाते । फिर पंछी चाँद के बिलकुल पास चक्कर लगा सकता था और फिर एक बार पंख समेट कर और ऊपर जा सकता था।
'मैंने उसे कई बार देखा है।' पौधे ने कहा - 'वह जरूर चाँद पर पहुँच जायेगा।'
'ओ! क्या इसी लिये तुम्हारे दिमाग में उडने की बात आई?'
'नही, इस लिये नहीं !'
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एक दिन पौधेने उसे एक तितली की कहानी सुनाई। वह रानी तितली भी - मतलब जैसे मधुमख्खियों में या चींटीयों में रानी होती हैं - वैसी नही । लेकिन उसका स्वभाव रानियों जैसा था। वह हुकुमत करना भी जानती थी और उदार मन से किसी को कुछ भी दे सकती थी। उसने कई फूलों के उपर अपने पैरों से एक अदृश्य जाल सा बनाया था। फिर रात में वह जाल के तारों पर नाचती थी। नाचते नाचते उसके पंख झड जाते और नए निकलते। उसके पास सौ जोडियाँ पंख थे। जिस रात नाच की गति तेज हो जाएगी और निन्यान्नवे जोडियाँ झड कर आखिरी पंख बाहर आएंगे, उस रात तितली सबके लिये सुहरे पल बाँट सकेगी। तुम भी उससे सुनहरे पल ले सकोगे।
हँसते हँसते तुम्हारा बुरा हाल हो गया। क्या बेवकुफी भरी कहानियाँ गढते हो, तुमने पौधे से कहा । मैं उड जाऊँ? पौधे ने अपनी साँस रोककर पूछा। नहीं, तुम मर जाओगे। तुमने अचानक पौधे की पत्त्िायों को चूम लिया।
याद है, बरसों पहले एक बार तुमने यहीं किया था। पौधे ने खिल कर कहा ।
'मै ऐसा और भी कर सकता हूँ, लेकिन . . . '
'कोई देखेगा तो कहेगा कि मैं पागल हूँ।'
पौधा गुमसुम हो गया। तुमने उसे बहुत छेडा, पर वह चुप ही रहा।
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इधर मनोरमा की तबियत कुछ ज्यादा खराब हो रही है। उसका शक्की मिजाज और डिप्रेशन दोनों ही बढ रहे हैं। पता नहीं क्यों वह मेरे बारे में ऐसा सोचती है?
यह शक्की स्वभाव कब से शुरू हुआ?
एकदम शुरू से ही ! शादी की रात ही उसने मुझसे कहा कि तुम इतने स्मार्ट,.हँडसम हो, तो ऐसा हो नहीं सकता कि तुमपर लडकियाँ न मरती हो।
तुमने क्या कहा था?
मैं हँस पडा था। देखो, कोई कहे कि तुम स्मार्ट और हँडसम हो तो आदमी पहले उसी बात को सोचता है और एक गरूर सा महसूस करता है। हालाँ कि उसकी दूसरी बात सच नही थी लेकिन मैंने उस पर ध्यान ही नही दिया - न उसका कोई प्रतिवाद किया। वैसे सच पूछो तो मनोरमा भी बहुत सुंदर थी। मुझसे कई गुनी सुंदर। मैं तो पहले दिन देखकर ही उससे प्यार करने लगा था।
और वह भी पहले ही दिनसे तुमसे प्यार करने लगी।
पता नहीं !
ऐसा क्यों कहते हो? वह तुम्हारे बच्चों की माँ है, घर बडी खूब सूरती से संभालती है, तुम्हारा साथ देती है, पार्टियों में तुम्हारी पत्नी होने का गरूर भी कितना दिखाती है।
क्या वही प्यार है?
फिर प्यार क्या है? जब तुम कहते हो कि तुम पहले ही दिन से उसे प्यार करने लगे थे। तो तुम्हारा मतलब क्या है? डेफिनिशन क्या हैं?
मैं इतना सब नही जानता। मैं तो अपना सब कुछ उसे दे देने के लिये तैयार था, दिया भी । लेकिन शायद उसके दिल में कोई रिझर्व्हेशन रहा, इसीसे वह मुझपर शक करती है।
उसे डाक्टर के पास ले जाओ।
वह नहीं जाती। मैंने सुझाया था। अण्टी डिप्रेशन की गोलियाँ भी अपने मन से ले लेती है।
वे गोलियाँ अच्छी नहीं। उन्हें बार बार लेना भी रिस्की है।
उसे यह भी पता है।
उसे डाक्टर के पास ले जाना जरूरी है। दॅट शषुड बी युवर फर्स्ट प्रायोरिटी।
लेकिन कैसे ले जाऊँ?
अपने प्यार का वास्ता देकर! आय थिंक तुम्हारी एक कमजोरी यह है कि तुम्हें जब जो बातें - कह देनी चाहियें, तुम कहते नही हो।
मैं सीखूँगा। थँक्स फार दि टिप !
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पौधे ने एक सीप की कहानी सुमाई। सीप के कीडे को पता होता है कि उसके आस पास का समुद्र, उसकी रेत और पानी के तलदृष्टी की घासफूल कैसी होती है। उसकी सीप की नक्काशी भी वह उसी प्रकार बना लेता है ताकि अपने परिवेश में सीप धुलमिल जाये, उभर कर न दिखे । इससे उसका खतरा टल जाता है। एक दिन एक सीप ने कहा कि वह दूर घूमने जायेगी और रास्ते में अपने रंग बदलते हुए जायेगी। रास्ते में सीप थकने लगी। एक तो रास्ते की थकन, दूसरे रंग बदलने की मेहनत। फिर वह एक चित्रकार के पास गई। उसने उसपर ब्रश फेरकर उसे बहुत बडा आकार दे दिया और उछाल कर बादलो में डाल दिया। तूम कभी बारिश के समय बादलों को देखना तो बडे सीप का आकार दिखेगा। ये वही सीप है।
तुम जो मुझे ये पंछियों, सीपों की कहानियाँ सुनाते हो, इनका क्या मतलब है? क्या तुम्हें ये पसंद नही हैं?
बहुत पसंद हैं, पता है तुम्हारे पंछियों, तितलियों या सीपीयों की बात सोचता हूँ तो एक नया उत्साह सा पाता हूँ।
कब सोचते हो?
काम करते हुए कई बार अचानक तुम्हारी कहानियों को सोचने लगता हूँ। मेरी दुनियाँ में तो आफिस के कागज, मनोरमा, बच्चे और पार्टिया ही थे। तुम्हारी दुनियाँ बहुत बडी है, गहरी है। उमंग दिलानेवाली है।
नेरी कहानियाँ तुम्हें अच्छी लगीं ये खुशी की बात है।
बेशक, मेरे लिये भी !
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अधूरा

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

18/3 उन्मुक्त आनंद का फलसफा-- मेरी प्रांत साहबी (आलेख संग्रह 3)

उन्मुक्त आनंद का फलसफा
--- लीना मेहेंदले

आज की तारीख में तंदूरी कांड से लेकर नताशा कांड तक की घटनाओं का जायजा लिया जाय तो वर्तमान भारत की उच्च वर्ग की संस्कृति के बदलाव को रेखांकित किया जा सकता है।
उदारीकरण और स्त्री मुक्ति के दौर ने एक ओर तो महिला के लिए बंद रहे कई दरवाजे खोल दिए। उसे घर से बाहर निकलकर अपनी पहचान बनाने के अवसर दिए। इस बात का स्वागत होना जरूरी है। लेकिन दूसरी तरफ महिला के लिए दिखावा नामक एक नई जंजीर भी पैदा कर दीं। उपभोक्तावाद और प्रदर्शनवाद ही उसका जीवन सिद्धान्त बन गया।
नई सदि के आते आते देश में करोडपति बनने की धूम मच गई। उसके पहले ग्लोबलायजेशन की प्रक्रिया ने हरेक को मजबूर कर ही दिया था कि वह करोडपति बनने की कोशिश करता रहे।
उच्च वर्ग की पहली और आखिरी विशेषता होती है धन। वह जमाना गया जब धन कमाने में काफी समय और काफी मेहनत पडती थी। आज भी जिसे ईमानदारी से धन कमाना है उसके लिए यही रास्ता है, लेकिन आज काला धन बटोरने के कई रास्ते खुल गये हैं। अब धन का यह नियम है कि वह जिस रास्ते से आता है, उसी रास्ते से जाता है। सो काला धन भी काले रास्ते से जाता है लेकिन जाते जाते अपनी चपेत में नहिलाओं को ले लेता है। इसकी वजह क्या है ?
उच्च वर्गी महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढा है लेकिन यह शिक्षा उन्हें वैज्ञानिकता, कलात्मकता या सृजन की तरफ नहीं ले जा रही, बल्कि उच्छृंखलता की ओर ले जा रही है। मदिरापान, क्लब और पब संस्कृति, और अर्द्धनग्नता को ही सक्षमीकरण का मापदंड माना जा रहा है जबकी पुरुषों के लिए मापदंड हमेशा अलग ही रहे।
अर्द्धनग्नता किस तरह हमारी पहचान बनी इसे इस बात से समझा जा सकता है कि पहले सिनेमा की हिरोइन कभी कैबरे नहीं नाचती थी, आज वह डान्स किसी और को मिला तो हिरोइन डरती है कि उसकी इमेज फीकी हो गई। प्रदर्शन के माहौल ने तत्काल उच्च वर्गी महिला को दो जरूरतों में बाँध दिया। पहली जरुरत कि उसके पास काफी पैसे हों और दूसरी कि वह सदा आमंत्रक, लुभावनी
लगती रहे। दोनों बातें एक दूसरे की पूरक भी हैं।
किसी उच्च शिक्षित महिला के पास ये दोनों हों तो वह क्या कर सकती है इसका एक उदाहरण मेरे मन पर बडी गहराई से छाया हुआ है। वह है एनरॉन चर्चित रेबेका मार्क जिसने भारतीय शासन -प्रशासन के कई दिग्गजों को साम दाम दंड भेद के प्रयोग से नाच नचा दिया और अपना मंतव्य पा ही लिया। पर हमारे देश की महिला के लिए वैसी बात कल्पना से भी परे है। फिर काहे का सक्षमीकरण ?
नताशा, जेसिका, अंजू जैसे कई नाम गिनाए जा सकते हैं जहाँ इस नई संस्कृति की मार महिला पर ही पडी। ऐसी महिलाओ के पास आय का कोई अपना ヒाोत नही था, अतएव वे उन पुरुषों पर निर्भर थीं जो पैसा देते। फिर या तो उनका उपयोग किया जाता था या उनका अंत हो जाता था। अंत को भले ही कई बार आत्महत्या घोषित किया गया हो, लेकिन उस कगार तक पहुँचने का कारण भी आर्थिक परावलंबिता ही था। उस ड्रामें में पुलिस का भी रोल था और मिल्कियत जताने वाले परिवार के सदस्यों का भी। उनका उपयोग कहाँ कहाँ हो सकता है इसकी एक झलक तो तहलका कांड ने भी दिखा दी। दूसरी झलक तब मिली जब काँग्रेस पार्टी की
नागपूर स्थित महिला उपाध्यक्ष ने टिकट बँटवारे में यौन शोषण का आरोप किया।
उच्च वर्ग की अधिकतर महिलाओंका सपना क्या होता है ? यही कि वे पार्टियों की रौनक बनीं रहें। उनके पास कारें तथा सुविधा के अन्य साधन हों, और वे जीवन का आनंद भरपूर उठायें। मीडिया और विज्ञापनों ने भी इसे खूब बढावा दिया है। उसने तो एक और सपना भी जोड दिया --- टी.वी.स्क्रीन पर झलकने का। क्या ऐसे सपने गलत हैं ? शायद नहीं। तो फिर विसंगति कहाँ है ?
विसंगति यही है कि अपने सपने को अपना हक माना जाता है, चाहे योग्यता हो या न हो। जब वह नही होती तो माना जाता है कि रूप और यौवन उनके पर्याय हैं। जहाँ धन और सुविधाएँ हैं उनका उपयोग योग्यता बढाने में नहीं बल्कि आनंद उठाने और मौज मस्ती में ही सार्थक समझा जाता है। ये वो दौर है जिसमें सब कुछ जायज है, विवाह बाह्य संबंध भी। लेकिन फिर पुरुषी अहंकार को चोट लगती है, खानदान की इज्जत का सवाल उठाया जाता है और कटारा कांड भी हो जाता है।
देखें कि उन सारी घटनाओं पीछे उच्च वर्ग का पुरुष कहाँ है ? तो हर जगह है। उसे धन और आनंद के साथ साथ सत्ता की भी
लालसा है, जिसके लिए औरत सीढी बन सकती है। इनकार करे तो उसे तंदूर में जलाया जा सकता है। और सजा की चिन्ता क्यों हो, जब पैसे के बल पर मुकदमें की सुनवाई को जितनी मर्जी हो घसीटा जा सकता है।
धन, सत्ता और उन्मुक्त आनंद, यह एक त्रिकोण बन गया है। उच्च वर्ग की महिला को ये सारे चाहिये और झटपट चाहिये। दिल्ली के कई फार्म हाउस पार्टी और पब के अड्डे बने हुए हैं जहाँ मदिरा है, रूप यौवन है और एक फलसफा है कि असली जिन्दगी यही है। कभी कभी जब वहाँ से झूमते झामते बाहर निकले लडके लडकियाँ कार एक्सिडेंट में किसी की जान ले लेते हैं तो दो चार दिन हो हल्ला मचता है और उन्मुक्तता फिर अबाधित चलने लगती है। कभी किसी जेसिका की जिद को खतम करने के लिए इतने सहज भाव से गोलियाँ दग जाती हैं, मानों यह कोई रोजमर्रा की बात हो। कोई नही पूछता कि क्या गोली चलानेवाला हमेशा से इसका आदी
है। क्यों कि कानून कहता है, उसकी आदतों से हमें कुछ लेना देना नही है, यह बात भुला दी जाती है कि जिसे इस तरह के शक्ति प्रदर्शन की आदत बन गई हो वही इतनी जल्दी गोलियाँ चला सकता है।
काला धन, रिश्र्वतखोरी, हवाला, सभी इस त्रिकोण को सशक्त बनाते हैं। राजकीय और कानूनी आश्रय भी मिल जाते हैं। अभिषेक वर्मा हो या कस्टम के उच्च अधिकारी, काला धन उनके तकिए, गिलाफ और सोफा सेटों के अंदर छिपाया हो या हजारों साडियाँ, जूते, हीरे, गहनों के माध्यम से छलक रहा हो, आज तक किसी पर मुकदमा सिद्ध नही हो सका है। केवल उन महिलाओं के हिस्से में दुष्परिणाम आया, जो एक ओर तो उसी उन्मुक्तता की दुनियाँ की लालसा में थीं पर एक ओर अपने वजूद के लिए विद्रोह भी कर रहीं थीं, यह भूलकर कि वजूद अपनी योग्यता और कुशलता से बनता है, केवल शराब और सेक्स के दर्शन से नहीं।
तंदूरी कांड से नताशा कांड, क्या कहता है इतिहास ? झटपट धन, सत्ता और उपभोग के त्रिकोण ने कभी महिला को राजकीय नेताकी वासनापूर्ति का साधन बनाया। कभी खुलेपन और पारंपारिकता के द्वंद में उसकी हत्या -कम - आत्महत्या हुई। कभी आनंद भोगने के लिए बने शराब और कार - स्पीड की कॉकटेल ने उसकी जान ली। कभी अहंकारी पुरुष को ललकारने का दुसाहस उसे ले डूबा। पुलिस, मीडिया और न्याय व्यवस्था अलसाए और
चटखारे लेते रहे।
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ई- १८, बापु धाम, सेंट मार्टिन मार्ग, नई दिल्ली, ११००२१
(रा. स. को भेजा १.४.२००२ प्रकाशन दि, )

12/3 तेलगी के दायरे में-- मेरी प्रांत साहबी (आलेख संग्रह 3)

तेलगी के दायरे में
-- लीना मेहेंदले

किसी देश की प्रभुसत्ता और सार्वभौमता चार बातों से परखी जाती है- जमीन, सेना, संविधान और सिक्के। इनमें से एक पर भी आँच आए तो उस देश की सार्वभौमता पर खतरा माना जाता है।
जब तेलगी कांड का पर्दाफाश हुआ और नकली स्टॅम्प पेपर्स की बात उजागर हुई तो मेरे दिमाग में एक अदने से, अबोध और निरीह से दिखने वाले आदमी की तस्वीर कौंध गई जो पुणे कलेक्टर कचहरी की दिवार के पास बने एक छोटे से पत्थर के बेंच पर बैठता था और स्टॅम्प पेपर्स बेचता था। इस बात को तीस से ज्यादा वर्ष बीत गए। तब मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में नई नई दाखिल होकर अपने प्रशिक्षण के लिए पुणे में नियुक्त थीं और प्रशिक्षण की जिम्मेदारी थी कलेक्टर पर।
ट्रेनिंग के दौरान मुझे दिखाया गया कि कैसे तहसिल का इन्स्पेक्शन होता है और उसके साथ साथ सब-ट्रेझरी का। उन दिनों बैंकिंग नेटवर्क आज की तरह फैला नही था। तहसिल हेडक्वार्टरों में और कई जिला मुख्यालय के स्थानों पर भी बैंक नही थे। पैसे का सारा लेनदेन ट्रेझरी के मार्फत होता था जिस पर कलेक्टर को निगरानी रखनी होती थी। इनका इन्स्पेक्शन एक उत्सव जैसा ही होता था।
मेरा सबसे पहला इन्स्पेक्शन था मुलशी सब-ट्रेझरी का। वह चल रहा था और मुझे एक एक कर रजिस्टर्स दिखाए जा रहे थे। अचानक एक निरीह सा व्यक्ति और उसका रजिस्टर सामने रखा गया। यह मुलशी तहसिल कचहरी में बैठने वाला स्टॅम्प व्हेण्डर था। सूरत-मूरत, वेषभूषा, चेहरे पर उडती हवाइयाँ, गरीबी की मार, सब कुछ वैसी ही जैसी पुणे कलेक्टर की सरकारी चारदीवारी में बैठने वाले स्टॅम्प व्हेण्डरों की थी।
इसके रजिस्टर का मेरे इन्स्पेक्शन से क्या वास्ता? लेकिन वास्ता था। यह मेरा पहला पाठ था। किसी भी जमीन की खरीद फरोख्त के व्यवहार को सरकारी स्टॅम्प पेपर पर ही दर्ज किया जाता है। इन स्टॅम्प पेपरों की बड़ी तगड़ी कीमत होती है। जिस पर लिखा हुआ हो पचास रूपए उसकी कीमत पचास और जिस पर लिखा हो दस हजार रूपए उसकी कीमत दस हजार। जिस व्यक्ति को स्टॅम्प व्हेण्डिंग की एजन्सी मिलती है, केवल उसी के नाम से स्टॅम्प कागज इश्यू किए जाते हैं और उसे इसका लेखा जोखा रखना पड़ता है कि किस किस को स्टॅम्प पेपर बेचे। तहसिलदार हर महीने में एक दिन इनका इन्स्पेक्शन और स्टॉक व्हेरिफिकेशन करता है। सब ट्रेझरी के साथ साथ यह भी किया जाता है क्यों कि इन स्टॅम्प पेपरों का महत्व भी उतना ही है जितना ट्रेझरी में रख्खी हुई रकम का।
जिन्हें जमीन की खरीद या बिक्री करनी हो उसे जमीन के दाम के अनुपात से लगाए गए मूल्य के स्टॅम्प पेपर्स खरीदकर सारा व्यवहार उन्हीं पर लिखना पड़ता है। तभी सरकारी रिकार्डों में उस जमीन की बिक्री को दर्ज किया जायगा। स्टॅम्प पेपर पर लिखी और वसूली गई रकम सरकार में जमा होगी।
आप कहेंगे यदि किसी जौहरी ने हीरों का हार बेचा तो उसे सरकारी रिकार्ड में दर्ज करवाना जरूरी नही है लेकिन उससे कम कीमत की जमीन बेची तो उसे दर्ज करना क्यों जरूरी है? इस बात के मूल में वही सिद्धान्त काम करता है कि किसी भी देश की जमीन उसकी सार्वभौमता का प्रतीक है। जमीन हमेशा सरकार की होती है लेकिन उस पर रहने का, और गुजर बसर करने का हक लोगों का होता है। जिस देश को अपनी प्रभुसत्ता कायम रखनी है उसकी सरकार को अपने चप्पे चप्पे की बाबत पता होना चाहिए कि उस पर गुजर बसर करने वाला कौन है। इसी कारण जमीन के पट्टे, खसरा खतौनी के हिसाब इत्यादि महत्वपूर्ण हो जाते हैं- इसी कारण जमीन के हर व्यापार पर सरकार अपना कर स्टॅम्प पेपरों के माध्यम से वसूलती है। इसी कारण स्टॅम्प व्हेण्डर का परमिट भी हर किसी को नही दिया जाता बल्कि बड़ी छान बीन के बाद डिप्टी कलेक्टर रैंक का कोई अधिकारी इसे जारी करता है और इसी कारण हर स्टॅम्प व्हेण्डर के स्टॉक का और रजिस्टर का हर महीने इन्स्पेक्शन भी होता है।
यह सारा ट्रेनिंग उन पांच मिनटों में हो लिया। अगले दो वर्ष तक डिप्टी कलेक्टर रही तब, और बाद में एक बार कलेक्टर रही, तब, स्टॅम्प व्हेण्डर्स के रजिस्टर्स देखे। उसके बाद में इस जमात का अस्तित्व मेरे दिमाग से निकल गया।
पिछले तीस वर्षों में प्रशासन में इन्स्पेक्शन और मेंटेंनन्स की कई व्यवस्थाएं ध्वस्त हुई हैं और स्टॅम्प व्हेण्डर भी अब वैसे निरीह नही रहे। अब तो उनकी वह हैसियत हो गई है कि मंत्रियों और नेताओं से शिफारस करवा सकते हैं और पुलिस कमिश्नरों तक को आराम से सौ-दो सौ करोड़ रूपए घूस में दे सकते हैं।
वे फर्जी स्टॅम्प पेपर्स छाप सकते हैं, सरकार को बीस-तीस हजार करोड़ रूपए का चूना लगा सकते हैं, हिरासत में होने के बावजूद अपने आलीशान घर में बैठकर सारे धंधे चला सकते हैं। इस दौर में देश की प्रभुसत्ता के प्रतीक जमीन और करन्सी का क्या होता है इसकी परवाह न नेताओं को, न अफसरशाही को और न जनता को।
कहते हैं कि एक बार किसी के मुँह में खून लग जाय तो वह रुकता नही है। जाली स्टॅम्प पेपर्स का कारखाना खुल गया तो तेलगी एण्ड कम्पनी ने सीधे नोटों को छापने का कारखाना शुरू कर दिया। वह भी केवल भारत के नोट ही नही बल्कि कई कई देशों की करेन्सी। यदि इसी तरह कोई भी करेन्सी को छापना शुरू कर दे, उसपर रिझर्व बैंक का और वित्त मंत्रालय का कोई कण्ट्रोल नही रहे तो उसकी तुलना में मेरी जेब में पड़े उन थोड़े से नोटों का क्या होगा जो मैंने अपनी मेहनत से कमाए और जिसके अस्तित्व को अपने देश की प्रभुसत्ता के साथ भी जोड़ा। क्या मूल्य रह गया है उन नोटों का?
यह पूरे देश की प्रभुसत्ता के साथ खिलवाड़ है। फर्जी स्टॅम्प पेपर्स तो भयानक हैं ही लेकिन फर्जी करन्सी और भी अधिक भयानक है। फिर भी देश की प्रतिक्रिया ढीली ढाली है। सेक्यूरिटी प्रेस के अफसरों की कोई खास जाँच पड़ताल नही हुई। वित्तमंत्री सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की जरूरत बताकर अपने लिए समय निकालना चाहते हैं। एक न्यूज चैनल का संवाददाता नाशिक में जाली करंसियों का भण्डाफोड़ करता है तब भी दो दिनों तक देश के बाकी सभी न्यूज चैनल इस मामले पर ऐसी चुप्पी साधते हैं मानों कहीं कुछ हुआ ही नहीं। यह मिडिया सॉलिडॅरिटी है या मिडिया रैट रेस? नाशिक पुलिस तभी हरकत में आती है जब गृहमंत्री निर्देश देते हैं। दिल्ली या मुंबई में छोड़िए, नाशिक तक में लोग कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाते, कोई रैली, कोई सभा, कोई भाषण नही होता। पूरे चौबीस घंटे तक पंचनामा कर चुकने के बाद नाशिक पुलिस जनता को बताती है कि पहाड़ खोदा, चूहा निकला, वो भी मरा हुआ। तो सवाल उठता है कि इस मरे हुए चूहे के फोटोग्राफ भी समाचार एजन्सियों को लेने दिये होते। कैसा अजीब संयोग है कि एक पत्रकार अपरिचित घर के अंदर घुसकर डेढ़ सौ बक्से देखता है और केवल कोई से दो बक्से खोलता है तो उसे शेर से दहाड़ते हुए तमाम जाली नोट दिखाई पड़ते हैं। लेकिन पुलिस सब की नजरों से छिपकर बाकी बक्से खोलती है तो उसे केवल ऐसी चीजें मिलती हैं जिनकी कोई हिमाकत नही। तो फिर पत्रकार ने वही बक्से कैसे खोले? या फिर पुलिस की पारदर्शिता शक में है?
असल बात तो यह है कि राजनीतिक पार्टियाँ इस बात से डर रही हैं कि तेलगी कांड में पता नही किस किस की पोल खुले। इसलिए हर कोई संभल कर बात कर रहा है। कई सारे व्हीआईपी चाहते हैं कि तेलगी काण्ड की कडियाँ आगे और न खुलें- चाहे वे नेतागण हों या पुलिस हों या वरिष्ठ अफसर हों। केवल कुछेक वरिष्ठ जन चाहते हैं कि इस काण्ड की पूरी पोल खुले और दोषी को सजा मिले। इसलिए बात जनता के पाले में आ जाती है। इस काण्ड को पूरा खोलने के लिए हर आम आदमी को सोचना पड़ेगा कि वह क्या छोटा सा योगदान कर सकता है।
जनसत्ता ११.१२.०३
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in JKR

मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

Goa Elections : Looking beyond

Goa Elections : Looking beyond
--Leena Mehendale

When I received the letter from Election Commission in May 2002 informing that I was to go as one of the observers for the imminent Assembly elections in Goa, I did not expect my experience there to be any different from my earlier experiences of elections, either in Maharashtra, Bihar, Orissa or Rajasthan. Elections are elections, so how will one be different from another! But I was mistaken in more than one ways.

This being my first ever visit to Goa, I kept telling myself that I should have an open mind about whatever I may see there. From the very first visible contact even before the Jet flight landed, Goa was an enchanting place, lush green and deep blue, a combination of trees and the ocean. And the people were also different. Almost total literacy, high levels of education, no begging, no child labour, highly empowered women, no gender discrimination, no abject poverty, no economic stratification of society, these were some instantly visible characteristics of the people.

Something must be said about the property rights of women in Goa before every thing else. The Portuguese rulers, when they came, started compiling existing legal practices and codified them into Law. Under their rule of nearly 400 years, Goa had uniform civil code. This and other laws have continued here even after liberation in 1961 and Goans can be rightfully proud of them. Under the property rights, the girl child gets equal share in parent’s property just as her brother would get. After marriage, the properties of both the bride and bridegroom are merged and they get equal right over all the property. The official property registers are immediately modified so as to show the rights of both. This offers complete security to women against being driven out of her husband’s house. Dowry system is virtually absent, hence dowry deaths or other dowry related crimes are practically nil. There is no discrimination against the girl child, no cases of female infanticide or foeticide.

Women could be seen in all types of public activity, riding scooters, roaming freely, managing shops, and even running a ‘bhelpuri thela’. The general crime rate in Goa is low and women do not have to worry much about their physical safety. The only thick and big black spot in this encouraging picture was the information that Goa has a worrisome rate of tourism prostitution and the problems associated with it.

As I proceeded with my touring as an election observer, the political profile started getting clearer and I could not help making comparison with the conditions in other states. As far as election related crimes or violence is concerned, Goa is to be rated as the state with lowest number of crimes. There was no threat of booth capturing, no voter intimidation, no ear–piercing loud-speakers. A meagre two or three vehicles were captured for carrying sticks and soda water bottles whereas in some other states one would have expected them carrying swords, chains, rifles and even home-made bombs! And yet…….

Not muscle power but money power was the key. Major cities and news papers were buzz with talks of allurement of influencial voters with gifts and alcoholic drinks. Unlike in Assembly constituencies elsewhere in the country, the number of voters in a Goa constituency is only twenty thousand on an average. Voter turnout is around sixty five per cent. Thus anyone who can manage about seven thousand votes is in a comfortable, winning position. Stakes are high and not every voter needs to be paid. So the going rates were quite high. Women were to be coaxed with sarees. On the eve of polling, police held a couple of jeeps carrying sarees worth a few lakhs. Although this does not prove any thing and the police finally let the jeeps off, it shows the possibility.

This has baffled me a lot. We have always deplored that we have a large proportion of illiterate and poverty-struck voters, who were therefore amenable to the allurement of money and gifts, thus bringing down the quality of our democracy. This argument does not hold for Goa. Then why?

The justification provided was that once elected, the candidates were going to make money in many folds through dubious methods. So what was wrong in sharing the loot? Not everyone, but those who accepted the gratification, had this argument. A friend implores me not to be so critical of Goans; after all, well to do people with fancy cars and mobiles have participated in looting vacant houses in Gujrat after Godhra incidence! Personally, I feel that this is a very dangerous mentality. I also feel that all the programs such as karodpati and khelo India which encourage people for easy money are adding to this tendency of looting or sharing the loot.

Despite all this, majority of the voters had their independent opinion, and were serious about maintaining secrecy of vote. It was nice to see people queuing up even before eight in the morning to finish their voting early and be free to go back to daily routine. They were not going to wait for offer of money to be made during later part of the day! Or, were they paid the night before ?

The campaigning revolved round three issues, namely unemployment, good governance and defections. A large number of youth, apparently unemployed, took part in campaigning. It is my assessment that if the problem of unemployment is not solved, future elections in Goa will also have more physical violence as in other parts of the country. Election offered some temporary engagement to a lot of youth and one newspaper even commented that there should be elections every year so that young people get some employment.

Present level of corruption in Goa does not affect people directly in their day- to- day life. It occurs in cutting away forests, dubious urban permissions, disposal of community land, mining permissions etc where people have no immediate stakes.

I spoke to some candidates who agreed that the election expenditure was much beyond the prescribed limit of three lakhs. This was easily adjustable. Money that could be claimed as “spent by party” or “by friends and relatives” was not to be shown as election expense. It was not even to be reported.

I recall that when the Election Commission first started the practice of appointing election observers and became strict about the expenditure of the candidate, people raised many doubts about political parties not showing these expenditures properly in their accounts. I had replied, with my indomitable faith in administration that the Election Commission would simultaneously appoint Central Observers who would call for all reports of party expenditure and look into party accounts. But this did not happen. This lacuna gives a chance to candidates to exceed the limit and claim that the party has incurred the expenses.

Touring Goa, where other election related crimes or irregularities are at minimal, I could not help thinking that while as observers we were concentrating on such tiny issues as removing posters near the polling booths, more important issues like financial influence on voters, sale and purchase of members' loyalties, their defections and infinitely higher opportunities of indulging in corruption were not being tackled.

There was gossipy story of a candidate who wanted the ticket from a particular party. He was asked to pay a huge sum. He asked - "What for? With spending half of that amount I can win the seat even by defeating your party candidate!"
The story goes that he did not get the ticket from that party. He nevertheless contested the election & won. As the final outcome turned into a "hung assembly", he was offered a price for his support. He retorted - what gives you the power to offer me a price? It is because of your ministerial chair. Well then, make me a minister - of such & such important ministry, where I will take care of myself!"

We are all familiar with this and similar types of stories. They disturb us with their straightforward logic. Imagine a candidate officially allowed to spend five lakhs for his election. Even if his spending remains within the limit, what will be his first priority after becoming a member or a minister? Obviously to get his money back, suitably multiplied. And the only route for that is corruption.

We do not seem to resent it at all. Even though this means that the money is going from our pockets. Or, the money is being obtained from foreign donors and sources which the country (that is, us) is repaying by compromising our industrial well being, our freedom of action over crucial issues, our intellectual property rights and so on. We do not resent this all.

The current election process in India has given rise to two major problems. One is corruption - coupled with muscle power, violence, intimidation (except in some parts as in Goa). Perhaps even bigger evil is the culture of divisions which is getting promoted by our election processes. For the purpose of wooing the voter and winning, the candidates and parties are forced more and more to think in terms of our religion, caste, province, language etc. Members of Assembly and Parliament focus attention on small geographical area, which is their constituency, and cannot put the country's problem above themselves and their vote bank. National parties who have a responsibility to think of the national problems are busy trying to save their governments from defection. A time has come to debate as to what are the alternatives to the present system -- alternatives, which will save us from corruption and divisive tendencies.

Bringing in good and principled people in politics is the answer. Yet, how to do that is the question. It is necessary that our systems and processes support the honest people and facilitate their tasks. Today our systems put all restrictions and bindings only the good people and is largely ineffective against the wrong-doer. Some supportive steps can be suggested. One, to reduce the number of parties, second, to publicize the property returns of the candidates for next ten years, third, to publicize the party accounts, fourth, to part-fund the campaign from public exchequer but put due eligibility criteria, fifth, to make the government more transparent... and so on. The time has come for collective thinking on all these issues.
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ENERGY CONSERVATION AND NATIONAL CHARACTER

ENERGY CONSERVATION AND NATIONAL CHARACTER

n Leena Mehendale
Feb 2004

We as a nation have been striving for the past few decades to fulfil our energy requirements. Despite efforts, the energy demand versus domestic raw material supply curve has been increasingly diverging over the period. Hence, conservation becomes necessary. However, is it only the enabling infrastructure, policy, and incentives that drive energy conservation efforts? Or is it our attitude, our habits, our national character, in addition to the physical infrastructure, that makes us more receptive towards such issues. Let us explore further…

It is well known that the energy consumption of any country is closely related to its level of development. Without adequate and cost-effective energy supplies, economic growth rates may be badly affected. This is particularly true for developing countries where per capita levels of energy use are low. India is no exception to this rule. Our economic growth prospects are closely tied to the quality and quantity of energy we are able to provide.

As we are moving towards rapid economic development, energy scarcity will become a critical barrier, which could threaten the hamper development process. Energy is the basic building block for socio-economic development. Future economic growth crucially depends on the long-term availability of energy in increasing quantities from sources that are accessible, easily available, socially acceptable and environmental friendly. Hence we undertake the energy demand projections once in every five years through the National Five Year Plans.

If we look at the pattern of energy production in India, coal and oil accounts for about half, and one-third respectively, with natural gas, hydro and nuclear contributing to the balance. On power generation front, nearly two-thirds of power production is from coal fired thermal power plants and about 70 per cent of the coal produced every year in India has been used for thermal generation. The primary energy consumption, which was about 325 million metric ton of oil equivalent (mmtoe) in 2002, is projected to grow exponentially over the next decade. Our energy demand in 2020 is expected to touch 1,000 mmtoe.

Numerous studies by national and international experts have referred to the large scope and potential for energy efficiency and conservation in the Indian economy. Energy intensity in Indian industry is among the highest in the world. Energy consumption per unit of production in the manufacturing of steel, aluminium, cement, paper, textile, etc. is much higher in India, even in comparison with some developing countries.

India’s cost-effective energy conservation potential has been estimated by the Planning Commission at 23 per cent of total commercial energy generated. It is imperative that we make all-out effort to realise this potential. A national movement for energy conservation can significantly reduce the need for fresh investment in energy supply systems in coming years. Energy conservation is an objective to which all of us in the country can contribute. Whether a household or a factory, a small shop or a large commercial building, a farmer or a office worker, every user and producer of energy can and must make this effort for his own benefit, as well as that of the nation.

Here, we need to appreciate that since the energy consumption per capita in our country is very low, only small efforts by many will make a real impact, rather than big efforts by a few.

With precisely this objective in mind, in August 2001 the Government enacted the Energy Conservation Act. The Act promotes competition, sharing information, creating awareness and motivating stakeholders. It encourages a transparent, self-regulatory mechanism and the use of market incentives to promote energy efficiency, while carefully avoiding intrusive regulatory mechanisms. In India, energy efficiency has now emerged from being a subject of advocacy and awareness building to that of key frontrunner among the strategic options that are available to narrow the demand and supply gap.

As of now, we have the legislative framework for promoting energy conservation, we have agencies such as Petroleum Conservation Research Association (PCRA) who are working towards capacity building in this area, we have a lot of support from the government for taking up such projects, and even the financiers are looking at energy conservation projects with a favourable frame of mind. Even with these enabling factors, the growth in energy savings is not something that our vast country can be proud of.

The main reason for this sluggish growth can be attributed to our attitude towards energy conservation.

The favourable attitude, or may be the lack of one, towards energy savings and conservation is by far the biggest barrier that the country faces towards rapid strides in development. It is comparatively easier to force a limited group of people that we can influence to adhere to energy conservation practices, than to induce them to take such steps on their own. It is more important to help them develop habits that promote energy conservation – simple things such as switching off excess lighting load, using fuel effectively in our factories, prudent use of petrol, paying a little extra initial cost for energy saving equipment. There are many more avenues to save energy, but how to motivate people to adhere to them, is the difficult question to answer. Or, how to develop their character that is sensitive to such issues.

More importantly, it needs to be acknowledged that this individual character leads to our collective behaviour as a society. And, this aggregate behaviour finally leads to our “national character”, which then gets reflected in the language, literature, laws and customs, arts, institutions and religion of our people. Our national character needs to be modified towards energy efficiency if we as a nation are to have a better energy security.

The change in attitude at the individual level, and modification in the national outlook at a more broader level, can be effected through mass awareness, education, training, incentives, or even financial assistance.

Towards developing this national character of sensitivity towards energy conservation, PCRA has adopted a multidimensional approach. It is working at the grass roots level bringing about educational and attitudinal change in order to make conservation a habit amongst masses. It organises mass awareness campaigns, including the hugely-popular Energy Conservation Fortnight, in association with oil sector companies, and under the aegis of the Ministry of Petroleum and Natural Gas.

PCRA also undertakes demonstration projects, particularly for rural and semi-urban areas, imparts education and training to all. It promotes and undertakes R&D for development of efficient appliances and devices, and gives numerous incentives for energy efficient programs.

In pursuit of sustainable development and improvement in quality of life, we at PCRA understand the oil conservation issues and its importance. Pending development of new energy resources and technologies, and oil conservation can bridge the time gap and the oil so saved can meet the demand for developmental and economic activities.

We as a nation must appreciate that our attitude and our habits evolve into our national character. And, we need to fine-tune these attitudes to develop a favourable national character. A character that is sensitive to the all-time need for energy conservation in the country.
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editorial for PCRA journal ACT, Feb 2004