हवाला घपले के मुद्दे -- २
भ्रष्टाचार और घोटाले की रो.ज नई नई कहानी सामने आ रही है । जनता इन कहानियों से सिर्फ परेशान ही नहीं है, बल्कि यह सोचने लगी है कि यह सब कैसे और क्यों होता है तथा इससे निजात पाने का कोई उपाय है या नहीं। लेखक ने उन कारणों पर विस्तार से विचार किया है जिनकी वजह से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना मुश्किल होता है । सबसे बड़ी बाधा यह है कि किसी आरोप को अदालत में साबित कैसे किया जाए । --संपादक
- लीना मेहेंदले -
आज यदि जनता सोचती है कि सी. बी. आई. किसी बड़े व्यक्ति की पूरी जाँच नहीं करती तो फिर इसकी मांग भी जनता को ही करनी पड़ेगी और यह भी संहिता बनानी होगी कि जाँच की लेखाजोखा जल्दी से जल्दी और लगातार जनता के सामने आता रहे । इस जाँच को बलात्कार के समकक्ष नहीं माना जाना चाहिए और इसमें गुप्त रूप से सुनवाई की कोई गुजाइश नहीं होनी चाहिए । इसके लिए यह भी आवश्यक है कि जाँच करने वाली एजेंसी मल्टी-डिसिप्लिनरी हो । आज हालत यह है कि बाहरी आदमी चाहे लाख सिर पटक ले लेकिन जाँच पड़ताल का हक केवल पुलिस विभाग को और इस विभाग की वर्दी की सख्ती इतनी अधिक है कि कई बार अच्छे-अच्छे और ईमानदार पुलिस अफसर छटपटाकर रह जाते हैं और गुनहगारों के विरूद्ध जाँच का काम उन्हें रोक देना पड़ता है ।
बजट और घपला
हमारे आई. पी. सी. और सी. आर. पी. सी. में आर्थिक गुनाहों के संदर्भ में जो भी प्रणाली है वह बड़ी ढीली ढाली है । सोचने की बात है कि जिस देश का बजट ४०,००० करोड़ रूपए का है और जहाँ घपले भी उसी अनुपात में होते है यानी ३५०० करोड़ का घपला, १००० करोड़ का घपला आदि, जहाँ एक घपले का बजट हमारे राष्ट्रीय बजट, जितना बड़ा होता है वहाँ भी हम आर्थिक दुर्व्यवहार और घपले के गुनहगारों को ऐसी ही सजा दे सकते हैं जो नहीं के बराबर हैं । घर में सेंध लगाकर ट्रांजिस्टर सैट चुराने की सजा अधिक है और देश के लाखों रुपये का इनकम टैक्स डकार जाने की सजा उससे कम है । उस पर तुर्रा यह कि आर्थिक दुर्व्यवहार के केसों में सजा आज तक बहुत ही कम मिली है । आज भी हमारे देश में कंपनियाँ है जो गर्व से छपवाती है कि उनका लाभ इतने हजार करोड़ का है और आयकर भुगतान नहीं के बराबर । कुछ लोगों ने सरकार और इसके नीति नियमों को इस कदर काबू में रखा है कि लाभ तो हो जाता है और टैक्स भी नहीं चुकाना पड़ता है । तो फिर इसी के पीछे लोग उस कंपनी के कुछ और ज्यादा शेयर्स खरीद लेते है। कोई यह नहीं सोचता कि यह गलत हो रहा है। हर कोई यह सोचता हैं कि जब बाकी शेयर होल्ङर इसी ट्रिक के कारण अच्छा डिविडेंड ले रहे है और कुछ शेयर मैं भी लूँ । उधर शेयर घोटालों में भी तीन चार हजार करोड़ का स्कैम हो गया, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री को भी एक करोड़ रुपये रिश्र्वत देने का दावा किया गया और फिर भी न उस केस की कोई जाँच, न सुनवाई और न केस आगे बढ़ा ।
खैर, तो मुद्दा यह है कि हमारे देश में आर्थिक गुनाहों की सजा कोई अघिक नहीं होती । कल मान लो हवाला घपला साबित हो भी गया और कोर्ट में गुनाह भी साबित हो गया तो प्रस्तावित सजा क्या होगी ? यह सवाल लोगों को आज ही पूछना चाहिए कि आई. पी. सी. के किस सेक्शन में केस दर्ज हो रहा है और उसमें अघिकतम सजा क्या हो सकती है । एक महत्वपूर्ण मुद्दा और भी है ।
इस मामले के कागजात तो १९९० के आसपास से ही धीरे- धीरे इकट्ठे हो रहे हैं । अर्थात् प्रधानमंत्री को उन नामों की जानकारी भी जो जैन की लिस्ट में थे और जिनके विरूद्ध सी. बी. आई. कुछ और जानकारी भी जुटा पाई थी जैसे उनकी संपत्त्िा का ब्यौरा । यह सारे कागज प्रधानमंञी ने अवश्य देखें होंगे । फिर भी उन लोगों को मंञिमंडल में शामिल कर लिया । क्या जनता को यह जानने का हक नहीं कि ऐसा क्यों किया गया ? जनता तो चाहती है कि हर पक्ष में कम से कम पक्ष का हाईकमान ऐसा व्यक्तित्व हो जो नीति अनीति में फर्क करता है, और अपने पक्ष में केवल नीतिमान लोगों को ही लेता है । जनता चाहती तो है, लेकिन फिर आग्रह क्यों नहीं करती? पक्ष नेताओं से प्रश्न पूछ पाने का हक क्यों नहीं करती ? पक्ष नेताओं से प्रश्न पूछ पाने का हक क्यों नहीं मांगती ?
लोकतंत्र के स्तभ्भ
लोकशाही के चार स्तभ्भ होते है - कानून बनाने वाली संसद, देश चलाने वाली सरकार, जिससे मंञिमंडल और नौकरशाही शामिल है, न्याय व्यवस्था और पञकारिता। कानून बनाने वालों ने भी कभी इस बात को जरूरी नहीं समझा कि चुनावी कानूनों में सुधार किए जांए ताकि कौन किससे रुपये ले रहा है यह किताब जनता के सामने खुली हो । यह प्रश्न केवल चुनावी कानूनों का ही नहीं । धीरे - धीरे हमारे देश का कानून ऐसे बनने लगे है जिससे जानकारी का मूलभूत हक लोगों से छीना जा रहा है जो कि वास्तव में लोकतंञ की जान है । वही बात है सरकार की । उनके नियम भी वैसे ही बने है । उनके पास तो है समर्थन के लिए दो अन्य हथियार भी है - एक है गोपनीयता का और दूसरा सुरक्षा का । इन दोनों तर्कां को कई बार हास्यास्पद ढंग तक खींचकर सरकारी गैर-व्यवहार करने वाले बच निकलते हैं । अक्सर न्यायालय भी इन मुद्दों के कवच में लिपटी फ़ाइलों को छेङने से इंकार ही करते हैं ।
लेकिन जनता के लिए तिनके का सहारा इस बात से है कि कभी -कोई न्यायालय, कभी कोई पञकार, कभी कोई नौकरशाह, कभी कोई सामाजिक कार्यकर्ता इस बात को लेकर अड़ जाता है कि रूको, जनता का अपना हक जनता को वापिस सौंप दो । यह जब तक नहीं हो जाता, मैं लड़ता रहूंगा । यह लड़ाई धीरे धीरे जोर पकड़ती है । उठाया हुआ मुद्दा अपने आप में चाहे सही हो या गलत, लेकिन यदि उसमें यह मांग हो कि जनता को अमुक बात की जानकारी पाने का हक है, तो धीरे धीरे उस हक की आवा.ज उठाने वाले के पीछे लोग जमा हो ही जाते हैं । दुख इस बात का है कि आज तक कोई ऐसा ठोस केस सामने नहीं आया जिसमें समय रहते और पूरी तरह से
जनता को यह अधिकार मिल पाया हो और जो जानकारी मिली उसके चलते जनता ने ही देश को किसी गहन संकट से या प्रश्न से बचा लिया । अक्सर यह देखा गया है कि यह जानकारी सामने
आने में भी कई वर्ष लग जाते है । जनता इसके लिए अधिक सतर्क और अधिक आग्रही क्यों नहीं जबकि इसके अच्छे नतीजे को जनता देख चुकी है ? इस सिलसिले में एक छोटा उदाहरण पेश है। आजकल कई बड़े स्टेशनों पर रिजर्वेशन चार्ट लगे होते है कि कौन सी तिथि के लिए कौन सी गाड़ी में कितने स्थान उपलब्ध है । दूसरा नमूना भी है महाराष्ट्र में इंजीनियरिंग कॉलेज के नामांकन के नियम पांच - छह महीने पहले जाहिर किए जाते है, सभी अर्जी देने वाले विद्यार्थियों की लिस्ट चिपकाई जाती है और खुलेआम सब विद्यार्थियों के समक्ष मेधावी छाञों की लिस्ट के मुताबिक सीटों बंटवारा किया जाता है । यह कदम भी महाराष्ट्र शासन ने उठाया तो न्यायालय के आदेश से ही ।
लेकिन इससे विद्यार्थियों में अन्याय की भावना खत्म हो गई और न्यायालय में इस मुद्दे पर दाखिल होने वाली केस भी कम हो गए ।
कहने का अर्थ यह है कि इस प्रकार का कानून बनाने से जनता की सुविधा और जानकारी का हक सुरक्षित रहता है और किन कानूनों से नहीं, यह समझने की शक्ति और जनता को केंद्र बनाकर कानून बनाने कि सामर्थ्य दोनों ही हमारे शासनकर्ता भूल से गए है । इसमें यदि बड़ा हिस्सा राजनीतिक लोगों का है तो छोटा हिस्सा नौकरशाही का भी है । और कोई आश्श्रर्य नहीं कि हवाला कांड में कुछ अफ़सरों के नाम भी शामिल हों ।
आर्थिक अपराघियों के लिए कड़ी सजा हो
अब जो महत्वपूर्ण सुधार देश के नेतागण, नौकरशाही और न्यायपंडितों को तुरंत अपने हाथ में लेना चाहिए वह दो-तीन प्रकार का है । एक तो आर्थिक गुनहगारों की सजा कड़ी से कड़ी करने का सुधार । साथ ही आर्थिक गुनाहों की अच्छी खासी विवेचना । दूसरे कोर्ट में सुधार ताकि वकीलों पर यह बंधन हो को वे कोर्ट को सच्चाई प्रस्थापित करने में मदद करें । यह सुधार किस प्रकार हो यह अमरीका में भी एक विवादास्पद मुद्दा है जबकि हम लोग तो उसकी तुलना में कई गुना पिछड़े हैं । अधिकांश वकीलों की दलील है - हमारी व्यावसायिक नैतिकता कहती है कि हमें अपने मुवक्किल को बचाना है, चाहे उसने कितना ही बड़ा गुनाह क्यों न किया हो । साथ ही वकील यह भी मानते है कि मुवक्किल को बचाने के लिए यदि झूठ का सहारा लेना पड़े तो बेशक लिया जाना चाहिए । व्यावसायिक नैतिकता की यह एक ऐसी दुहाई है जो मेरी और सामान्य जनता की समझ से परे है । आखिर वकील भी समाज में रहता है, समाज का अंग है और हमारे आसपास का समाज सच्चाई पर चलने वाला हो - इसके प्रति क्या वकीलों की कोई जिम्मेदारी नहीं ? आज वकीलों के अपनाए तीन हथकंडे ऐसे है जिनसे हमारी न्याय व्यवस्था अन्यायपरक हो रही है और लोकतंञ प्रणाली खोखली हो रही है । इसमें पहला हथकंडा है झूठ का सहारा लेना, दूसरा है कि फालतू मुद्दे निकाल कर कोर्ट का समय बर्बाद करना । तीसरा हथकंड़ा है अपने विरोधी गवाहों का चरिञ हनन करने का पूरा-पूरा प्रयास करना । यह तीनों ही कारनामे व्यावसायिक नैतिकता के नाम पर किए जाते हैं । लेकिन सवाल यह है कि जब वकील हमारे समाज का ही एक अंग है तो
क्या यह उनकी भी जिम्मेदारी नहीं कि समाज में सच्चाई और शीघ्र गति से न्याय प्रस्थापित करने में और चरिञ हनन के दुर्गुण का खात्मा करने में उनका भी योगदान हो ? फिर भी आज तक ऐसा
नहीं देखा गया कि किसी कोर्ट ने किसी वकील के इन तीन तरह के हथंकंड़ो के प्रति कड़ी कार्रवाई की है । शायद कोर्ट भी मानती है कि वकील यदि यह सब करते हैं तो कोई गलती नहीं ।
आज जनमानस में हवाला कांड से एक आशा सी बंध गई है । एक तीर की तरह उच्चतम न्यायालय का आदेश निकला और हवाला जांच पर पड़े हुए मोटे पर्दे को चीरता चला गया । सो लोगों को यह विश्र्वास हो गया कि भले ही कानून बनाने वाली व्यवस्था हवाला जैसे कांडों का पर्दाफाश नहीं कर पाई हो लेकिन अभी तक न्याय व्यवस्था और पञकारिता के खंभे तो बचे हुए हैं, लोकतंञ को सुरक्षित रखने के लिए लेकिन इस खुशफहमी में फंसी जनता को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि हमारा सारा हौसला ऐसी इक्का-दुक्का घटना पर टिका होगा तो यह बड़ी चेतावनी हैं और जनता को अपने हक़ों के लिए जल्दी ही चेतना होगा । हम कैसे भुला दें कि अभी तक शेयर स्कैम, नकली शेयर बिक्री बोफोर्स आदि ऐसे कई कांड बचे है जिसमें गुनाहों की जांच या कोर्ट में पेशी या सुनवाई या सजा की कार्रवाई पूरी नहीं हुई है । अर्थात् कोर्ट भी हर जगह, हर केस में कारगर नहीं हो सकता है । इसके लिए जनता को ही चेतना है और माँग करनी है कि हमारे देश में जांच की कार्रवाई अधिक से अधिक पारदर्शी हो ।
----------------------------------------------------------------------
मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010
21 दिल्ली में महिला सुरक्षा--पूरा है
दिल्ली में महिला सुरक्षा
-- लीना मेहेंदले
पिछले एक महीने में दिल्ली शर्म में डूबी हुई है। बलात्कार की घटनाओं से सहम जाना, उनकी निंदा करना आदि अपनी जगहों पर हैं। लेकिन जब महिला विरोधी अपराधियों के हाथ विदेशी दूतावास की महिलाओं तक पहुँचते हैं तो पूरे राष्ट्र को शर्म में डूब जाना पड़ता है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के सुरक्षाकर्मियों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार की शर्म से दिल्लीवासी अभी उभरे भी नहीं थे कि संसार भर के दूसरे देशों के आगे भी शर्म उठानी पडी। फिर एक बार जोर शोर से चर्चा हुई कि दिल्ली कितनी सुरक्षित है। कई अखबारों ने छापना आरंभ कर दिया कि यह शहर महिलाओं के लिये सुरक्षित नही है। इसी विषय को सिद्ध करने के लिए कई चर्चाएँ आयोजित हुईं।
लेकिन अभी तक किसी ने ऐसी चर्चा नही आयोजित की कि दिल्ली में महिलाएँ किस प्रकार सुरक्षित रह सकती हैं और न यही चर्चा सुनने में आई कि दिल्ली को महिलाओं के लिये सुरक्षित कैसे बनाया जाय। गौर से देखें तो ये दोनों प्रश्न अलग अलग हैं। महिलाएँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? कइयों की मान्यता है कि यह प्रश्न बड़ा आसान है। इसका उत्तर बड़ा सीधा सादा और जाना माना है। महिलाओं को सुरक्षित रखना है, उन्हें बलात्कार की जघन्यता से बचाना है, तो उन्हें घर के अंदर रखो- बाहर मत निकलने दो।
कितना सरल, सुंदर, सुलभ उपाय है! औरत घर के अंदर कितनी अच्छी लगती है- कितनी सुरक्षित रहती है। उनसे सड़क पर, काम के लिए, अकेले, मत निकलने दो- खासकर शाम के बाद तो बिल्कुल ही नही। क्या जरूरत है औरतों से बाहरी काम करवाने की। वे घर के अंदर रहें, घर के कामकाज को देखें। गृहलक्ष्मी ही रहें।
लेकिन क्या घर के अंदर वे पूरी सुरक्षित हैं? शायद नहीं- आजकल रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की घटनाएँ भी तेजी से सामने आ रही हैं। तो अब क्या किया जाए? इसका भी सरल एवं सुंदर उत्तर है। उन्हें बाहरी कमरों में मत आने दो। रसोईघर एवं शयनघर के आगे मत आने दो। उन्हें पडदे, घूंघट या बुरके में रखो। ताकि घर के अंदर भी वे आदमियों के सामने न पडें। औरत को असूर्यम्पश्या होना चाहिए- वह जिसे सूरज ने भी न देखा हो। वह उजाले में कभी नही आएगी तो यह खतरा कम हो जायगा कि कोई उसे देखेगा और उसे अपनी हवस का शिकार बनाएगा। औरत की जगह मुकर्रर कर दो- घर के किसी अंदरूनी कमरे के एक अंधेरे कोने में- फिर वे सुरक्षित रहेगी।
लेकिन क्या फिर भी वह पूरी तरह सुरक्षित रहेगी? शायद नही। आखिर अंदरूनी कमरे के अंधेरे कोने में भी कोई न कोई उसे देख ही लेगा- उस पर बलात्कार कर ही लेगा। इससे भी सुरक्षित जगह चाहिए।
और ऐसी जगह है भी। अति सुरक्षित जगह। जहाँ मौत के आने तक हर औरत अत्यंत सुरक्षित रह सकती है। वह जगह है गर्भ के अन्दर। वहाँ बलात्कार का कोई डर नही है। औरत को वहीं रहने दो- वहीं मरने दो। वहाँ से बाहर मत निकलने दो। निकलने के दिन पूरे हों, इससे पहले उसकी मौत का इंतजाम कर दो। भला हो डॉक्टर कम्यूनिटी का। कानून-व्यवस्था की रक्षा में उनका कितना बड़ा योगदान हो सकता है। कर दें वे स्त्री-भ्रूण हत्या। न होगी औरत, न होंगे बलात्कार। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
यह सब पढ़कर क्या ऐसा नही लगता कि यह गलत निष्कर्ष है और इसके पीछे जरूर कोई गलती हुई है। जी हाँ। इसीलिए वह दूसरा प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि दिल्ली को किस तरह महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जा सकता है। सो सवाल है दिल्ली को सुधारने का न कि महिलाओं को घर के अंदर बंद रखने का। सवाल है दिल्ली को अधिक सौहार्दपूर्ण बनाने का और साथ ही अपराधियों को तत्परता से पकड़ने और दंड देने का। आज की दिल्ली औरतों के घूमने-फिरने या घर से बाहर निकलने के लिए माकूल ढंग से नही बनी है।
हम साऊथ दिल्ली को ही लें। यह एक खूबसूरती से प्लान किया हुआ इलाका है जिसमें चौडी सडकें हैं, पार्क हैं, शिक्षा-संस्थाएँ हैं, फ्लाई ओवर हैं। इसी इलाके में सरकारी दफ्तर हैं- ढेर सारे दफ्तर- बड़े-बड़े ओहदों वाले दफ्तर- जिनमें राष्ट्रपति भवन, नार्थ व साऊथ ब्लाक, तमाम मंत्रालय, विदेशी दूतावास, राज्यों के निवास इत्यादि भी हैं। इन सब की सुंदरता बनाए रखने के लिए यह खास ध्यान दिया गया है कि यहाँ रहाइशी इलाकें अधिक न हों। लोक संख्या कम हो। चीजें बेचने वालों की भीड़ न हो। और
उससे भी बड़ी बात यह कि हर घर, हर बिल्डिंग एक लम्बे चौड़े क्षेत्र में बनाई जाए जहाँ उसकी विशालता और विस्तार भी उसकी खूबसूरती का एक अंग हो।
एक आर्किटेक्ट की निगेहवानी से यह सब कुछ बिल्कुल सही है। लेकिन यही बातें हैं जो असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती हैं।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि दिल्ली को घूमने फिरने के योग्य बनाया जाय और औरतें भी घर से बाहर निकलकर बड़ी तादाद में घूमें। पैदल चलने को और साइकलिंग को बढावा दिया जाय।
पुणे या बैंगलोर शहर में कई अकेली औरतें घूमने निकल जाती हैं- किसी भी सड़क पर केवल घूमने के शौक से निकली औरतें देखी जा सकती हैं। कई परिवार और यार-दोस्तों की टोलियाँ घूमती हुई देखी जा सकती हैं। लेकिन दिल्ली में ऐसा नही दीखता। यदि दिल्ली की कॉलनीज में रहने वाले लोग एक अभियान के तौर पर अपने अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ सुबह-शाम पैदल या साइकिल पर घूमने लगें तो कैसा हो?
मुझे लगता है कि यदि दिल्ली को महिलाओं के प्रति सुरक्षित बनाना है तो चार पांच काम किए जाने चाहिए। सड़कों व पार्कों में अधिक से अधिक लोग घूमने निकलें- इसे बढावा दिया जाय। प्रभात फेरियाँ भी निकाली जा सकती हैं। दिल्ली में अच्छी साइकिलिंग का इन्तजाम किया जाय और इसे बढावा दिया जाय। महिलाओं के प्रति अपराधों को, खासकर छेड़खनी के मामलों को तत्काल दंड दिया जाय। इसके लिए मौके पर ही जुर्माने के अधिकार पुलिस को दिए जाएं। खासतौर से अभियान चलाया जाय ताकि सार्वजनिक वाहनों में होने वाले छेड़छाड़ के अपराधों को तत्काल दंडित किया जा सके। बलात्कार के अपराधी ऐसे ही नही बन जाते। अक्सर वे शुरूआत छेड़खानी से करते हैं। कई छेड़खानियाँ करने के बाद भी जब वे दंडित नही होते तो धीरे धीरे उन्हें शह मिलती जाती है और वे बड़ा अपराध करने का दुःसाहस धारण करने लगते हैं।
देशभर की पुलिस से नॅशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो ने जो आँकडे इकट्ठे किये वे बताते हैं कि सन् २००१ में दिल्ली में बलात्कार की ३८१ घटनाएँ दर्ज हुईं, किडनॅपिंग की १६२७ जबकि लैंगिक छेड़छाड़ की घटनाएँ केवल ५०२ दर्ज हुईं। ये आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली में छेड़छाड़ की घटनाओं को न ही गंभीरता से लिया जाता है और न दर्ज कराया जाता है। जब कि पूरे देश में छेड़छाड़ की करीब पैंतीस हजार घटनाएँ दर्ज हुईं- यानी दिल्ली से सत्तर गुनी अधिक, बलात्कार के अपराध में सोलह हजार यानी दिल्ली से चालीस गुनी अधिक घटनाएँ दर्ज हुईं। अतः आवश्यक है कि छेड़छाड़ की घटनाओं को हम प्रभावी ढंग से दर्ज करायें और तत्काल दंडित भी करें। यही नही, छेड़छाड़ की घटना का विरोध करने वालों की यथोचित सराहना भी होनी चाहिए।
कार से चलने वालों की सुविधा ध्यान में रखते हुए दिल्ली की सड़कों पर जगह जगह उंचे उंचे रोड डिवायडर लगा दिए गए हैं। अर्थात यदि मैं किसी रास्ते से गुजरते हुए देख भी लूँ कि परली तरफ से चलने वाली किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार हो रहा है, तब भी मैं शीघ्रता से वहाँ पहुँचकर अपराध को रोकने का कोई उपाय नही कर सकती। दिल्ली के आर्किटेक्चर की प्लानिंग में यह भी एक बड़ी कमी है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नही है।
यह भी जरूरी है कि जहाँ कहीं संगठन हैं, वहाँ उनके बड़े अधिकारी ज्यूनियर्स के कार्यकलापों का ध्यान रखें। राष्ट्रपति भवन के सुरक्षा कर्मी- या होमगार्ड के जवान या पुलिसकर्मी- जब बलात्कार जैसे मामलों में दोषी पाए जाते हैं तो पूछा जाना चाहिए कि उनके सिनियर्स क्या कर रहे थे। कई वरिष्ठ अधिकारियों का अपना वैल्यू सिस्टम ही ऐसा होता है जिससे उनके ज्यूनियर्स को जाने अनजाने लगने लगता है कि महिलाओं से दुर्व्यवहार करना ही मर्दानगी है। इस मानसिकता को बदलने के लिए सरकार को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। यदि पुलिस में अधिक संख्या में महिलाएँ आने लगें और हर स्तर पर आने लगें तो यह मानसिकता थोड़ी बदल सकती है।
महीने पहले हुई घटना के बाद भी बलात्कार और दुर्व्यवहार के अपराध थमे नही हैं। पुलिस उलझ कर रह गई है चुनावी इन्तजाम में। नेताओं के भाषण, पदयात्रा, रैलियाँ, जनसभाएँ जोरों पर हैं। किसी नेता या पार्टी ने अपने अजेंडे में नही कहा है कि दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने का कोई सोच उनके दिमाग में है। क्या दिल्ली की महिलाएँ अपने अमूल्य बोट का धौंस जमाकर उन्हें इसके लिए घेर सकती हैं?
------------------------------------------
-- लीना मेहेंदले
पिछले एक महीने में दिल्ली शर्म में डूबी हुई है। बलात्कार की घटनाओं से सहम जाना, उनकी निंदा करना आदि अपनी जगहों पर हैं। लेकिन जब महिला विरोधी अपराधियों के हाथ विदेशी दूतावास की महिलाओं तक पहुँचते हैं तो पूरे राष्ट्र को शर्म में डूब जाना पड़ता है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के सुरक्षाकर्मियों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार की शर्म से दिल्लीवासी अभी उभरे भी नहीं थे कि संसार भर के दूसरे देशों के आगे भी शर्म उठानी पडी। फिर एक बार जोर शोर से चर्चा हुई कि दिल्ली कितनी सुरक्षित है। कई अखबारों ने छापना आरंभ कर दिया कि यह शहर महिलाओं के लिये सुरक्षित नही है। इसी विषय को सिद्ध करने के लिए कई चर्चाएँ आयोजित हुईं।
लेकिन अभी तक किसी ने ऐसी चर्चा नही आयोजित की कि दिल्ली में महिलाएँ किस प्रकार सुरक्षित रह सकती हैं और न यही चर्चा सुनने में आई कि दिल्ली को महिलाओं के लिये सुरक्षित कैसे बनाया जाय। गौर से देखें तो ये दोनों प्रश्न अलग अलग हैं। महिलाएँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? कइयों की मान्यता है कि यह प्रश्न बड़ा आसान है। इसका उत्तर बड़ा सीधा सादा और जाना माना है। महिलाओं को सुरक्षित रखना है, उन्हें बलात्कार की जघन्यता से बचाना है, तो उन्हें घर के अंदर रखो- बाहर मत निकलने दो।
कितना सरल, सुंदर, सुलभ उपाय है! औरत घर के अंदर कितनी अच्छी लगती है- कितनी सुरक्षित रहती है। उनसे सड़क पर, काम के लिए, अकेले, मत निकलने दो- खासकर शाम के बाद तो बिल्कुल ही नही। क्या जरूरत है औरतों से बाहरी काम करवाने की। वे घर के अंदर रहें, घर के कामकाज को देखें। गृहलक्ष्मी ही रहें।
लेकिन क्या घर के अंदर वे पूरी सुरक्षित हैं? शायद नहीं- आजकल रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की घटनाएँ भी तेजी से सामने आ रही हैं। तो अब क्या किया जाए? इसका भी सरल एवं सुंदर उत्तर है। उन्हें बाहरी कमरों में मत आने दो। रसोईघर एवं शयनघर के आगे मत आने दो। उन्हें पडदे, घूंघट या बुरके में रखो। ताकि घर के अंदर भी वे आदमियों के सामने न पडें। औरत को असूर्यम्पश्या होना चाहिए- वह जिसे सूरज ने भी न देखा हो। वह उजाले में कभी नही आएगी तो यह खतरा कम हो जायगा कि कोई उसे देखेगा और उसे अपनी हवस का शिकार बनाएगा। औरत की जगह मुकर्रर कर दो- घर के किसी अंदरूनी कमरे के एक अंधेरे कोने में- फिर वे सुरक्षित रहेगी।
लेकिन क्या फिर भी वह पूरी तरह सुरक्षित रहेगी? शायद नही। आखिर अंदरूनी कमरे के अंधेरे कोने में भी कोई न कोई उसे देख ही लेगा- उस पर बलात्कार कर ही लेगा। इससे भी सुरक्षित जगह चाहिए।
और ऐसी जगह है भी। अति सुरक्षित जगह। जहाँ मौत के आने तक हर औरत अत्यंत सुरक्षित रह सकती है। वह जगह है गर्भ के अन्दर। वहाँ बलात्कार का कोई डर नही है। औरत को वहीं रहने दो- वहीं मरने दो। वहाँ से बाहर मत निकलने दो। निकलने के दिन पूरे हों, इससे पहले उसकी मौत का इंतजाम कर दो। भला हो डॉक्टर कम्यूनिटी का। कानून-व्यवस्था की रक्षा में उनका कितना बड़ा योगदान हो सकता है। कर दें वे स्त्री-भ्रूण हत्या। न होगी औरत, न होंगे बलात्कार। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
यह सब पढ़कर क्या ऐसा नही लगता कि यह गलत निष्कर्ष है और इसके पीछे जरूर कोई गलती हुई है। जी हाँ। इसीलिए वह दूसरा प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि दिल्ली को किस तरह महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जा सकता है। सो सवाल है दिल्ली को सुधारने का न कि महिलाओं को घर के अंदर बंद रखने का। सवाल है दिल्ली को अधिक सौहार्दपूर्ण बनाने का और साथ ही अपराधियों को तत्परता से पकड़ने और दंड देने का। आज की दिल्ली औरतों के घूमने-फिरने या घर से बाहर निकलने के लिए माकूल ढंग से नही बनी है।
हम साऊथ दिल्ली को ही लें। यह एक खूबसूरती से प्लान किया हुआ इलाका है जिसमें चौडी सडकें हैं, पार्क हैं, शिक्षा-संस्थाएँ हैं, फ्लाई ओवर हैं। इसी इलाके में सरकारी दफ्तर हैं- ढेर सारे दफ्तर- बड़े-बड़े ओहदों वाले दफ्तर- जिनमें राष्ट्रपति भवन, नार्थ व साऊथ ब्लाक, तमाम मंत्रालय, विदेशी दूतावास, राज्यों के निवास इत्यादि भी हैं। इन सब की सुंदरता बनाए रखने के लिए यह खास ध्यान दिया गया है कि यहाँ रहाइशी इलाकें अधिक न हों। लोक संख्या कम हो। चीजें बेचने वालों की भीड़ न हो। और
उससे भी बड़ी बात यह कि हर घर, हर बिल्डिंग एक लम्बे चौड़े क्षेत्र में बनाई जाए जहाँ उसकी विशालता और विस्तार भी उसकी खूबसूरती का एक अंग हो।
एक आर्किटेक्ट की निगेहवानी से यह सब कुछ बिल्कुल सही है। लेकिन यही बातें हैं जो असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती हैं।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि दिल्ली को घूमने फिरने के योग्य बनाया जाय और औरतें भी घर से बाहर निकलकर बड़ी तादाद में घूमें। पैदल चलने को और साइकलिंग को बढावा दिया जाय।
पुणे या बैंगलोर शहर में कई अकेली औरतें घूमने निकल जाती हैं- किसी भी सड़क पर केवल घूमने के शौक से निकली औरतें देखी जा सकती हैं। कई परिवार और यार-दोस्तों की टोलियाँ घूमती हुई देखी जा सकती हैं। लेकिन दिल्ली में ऐसा नही दीखता। यदि दिल्ली की कॉलनीज में रहने वाले लोग एक अभियान के तौर पर अपने अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ सुबह-शाम पैदल या साइकिल पर घूमने लगें तो कैसा हो?
मुझे लगता है कि यदि दिल्ली को महिलाओं के प्रति सुरक्षित बनाना है तो चार पांच काम किए जाने चाहिए। सड़कों व पार्कों में अधिक से अधिक लोग घूमने निकलें- इसे बढावा दिया जाय। प्रभात फेरियाँ भी निकाली जा सकती हैं। दिल्ली में अच्छी साइकिलिंग का इन्तजाम किया जाय और इसे बढावा दिया जाय। महिलाओं के प्रति अपराधों को, खासकर छेड़खनी के मामलों को तत्काल दंड दिया जाय। इसके लिए मौके पर ही जुर्माने के अधिकार पुलिस को दिए जाएं। खासतौर से अभियान चलाया जाय ताकि सार्वजनिक वाहनों में होने वाले छेड़छाड़ के अपराधों को तत्काल दंडित किया जा सके। बलात्कार के अपराधी ऐसे ही नही बन जाते। अक्सर वे शुरूआत छेड़खानी से करते हैं। कई छेड़खानियाँ करने के बाद भी जब वे दंडित नही होते तो धीरे धीरे उन्हें शह मिलती जाती है और वे बड़ा अपराध करने का दुःसाहस धारण करने लगते हैं।
देशभर की पुलिस से नॅशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो ने जो आँकडे इकट्ठे किये वे बताते हैं कि सन् २००१ में दिल्ली में बलात्कार की ३८१ घटनाएँ दर्ज हुईं, किडनॅपिंग की १६२७ जबकि लैंगिक छेड़छाड़ की घटनाएँ केवल ५०२ दर्ज हुईं। ये आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली में छेड़छाड़ की घटनाओं को न ही गंभीरता से लिया जाता है और न दर्ज कराया जाता है। जब कि पूरे देश में छेड़छाड़ की करीब पैंतीस हजार घटनाएँ दर्ज हुईं- यानी दिल्ली से सत्तर गुनी अधिक, बलात्कार के अपराध में सोलह हजार यानी दिल्ली से चालीस गुनी अधिक घटनाएँ दर्ज हुईं। अतः आवश्यक है कि छेड़छाड़ की घटनाओं को हम प्रभावी ढंग से दर्ज करायें और तत्काल दंडित भी करें। यही नही, छेड़छाड़ की घटना का विरोध करने वालों की यथोचित सराहना भी होनी चाहिए।
कार से चलने वालों की सुविधा ध्यान में रखते हुए दिल्ली की सड़कों पर जगह जगह उंचे उंचे रोड डिवायडर लगा दिए गए हैं। अर्थात यदि मैं किसी रास्ते से गुजरते हुए देख भी लूँ कि परली तरफ से चलने वाली किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार हो रहा है, तब भी मैं शीघ्रता से वहाँ पहुँचकर अपराध को रोकने का कोई उपाय नही कर सकती। दिल्ली के आर्किटेक्चर की प्लानिंग में यह भी एक बड़ी कमी है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नही है।
यह भी जरूरी है कि जहाँ कहीं संगठन हैं, वहाँ उनके बड़े अधिकारी ज्यूनियर्स के कार्यकलापों का ध्यान रखें। राष्ट्रपति भवन के सुरक्षा कर्मी- या होमगार्ड के जवान या पुलिसकर्मी- जब बलात्कार जैसे मामलों में दोषी पाए जाते हैं तो पूछा जाना चाहिए कि उनके सिनियर्स क्या कर रहे थे। कई वरिष्ठ अधिकारियों का अपना वैल्यू सिस्टम ही ऐसा होता है जिससे उनके ज्यूनियर्स को जाने अनजाने लगने लगता है कि महिलाओं से दुर्व्यवहार करना ही मर्दानगी है। इस मानसिकता को बदलने के लिए सरकार को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। यदि पुलिस में अधिक संख्या में महिलाएँ आने लगें और हर स्तर पर आने लगें तो यह मानसिकता थोड़ी बदल सकती है।
महीने पहले हुई घटना के बाद भी बलात्कार और दुर्व्यवहार के अपराध थमे नही हैं। पुलिस उलझ कर रह गई है चुनावी इन्तजाम में। नेताओं के भाषण, पदयात्रा, रैलियाँ, जनसभाएँ जोरों पर हैं। किसी नेता या पार्टी ने अपने अजेंडे में नही कहा है कि दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने का कोई सोच उनके दिमाग में है। क्या दिल्ली की महिलाएँ अपने अमूल्य बोट का धौंस जमाकर उन्हें इसके लिए घेर सकती हैं?
------------------------------------------
सोमवार, 19 जुलाई 2010
14 प्लेग का भय एक हतोत्साही मानसिकता--पूरा है
प्लेग का भय एक हतोत्साही मानसिकता
दै. हिन्दुस्तान, दिल्ली, सप्टें. 1995
बात है बहुत छोटी सी, पर पिछले हफते से बतंगड़ बनी हुई है। वह है प्लेग। वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि पिछले दिन मुझे भी डर लगा था।लेकिन मेरा जो डर पहले दिन उतर गया वह औरों के दिमाग में अभी तक मौजूद है। यह अंतर क्योंकर है?
२२ सिंतबर की शाम मैं कार्यालयीन कामकाजवश बडौदा पहुंची। मेरे साथ महाराष्ट्र के एडीशनल डायरेक्टर आफॅ हेल्थ भी थे। हमने बड़ौदा शहर का एक लंबा चक्कर लगाया तो पता चला कि ८-१० दिनों पहले गुजरात में जो भयानक बाढ़ आई थी उसने बड़ौदा में भी अपनी तबाही का रंग दिखाया था। बेसमेंट की बिल्डिंगें, जिनमें कई दुकानें थीं, वहां सवार्धिक हानि हुई। गलिसां , रास्ते कचरे के ढेर से भर गये। वह ढेर अब तक साफ नहीं हुए-प्रायःयही हाल अन्य शहरों में रहा होगा। कई बार दूर-दराज से पानी के रेले में बहकर लाशें भी आईं जो शहर में जगह-जगह अटक कर रह गई। धीरे-धीरे पाली कम हुआ लेकिन लाशें तुरंत हटा पाना संभव नहीं हुआ था। बहरहाल, कुछ ऐसा ही दृश्य सूरत में भी रहा होगा।
२३ की सुबह सारे गुजराती अखबारों में सूरत में प्लेग शीर्षक की र्क खबरें थीं। कोई मृतकों की संख्या १४ बताता था, कोई चालीस तो कोई चार सौ। मेरे दिमाग में वे सारे वर्णन कौंध गये जो कि १९२६ के प्लेग के विषय में पढ़े थे-खासकर उस प्लेग के कारण पूना में अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के जो कांड हुए थे-वह भी। यदि आज भी प्लेग की संहारकता उसी प्रकार की हुई तो क्या हमारी सरकार को भी प्लेग का फैलाव रोकने के लिए वही ज्यादती करनी पड़ेगी? और जबकि मैं सरकार में एक उच्च पद पर हूं, तो मेरी भूमिका क्या होगी?
मैंने डा.वानेरे से पूछा - अब क्या होगा? उनका उत्तर था-टेट्रासाइक्लिन। उन्होने समझाया कि १९२६ में जब प्लेग की महामारी फैली, तब टेट्रासाइक्लिन या एण्टीबायोब्कि का अविष्कार नहीं हुआ था। आज यह ज्ञान है और गोलियां हैं। बस सीधा-सा उपाय है कि मरीज की टेट्रासाइक्लिन का एक कोर्स करा दो - वह ठीक हो जाएगा। यथासंभव उसे बाकी लोगों से अलग रखो-ताकि अन्य लोगों को इंफेक्शन होने की संभावना कम हो, और जैसा कि हर बैक्टीरियल इंफेक्शन में होता है, बुखार आ गया तो ७-९ दिन रहेगा, उतने दिन धैर्य रखो। है न सीधी-सी बात। बस इतनी-सी बात कोई सुरत के लोागों को समझा दे, कूड़े-कचरे के ढेर उठवा दे, हो गया प्लेग का किस्सा खत्म। तभी किसी ने कहा-टेट्रासाइक्लिन के साइड इफेक्टस भी है। तो चलो उसके साथ विटामिन ए.बी. कर गोलियां भी खाओ और यदि अपना खुद का बाडी रेजिस्टेन्स अच्छा है तो प्लेग वैसे भी पास नहीं फटकेगा। लेकिन शाम होते होते सारा चित्र बदल गया। धुलिया के कलेक्टर तब हमारे साथ थे। उनके लिउ संदेशा था कि सुरत से लोग भारी संख्या में धुलिया आ रहे है, उनका क्या किया जाए? कलेक्टर ने मेरी ओर देखा। हमने तय किया कि बॉर्डर सील नही करना है। आखिर यह कोई जानलेवा बीमारी तो रही नहीं। जिन्हें यह बात ठीक से समझाई नहीं जा सकी, वही सूरत से भागे है। वे बीमार भी नही है -लेकिन बीमारी के कैरियर हो सकते है, सो उन पर निगरान रखनी होगी। फिर पता चला कि सुरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में भी बाजार से टेट्रासाइक्लिन लुप्त हो गया है। वैसी हालत में अच्छा ही है कि ये लोग दूसरी जगह चले जाए जहाँ दवाई मिलना दुश्र्वार हो।
शनिवार को मुंबई आकर मैंने अपनी डिवीजन के तीनों कलेक्टरों से बात की जिनका जिला बॉर्डर गुजरात से लगा हुआ है। जलगांव कलेक्टर ने भ्सुसावल - सुरत लाइन के हर रेलवे स्टेशन पर गुजरात से आने वालों के लिए मेडिकल चैक पोस्ट रखे थे। धुलिया कलेक्टर ने धुलिया में स्कुल,कालेज और सिनेमा शो बंद करवाए और हर रेलवे स्टेशन और हर प्रमुख बस अड्डों पर मेडिकल चैक पोस्ट लगवाए। नासिक कलेक्टा ने भी मेडिकल टीमें बनाकर पेठ और सुरगना - दोनों तहसीलों में चार चैक पोस्ट पर चैकिंग करवाई।
अगले चार दिनों में हर जगह बी.एच.सी. या डी.टी.सूप्रेइंग करवाया , यह व्यवस्था की गई कि टेट्रासाइक्लिन बड़े पैमाने पर उपलब्ध हो। तीनों कलेक्टरों ने प्रेस और आकाशवाणी के मार्फत लोगों को बताया कि सरकार के पास किस-किस बात की उपलब्धता है-अर्थात दवाइयां, बी.एच.सी.पावडर , कितने लोग गुजरात से आए, कितनों के मेडिकल टैस्ट हुए, कितने बीमार पाए गए, किताने बीमारों का बॅल्ड टेस्टिंग किया - उसमें कितनों प्लेग बाधित निकले, कितने चूहे मरे, इत्यादि। चौबीस से तीस तारीख तक छः दिनों में सूरत से करीब साठ हजार लोग इन तीन जिलों में पहुंचे जिनमें से करीब पांस सौ को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। उन्हें टेट्रासाइक्लिन दिया गया और बल्ड सेम्पलिंग भी करवरना पड़ा। हालांकि इसकी रिपोर्ट आने में एक या दो दिन लग जाते हैख् फिर भी कुल प्लेग के जीवाणु पाए जाने वाले पचास से भी कम निकले जब कि मुत्यु किसी की भी नहीं हुई।
सबसे बड़ा डर था कि शायद लोग अपनी बीमारी छिपाने की कोशिश करेंगे। जिनके दिल में पिछले प्लेग के
दिनों का भय है और जो अपनी अशिक्षा या अज्ञान के कारण नहीं जानते कि अब प्लेग एक आसानी से इलाज की जाने वाली बीमारी है,वही इसे छिपाना चाहेंगे। लेकिन यदि उन्हें विश्र्वास दिलाया जा सके कि इसमें डरने जैसा कुछ नहीं है, तो लोग इसे छिपाना नहीं चाहेंगे न ही इतने भयग्रस्त होंगे। उपरोक्त आंकडे भर में चार-पांच सौ लोग तो यों भी बीमार पड़ ही जाते हैं। इसी से मुझे लगता है कि यह पेनिक की, घबराहट की नौबत निराधार थी। थोड़ी सही जानकारी लोगों को पहले ही दिन मिल जाती तो लोग इतने भयभीत नहीं होते।
पर एक क्षेत्र ऐसा है जहां वाकई बात का बतंगड़ , राई का पर्वत बन गया। हमारे लोगों का अज्ञान और हमारे शहरों की सफाई कितने छोटे से दो विषय हैं। लेकिन आज प्रायः हर शहर का प्रशासन इस एक मामले में कमजोर पड़ गया है। सूरत में सफाई नहीं हुई, तो बीमारी फैली। जनता को इलाज पता नहीं था तो लोग-बाग भागे-बंबई गए, दिल्ली गए, धुलिया और नासिक भी गए। यदि वहां की सफाई पहले ही अच्छी तरह होती तो डर की कोई बसत नहीं थी। लेकिन चूंकि पता था कि सफाई डांवाडोल है, इसलिए लोग भी डर गए। घबराहट फैली, चर्चा होने लगी और नतीजा यह हुआ कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय हवाई कंपनियों ने भारत से आने'जाने वाली फाइट्रस पर रोक लगा दी। सूरत के हीरों के व्यापार को जितना नुकसान हुआ,टेट्रासाइक्लिन या बी.एच.सी.के लिए शहरी प्रशासन को जितना पैसा खर्च करना पड़ा उससे कई गुना अधिक नुकसान इस बात से हुआ कि विदेश व्यापार घटा और वापस नार्मल पर आने के लिए दो-तीन महीने लग जाएंगे।
हमारे रोजमर्रा जीवन का अभिन्न अंग है हमारी उदासीनता और निष्क्रियता, जिसके चलते न हमने कभी शहरों की गंदगी के प्रति आवाज उठाई और न कभी सरकार से विस्तृत जानकारी पाने के लिए। आज उसी ने हमारा इतना नुकसान कर दिया।
-----------------------------------------------------
दै. हिन्दुस्तान, दिल्ली, सप्टें. 1995
बात है बहुत छोटी सी, पर पिछले हफते से बतंगड़ बनी हुई है। वह है प्लेग। वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि पिछले दिन मुझे भी डर लगा था।लेकिन मेरा जो डर पहले दिन उतर गया वह औरों के दिमाग में अभी तक मौजूद है। यह अंतर क्योंकर है?
२२ सिंतबर की शाम मैं कार्यालयीन कामकाजवश बडौदा पहुंची। मेरे साथ महाराष्ट्र के एडीशनल डायरेक्टर आफॅ हेल्थ भी थे। हमने बड़ौदा शहर का एक लंबा चक्कर लगाया तो पता चला कि ८-१० दिनों पहले गुजरात में जो भयानक बाढ़ आई थी उसने बड़ौदा में भी अपनी तबाही का रंग दिखाया था। बेसमेंट की बिल्डिंगें, जिनमें कई दुकानें थीं, वहां सवार्धिक हानि हुई। गलिसां , रास्ते कचरे के ढेर से भर गये। वह ढेर अब तक साफ नहीं हुए-प्रायःयही हाल अन्य शहरों में रहा होगा। कई बार दूर-दराज से पानी के रेले में बहकर लाशें भी आईं जो शहर में जगह-जगह अटक कर रह गई। धीरे-धीरे पाली कम हुआ लेकिन लाशें तुरंत हटा पाना संभव नहीं हुआ था। बहरहाल, कुछ ऐसा ही दृश्य सूरत में भी रहा होगा।
२३ की सुबह सारे गुजराती अखबारों में सूरत में प्लेग शीर्षक की र्क खबरें थीं। कोई मृतकों की संख्या १४ बताता था, कोई चालीस तो कोई चार सौ। मेरे दिमाग में वे सारे वर्णन कौंध गये जो कि १९२६ के प्लेग के विषय में पढ़े थे-खासकर उस प्लेग के कारण पूना में अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के जो कांड हुए थे-वह भी। यदि आज भी प्लेग की संहारकता उसी प्रकार की हुई तो क्या हमारी सरकार को भी प्लेग का फैलाव रोकने के लिए वही ज्यादती करनी पड़ेगी? और जबकि मैं सरकार में एक उच्च पद पर हूं, तो मेरी भूमिका क्या होगी?
मैंने डा.वानेरे से पूछा - अब क्या होगा? उनका उत्तर था-टेट्रासाइक्लिन। उन्होने समझाया कि १९२६ में जब प्लेग की महामारी फैली, तब टेट्रासाइक्लिन या एण्टीबायोब्कि का अविष्कार नहीं हुआ था। आज यह ज्ञान है और गोलियां हैं। बस सीधा-सा उपाय है कि मरीज की टेट्रासाइक्लिन का एक कोर्स करा दो - वह ठीक हो जाएगा। यथासंभव उसे बाकी लोगों से अलग रखो-ताकि अन्य लोगों को इंफेक्शन होने की संभावना कम हो, और जैसा कि हर बैक्टीरियल इंफेक्शन में होता है, बुखार आ गया तो ७-९ दिन रहेगा, उतने दिन धैर्य रखो। है न सीधी-सी बात। बस इतनी-सी बात कोई सुरत के लोागों को समझा दे, कूड़े-कचरे के ढेर उठवा दे, हो गया प्लेग का किस्सा खत्म। तभी किसी ने कहा-टेट्रासाइक्लिन के साइड इफेक्टस भी है। तो चलो उसके साथ विटामिन ए.बी. कर गोलियां भी खाओ और यदि अपना खुद का बाडी रेजिस्टेन्स अच्छा है तो प्लेग वैसे भी पास नहीं फटकेगा। लेकिन शाम होते होते सारा चित्र बदल गया। धुलिया के कलेक्टर तब हमारे साथ थे। उनके लिउ संदेशा था कि सुरत से लोग भारी संख्या में धुलिया आ रहे है, उनका क्या किया जाए? कलेक्टर ने मेरी ओर देखा। हमने तय किया कि बॉर्डर सील नही करना है। आखिर यह कोई जानलेवा बीमारी तो रही नहीं। जिन्हें यह बात ठीक से समझाई नहीं जा सकी, वही सूरत से भागे है। वे बीमार भी नही है -लेकिन बीमारी के कैरियर हो सकते है, सो उन पर निगरान रखनी होगी। फिर पता चला कि सुरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में भी बाजार से टेट्रासाइक्लिन लुप्त हो गया है। वैसी हालत में अच्छा ही है कि ये लोग दूसरी जगह चले जाए जहाँ दवाई मिलना दुश्र्वार हो।
शनिवार को मुंबई आकर मैंने अपनी डिवीजन के तीनों कलेक्टरों से बात की जिनका जिला बॉर्डर गुजरात से लगा हुआ है। जलगांव कलेक्टर ने भ्सुसावल - सुरत लाइन के हर रेलवे स्टेशन पर गुजरात से आने वालों के लिए मेडिकल चैक पोस्ट रखे थे। धुलिया कलेक्टर ने धुलिया में स्कुल,कालेज और सिनेमा शो बंद करवाए और हर रेलवे स्टेशन और हर प्रमुख बस अड्डों पर मेडिकल चैक पोस्ट लगवाए। नासिक कलेक्टा ने भी मेडिकल टीमें बनाकर पेठ और सुरगना - दोनों तहसीलों में चार चैक पोस्ट पर चैकिंग करवाई।
अगले चार दिनों में हर जगह बी.एच.सी. या डी.टी.सूप्रेइंग करवाया , यह व्यवस्था की गई कि टेट्रासाइक्लिन बड़े पैमाने पर उपलब्ध हो। तीनों कलेक्टरों ने प्रेस और आकाशवाणी के मार्फत लोगों को बताया कि सरकार के पास किस-किस बात की उपलब्धता है-अर्थात दवाइयां, बी.एच.सी.पावडर , कितने लोग गुजरात से आए, कितनों के मेडिकल टैस्ट हुए, कितने बीमार पाए गए, किताने बीमारों का बॅल्ड टेस्टिंग किया - उसमें कितनों प्लेग बाधित निकले, कितने चूहे मरे, इत्यादि। चौबीस से तीस तारीख तक छः दिनों में सूरत से करीब साठ हजार लोग इन तीन जिलों में पहुंचे जिनमें से करीब पांस सौ को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। उन्हें टेट्रासाइक्लिन दिया गया और बल्ड सेम्पलिंग भी करवरना पड़ा। हालांकि इसकी रिपोर्ट आने में एक या दो दिन लग जाते हैख् फिर भी कुल प्लेग के जीवाणु पाए जाने वाले पचास से भी कम निकले जब कि मुत्यु किसी की भी नहीं हुई।
सबसे बड़ा डर था कि शायद लोग अपनी बीमारी छिपाने की कोशिश करेंगे। जिनके दिल में पिछले प्लेग के
दिनों का भय है और जो अपनी अशिक्षा या अज्ञान के कारण नहीं जानते कि अब प्लेग एक आसानी से इलाज की जाने वाली बीमारी है,वही इसे छिपाना चाहेंगे। लेकिन यदि उन्हें विश्र्वास दिलाया जा सके कि इसमें डरने जैसा कुछ नहीं है, तो लोग इसे छिपाना नहीं चाहेंगे न ही इतने भयग्रस्त होंगे। उपरोक्त आंकडे भर में चार-पांच सौ लोग तो यों भी बीमार पड़ ही जाते हैं। इसी से मुझे लगता है कि यह पेनिक की, घबराहट की नौबत निराधार थी। थोड़ी सही जानकारी लोगों को पहले ही दिन मिल जाती तो लोग इतने भयभीत नहीं होते।
पर एक क्षेत्र ऐसा है जहां वाकई बात का बतंगड़ , राई का पर्वत बन गया। हमारे लोगों का अज्ञान और हमारे शहरों की सफाई कितने छोटे से दो विषय हैं। लेकिन आज प्रायः हर शहर का प्रशासन इस एक मामले में कमजोर पड़ गया है। सूरत में सफाई नहीं हुई, तो बीमारी फैली। जनता को इलाज पता नहीं था तो लोग-बाग भागे-बंबई गए, दिल्ली गए, धुलिया और नासिक भी गए। यदि वहां की सफाई पहले ही अच्छी तरह होती तो डर की कोई बसत नहीं थी। लेकिन चूंकि पता था कि सफाई डांवाडोल है, इसलिए लोग भी डर गए। घबराहट फैली, चर्चा होने लगी और नतीजा यह हुआ कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय हवाई कंपनियों ने भारत से आने'जाने वाली फाइट्रस पर रोक लगा दी। सूरत के हीरों के व्यापार को जितना नुकसान हुआ,टेट्रासाइक्लिन या बी.एच.सी.के लिए शहरी प्रशासन को जितना पैसा खर्च करना पड़ा उससे कई गुना अधिक नुकसान इस बात से हुआ कि विदेश व्यापार घटा और वापस नार्मल पर आने के लिए दो-तीन महीने लग जाएंगे।
हमारे रोजमर्रा जीवन का अभिन्न अंग है हमारी उदासीनता और निष्क्रियता, जिसके चलते न हमने कभी शहरों की गंदगी के प्रति आवाज उठाई और न कभी सरकार से विस्तृत जानकारी पाने के लिए। आज उसी ने हमारा इतना नुकसान कर दिया।
-----------------------------------------------------
22 स्वास्थ्य नीति : सेवा बनाम शिक्षा
स्वास्थ्य नीति : सेवा बनाम शिक्षा (last 2-3 paras missing
इक्कीसवीं सदी के पहले ही देश की जनसंख्या सौ करोड़ के जादुई अंक को छू लेगी। जैसी दिशाहीन बढ़ती हुई हमारी आबादी है, वैसी ही दिशाहीन फैलती हुई हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ भी है। किसी जमाने में डॉक्टरी का पेशा सेवाव्रत माना जाता था। ऐसे कई आदर्शवादी डॉक्टरों को नजदीक से देखने पर भी, तब भी मेरी मान्यता यह थी कि शायद उनकी सेवा की दिशा गलत है। आज तो डॉक्टरों की सेवा भावना पर ही शक किये जाने लायक परिस्थितियॉ मौजूद हो गई है।
सरकारी ऑकडे बताते है कि आज देशा में लगभग पांच लाख एम.बी.बी.एस.डॉक्टर्स और करीब इतने ही आयुवेग्द, होमियो चिकित्सा और अन्य प्रणालियों के डॉक्टर है। स्कूलों के सबसे मेघावी छात्र डॉक्टरी की ओर जाते है। परीक्षाओं की रैट रेस में आगे बने रहना, इसके लिये मेहलत और पैसे खर्च करना और डॉक्टरी के पढाई के दौरान भी वही मेहलत बनाये कोई मामूली बात नहीं है। साथ में परिवार का और समाज का भी काफी पैसा खर्च करके ही यह शिक्षा हासिल होती है। अब समाज के खर्च की बात कोई क्यों सोचे? लेकिन परिवार की लागत की पूरी-पूरी वसूली तो होनी ही चाहिये। और फिर जब उन्हें भी यह सर्टिफिकेट हासिल है कि वे समाज के सबसे अधिक मेघवी, मेहनती और विद्वान संवर्ग मे है। तो क्यों न पैसा, प्रतिष्ठा, और अन्य सुख-सुविधाओं पर उनका हक माना जाय? वह भी तब, जब कि वह डॉक्टर दिन रात मेहनत करने के लिये भी तैयार है। इस प्रकार आजकल जब डॉक्टर्स बैंक बैलेन्स के पीछे भागते दीखते हैं। तो उनके पास जस्टिफिकेशन भी होता है। यही कारण है कि डॉक्टरों में सेवा भावना विदा लेकर व्यावसायिकता की भावना आ चुकी है और होड़ लगाकर बितारों से पैसा वसूल किया जा रहा है।
कोई बड़ा मेघावी छात्र सर्जन बनता है। तुरंत अपना अस्पताल खड़ा कर देता है। उस बिल्डिंग का भी अपना ही एक अर्थशास्त्र होता है। हर दिन अमुक-अमुक ऑपरेशन न हो पायें तो बिल्डिंग का खर्चा नहीं निकलेगा। फिर यह सोच गैर लोगू हो जाता है कि पेशंट की वाकई में ऑपरेशन की जरुरत है या नहीं। या यदि किसी पेशट को अब भी अस्पताल में रखना जरुरी है लेकिन उसे वापस भेज दिया जायेगा क्यांकि किसी ऑपरेशन के पेशंट के लिये खाली कमरा चाहिये होता है।
कोई और मेघावी डॉक्टर है - पैथॅलॉजिस्ट है। चालीस-पचास लाख का नया उपकरण लाकर वह अपनी लैब खोलता है। अब इस मशीनी लागत का हर दिन का ब्याज ही दो हजार रुपये के आसपास है। वहॉ ज्यादा केसेस चाहिये हों तो जनरल प्रैक्टीशनर का सहयोग चाहिये। वह कहे कि फलो-फलो टेस्ट किये बगैर मैं रोग निदान नहीं कर सकता और दवाई नहीं दे सकता। इसके लिये हर रेफर्ड केस के पीछे प्रतिशत का जनरल प्रॅक्टीशनर को पहुँचाया जाता है। वह चाहे ऍलोपैथी का हो या आयुर्वेद का या होमियोपैथी का और तरीके है। मरीज को कहा जाता है कि फलों ऍण्टीबायोटिक अच्छा नहीं - इसकी - जगह वह दूसरा ही लेना। इस प्रकार दूसरी दवाई की मार्केटिंग भी ये धडल्ले से करते रहते है। इस बीच नई दवा की जानकारी कितनी मालूम होती है? केवल वही जो मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव ने बताई हो, और जो उसे कंपनी ने बनाई हो।
ऐसे चित्र आये दिन देखे जाते है। ऐसा नहीं कि हर डाक्टर गलत भावना से ही मरीज को सजाह देता हो - शायद आधे डॉक्टर्स सही हो। लेकिन मरीज को उनकी पहचान कैसे हो? क्योंकि रोग के विषय में जानकारी, समझ और अगली सलाह देने के सारे हक डॉक्टर के ही पास होते है।
आप डॉक्टर से ज्यादा पूछताछ भी नहीं कर सकते उनके अहंकार को ठेस पहुँचती है। उनका उत्तर होगा - डॉक्टर आप है। या हम? चुपचाप कहे मुताबिक कीजिये अर्थात् आप यदि पेशंट है। तो आप अज्ञानी ही है, वैसे चाहे पढ़े लिखें हो पर मेडिकल लेंग्वेज समझने के - हिसाब से तो अज्ञानी ही हुए। फिर वह डॉक्टर जो दिन में पांच दस हजार कमा लेता है। उसके एक मिनट की कीमत भी चार-पॉच सौ रुपये होगी, वह क्योंकर आपको समझाने के लिए अपना एक भी मिनट जाया करें। और अब तो ग्राहक मंच भी है। यदि आप कुछ जानकारी रखते हों अपने विषय में, डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर क्यों रिस्क लें? इन सब कारणों से डॉक्टर पेशंट के हित को प्राथमिकता नहीं
देता उसकी प्राथमिकता होती है अपनी कमाई, अपना अहंकार बडप्पन और कोर्ट से अपना बचाव। फिर पेशंट का निरर्थक आपॅरेशन टालने के लिये या उसकी अनावश्यक दवाइयाँ और अनावश्यक टैस्ट्स रोने के लिये डॉक्टर कुछ नहीं करना। कई बार इलाज के दौरान मरीज को किसी दवाई के प्रति ऍलर्जी पैदा हो जाती है, पर उसे नही समझाया जाता कि भविष्य में उसें कौनसी दवाइयाँ टालनी है। यहाँ तक कि उसके केस रिपोर्टस भी उसे नहीं दिये जाते - उन्हें अस्पताल का प्रॉपर्टी कहकर रख लिया जाता है। यदि किसी पेशंट को चार वर्ष बाद या उसी समय भी दूसरे डॉक्टर की सलाह लेनी हो तो उसे उन रिपोर्टस् का उपयोग नहीं करने दिया जाता। यह है हमारे अस्पतालों की नैतिकता का मापदण्ड। सौभाग्य से हाल ही में हाई कोर्ट ने एस केस में फैसला दिया है कि मरीज के मागने पर अस्पताल को उसके टेस्ट रिपोर्ट उसे देने होंगें। यह अभी देखना बाकी है कि कितने बीमार इस फैसले का फायदा उठा पा रहे है।
यह सब लिखने का यह उद्देश्य नहीं कि डॉक्टरी पेशे के काले किस्से को भडकीले ढंग से प्रस्तुत किया जाय। केवल यही स्पष्ट करना है कि आज डॉक्टरी पेशे में व्यावसायिकता और बैंक बैलेन्स का विचार अवश्यंभावी बन गया है। इसके लिये आवश्यक सारी तिकड़मबाजी मेहलत और लागत लगाने का पैसा, सब डॉक्टरों के पास है। और जस्टिफिकेशन भी है। फिर जो ये हमारे अति बुद्धिमान छात्र डॉक्टर होते चलते है। उन्हें बैंक बैलेन्स के पीछे भागने में कोई संकोच नहीं होता। यह हुआ व्यावसायिक डॉक्टरों का पक्ष।
पिसा जाता है बेचारा मरीज और उसके रिश्तेदार। व्यावसायिकता की ढाल की आड़ में उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को डॉक्टर लोग नहीं निभाते मेरा और कई सैकड़ो लोगों का मानना है कि मरीज के रोग के बाबत खुद उससे और उसके रिश्तेदारों से विस्तृत चर्चा करना डॉक्टर का परम और प्रथम कर्तव्य है लेकिन यह सिद्धांत डाक्टरों को तीन प्रकार से खलता है। एक तो उनका सुपिरिऑरिटी का अंहकार चोट खा जाता है यदि मरीज अपने विषय में कुछ करना या जानना चाहे। दूसरे उनका कमाई का समय खर्च हो जाता है, तीसरे यह भी डर है कि जानकारी लेने के दौरान उनकी कोई गलती मरीज ने पकड़ ली तो कन्ज्यूमर कोर्ट में उन्हें खींचा जा सकता है।
कई बार इससे थलग डॉक्टर्स भी देखे जाते है। जो मरीज को अनावश्यक टेस्ट तो करवाये अनावश्यक ऑपरेशन की सलाह न दे लेकिन वे भी मरीज से चर्चा करने से कतराते। उनके लिये पूरा आदर भव रखकर भी कहना पडेगा कि मैं केवल उनकी सेवा भावना से ही सहमत हूँ सेवा की दिशा से नहीं। इसका भी एक महत्वपूर्ण कारण है।
यह प्रायः देखा गया है कि अच्छे अच्छे सेवाभावी डॉक्टर्स भी अपने डॉक्टरी झाम को लेकर एक अहंकार या कहिये कि एक बडप्पन का भाव पाल लेते है। और उस रौ में यह भूल जाते है कि सामने वाला हर रोगी अपने आप में एक बुद्धिशाली व्यक्ति है जिसके जीवन और जीवन्नता ने उसे भी बहुत कुछ सिखाया होता है। उसके अपने अनुभव के आधार पर जो ज्ञान उसके पास संचित होता है उसे नकारकर इलाज नहीं किया जा सकता। इसीलिये डॉक्टर की रोगी से विस्तृत चर्चा होनी आवश्यक है। डॉक्टर केवल सेवाभावी न हो, वह एक अच्छा शिक्षक और एक अच्छा विद्यार्थी भी हो। उसका प्रयत्न हो कि औरों के पास भी छोटे पैमाने पर ही सही मेडिकल ज्ञान बढ़े न कि उनके संचित अनुभव और ज्ञान का उपहास हो।
एक उदाहरण देखें। मैंने बचपन में कभी नानी से सुना कि हरसिंगार के पत्ते चबाने से बुखार उतर जाता है। अभी चल कर इसका उपयोग हमारे घर मे जमकर किया गया। अब हर बार तो नहीं, लेकिन कई बार हरसिंगार की पत्त्िायाँ खाने से बुखार उतर गया है। अब अगर आप डॉक्टर से कहें कि साधारण ही बुखार हो तो बताइये, फिर हम आपकी दवा खाने के बजाय हरसिंगार की पत्त्िायाँ ही खा लेगें तो उसकी प्रतिक्रिया क्यों होगी? बेहद गुस्से की - आप यहाँ आये ही क्यों?
गुस्सा उतर चुकने के बाद ऍलोपैथी डॉक्टर ही तो कहेगा - यह बकवास है, अंधश्रद्धा है, आप ही जैसे लोगों के कारण हिन्दुस्तान में इतना अस्वास्थ्य है इत्यादि। और आयुर्वेद का वैद्य भ्ंी हो तो उसकी भी प्रतिक्रिया होगी तो हम उनके लिये अच्छी और पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं करापा रहे है। और दूसरी ओर उनका स्वास्थ्य विषयों का ज्ञान बढ़े इसके लिये भी हम कुछ नहीं कर रहे। जब भी पैसा उनलब्ध हुआ और चुन्ना पडा कि हम उनके लिये कौन सी नीति उपनीयेंगे अधिक स्वास्थ्य सेवा देने की अधिक स्वास्थ्य शिक्षा देने की तो हर बार हमने स्वास्थ्य सेवा को ही प्रधानता दी
नतीजा यह है कि आज वह स्वास्थ्य सेवा हर तरह से लडखड़ा रही है और गरीब तथा पिछड़े इलाकों का समाज स्वास्थ्य सेवा के साथ साथ स्वस्थ्य शिक्षा से भी वंचित हो रहा है। आज अमारे दुर्गम और पिछड़े इलाके प्यादा मात्रा में डॉक्टरों पर निर्भर है जबकि वहॉ डॉक्टर उपलब्ध ही नहीं है। फिर क्यों उन्हें कमसे कम इतना नहीं सिखा पाते है कि चलो इस बीमारी में डॉक्टर के न मिलने तक कम से कम ये ये बातें करते रहना। यह शिक्षा देने की जिम्मेदारी डॉक्टरों की है, जिसे उन्होंने पूरी तरह टाल दिया है और इसके लिये लज्जिात भी नहीं है।
मुझे एक प्रसंग याद आता है। एक सज्जान के घर एक सुविख्यात प्राईवेट डॉक्टर से परिचय हुआ। यह सुनकर कि मैं IAS हूँ और कलेक्टर हूँ - उन्होंने कहा - आप IAS अधिकारी बड़ी गलत नीतियाँ बनाते है। 'सो कैसे' तो उनका उत्तर था - देखिये गाँव गाँव में जो बीमारियाँ और महामारियों फैलती है उनका मुख्य कारण होता है पीने का दूषित पानी।
और आप लोग पर्याप्त और शुद्ध पानी मुहैया करने पर अधिक जोर देने के बजाय ज्यादा नये PHU खोलने की नीति बनाते है। अरे PHU में डॉक्टर जायेगा भी तो दूषित पानी से कैसे लड़ेगा? बात बिल्कुल सही कही डॉक्टर साहब ! यह बात तो एक डॉक्टर ही ज्यादा अच्छी तरह समझ सकता है, फिर आज तक कितने डॉक्टरों ने बुलन्द आवाज उठाकर माँग की है कि PHU का बजट कम करके अच्छे पानी की सुविधा के लिये बजट बढ़ाया जाय? वैसे हाल में कुछ डॉक्टर धीमी आवाज में यह कह रहे है। लेकिन वे सारे Public Health Systems के डॉक्टर्स है। जिन्हें डॉक्टरों की जमात में सबसे निचले दर्जे का माना जाता है।
एक प्रसंग और है। पिछले चार वर्षो से महाराष्ट्र के आदिवासी भागों में मलेरिया महामारी की तरह आता है और हाहाःकार मचाता हुआ तीन चार महीनों के बाद कम हो जाता है। ऐसे हर मौके पर पाया गया कि ग्रामीण अस्तताल और जन स्वास्थ्य केंद्र इस संकट के आगे ढुलमुल हो गये है। एक छोटा सा आवश्यक काम होता है कि रोगी के खून की जॉच कर मलेरिया पॉजिटिव है या नहीं और यदि है तो कौन सा पॉल्सिफेरम या साधारण..इसकी जॉच की जाय। इसमें टैक्निकल स्टाफ कम पड़ जाता है। सीधी सी बात है कि क्यों नही उसी इलाके के नौंवी और ग्यारहवी के छात्रों को यह सिखाया जाय कि रोगी की अंगुली से एक बूंद खून कैसे जमा किया जाता है और स्लाइड को माइक्रोस्कोप में कैसे टेस्ट किया जाता है? टेस्ट करने में पांच मिनट से अधिक समय नहीं लगताऔर यूँ भी इन छात्रों की पढ़ाई में स्लाइड बनाकर उनके निरीक्षण की बात शामिल है। फिर मलेरिया की जॉच के लिए उनका उपयोग क्यों न किया जाय? यदि ऐसा हो सके तो स्टाफ की कमीके कारण जो असुविधा है वह समाप्त हो सकती है।
शायद यह परावलंबिता शहरी जीवन के लिये ठीक भी हो। लेकिन गांव के इलाके में, आदिवासी और दुर्गम भागों में क्या हो? एक ओर कि सीधे पेड को तोडकर हरसिंगार संस्कृत नाम - परिजातक के पत्ते खाने के बजाय आप परिजातक वटी खाइये - आयुर्वेद में पश्य, कुपथ्य का विचार बहुत होता है, सब है। - आप वही लीजिये - अर्थात् रेडिमेड ! धंधे की वजह से करोडों लोगों के पास रोग और स्वास्थ्य के विषय में जो भी ज्ञान है उसका विचार होने के बजाय उसका हम खात्मा कर रहे है। बुद्धिमान अलोपैथी की डॉक्टर हो और हरसिंगार की पत्त्िायों से बुखार उतरने की बात उसुनकर यदि उसकी उत्सुकता जागृत नहीं होती, यदि वह नहीं सोच पाता कि मैं भी अपने चार पांच रोगियों के लिये यह जॉचकर देखूँ कुछ आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़कर देखूँ।
-----------------------------------------------------------------------
इक्कीसवीं सदी के पहले ही देश की जनसंख्या सौ करोड़ के जादुई अंक को छू लेगी। जैसी दिशाहीन बढ़ती हुई हमारी आबादी है, वैसी ही दिशाहीन फैलती हुई हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ भी है। किसी जमाने में डॉक्टरी का पेशा सेवाव्रत माना जाता था। ऐसे कई आदर्शवादी डॉक्टरों को नजदीक से देखने पर भी, तब भी मेरी मान्यता यह थी कि शायद उनकी सेवा की दिशा गलत है। आज तो डॉक्टरों की सेवा भावना पर ही शक किये जाने लायक परिस्थितियॉ मौजूद हो गई है।
सरकारी ऑकडे बताते है कि आज देशा में लगभग पांच लाख एम.बी.बी.एस.डॉक्टर्स और करीब इतने ही आयुवेग्द, होमियो चिकित्सा और अन्य प्रणालियों के डॉक्टर है। स्कूलों के सबसे मेघावी छात्र डॉक्टरी की ओर जाते है। परीक्षाओं की रैट रेस में आगे बने रहना, इसके लिये मेहलत और पैसे खर्च करना और डॉक्टरी के पढाई के दौरान भी वही मेहलत बनाये कोई मामूली बात नहीं है। साथ में परिवार का और समाज का भी काफी पैसा खर्च करके ही यह शिक्षा हासिल होती है। अब समाज के खर्च की बात कोई क्यों सोचे? लेकिन परिवार की लागत की पूरी-पूरी वसूली तो होनी ही चाहिये। और फिर जब उन्हें भी यह सर्टिफिकेट हासिल है कि वे समाज के सबसे अधिक मेघवी, मेहनती और विद्वान संवर्ग मे है। तो क्यों न पैसा, प्रतिष्ठा, और अन्य सुख-सुविधाओं पर उनका हक माना जाय? वह भी तब, जब कि वह डॉक्टर दिन रात मेहनत करने के लिये भी तैयार है। इस प्रकार आजकल जब डॉक्टर्स बैंक बैलेन्स के पीछे भागते दीखते हैं। तो उनके पास जस्टिफिकेशन भी होता है। यही कारण है कि डॉक्टरों में सेवा भावना विदा लेकर व्यावसायिकता की भावना आ चुकी है और होड़ लगाकर बितारों से पैसा वसूल किया जा रहा है।
कोई बड़ा मेघावी छात्र सर्जन बनता है। तुरंत अपना अस्पताल खड़ा कर देता है। उस बिल्डिंग का भी अपना ही एक अर्थशास्त्र होता है। हर दिन अमुक-अमुक ऑपरेशन न हो पायें तो बिल्डिंग का खर्चा नहीं निकलेगा। फिर यह सोच गैर लोगू हो जाता है कि पेशंट की वाकई में ऑपरेशन की जरुरत है या नहीं। या यदि किसी पेशट को अब भी अस्पताल में रखना जरुरी है लेकिन उसे वापस भेज दिया जायेगा क्यांकि किसी ऑपरेशन के पेशंट के लिये खाली कमरा चाहिये होता है।
कोई और मेघावी डॉक्टर है - पैथॅलॉजिस्ट है। चालीस-पचास लाख का नया उपकरण लाकर वह अपनी लैब खोलता है। अब इस मशीनी लागत का हर दिन का ब्याज ही दो हजार रुपये के आसपास है। वहॉ ज्यादा केसेस चाहिये हों तो जनरल प्रैक्टीशनर का सहयोग चाहिये। वह कहे कि फलो-फलो टेस्ट किये बगैर मैं रोग निदान नहीं कर सकता और दवाई नहीं दे सकता। इसके लिये हर रेफर्ड केस के पीछे प्रतिशत का जनरल प्रॅक्टीशनर को पहुँचाया जाता है। वह चाहे ऍलोपैथी का हो या आयुर्वेद का या होमियोपैथी का और तरीके है। मरीज को कहा जाता है कि फलों ऍण्टीबायोटिक अच्छा नहीं - इसकी - जगह वह दूसरा ही लेना। इस प्रकार दूसरी दवाई की मार्केटिंग भी ये धडल्ले से करते रहते है। इस बीच नई दवा की जानकारी कितनी मालूम होती है? केवल वही जो मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव ने बताई हो, और जो उसे कंपनी ने बनाई हो।
ऐसे चित्र आये दिन देखे जाते है। ऐसा नहीं कि हर डाक्टर गलत भावना से ही मरीज को सजाह देता हो - शायद आधे डॉक्टर्स सही हो। लेकिन मरीज को उनकी पहचान कैसे हो? क्योंकि रोग के विषय में जानकारी, समझ और अगली सलाह देने के सारे हक डॉक्टर के ही पास होते है।
आप डॉक्टर से ज्यादा पूछताछ भी नहीं कर सकते उनके अहंकार को ठेस पहुँचती है। उनका उत्तर होगा - डॉक्टर आप है। या हम? चुपचाप कहे मुताबिक कीजिये अर्थात् आप यदि पेशंट है। तो आप अज्ञानी ही है, वैसे चाहे पढ़े लिखें हो पर मेडिकल लेंग्वेज समझने के - हिसाब से तो अज्ञानी ही हुए। फिर वह डॉक्टर जो दिन में पांच दस हजार कमा लेता है। उसके एक मिनट की कीमत भी चार-पॉच सौ रुपये होगी, वह क्योंकर आपको समझाने के लिए अपना एक भी मिनट जाया करें। और अब तो ग्राहक मंच भी है। यदि आप कुछ जानकारी रखते हों अपने विषय में, डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर क्यों रिस्क लें? इन सब कारणों से डॉक्टर पेशंट के हित को प्राथमिकता नहीं
देता उसकी प्राथमिकता होती है अपनी कमाई, अपना अहंकार बडप्पन और कोर्ट से अपना बचाव। फिर पेशंट का निरर्थक आपॅरेशन टालने के लिये या उसकी अनावश्यक दवाइयाँ और अनावश्यक टैस्ट्स रोने के लिये डॉक्टर कुछ नहीं करना। कई बार इलाज के दौरान मरीज को किसी दवाई के प्रति ऍलर्जी पैदा हो जाती है, पर उसे नही समझाया जाता कि भविष्य में उसें कौनसी दवाइयाँ टालनी है। यहाँ तक कि उसके केस रिपोर्टस भी उसे नहीं दिये जाते - उन्हें अस्पताल का प्रॉपर्टी कहकर रख लिया जाता है। यदि किसी पेशंट को चार वर्ष बाद या उसी समय भी दूसरे डॉक्टर की सलाह लेनी हो तो उसे उन रिपोर्टस् का उपयोग नहीं करने दिया जाता। यह है हमारे अस्पतालों की नैतिकता का मापदण्ड। सौभाग्य से हाल ही में हाई कोर्ट ने एस केस में फैसला दिया है कि मरीज के मागने पर अस्पताल को उसके टेस्ट रिपोर्ट उसे देने होंगें। यह अभी देखना बाकी है कि कितने बीमार इस फैसले का फायदा उठा पा रहे है।
यह सब लिखने का यह उद्देश्य नहीं कि डॉक्टरी पेशे के काले किस्से को भडकीले ढंग से प्रस्तुत किया जाय। केवल यही स्पष्ट करना है कि आज डॉक्टरी पेशे में व्यावसायिकता और बैंक बैलेन्स का विचार अवश्यंभावी बन गया है। इसके लिये आवश्यक सारी तिकड़मबाजी मेहलत और लागत लगाने का पैसा, सब डॉक्टरों के पास है। और जस्टिफिकेशन भी है। फिर जो ये हमारे अति बुद्धिमान छात्र डॉक्टर होते चलते है। उन्हें बैंक बैलेन्स के पीछे भागने में कोई संकोच नहीं होता। यह हुआ व्यावसायिक डॉक्टरों का पक्ष।
पिसा जाता है बेचारा मरीज और उसके रिश्तेदार। व्यावसायिकता की ढाल की आड़ में उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को डॉक्टर लोग नहीं निभाते मेरा और कई सैकड़ो लोगों का मानना है कि मरीज के रोग के बाबत खुद उससे और उसके रिश्तेदारों से विस्तृत चर्चा करना डॉक्टर का परम और प्रथम कर्तव्य है लेकिन यह सिद्धांत डाक्टरों को तीन प्रकार से खलता है। एक तो उनका सुपिरिऑरिटी का अंहकार चोट खा जाता है यदि मरीज अपने विषय में कुछ करना या जानना चाहे। दूसरे उनका कमाई का समय खर्च हो जाता है, तीसरे यह भी डर है कि जानकारी लेने के दौरान उनकी कोई गलती मरीज ने पकड़ ली तो कन्ज्यूमर कोर्ट में उन्हें खींचा जा सकता है।
कई बार इससे थलग डॉक्टर्स भी देखे जाते है। जो मरीज को अनावश्यक टेस्ट तो करवाये अनावश्यक ऑपरेशन की सलाह न दे लेकिन वे भी मरीज से चर्चा करने से कतराते। उनके लिये पूरा आदर भव रखकर भी कहना पडेगा कि मैं केवल उनकी सेवा भावना से ही सहमत हूँ सेवा की दिशा से नहीं। इसका भी एक महत्वपूर्ण कारण है।
यह प्रायः देखा गया है कि अच्छे अच्छे सेवाभावी डॉक्टर्स भी अपने डॉक्टरी झाम को लेकर एक अहंकार या कहिये कि एक बडप्पन का भाव पाल लेते है। और उस रौ में यह भूल जाते है कि सामने वाला हर रोगी अपने आप में एक बुद्धिशाली व्यक्ति है जिसके जीवन और जीवन्नता ने उसे भी बहुत कुछ सिखाया होता है। उसके अपने अनुभव के आधार पर जो ज्ञान उसके पास संचित होता है उसे नकारकर इलाज नहीं किया जा सकता। इसीलिये डॉक्टर की रोगी से विस्तृत चर्चा होनी आवश्यक है। डॉक्टर केवल सेवाभावी न हो, वह एक अच्छा शिक्षक और एक अच्छा विद्यार्थी भी हो। उसका प्रयत्न हो कि औरों के पास भी छोटे पैमाने पर ही सही मेडिकल ज्ञान बढ़े न कि उनके संचित अनुभव और ज्ञान का उपहास हो।
एक उदाहरण देखें। मैंने बचपन में कभी नानी से सुना कि हरसिंगार के पत्ते चबाने से बुखार उतर जाता है। अभी चल कर इसका उपयोग हमारे घर मे जमकर किया गया। अब हर बार तो नहीं, लेकिन कई बार हरसिंगार की पत्त्िायाँ खाने से बुखार उतर गया है। अब अगर आप डॉक्टर से कहें कि साधारण ही बुखार हो तो बताइये, फिर हम आपकी दवा खाने के बजाय हरसिंगार की पत्त्िायाँ ही खा लेगें तो उसकी प्रतिक्रिया क्यों होगी? बेहद गुस्से की - आप यहाँ आये ही क्यों?
गुस्सा उतर चुकने के बाद ऍलोपैथी डॉक्टर ही तो कहेगा - यह बकवास है, अंधश्रद्धा है, आप ही जैसे लोगों के कारण हिन्दुस्तान में इतना अस्वास्थ्य है इत्यादि। और आयुर्वेद का वैद्य भ्ंी हो तो उसकी भी प्रतिक्रिया होगी तो हम उनके लिये अच्छी और पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं करापा रहे है। और दूसरी ओर उनका स्वास्थ्य विषयों का ज्ञान बढ़े इसके लिये भी हम कुछ नहीं कर रहे। जब भी पैसा उनलब्ध हुआ और चुन्ना पडा कि हम उनके लिये कौन सी नीति उपनीयेंगे अधिक स्वास्थ्य सेवा देने की अधिक स्वास्थ्य शिक्षा देने की तो हर बार हमने स्वास्थ्य सेवा को ही प्रधानता दी
नतीजा यह है कि आज वह स्वास्थ्य सेवा हर तरह से लडखड़ा रही है और गरीब तथा पिछड़े इलाकों का समाज स्वास्थ्य सेवा के साथ साथ स्वस्थ्य शिक्षा से भी वंचित हो रहा है। आज अमारे दुर्गम और पिछड़े इलाके प्यादा मात्रा में डॉक्टरों पर निर्भर है जबकि वहॉ डॉक्टर उपलब्ध ही नहीं है। फिर क्यों उन्हें कमसे कम इतना नहीं सिखा पाते है कि चलो इस बीमारी में डॉक्टर के न मिलने तक कम से कम ये ये बातें करते रहना। यह शिक्षा देने की जिम्मेदारी डॉक्टरों की है, जिसे उन्होंने पूरी तरह टाल दिया है और इसके लिये लज्जिात भी नहीं है।
मुझे एक प्रसंग याद आता है। एक सज्जान के घर एक सुविख्यात प्राईवेट डॉक्टर से परिचय हुआ। यह सुनकर कि मैं IAS हूँ और कलेक्टर हूँ - उन्होंने कहा - आप IAS अधिकारी बड़ी गलत नीतियाँ बनाते है। 'सो कैसे' तो उनका उत्तर था - देखिये गाँव गाँव में जो बीमारियाँ और महामारियों फैलती है उनका मुख्य कारण होता है पीने का दूषित पानी।
और आप लोग पर्याप्त और शुद्ध पानी मुहैया करने पर अधिक जोर देने के बजाय ज्यादा नये PHU खोलने की नीति बनाते है। अरे PHU में डॉक्टर जायेगा भी तो दूषित पानी से कैसे लड़ेगा? बात बिल्कुल सही कही डॉक्टर साहब ! यह बात तो एक डॉक्टर ही ज्यादा अच्छी तरह समझ सकता है, फिर आज तक कितने डॉक्टरों ने बुलन्द आवाज उठाकर माँग की है कि PHU का बजट कम करके अच्छे पानी की सुविधा के लिये बजट बढ़ाया जाय? वैसे हाल में कुछ डॉक्टर धीमी आवाज में यह कह रहे है। लेकिन वे सारे Public Health Systems के डॉक्टर्स है। जिन्हें डॉक्टरों की जमात में सबसे निचले दर्जे का माना जाता है।
एक प्रसंग और है। पिछले चार वर्षो से महाराष्ट्र के आदिवासी भागों में मलेरिया महामारी की तरह आता है और हाहाःकार मचाता हुआ तीन चार महीनों के बाद कम हो जाता है। ऐसे हर मौके पर पाया गया कि ग्रामीण अस्तताल और जन स्वास्थ्य केंद्र इस संकट के आगे ढुलमुल हो गये है। एक छोटा सा आवश्यक काम होता है कि रोगी के खून की जॉच कर मलेरिया पॉजिटिव है या नहीं और यदि है तो कौन सा पॉल्सिफेरम या साधारण..इसकी जॉच की जाय। इसमें टैक्निकल स्टाफ कम पड़ जाता है। सीधी सी बात है कि क्यों नही उसी इलाके के नौंवी और ग्यारहवी के छात्रों को यह सिखाया जाय कि रोगी की अंगुली से एक बूंद खून कैसे जमा किया जाता है और स्लाइड को माइक्रोस्कोप में कैसे टेस्ट किया जाता है? टेस्ट करने में पांच मिनट से अधिक समय नहीं लगताऔर यूँ भी इन छात्रों की पढ़ाई में स्लाइड बनाकर उनके निरीक्षण की बात शामिल है। फिर मलेरिया की जॉच के लिए उनका उपयोग क्यों न किया जाय? यदि ऐसा हो सके तो स्टाफ की कमीके कारण जो असुविधा है वह समाप्त हो सकती है।
यदि कोई डॉक्टर सुनता है कि हरसिंगारकी पत्तियाँ चबानेसे बुखार उतरता है और
उसकी जिज्ञासा नही जागती तोमेरी समझ में वह अच्छा डॉक्टर हो ही नहीं सकता क्यांकि रोग जिज्ञासा और औपध जिज्ञासा इन दो गुणों को उसने भुला दिया है। वेद्य के लिए यह ज्ञान कोई नई बात नहीं। लेकिन उसे भी यह विचार करना चाहिए और रोगी से चार्चा करनी चाहिये कि किस रोग में किस कारण से केवल हरसिंगार के पत्ते पर्याप्त नहीं होते, किस किस प्रकार के अन्य रोग में क्या क्या पूरक औपधियाँ चाहियें इसके बजाए यदि वह रेडिमेड पारिजातक वटि खाने की सलाह देता है तो वह रोगी के ज्ञान की बढ़ावा नहीं देता बल्कि उसे परावलंबी ही बनाता है।
शायद यह परावलंबिता शहरी जीवन के लिये ठीक भी हो। लेकिन गांव के इलाके में, आदिवासी और दुर्गम भागों में क्या हो? एक ओर कि सीधे पेड को तोडकर हरसिंगार संस्कृत नाम - परिजातक के पत्ते खाने के बजाय आप परिजातक वटी खाइये - आयुर्वेद में पश्य, कुपथ्य का विचार बहुत होता है, सब है। - आप वही लीजिये - अर्थात् रेडिमेड ! धंधे की वजह से करोडों लोगों के पास रोग और स्वास्थ्य के विषय में जो भी ज्ञान है उसका विचार होने के बजाय उसका हम खात्मा कर रहे है। बुद्धिमान अलोपैथी की डॉक्टर हो और हरसिंगार की पत्त्िायों से बुखार उतरने की बात उसुनकर यदि उसकी उत्सुकता जागृत नहीं होती, यदि वह नहीं सोच पाता कि मैं भी अपने चार पांच रोगियों के लिये यह जॉचकर देखूँ कुछ आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़कर देखूँ।
-----------------------------------------------------------------------
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
13 बटमारी के हिस्सेदार--पूरा है
बटमारी के हिस्सेदार
दै. मुंबई महानगर (१९९२-९३ में कभी)
वाणिज्य राज्यमंत्री ने फेयरग्रोथ कंपनी में खरीदे शेयरों के कारण इस्तीफा दे दिया तो एक नयी बहस की शुरूआत हो गयी। लोग पुछने लगे कि किसी कंपनी ने गैरकानूनी ढंग से मुनाफ़ा कमाया हो और उस कंपनी के मुनाफ़े के कारण शेयर होल्डरों को डिविडेंड मिलता हो या उनके शेयरों के दाम बढ़ते हों तो इस मुनाफ़े को स्वीकार करने में क्यों कोई दोष माना जाय ? आखिर कंपनी के कामकाज के तरीकों पर या सिद्धांतों पर शेयर होल्डर का नियंत्रण नहीं के बराबर होता है। खासकर जब लाखों शेयरों की तुलना में उसके शेयरों की संख्या केवल सैकड़ों या हजारों में ही होता है। प्रश्न है कि क्या यह दलील सही मानी जा सकती है ? इसके लिए हमें अर्थशास्त्र के कुछ मूलभूत सिद्धांतों पर नजर डालनी पड़ेगी।
किसी भी उत्पादन के लिए पूंजी एक महत्वपूर्ण घटक होता है। इसके अलावा चाहिए जमीन, कच्ची सामग्री और म.जदूर। लेकिन इन सबसे पहले चाहिए एक अच्छा दिमाग, तकनीकी ज्ञान, उत्पादन से हो सकने वाले मुनाफ़े का सही अंदाज लगा पाने की क्षमता और इस काम में कूद पड़ने के लिए निर्णय ले पाने का साहस ! ये अंतिम गुण जिस उद्योजक में होंगे वही पूंजी जुटाने की बात सोचेगा। उसकी अपनी पूंजी कम हो तो शेयरों के माध्यम से पूंजी जुटायेगा। शेयरों की अधिक से अधिक बिक्री हो इसलिए वह अपनी योजना और उससे होने वाले मुनाफ़े का अनुमान लोगों के सामने रखेगा। लोग उसका प्रस्ताव परखेंगे। यह जानना चाहेंगे कि उसके कारखाने का मैनेजमेंट अच्छा होगा या नहीं। खासकर यदि उसने पहले किसी उद्योग में अच्छा मुनाफ़ा कमाया हो तो लोग उसकी जांच परख की क्षमता और उद्योग चला सकने की क्षमता पर भरोसा रखेंगे और उसकी नयी प्रस्तावित कंपनी में अपनी भी पूंजी लगायेंगे। किसी नये उद्योग का पब्लिक इशू जब ओवर सब्सक्राइब हो जाता है तो इसका अर्थ होता है कि लोगों को उस उद्योजक के या उसकी कंपनी के सफल होने की आशा है। इसलिए उन्होंने अपनी पूंजी भी उसके साथ लगायी ताकि मुनाफ़े और शेयर एप्रीसिएशन के लाभ में उनका भी हिस्सा रहे।
जब सामान्य आदमी किसी उद्योग में पूंजी लगाता है तो माना जाता है कि उस उद्योग के कारण बढ़ने वाली उत्पादकता और राष्ट्रीय संपत्त्िा की बढ़ोतरी में वह हाथ बंटा रहा है। इसी कारण मुनाफ़े में हिस्सा कमाना भी उसका हक माना जायेगा। लेकिन यह है उन देशों की परिस्थिति जहां पिछले दो शतकों में औधोगिक क्रांति हुई। नई-नई मशीनों के आविष्कार हुए, उन मशीनों से उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। लोगों ने नए-नए कल-कारखाने लगाये, देश की उद्योग क्षमता और उद्योग संपत्त्िा बढ़ायी। दुर्भाग्य से हमारा देश उनकी पंक्ति में नहीं बैठाया जा सकता।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से हमारे देश में प्रथा चल पड़ी है कि नयी कंपनी घोषित करना ही काफी है, उसमें अच्छी प्लानिंग करना या अच्छा उत्पादन निकालना या पूरी कार्यक्षमता से कंपनी को चलाना आवश्यक नहीं है। आप पूछेंगे कि भाई उत्पादन न हो तो मुनाफ़ा कहां से आयेगा। इसका उत्तर भी इस प्रथा में है। कंपनी का उद्देश्य जब केवल मुनाफ़ा कमाना ही है, तो हर चीज जाय.ज है वाली कहावत लागू हो जाती है। फिर आप अलग तरीकों से भी मुनाफ़ा कमा सकते हैं -- मसलन आपकी कंपनी टैक्स ही न दे। कहा जाता है कि हर्षद मेहता और उसकी कंपनियों ने अब तक ३००० करोड़ से भी अधिक रुपये का टैक्स छिपाया है। यह तो मुम्बई शहर से वसूल होने वाले कुल टैक्स से भी अधिक है। लेकिन टैक्स छिपाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ानेवाला पहला व्यक्ति हर्षद मेहता हो एसा भी नहीं है। उसके पहले भी कई और नाम सामने आ चुके हैं। मुनाफ़ेखोरी का दूसरा तरीका यह भी है, आपकी कंपनी या आप साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर सरकारी नीतियों को ही अपने हक में यूं घूमा-फिरा लें कि आयात और निर्यात की सुविधा, कम ब्याज दर पर बैंक से कर्ज मिलने की सुविधा या अपनी कंपनी के शेयरों को उछालने के लिए थोड़े समय तक बैंक से पैसे या कर्ज हासिल करने की सुविधा इत्यादि आपको मिलती रहे जो कि अन्य किसी कंपनी को नहीं मिल रही हो। यह मुनाफ़ा उत्पादन से नहीं बल्कि हिसाब की हेरा-फेरी से बढ़ा है, भले ही शेयर मार्केट में इसे स्मार्ट्-नेस का नाम दे दिया गया हो।
अब अर्थशास्त्र का नियम है कि जब वास्तविक उत्पादन के कारण मुनाफ़ा बढ़ रहा तो किसी से कुछ छिने बगैर कंपनी अपनी आय और मुनाफ़ा बढ़ा रही होती है। कंपनी का उत्पादन लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध हो रहा होता है, लेकिन जब उत्पादन करके भी हेरा-फेरी से मुनाफ़ा कमाया जाता है तो किसी की जेब से निकलकर पैसा ''स्मार्ट गाय'' की जेब में जा रहा होता है। आखिर किसकी जेब से पैसा जाता है? उसकी जेब से जिसने अपनी मेहनत की कमाई बैंक में डिपॉजिट की या उछाल आने पर अपनी कमाई से शेयर खरीद लिये, क्योंकि जिन शेयरों को उत्पादन का जोर नहीं है, उन्हें कभी तो गिरना ही है। आज भी स्टेट बैंक का ५०० करोड़ रुपये के घाटे का उदाहरण हम देखें या कराड़ बैंक के डिपॉजिटर्स का नतीजा वही है कि इस घाटे में सामान्य आदमी ही पिसेगा। बैंक के वरिष्ठ अधिकारी तो कई एक करोड़ डकार जायेंगे। किसी एकाध को सजा हो जायेगी बस क्योंकि अपने देश के कानून भी उतने सक्षम नहीं हैं।
देश को सरकार की या शासन की असल जरुरत इसलिए होती है कि एसी हेरा-फेरी को सरकार रोक सके, कानून को और कानूनी प्रक्रिया को सक्षम रखे और आम आदमी के आर्थिक हितों को सुरक्षित रखे। लेकिन आम आदमी से अलग अपने देश में एक ऊंचे तबके का कुनबा है जिसके लोग इस हेरा-फेरी को रोकने के बजाय इसके मुनाफ़े में हाथ बंटाने में विश्र्वास रखते हैं। इसलिए जब फेयरग्रोथ जैसी कंपनी धड़ल्ले से मुनाफ़ा कमाती है तो शेयर होल्डर यह नहीं पूछता कि मुनाफ़ा कहां से आया? कंपनी के तौर-तरीके क्या हैं। वह मुनाफ़े में अपना हिस्सा पाकर संतुष्ट हो जाता है बल्कि कंपनी के लिए दुआ भी करता है। लेकिन यह अब जाहिर है कि फेयरग्रोथ का मुनाफ़ा ईमानदारी से नहीं आया बल्कि यह लूट का मुनाफ़ा ही है। फिर क्या शेयर होल्डर का इस दोष में कोई भी हिस्सा नहीं?
कहते हैं कि ऋषि वाल्मीकि पहले बटमार थे, राह चलतों को लूटकर उनका धन लूटते थे। एक दिन नारद मुनि से सामना हो गया। मुनि ने कहा -- मुझे मारते हो तो मारो, लेकिन यह पाप ही है। जिन घरवालों और रिश्तेदारों की सुख-सुविधा के लिए तुमने यह पाप का रास्ता चुना, वे तुम्हारी लूट से खुश होते हैं, लूट में हिस्सा बंटाते हैं, लेकिन क्या वे तुम्हारे पाप में भी हिस्सा बांटेंगें? जरा पूछकर तो आना। डाकू ने घर जाकर सबसे पूछा तो वे कहने लगे - तुम्हारा पाप तुम्हारे पास, इसका जिम्मा हमपर कैसा? और जब जिम्मा नहीं तो पाप में हमारा हिस्सा भी क्यों करें? इस पर वाल्मीकि का मोहभंग हुआ और वो बटमारी छोड़कर तपस्या करने चले गये। हर्षद मेहता या फेयरग्रोथ जैसी नावों पर सवार हजारों की संख्या में शेयरों की खरीद-फ़रोख्त करने वाले इस कलयुग में वाल्मीकि के रिश्तेदार ही हैं। उन्हें इससे क्या मतलब कि कंपनी वाकई कुछ उत्पादन कुछ काम करती है या हेरा-फेरी! वह तो यही कहेंगें कि हमने इतनी पूंजी लगायी। कंपनी ने इतने डिविडेंड दिये और शेयर इतने चढ़े, इससे हमें इतना मुनाफ़ा हुआ बस! और इन हेरा-फेरी प्रवीण कंपनियों की मदद से अपना ढोल पिटवाते लोग भी कहेंगें कि देखो-देखो, पूछो इन शेयर होल्डरों से।
लेकिन जो जानता है कि बिना उत्पादन के देश की संपत्त्िा नहीं बढ़ती और जिसे इस देश की चिंता है, यहां के उत्पादन की चिंता है, या जिस पर यह चिंता करने की जिम्मेदारी है, वह जानता है कि फेयरग्रोथ जैसी कंपनी के मुनाफ़े में हिस्सा बांटने पर वह किस दोष की श्रेणी में आता है।
दै. मुंबई महानगर (१९९२-९३ में कभी)
वाणिज्य राज्यमंत्री ने फेयरग्रोथ कंपनी में खरीदे शेयरों के कारण इस्तीफा दे दिया तो एक नयी बहस की शुरूआत हो गयी। लोग पुछने लगे कि किसी कंपनी ने गैरकानूनी ढंग से मुनाफ़ा कमाया हो और उस कंपनी के मुनाफ़े के कारण शेयर होल्डरों को डिविडेंड मिलता हो या उनके शेयरों के दाम बढ़ते हों तो इस मुनाफ़े को स्वीकार करने में क्यों कोई दोष माना जाय ? आखिर कंपनी के कामकाज के तरीकों पर या सिद्धांतों पर शेयर होल्डर का नियंत्रण नहीं के बराबर होता है। खासकर जब लाखों शेयरों की तुलना में उसके शेयरों की संख्या केवल सैकड़ों या हजारों में ही होता है। प्रश्न है कि क्या यह दलील सही मानी जा सकती है ? इसके लिए हमें अर्थशास्त्र के कुछ मूलभूत सिद्धांतों पर नजर डालनी पड़ेगी।
किसी भी उत्पादन के लिए पूंजी एक महत्वपूर्ण घटक होता है। इसके अलावा चाहिए जमीन, कच्ची सामग्री और म.जदूर। लेकिन इन सबसे पहले चाहिए एक अच्छा दिमाग, तकनीकी ज्ञान, उत्पादन से हो सकने वाले मुनाफ़े का सही अंदाज लगा पाने की क्षमता और इस काम में कूद पड़ने के लिए निर्णय ले पाने का साहस ! ये अंतिम गुण जिस उद्योजक में होंगे वही पूंजी जुटाने की बात सोचेगा। उसकी अपनी पूंजी कम हो तो शेयरों के माध्यम से पूंजी जुटायेगा। शेयरों की अधिक से अधिक बिक्री हो इसलिए वह अपनी योजना और उससे होने वाले मुनाफ़े का अनुमान लोगों के सामने रखेगा। लोग उसका प्रस्ताव परखेंगे। यह जानना चाहेंगे कि उसके कारखाने का मैनेजमेंट अच्छा होगा या नहीं। खासकर यदि उसने पहले किसी उद्योग में अच्छा मुनाफ़ा कमाया हो तो लोग उसकी जांच परख की क्षमता और उद्योग चला सकने की क्षमता पर भरोसा रखेंगे और उसकी नयी प्रस्तावित कंपनी में अपनी भी पूंजी लगायेंगे। किसी नये उद्योग का पब्लिक इशू जब ओवर सब्सक्राइब हो जाता है तो इसका अर्थ होता है कि लोगों को उस उद्योजक के या उसकी कंपनी के सफल होने की आशा है। इसलिए उन्होंने अपनी पूंजी भी उसके साथ लगायी ताकि मुनाफ़े और शेयर एप्रीसिएशन के लाभ में उनका भी हिस्सा रहे।
जब सामान्य आदमी किसी उद्योग में पूंजी लगाता है तो माना जाता है कि उस उद्योग के कारण बढ़ने वाली उत्पादकता और राष्ट्रीय संपत्त्िा की बढ़ोतरी में वह हाथ बंटा रहा है। इसी कारण मुनाफ़े में हिस्सा कमाना भी उसका हक माना जायेगा। लेकिन यह है उन देशों की परिस्थिति जहां पिछले दो शतकों में औधोगिक क्रांति हुई। नई-नई मशीनों के आविष्कार हुए, उन मशीनों से उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। लोगों ने नए-नए कल-कारखाने लगाये, देश की उद्योग क्षमता और उद्योग संपत्त्िा बढ़ायी। दुर्भाग्य से हमारा देश उनकी पंक्ति में नहीं बैठाया जा सकता।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से हमारे देश में प्रथा चल पड़ी है कि नयी कंपनी घोषित करना ही काफी है, उसमें अच्छी प्लानिंग करना या अच्छा उत्पादन निकालना या पूरी कार्यक्षमता से कंपनी को चलाना आवश्यक नहीं है। आप पूछेंगे कि भाई उत्पादन न हो तो मुनाफ़ा कहां से आयेगा। इसका उत्तर भी इस प्रथा में है। कंपनी का उद्देश्य जब केवल मुनाफ़ा कमाना ही है, तो हर चीज जाय.ज है वाली कहावत लागू हो जाती है। फिर आप अलग तरीकों से भी मुनाफ़ा कमा सकते हैं -- मसलन आपकी कंपनी टैक्स ही न दे। कहा जाता है कि हर्षद मेहता और उसकी कंपनियों ने अब तक ३००० करोड़ से भी अधिक रुपये का टैक्स छिपाया है। यह तो मुम्बई शहर से वसूल होने वाले कुल टैक्स से भी अधिक है। लेकिन टैक्स छिपाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ानेवाला पहला व्यक्ति हर्षद मेहता हो एसा भी नहीं है। उसके पहले भी कई और नाम सामने आ चुके हैं। मुनाफ़ेखोरी का दूसरा तरीका यह भी है, आपकी कंपनी या आप साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर सरकारी नीतियों को ही अपने हक में यूं घूमा-फिरा लें कि आयात और निर्यात की सुविधा, कम ब्याज दर पर बैंक से कर्ज मिलने की सुविधा या अपनी कंपनी के शेयरों को उछालने के लिए थोड़े समय तक बैंक से पैसे या कर्ज हासिल करने की सुविधा इत्यादि आपको मिलती रहे जो कि अन्य किसी कंपनी को नहीं मिल रही हो। यह मुनाफ़ा उत्पादन से नहीं बल्कि हिसाब की हेरा-फेरी से बढ़ा है, भले ही शेयर मार्केट में इसे स्मार्ट्-नेस का नाम दे दिया गया हो।
अब अर्थशास्त्र का नियम है कि जब वास्तविक उत्पादन के कारण मुनाफ़ा बढ़ रहा तो किसी से कुछ छिने बगैर कंपनी अपनी आय और मुनाफ़ा बढ़ा रही होती है। कंपनी का उत्पादन लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध हो रहा होता है, लेकिन जब उत्पादन करके भी हेरा-फेरी से मुनाफ़ा कमाया जाता है तो किसी की जेब से निकलकर पैसा ''स्मार्ट गाय'' की जेब में जा रहा होता है। आखिर किसकी जेब से पैसा जाता है? उसकी जेब से जिसने अपनी मेहनत की कमाई बैंक में डिपॉजिट की या उछाल आने पर अपनी कमाई से शेयर खरीद लिये, क्योंकि जिन शेयरों को उत्पादन का जोर नहीं है, उन्हें कभी तो गिरना ही है। आज भी स्टेट बैंक का ५०० करोड़ रुपये के घाटे का उदाहरण हम देखें या कराड़ बैंक के डिपॉजिटर्स का नतीजा वही है कि इस घाटे में सामान्य आदमी ही पिसेगा। बैंक के वरिष्ठ अधिकारी तो कई एक करोड़ डकार जायेंगे। किसी एकाध को सजा हो जायेगी बस क्योंकि अपने देश के कानून भी उतने सक्षम नहीं हैं।
देश को सरकार की या शासन की असल जरुरत इसलिए होती है कि एसी हेरा-फेरी को सरकार रोक सके, कानून को और कानूनी प्रक्रिया को सक्षम रखे और आम आदमी के आर्थिक हितों को सुरक्षित रखे। लेकिन आम आदमी से अलग अपने देश में एक ऊंचे तबके का कुनबा है जिसके लोग इस हेरा-फेरी को रोकने के बजाय इसके मुनाफ़े में हाथ बंटाने में विश्र्वास रखते हैं। इसलिए जब फेयरग्रोथ जैसी कंपनी धड़ल्ले से मुनाफ़ा कमाती है तो शेयर होल्डर यह नहीं पूछता कि मुनाफ़ा कहां से आया? कंपनी के तौर-तरीके क्या हैं। वह मुनाफ़े में अपना हिस्सा पाकर संतुष्ट हो जाता है बल्कि कंपनी के लिए दुआ भी करता है। लेकिन यह अब जाहिर है कि फेयरग्रोथ का मुनाफ़ा ईमानदारी से नहीं आया बल्कि यह लूट का मुनाफ़ा ही है। फिर क्या शेयर होल्डर का इस दोष में कोई भी हिस्सा नहीं?
कहते हैं कि ऋषि वाल्मीकि पहले बटमार थे, राह चलतों को लूटकर उनका धन लूटते थे। एक दिन नारद मुनि से सामना हो गया। मुनि ने कहा -- मुझे मारते हो तो मारो, लेकिन यह पाप ही है। जिन घरवालों और रिश्तेदारों की सुख-सुविधा के लिए तुमने यह पाप का रास्ता चुना, वे तुम्हारी लूट से खुश होते हैं, लूट में हिस्सा बंटाते हैं, लेकिन क्या वे तुम्हारे पाप में भी हिस्सा बांटेंगें? जरा पूछकर तो आना। डाकू ने घर जाकर सबसे पूछा तो वे कहने लगे - तुम्हारा पाप तुम्हारे पास, इसका जिम्मा हमपर कैसा? और जब जिम्मा नहीं तो पाप में हमारा हिस्सा भी क्यों करें? इस पर वाल्मीकि का मोहभंग हुआ और वो बटमारी छोड़कर तपस्या करने चले गये। हर्षद मेहता या फेयरग्रोथ जैसी नावों पर सवार हजारों की संख्या में शेयरों की खरीद-फ़रोख्त करने वाले इस कलयुग में वाल्मीकि के रिश्तेदार ही हैं। उन्हें इससे क्या मतलब कि कंपनी वाकई कुछ उत्पादन कुछ काम करती है या हेरा-फेरी! वह तो यही कहेंगें कि हमने इतनी पूंजी लगायी। कंपनी ने इतने डिविडेंड दिये और शेयर इतने चढ़े, इससे हमें इतना मुनाफ़ा हुआ बस! और इन हेरा-फेरी प्रवीण कंपनियों की मदद से अपना ढोल पिटवाते लोग भी कहेंगें कि देखो-देखो, पूछो इन शेयर होल्डरों से।
लेकिन जो जानता है कि बिना उत्पादन के देश की संपत्त्िा नहीं बढ़ती और जिसे इस देश की चिंता है, यहां के उत्पादन की चिंता है, या जिस पर यह चिंता करने की जिम्मेदारी है, वह जानता है कि फेयरग्रोथ जैसी कंपनी के मुनाफ़े में हिस्सा बांटने पर वह किस दोष की श्रेणी में आता है।
25 व्यर्थ न हो यह बलिदान (सत्येंद्र दुबे)--पूरा है
व्यर्थ न हो यह बलिदान
( The climax chapter of my book है कोई वकील लोकतंत्रका!)
सत्येंद्र दूबे की हत्या हुई और सारे ईमानदार अफसरों को धमका गई कि खबरदार, हो जाओ तैयार, या तो अपना मुँह पर पड़ी चुप्पी पर सात ताले और लगा लो या फिर कफन के अंदर घुस जाओ। दोनों ही सूरतों में मुँह से आवाज न निकले- शिकायत में कलम न चले। क्यों कि यदि यह हो गया तो क्या भ्रष्टाचारी और क्या सत्ताधारी, दोनों तुमसे पल्ला झाड़ लेंगे।
जब हत्या हो गई तो सबसे पहले जो एक तबका जागा- वह था उन नौजवान, होनहार, उच्चशिक्षित इंजिनियरों का जो अभी तक देश छोड़ कर भागे नही हैं। हालाँकि सुनहरे मौके उनके लिए भी होंगे, यदि वे जाना चाहें, लेकिन वे अभी गए नही हैं और इसी देश का कुछ कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। और एक वह तबका भी जागा जो विदेश में है लेकिन दिल में एक आस बसाए हुए कि कभी उन्हें भी अपने देश में वापस आना है।
जब ऐसे हजारों लोगों ने आवाज उठाई तब कहीं जाकर सरकार के सर्वोच्च पदस्थ व्यक्ति ने कहा कि कातिलों को नहीं छोड़ा जायगा।
वैसे यह हजारों बार कहा जाता है कि इसे, उसे नही छोड़ा जाएगा, सब को न्याय मिलेगा, सत्य की विजय होगी इत्यादि। उसके बाद क्या होता है- लोग हिंदी सिनेमा का अगला हिस्सा देखने लगते हैं कि कैसे हीरो छत से कूदा, सात मशीनगनों के बीच सीना ताने चलता रहा एक मुष्टिप्रहार में सारी दीवारें तोड़ दीं वगैरा वगैरा। लोगों में अभी यह उम्मीद जग ही रही होती है कि अब अपराधी पकडे जाएंगे और उन्हें दंड मिलेगा कि फिल्म खत्म हो जाती है और मुँह बाए दर्शक को एहसास होता है कि यह सब तो तमाशा था- अब रात हो गई- चल कर सो जाओ।
सत्येंद्र दुबे के परिवार के दुख में इस देश का हर संवेदनशील और ईमानदार व्यक्ति शामिल है। लेकिन क्या हरेक के दिल में यह पूरा पूर्ण विश्र्वास है कि कातिल पकड़ा जाएगा?
और जब वह पकड़ा जाएगा तो क्या होगा? चलेगा एक लम्बा सिलसिला कोर्ट कचहरी की तारीखों का और शायद आज से पच्चीस वर्ष बाद हमें कोई अखबार सातवें पेज के कॉलम चार के निचले कोने में बताएगा कि सत्येंद्र के अपराधी को सजा मिल गई।
तब कोई यह पूछने की स्थिंति में नही होगा कि अपराधी कौन था और अपराध क्या था। इसलिए यह चर्चा आज ही होनी चाहिए।
क्या हम भी मान लें कि सत्येंद्र का अपराधी वह आदमी है जिसने गोली चलाई। नही, मैं नही मानती। वह तो अपराधियों की एक लम्बी कतार का सबसे आखिरी व्यक्ति है। उसके पहले कतार में कई कई लोग खड़े हैं। क्या हमारी नजरें और उंगली उन पर पड़ी है?
सत्येंद्र ने एक लम्बा पत्र लिखकर स्वप्निल स्वर्णिम परियोजना में चल रहे भ्रष्टाचार की ओर ध्यान आकर्षित किया था। सत्येंद्र जीवित रहा तो बार बार ध्यान आकर्षित करेगा इसलिए उसे मार दिया गया। यदि उन बातों से हमारा ध्यान हटा जिन्हें उजागर करने और रोकने के लिए सत्येंद्र ने अपनी जान गँवाई तो उसका बलिदान व्यर्थ हो जायगा।
आइए, हम याद करें कि सरकारी तंत्र में चल रहे भ्रष्टाचार पर उंगली उठाकर मौत को ललकारने वाला और शहीद होने वाला पहला अफसर सत्येंद्र ही है। उसे मृत्यु का खतरा भी अवगत था जो उसने अपने पत्र में भी लिखा था। इस खतरे के बावजूद वह पीछे नही हटा।
मुझे इतिहास याद आता है कि जब साइमन कमिशन के विरोध में सभा का नेतृत्व करने का निर्णय लाला लाजपतराय ने लिया या असेम्बली में बम धमाका करके अपने आपको पुलिस को सौंप देने का निर्णय भगतसिंह ने लिया तो वे भी अपनी मृत्यु के खतरे को पहचानते थे। लालाजी ने जब लाठियाँ झेलीं तब उन्होंने कहा था कि मेरे शरीर पर पड़ने वाली एक एक लाठी वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य पर एक एक प्रहार है जिसमें वह साम्राज्य ढह जायगा। और यही हुआ भी। लालाजी की खाई चोटें व्यर्थ नही गईं। उन्होंने अन्ततः देश को स्वाधीनता दिलाई। इसी प्रकार सत्येंद्र का बलिदान भी व्यर्थ नही होना चाहिए। उससे शुरूआत होनी चाहिए कि देश में संगठित रूप में चल रहे भ्रष्टाचार का समापन हो। वह केवल सत्येंद्र पर गोली चलाने वाले को ढूँढने से नहीं होगा। हमें कतार में आगे खड़े लोगों को देखना होगा।
क्या लिखा था सत्येंद्र ने अपने पत्र में? क्यों किसी भी अखबार में वह पत्र नही छापा? वह छप जाय तो लोगों को पता चले कि शक की सुई किन किन की ओर है। उनके पास सत्येंद्र की हत्या का मकसद 'थ््रदृद्यत्ध्ड्ढ' है। सी.बी.आई. की जाँच की शुरूआत उनसे होनी चाहिए और वह भी जनता को बताकर।
जो लोग सत्येन्द्र के हत्यारे को ढूँढने में लगे हैं उन्हें लगने दीजिए। लेकिन मुझे लगता है कि हमारी नजरें केवल उस गोली पर टिककर न रह जाए जो सत्येंद्र के शरीर में धँसी। हमारी नजरें उस पत्र पर होनी चाहिए जो सत्येंद्र के कलम से निकला था। उसमें वह था जो सत्येंद्र चाहता था। आज हर आईआईटीयन को चाहिए और देश के हर ईमानदार अफसर को चाहिए कि सत्येंद्र का वह पत्र फ्रेम में मढवाकर अपने सामने दीवार पर टाँग कर रखे। इस एक बात से कुछ ऐसी शुरूआत होगी जिससे सत्येंद्र का बलिदान व्यर्थ न हो।
- लीना मेहेंदले
ई-१८, बापूधाम,
सेन्ट मार्टिन मार्ग,
नई दिल्ली- ११००२१
( The climax chapter of my book है कोई वकील लोकतंत्रका!)
सत्येंद्र दूबे की हत्या हुई और सारे ईमानदार अफसरों को धमका गई कि खबरदार, हो जाओ तैयार, या तो अपना मुँह पर पड़ी चुप्पी पर सात ताले और लगा लो या फिर कफन के अंदर घुस जाओ। दोनों ही सूरतों में मुँह से आवाज न निकले- शिकायत में कलम न चले। क्यों कि यदि यह हो गया तो क्या भ्रष्टाचारी और क्या सत्ताधारी, दोनों तुमसे पल्ला झाड़ लेंगे।
जब हत्या हो गई तो सबसे पहले जो एक तबका जागा- वह था उन नौजवान, होनहार, उच्चशिक्षित इंजिनियरों का जो अभी तक देश छोड़ कर भागे नही हैं। हालाँकि सुनहरे मौके उनके लिए भी होंगे, यदि वे जाना चाहें, लेकिन वे अभी गए नही हैं और इसी देश का कुछ कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। और एक वह तबका भी जागा जो विदेश में है लेकिन दिल में एक आस बसाए हुए कि कभी उन्हें भी अपने देश में वापस आना है।
जब ऐसे हजारों लोगों ने आवाज उठाई तब कहीं जाकर सरकार के सर्वोच्च पदस्थ व्यक्ति ने कहा कि कातिलों को नहीं छोड़ा जायगा।
वैसे यह हजारों बार कहा जाता है कि इसे, उसे नही छोड़ा जाएगा, सब को न्याय मिलेगा, सत्य की विजय होगी इत्यादि। उसके बाद क्या होता है- लोग हिंदी सिनेमा का अगला हिस्सा देखने लगते हैं कि कैसे हीरो छत से कूदा, सात मशीनगनों के बीच सीना ताने चलता रहा एक मुष्टिप्रहार में सारी दीवारें तोड़ दीं वगैरा वगैरा। लोगों में अभी यह उम्मीद जग ही रही होती है कि अब अपराधी पकडे जाएंगे और उन्हें दंड मिलेगा कि फिल्म खत्म हो जाती है और मुँह बाए दर्शक को एहसास होता है कि यह सब तो तमाशा था- अब रात हो गई- चल कर सो जाओ।
सत्येंद्र दुबे के परिवार के दुख में इस देश का हर संवेदनशील और ईमानदार व्यक्ति शामिल है। लेकिन क्या हरेक के दिल में यह पूरा पूर्ण विश्र्वास है कि कातिल पकड़ा जाएगा?
और जब वह पकड़ा जाएगा तो क्या होगा? चलेगा एक लम्बा सिलसिला कोर्ट कचहरी की तारीखों का और शायद आज से पच्चीस वर्ष बाद हमें कोई अखबार सातवें पेज के कॉलम चार के निचले कोने में बताएगा कि सत्येंद्र के अपराधी को सजा मिल गई।
तब कोई यह पूछने की स्थिंति में नही होगा कि अपराधी कौन था और अपराध क्या था। इसलिए यह चर्चा आज ही होनी चाहिए।
क्या हम भी मान लें कि सत्येंद्र का अपराधी वह आदमी है जिसने गोली चलाई। नही, मैं नही मानती। वह तो अपराधियों की एक लम्बी कतार का सबसे आखिरी व्यक्ति है। उसके पहले कतार में कई कई लोग खड़े हैं। क्या हमारी नजरें और उंगली उन पर पड़ी है?
सत्येंद्र ने एक लम्बा पत्र लिखकर स्वप्निल स्वर्णिम परियोजना में चल रहे भ्रष्टाचार की ओर ध्यान आकर्षित किया था। सत्येंद्र जीवित रहा तो बार बार ध्यान आकर्षित करेगा इसलिए उसे मार दिया गया। यदि उन बातों से हमारा ध्यान हटा जिन्हें उजागर करने और रोकने के लिए सत्येंद्र ने अपनी जान गँवाई तो उसका बलिदान व्यर्थ हो जायगा।
आइए, हम याद करें कि सरकारी तंत्र में चल रहे भ्रष्टाचार पर उंगली उठाकर मौत को ललकारने वाला और शहीद होने वाला पहला अफसर सत्येंद्र ही है। उसे मृत्यु का खतरा भी अवगत था जो उसने अपने पत्र में भी लिखा था। इस खतरे के बावजूद वह पीछे नही हटा।
मुझे इतिहास याद आता है कि जब साइमन कमिशन के विरोध में सभा का नेतृत्व करने का निर्णय लाला लाजपतराय ने लिया या असेम्बली में बम धमाका करके अपने आपको पुलिस को सौंप देने का निर्णय भगतसिंह ने लिया तो वे भी अपनी मृत्यु के खतरे को पहचानते थे। लालाजी ने जब लाठियाँ झेलीं तब उन्होंने कहा था कि मेरे शरीर पर पड़ने वाली एक एक लाठी वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य पर एक एक प्रहार है जिसमें वह साम्राज्य ढह जायगा। और यही हुआ भी। लालाजी की खाई चोटें व्यर्थ नही गईं। उन्होंने अन्ततः देश को स्वाधीनता दिलाई। इसी प्रकार सत्येंद्र का बलिदान भी व्यर्थ नही होना चाहिए। उससे शुरूआत होनी चाहिए कि देश में संगठित रूप में चल रहे भ्रष्टाचार का समापन हो। वह केवल सत्येंद्र पर गोली चलाने वाले को ढूँढने से नहीं होगा। हमें कतार में आगे खड़े लोगों को देखना होगा।
क्या लिखा था सत्येंद्र ने अपने पत्र में? क्यों किसी भी अखबार में वह पत्र नही छापा? वह छप जाय तो लोगों को पता चले कि शक की सुई किन किन की ओर है। उनके पास सत्येंद्र की हत्या का मकसद 'थ््रदृद्यत्ध्ड्ढ' है। सी.बी.आई. की जाँच की शुरूआत उनसे होनी चाहिए और वह भी जनता को बताकर।
जो लोग सत्येन्द्र के हत्यारे को ढूँढने में लगे हैं उन्हें लगने दीजिए। लेकिन मुझे लगता है कि हमारी नजरें केवल उस गोली पर टिककर न रह जाए जो सत्येंद्र के शरीर में धँसी। हमारी नजरें उस पत्र पर होनी चाहिए जो सत्येंद्र के कलम से निकला था। उसमें वह था जो सत्येंद्र चाहता था। आज हर आईआईटीयन को चाहिए और देश के हर ईमानदार अफसर को चाहिए कि सत्येंद्र का वह पत्र फ्रेम में मढवाकर अपने सामने दीवार पर टाँग कर रखे। इस एक बात से कुछ ऐसी शुरूआत होगी जिससे सत्येंद्र का बलिदान व्यर्थ न हो।
- लीना मेहेंदले
ई-१८, बापूधाम,
सेन्ट मार्टिन मार्ग,
नई दिल्ली- ११००२१
18 एक सिंचन व्यवस्था : एक विचारधारा--पूरा है
एक सिंचन व्यवस्था: एक विचारधारा
- लीना मेहेंदले
- सेटलमेंट कमिशनर, महाराष्ट्र
बड़े बांध, बड़ा बजट, बड़ी तकनीक, बड़ी मशीनरी, बड़े फ़ायदे और बड़ी समस्यांएँ एक तरफ़ और छोटे बांध , छोटा बजट, छोटे फ़ायदे और छोटी समस्यांएँ दूसरी तरफ़। इनमें से आप किसे चुनेंगे ? उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद अब तक यह मान्यता रही कि चुनाव का निर्णय मुख्यतया तकनीकी पर निर्भर है। जो तकनीक जितने बडे पैमाने पर लागू हो सकती है, जितनी आधुनिक है, वही ज़्यादा अच्छी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते-आते अब पश्चिमी और प्रगत देश मानने लगे हैं कि किसी प्रणाली के व्यवस्थापन की सहूलियत देखनी भी जरूरी है। वे अब सस्टेनेबिबलटी अर्थात् सुचारु ढंग से किसी प्रणाली का चलना आवश्यक मानने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है, एक पुरानी सिंचन प्रणाली पर कुछ विचार।
महाराष्ट्र के उत्तर-पश्चिम छोर पर स्थित है, जिला धुलिया या धुळे, जो आजकल सरदार सरोवर की वजह से बहुचर्चित है। इसके भूगोल में है, पूरब-पश्चिम फैले हुए विन्ध्य पर्वत, विन्ध्यपुत्री नदी नर्मदा, फिर सातपुडा पर्वत और सातपुडापुत्री नदी ताप्ती। एक तीसरी नदी भी है - पांझरा, जो सह्याद्री से निकली है। पहले यह पूरब की ओर साक्री और धुले तहसीलों से बहती है। फिर धुले शहर का चक्कर लगाकर उत्तर और पश्चिम को मुड़कर ताप्ती से मिल जाती है।
नर्मदा और पांझरा - इन दो नदियों के माघ्यम से हमारी सिंचन प्रणाली के दो विभिन्न चित्रों की तुलना यहाँ प्रस्तुत है। यह दो चित्र अलग कालखंडों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पांझरा की सिंचन प्रणाली क़रीब तीन सौ वर्ष पुरानी है, जबकि नर्मदा की और ख़ासकर सद्य-प्रस्तावित नर्मदा-सागर से जुड़ी हुई सिंचन व्यवस्था अत्याधुनिक है। इन दो कालखंडों के बीच विज्ञान और तकनीकी की जो प्रगति हुई है, उसका प्रभाव या यों कहिए कि उस कारण पड़ने वाला अंतर दोनों प्रणालियों में अवश्यंभावी है। यह कहा जा सकता हे कि पांझरा पर जब सिचंन प्रणाली बनी तो आज उपलब्ध तकनीक उन लोगों के पास नहीं थी, अतः जो सिंचन व्यवस्था उस काल के अज्ञान की द्योतक है, उसकी आज चर्चा क्यों ? लेकिन उस काल की मजबूरी, अज्ञान या भिन्नता के कारण ही सही, पर जो अंतर दो प्रणालियों में आ ही गया है उसे देखने में क्या हर्ज है, ख़ासकर मैंने महसूस किया कि विचार प्रणालियों की और व्यवस्थापन प्रणालियों की भिन्नता भी जो इन दो चित्रों से जुड़ी हुई है वह शायद इस प्रश्न से जुड़े सभी व्यक्तियों को कुछ सोचने के लिए उकसा सके।
पहले देखें कि नर्मदा पर बन रही सिंचन प्रणाली क्या है। भारत की नदियाँ दो तरह की हैं -- वे जो हिमालय से निकलती है और जिनमें बर्फ़ पिघलकर आती है, जिसके कारण वे कभी सूखती नहीं, दूसरी अन्य सभी पर्वतों से निकलने वाली नदियाँ, जिनमें केवल वर्षा का ही पानी बहता है। यादि उनके उद्गम पर्वतों पर झाड़ियों की बहुतायत हो तो उनमें आने वाला पानी धीरे धीरे आएगा, जिससे नदी में पानी की धारा अघिक महीनों तक बनी रहेगी। यदि पहाड़ों पर कम पानी बरसा या बरसने वाले पानी कं वेग रोका नहीं जा सका और वह जल्दी बहकर समुद्र में चला गया तो उस नदी की, व उस पानी की उपयोगिता कम हो जाती है। नर्मदा और पांझरा दोनों ही नदियाँ दूसरी श्रेणी में आती हैं। आधुनिक काल में इन नदियों पर जो बाँध बन रहे है - जैसे भाखरा नांगल बाध हो, या नर्मदा-सागर बांध - उनका तरीक़ा यह है कि काफ़ी ऊँचां बड़ा बाधं बनाकर बारिश के पानी को पूरी तरह रोक लियं जाता है।
जब तक बांध पूरा भर न जाए, तब तक नदी की धार में पानी नहीं बहेगा। (इस प्रकार कई नदियाँ पूरे साल भर सूखी रह सकती हैं, क्योकि सारा पानी बाधं में ही रोक लिया गयं है। प्रसिद्ध विचारक सुंदरलाल बहुगुणाजी इसे नदीकी हत्या का अपराध मानते हैं।)
आधुनिक कालमें चूँकीं यह मालूम है कि बाधं में कितना पानी है, अतः यह प्लानिंग भी की जा सकती है कि उस पानीकी उपलब्धता पर आधारित कौन सी फ़सल बोनी चाहिए। प्रायः हर बड़े बांध से सिचाई किये जाने वाला क्षेत्र पचास हजार एकड़ से अघिक होता है, जिसकी प्लनिगं के लिए काड़ा अर्थात कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटीज बनाई जाती हैं। इनका काम होता है हर साल पानी की उपलब्धता देखकर किसानों को बताया जाए कि उस साल उन्हें कौन सी फ़सल उगानी चाहिए और उसके लिए कितने पानी की गारंटी दी जा सकती है ।
लेकिन अक्सर यह प्लानिंग काग़ज पर धरी ही रह जाती है। अक्सर देखा जाता है कि जब बारिश अच्छी हो, बांध में पानी की बहुतायत हो, तो किसान के खेत में भी अच्छी बारिश हुई होती है, उसे नहर के पानी की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार पिछले वर्षोंमें देखा गया है कि काडा की प्लानिंग असफल भी हो सकती है। जब किसान को सूखे के कारण पानी चाहिए होता है, तो काडा के बाधं में भी पानी कम होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसान अपनी बुद्धि से ही अंततः तय करता हे कि वह कौन सी फ़सल उगाएगा। काड़ा व्यवस्था में यह भी मान्यता है कि घूसखोरी या राजनीतिक दबाव के आधार पर पानी नहीं चुराया जा सकता। पर यह मान्यता व्यावहारिक स्तर पर ग़लत उतरती है। सिंचाई के अलावा बड़े-बड़े बाधों के दो अन्य उपयोग बताते जाते हैं - बाढ़ को रोकना और बिजली बनाना, उसकी चर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं है ।
आज से तीन सौ वर्ष पूर्व पांझरा और उसकी दो उपनदियों में आने वाले पानी की उपलब्धता के अधार पर क़रीब साढ़े तीन हजार एकड़ क्षेत्र के लिए एक सिंचन व्यवस्था बनाई गई, जो कई मायनों में आज की व्यवस्था से नितांत भिन्न है अपने उद्गम स्थान से नीचे तक आते-आते पांझरा क़रीब दो सौ किलोमीटर की दूरी तय करती है और क़रीब पैंतीस गाँवों को पीने का पानी देती है। सिंचाई के लिए पांझरा और दोनों उपनदियों पर जगह छोटे-छोटे कुल सत्तर बाँध बनाए गए हैं, जिनमें से कुछ मिट्टी और कुछ पत्थर-चूने के हैं, लेकिन बाँधो का उद्देश्य यह नहीं है कि पानी को पूरी तरह रोककर रखा जाए। बाँधोंकी ऊँचांई आठ या दस फीट ही है। बांध से समकोण बनाती हुई नदी की धारा के समान्तर एक दिवाल बांधी गई है, जिसकी उचांई धीरे-धीरे घटते हुए, जमीन की सतह तक आ जाती है । इस दिवाल के ऊपरी मुहानेपर सुयोग्य स्थान पर एक छोटा गड्डा बनाकर एक नहर निकली जाती है, जिससे पानी खेतों तक पहुँचाया जाता है। लेकिन नहर की क्षमता से ज़्यादा जितना भी पानी नदी में आता है, वह दिवाल के साथ - साथ बहता हुआ वापस नदी में चला जाता है। इस प्रकार नदी की धार कहीं भी सूखती नहीं। अगले बाँध पर फिर इसका कुछ पानी सिंचाई के लिए रोक लिया जाता है, लेकिन नदी का मुख्य प्रवाह बना रहता है। नहर में कितना पानी उपलब्ध होगा, यह निर्भर करता है कि नहर के मुहाने पर दिवाल की उचांई कितनी है।
नहर का पानर ढलान की राह खेतों तक पहुँचाता है। यह तय है कि पानी किस-किस खेत तक पहुँचेगा। पूरी सिंचनयोग्य जमीन तीन हिस्सों में बाटीं गई है जिन्हें फड कहते है। ये है गेंहू, गन्ने और ज्चार के फड। फ़सल के लिए प्रत्येक फड के सभी किसान तीन वर्षों का प्रोग्राम बनाते हैं। पहले फड के किसान गेहूँ बोएगें तो दूसरे फड के किसान गन्ना, ओर तीसरे फड के किसान ज्वार बोएगें। और अगले वर्ष गेहूँ के फड में गन्ना, गन्ना के फड में ज्वार, और ज्वार के फड में गेहूँ बोया जाएगा। किसान को अपने फड के ग्रुप के मुताबिक़ ही फ़सल उगानी पड़ेगी, उसे इन तीन फ़सलों के अलावा अन्य फ़सलें उगाने की अनुमति नहीं है। केवल गन्नें की जगह कहीं-कहीं पूरे फडमें केले उगाने की अनुमति है, और गेहूँकी जगह चना। यह व्यवस्था तीन सौ वर्षों से चली आ रही है - बिना झगड़े झंझट के।
इस सिचांई व्यवस्था में जिस बात ने मुझे सबसे अघिक प्रभावित किया वह है इस प्रणाली की सुचारुता और आत्मनिर्भरता। पंझरा के किनारे बसा हर गाँव पानी के लिए इस पर निर्भर है। साथ ही हर गाँव के कुछ किसान (पर सभी नहीं) इस व्यवस्था से सिंचाई का पानी पाते हैं। अतः यह तय किया गया है कि किसी समय किसी को एक ख़ास मात्रा से अघिक पानी नहीं दिया जा सकेगा। पानी की अघिकतम मात्रा क्या होगी - यह निर्भर है नहर की दिवाल और बांध की ऊँचाई पर। तीन सौ वर्ष पहले मराठा-राज में पेशवाओंने जब यह सिंचन व्यवस्था बनाई तभी तय किया गया कि प्रत्येक गाँव के बाँध की उचांई क्यं होगी। यह ऊँचांई बढ़ाने का हक़ किसी को नहीं है। यदि पानी नहीं बरसा, तो किसी को पानी नहीं मिलेगा। लेकिन यदि बरसा तो भी किसी एक दिन एक ख़ास मात्रा से अधिक जितना पानी आएगा, वह नदी की धारा में ही वापस जाएगा ताकि पीने के पानी का मूल स्त्रोत बना रहे। हाँ, यह संभव है कि सिंचाई के लिए अधिक दिनों तक पानी मिलता रहे -- यदि नदी की धार बरसात के मौसम के बाद भी अधिक दिनों तक बनी रहे। यह तभी सभंव है जब नदी के ऊपरी हिस्से में पेड़-झाड़ी-जंगल बहुतायत में हों, ताकि बरिश का सारा पानी बरसात में ही बहकर बह न जाए, बल्कि पहाड़ों से झरकर धीरे-धीरे आता रहे और महीनों तक बहता रहे।
नदी किनारे के सभी तीस-पैतीस गाँवों की एक समिति हर साल बरसात के मौसम से पहले और बाद में प्रत्येक बांध की जाँच-पड़ताल करती है कि कहीं किसी ने बांध को थोड़ा ऊँचा न कर दिया हो और कहीं बाँध में मरम्मत की जरूरत न हो। साथ ही गाँव के सिंचाई करने वाले सारे किसान इस बात की भी जाँच करते हैं कि क्या नहर को मरम्मत की जरूरत है। यदि बाँध या नहर में मरम्मत की आवश्यकता हुई तो उस गाँव के किसान श्रमदान के माघ्यम से इसकी पूर्ति करते हैं। इस प्रकंर बांध और नहरो की मरम्मत और नदी के पानी के बँटवारे और व्यवस्था की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से इन तीस-पैंतीस ग्रामवासियों की है, जो उन्होंने पिछले तीन सौ वर्षों से निभाई। सफल भी रहे और काडा का ख़र्चा जो आज सरकार उठाती है, वह नहीं उठाना पड़ा, क्योकि गाँव वाले सहर्ष उस काम को बखूबी करते रहे।
आज बड़े - बड़े बांधो में सिल्टिंग या मिट्टी छा जाने की समस्या बडे पैमाने पर सिरदर्द बनी हुई है। यदि बांधमें मिट्टी भर जाए तो फिर उनमें उतना पानी जमा नहीं हो पाएगा जितना डिजायन में था और किसान को उतना पानी नहीं दिया जा सकेगा, जिसकी गांरटी की चाह थी। इस प्रकार कई बांध आज निरुपयोगी होने की राह पर हैं। धुले मॉडल में मैने देखा कि सिल्टिंग या बांध में मिट्टी का आ जाना एक वरदान है न कि शाप। क्योंकि बांध में यदि मिट्टी आ गई तो बरसात में बांध जल्दी भरेगा, अर्थात नदी के उद्गम से दूर-दूर बसे गाँवों में पानी मिलने की प्रकिया जल्दी शुरू हो जाएगी। साथ ही सिंचाई के लिए पानी की वही मात्रा उपलब्ध होगी, जो कि यों भी मिल ही जाती। इस प्रकार आघुनिक बांधों में टेल-एंड जो प्रश्न है, कि अंतिम छोर को तब तक पानी नहीं मिलेगा, जब तक बीच के सभी को न मिल जाए, वह प्रश्न यहाँ पैदा नहीं होता । आधुनिक बांधो में बड़ी-बड़ी नहरें बनानी पड़ती हैं - जिन्हें आंरभ में अत्याधिक पानी ढोना पड़ता है, जिससे उनके रखरखाव, टूट-फूट की बड़ी समस्या हो जाती है। हमारे कई बड़े बांधो की उपयोगिता चालीस, पचास प्रतिशत से कम है, क्योंकि नहरें टूट-फूट गयीं, मरम्म्त नहीं हुई, कभी-कभी दुबारा बनानी पड़ी, जिससे प्रोजेक्ट पूरा करने में आठ-दस वर्ष ज़्यादा लग गयै। यह समस्या केवल बड़े ही नहीं, बल्कि मघ्यम आकार के और छोटे आकार के बांधो में भी है।
उस तुलना में पांझरा नदीकी विकेंद्रित सिंचन व्यवस्था के कारण व्यवस्थपन और मरम्मत की जिम्मेदारी छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गयी, हर गाँव के हिस्से थोड़ीसी ही जिम्मेदारी रही जो ग्रामवासियों के लिए सहज सरल था। उन्हें कहीं से ऊँचीं तनख़्वाह वाले इंजीनियर इंपोर्ट नहीं करने पड़े जैसा कि आधुनिक बांधों के लिए करने पडते हैं।
बडे बाँधोंमें बड़ी मात्रा में जमीन डूब जाती हे और लोगों के पुनर्वास की समस्या उत्पन्न होती है। साथ ही बांध और नहरों के पास की जमीन में अक्सर खारापन आ जाता है और वह खेती के लिए बेकार हो जाती है। कई बार किसान जरूरतसे अधिक पानी लेकर या गन्ने जैसी फ़सल बार-बार लेकर अपनी जमीन का भी नुकसान करते हैं। दूसरों को पानी भी नहीं मिलने देते - पानी चुराना और उससे पनपने वाली घूसखोरी और दबाव-तंत्र को कौन नहीं जानता?
दूसरा प्रश्न अधिक मूलभूत और व्यापक है। जब हम बड़ा बांध बनाकर ऊपर ही सार पानी रोक लेने हैं, तो नदी के निचले हिस्से के गाँवों का पीनेका पानी भी छीन लेते हैं। महाराष्ट्र में ऐसी कई नदियों के नाम गिनाया जा सकते है, जिनका वजूद छोटा था, छोटा है, फिर भी उनके किनारे बसे गाँव पीने के पानी और सिंचाई दोनों दृष्टि से खुशहाल थे, फिर नदी के मुहानों पर बांध बने, नीचे के प्रवाह सूख गए। बांध के आसपास पाँच-दस गाँवों की सिंचित जमीन बढी, नीचे पच्चीस-तीस गाँवों में संकट आ गया - वहाँ की जनता गऱीब ठहरी, झगड़ नहीं पाई और आज सरकार के लिए भी हर साल गर्मी के दिन एक सिरदर्द बन जाता है, जब इन गाँवों के लिए कहीं से ढूँड-ढाँडंकर, टैंकर में भरकर, पानी लाना पड़ता है। धुले में उन छोटे-छोटे बांधो से जुड़ा एक और भी प्यारासा दृश्य देखने को मिला। हर बांध मानों एक छोटा पक्षी अभयारण्य बन गया था। समय के साथ विज्ञान की प्रगति हो, या तकनीक भी आए, समाज-विकास के लिए यह आवश्यक है, लेकिन यह देखना भी आवश्यक है कि जो पुरातन तकनीक थी, उसका तुलनात्मक विश्लेषण क्या है। बांध बनाने का आधुनिक फ़लसफ़ा यह भी है कि आँखें मूंदकर उसे नकारो जो पहले था यह मत सोचो कि वह भी एक तरीक़ा हो सकता है और कभी-कभी अपनाया जा सकता है।
लेकिन शायद एक दूसरा फ़लसफ़ा इससे भी बड़ा है कि सारा व्यवस्थपन अपने हाथ में ही रखो। इस बहाने कि लोग अनाड़ी हैं, गैरजिम्मेदार हैं। फिर जो अपने हाथ में है उसे चाहे दोनों हाथों से लूटो, चाहे निरूपयोगी करार दो- पूछने वाला कौन है? इस प्रकार आधुनिक व्यास्थापन एक ईमानदार और कुशल अधिकारी के लिए मोहतात होकर रह जाता है और किसान उसकी प्रतीक्षा के अलावा कुछ नहीं कर सकते।
और हाँ एक बात और। पाझरा के बाँधोंका वर्णन मैंने गलतीसे वर्तमानकालमें कर दिया। विदित हो कि 1989 के आसपास प्रगत महाराष्ट्र के प्रगत सिंचाई-विभागने लोगोंके विरोधको तोडकर इस व्यवस्थाकी हत्या कर दी। अब वहाँ एख मध्यम सिंचन प्रकल्प है। पहले पैंतीस गांवोंमें पीनेका पानी व पंद्रहसौ एकड सिंचन होता था, अब आठ गाँवोंमें बत्तीससौ एकड सिंचन होता है, बाकी गाँव पानी के लिये तरस जाते हैं।
--------------------------------------------------------------------
- लीना मेहेंदले
- सेटलमेंट कमिशनर, महाराष्ट्र
बड़े बांध, बड़ा बजट, बड़ी तकनीक, बड़ी मशीनरी, बड़े फ़ायदे और बड़ी समस्यांएँ एक तरफ़ और छोटे बांध , छोटा बजट, छोटे फ़ायदे और छोटी समस्यांएँ दूसरी तरफ़। इनमें से आप किसे चुनेंगे ? उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद अब तक यह मान्यता रही कि चुनाव का निर्णय मुख्यतया तकनीकी पर निर्भर है। जो तकनीक जितने बडे पैमाने पर लागू हो सकती है, जितनी आधुनिक है, वही ज़्यादा अच्छी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते-आते अब पश्चिमी और प्रगत देश मानने लगे हैं कि किसी प्रणाली के व्यवस्थापन की सहूलियत देखनी भी जरूरी है। वे अब सस्टेनेबिबलटी अर्थात् सुचारु ढंग से किसी प्रणाली का चलना आवश्यक मानने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है, एक पुरानी सिंचन प्रणाली पर कुछ विचार।
महाराष्ट्र के उत्तर-पश्चिम छोर पर स्थित है, जिला धुलिया या धुळे, जो आजकल सरदार सरोवर की वजह से बहुचर्चित है। इसके भूगोल में है, पूरब-पश्चिम फैले हुए विन्ध्य पर्वत, विन्ध्यपुत्री नदी नर्मदा, फिर सातपुडा पर्वत और सातपुडापुत्री नदी ताप्ती। एक तीसरी नदी भी है - पांझरा, जो सह्याद्री से निकली है। पहले यह पूरब की ओर साक्री और धुले तहसीलों से बहती है। फिर धुले शहर का चक्कर लगाकर उत्तर और पश्चिम को मुड़कर ताप्ती से मिल जाती है।
नर्मदा और पांझरा - इन दो नदियों के माघ्यम से हमारी सिंचन प्रणाली के दो विभिन्न चित्रों की तुलना यहाँ प्रस्तुत है। यह दो चित्र अलग कालखंडों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पांझरा की सिंचन प्रणाली क़रीब तीन सौ वर्ष पुरानी है, जबकि नर्मदा की और ख़ासकर सद्य-प्रस्तावित नर्मदा-सागर से जुड़ी हुई सिंचन व्यवस्था अत्याधुनिक है। इन दो कालखंडों के बीच विज्ञान और तकनीकी की जो प्रगति हुई है, उसका प्रभाव या यों कहिए कि उस कारण पड़ने वाला अंतर दोनों प्रणालियों में अवश्यंभावी है। यह कहा जा सकता हे कि पांझरा पर जब सिचंन प्रणाली बनी तो आज उपलब्ध तकनीक उन लोगों के पास नहीं थी, अतः जो सिंचन व्यवस्था उस काल के अज्ञान की द्योतक है, उसकी आज चर्चा क्यों ? लेकिन उस काल की मजबूरी, अज्ञान या भिन्नता के कारण ही सही, पर जो अंतर दो प्रणालियों में आ ही गया है उसे देखने में क्या हर्ज है, ख़ासकर मैंने महसूस किया कि विचार प्रणालियों की और व्यवस्थापन प्रणालियों की भिन्नता भी जो इन दो चित्रों से जुड़ी हुई है वह शायद इस प्रश्न से जुड़े सभी व्यक्तियों को कुछ सोचने के लिए उकसा सके।
पहले देखें कि नर्मदा पर बन रही सिंचन प्रणाली क्या है। भारत की नदियाँ दो तरह की हैं -- वे जो हिमालय से निकलती है और जिनमें बर्फ़ पिघलकर आती है, जिसके कारण वे कभी सूखती नहीं, दूसरी अन्य सभी पर्वतों से निकलने वाली नदियाँ, जिनमें केवल वर्षा का ही पानी बहता है। यादि उनके उद्गम पर्वतों पर झाड़ियों की बहुतायत हो तो उनमें आने वाला पानी धीरे धीरे आएगा, जिससे नदी में पानी की धारा अघिक महीनों तक बनी रहेगी। यदि पहाड़ों पर कम पानी बरसा या बरसने वाले पानी कं वेग रोका नहीं जा सका और वह जल्दी बहकर समुद्र में चला गया तो उस नदी की, व उस पानी की उपयोगिता कम हो जाती है। नर्मदा और पांझरा दोनों ही नदियाँ दूसरी श्रेणी में आती हैं। आधुनिक काल में इन नदियों पर जो बाँध बन रहे है - जैसे भाखरा नांगल बाध हो, या नर्मदा-सागर बांध - उनका तरीक़ा यह है कि काफ़ी ऊँचां बड़ा बाधं बनाकर बारिश के पानी को पूरी तरह रोक लियं जाता है।
जब तक बांध पूरा भर न जाए, तब तक नदी की धार में पानी नहीं बहेगा। (इस प्रकार कई नदियाँ पूरे साल भर सूखी रह सकती हैं, क्योकि सारा पानी बाधं में ही रोक लिया गयं है। प्रसिद्ध विचारक सुंदरलाल बहुगुणाजी इसे नदीकी हत्या का अपराध मानते हैं।)
आधुनिक कालमें चूँकीं यह मालूम है कि बाधं में कितना पानी है, अतः यह प्लानिंग भी की जा सकती है कि उस पानीकी उपलब्धता पर आधारित कौन सी फ़सल बोनी चाहिए। प्रायः हर बड़े बांध से सिचाई किये जाने वाला क्षेत्र पचास हजार एकड़ से अघिक होता है, जिसकी प्लनिगं के लिए काड़ा अर्थात कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटीज बनाई जाती हैं। इनका काम होता है हर साल पानी की उपलब्धता देखकर किसानों को बताया जाए कि उस साल उन्हें कौन सी फ़सल उगानी चाहिए और उसके लिए कितने पानी की गारंटी दी जा सकती है ।
लेकिन अक्सर यह प्लानिंग काग़ज पर धरी ही रह जाती है। अक्सर देखा जाता है कि जब बारिश अच्छी हो, बांध में पानी की बहुतायत हो, तो किसान के खेत में भी अच्छी बारिश हुई होती है, उसे नहर के पानी की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार पिछले वर्षोंमें देखा गया है कि काडा की प्लानिंग असफल भी हो सकती है। जब किसान को सूखे के कारण पानी चाहिए होता है, तो काडा के बाधं में भी पानी कम होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसान अपनी बुद्धि से ही अंततः तय करता हे कि वह कौन सी फ़सल उगाएगा। काड़ा व्यवस्था में यह भी मान्यता है कि घूसखोरी या राजनीतिक दबाव के आधार पर पानी नहीं चुराया जा सकता। पर यह मान्यता व्यावहारिक स्तर पर ग़लत उतरती है। सिंचाई के अलावा बड़े-बड़े बाधों के दो अन्य उपयोग बताते जाते हैं - बाढ़ को रोकना और बिजली बनाना, उसकी चर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं है ।
आज से तीन सौ वर्ष पूर्व पांझरा और उसकी दो उपनदियों में आने वाले पानी की उपलब्धता के अधार पर क़रीब साढ़े तीन हजार एकड़ क्षेत्र के लिए एक सिंचन व्यवस्था बनाई गई, जो कई मायनों में आज की व्यवस्था से नितांत भिन्न है अपने उद्गम स्थान से नीचे तक आते-आते पांझरा क़रीब दो सौ किलोमीटर की दूरी तय करती है और क़रीब पैंतीस गाँवों को पीने का पानी देती है। सिंचाई के लिए पांझरा और दोनों उपनदियों पर जगह छोटे-छोटे कुल सत्तर बाँध बनाए गए हैं, जिनमें से कुछ मिट्टी और कुछ पत्थर-चूने के हैं, लेकिन बाँधो का उद्देश्य यह नहीं है कि पानी को पूरी तरह रोककर रखा जाए। बाँधोंकी ऊँचांई आठ या दस फीट ही है। बांध से समकोण बनाती हुई नदी की धारा के समान्तर एक दिवाल बांधी गई है, जिसकी उचांई धीरे-धीरे घटते हुए, जमीन की सतह तक आ जाती है । इस दिवाल के ऊपरी मुहानेपर सुयोग्य स्थान पर एक छोटा गड्डा बनाकर एक नहर निकली जाती है, जिससे पानी खेतों तक पहुँचाया जाता है। लेकिन नहर की क्षमता से ज़्यादा जितना भी पानी नदी में आता है, वह दिवाल के साथ - साथ बहता हुआ वापस नदी में चला जाता है। इस प्रकार नदी की धार कहीं भी सूखती नहीं। अगले बाँध पर फिर इसका कुछ पानी सिंचाई के लिए रोक लिया जाता है, लेकिन नदी का मुख्य प्रवाह बना रहता है। नहर में कितना पानी उपलब्ध होगा, यह निर्भर करता है कि नहर के मुहाने पर दिवाल की उचांई कितनी है।
नहर का पानर ढलान की राह खेतों तक पहुँचाता है। यह तय है कि पानी किस-किस खेत तक पहुँचेगा। पूरी सिंचनयोग्य जमीन तीन हिस्सों में बाटीं गई है जिन्हें फड कहते है। ये है गेंहू, गन्ने और ज्चार के फड। फ़सल के लिए प्रत्येक फड के सभी किसान तीन वर्षों का प्रोग्राम बनाते हैं। पहले फड के किसान गेहूँ बोएगें तो दूसरे फड के किसान गन्ना, ओर तीसरे फड के किसान ज्वार बोएगें। और अगले वर्ष गेहूँ के फड में गन्ना, गन्ना के फड में ज्वार, और ज्वार के फड में गेहूँ बोया जाएगा। किसान को अपने फड के ग्रुप के मुताबिक़ ही फ़सल उगानी पड़ेगी, उसे इन तीन फ़सलों के अलावा अन्य फ़सलें उगाने की अनुमति नहीं है। केवल गन्नें की जगह कहीं-कहीं पूरे फडमें केले उगाने की अनुमति है, और गेहूँकी जगह चना। यह व्यवस्था तीन सौ वर्षों से चली आ रही है - बिना झगड़े झंझट के।
इस सिचांई व्यवस्था में जिस बात ने मुझे सबसे अघिक प्रभावित किया वह है इस प्रणाली की सुचारुता और आत्मनिर्भरता। पंझरा के किनारे बसा हर गाँव पानी के लिए इस पर निर्भर है। साथ ही हर गाँव के कुछ किसान (पर सभी नहीं) इस व्यवस्था से सिंचाई का पानी पाते हैं। अतः यह तय किया गया है कि किसी समय किसी को एक ख़ास मात्रा से अघिक पानी नहीं दिया जा सकेगा। पानी की अघिकतम मात्रा क्या होगी - यह निर्भर है नहर की दिवाल और बांध की ऊँचाई पर। तीन सौ वर्ष पहले मराठा-राज में पेशवाओंने जब यह सिंचन व्यवस्था बनाई तभी तय किया गया कि प्रत्येक गाँव के बाँध की उचांई क्यं होगी। यह ऊँचांई बढ़ाने का हक़ किसी को नहीं है। यदि पानी नहीं बरसा, तो किसी को पानी नहीं मिलेगा। लेकिन यदि बरसा तो भी किसी एक दिन एक ख़ास मात्रा से अधिक जितना पानी आएगा, वह नदी की धारा में ही वापस जाएगा ताकि पीने के पानी का मूल स्त्रोत बना रहे। हाँ, यह संभव है कि सिंचाई के लिए अधिक दिनों तक पानी मिलता रहे -- यदि नदी की धार बरसात के मौसम के बाद भी अधिक दिनों तक बनी रहे। यह तभी सभंव है जब नदी के ऊपरी हिस्से में पेड़-झाड़ी-जंगल बहुतायत में हों, ताकि बरिश का सारा पानी बरसात में ही बहकर बह न जाए, बल्कि पहाड़ों से झरकर धीरे-धीरे आता रहे और महीनों तक बहता रहे।
नदी किनारे के सभी तीस-पैतीस गाँवों की एक समिति हर साल बरसात के मौसम से पहले और बाद में प्रत्येक बांध की जाँच-पड़ताल करती है कि कहीं किसी ने बांध को थोड़ा ऊँचा न कर दिया हो और कहीं बाँध में मरम्मत की जरूरत न हो। साथ ही गाँव के सिंचाई करने वाले सारे किसान इस बात की भी जाँच करते हैं कि क्या नहर को मरम्मत की जरूरत है। यदि बाँध या नहर में मरम्मत की आवश्यकता हुई तो उस गाँव के किसान श्रमदान के माघ्यम से इसकी पूर्ति करते हैं। इस प्रकंर बांध और नहरो की मरम्मत और नदी के पानी के बँटवारे और व्यवस्था की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से इन तीस-पैंतीस ग्रामवासियों की है, जो उन्होंने पिछले तीन सौ वर्षों से निभाई। सफल भी रहे और काडा का ख़र्चा जो आज सरकार उठाती है, वह नहीं उठाना पड़ा, क्योकि गाँव वाले सहर्ष उस काम को बखूबी करते रहे।
आज बड़े - बड़े बांधो में सिल्टिंग या मिट्टी छा जाने की समस्या बडे पैमाने पर सिरदर्द बनी हुई है। यदि बांधमें मिट्टी भर जाए तो फिर उनमें उतना पानी जमा नहीं हो पाएगा जितना डिजायन में था और किसान को उतना पानी नहीं दिया जा सकेगा, जिसकी गांरटी की चाह थी। इस प्रकार कई बांध आज निरुपयोगी होने की राह पर हैं। धुले मॉडल में मैने देखा कि सिल्टिंग या बांध में मिट्टी का आ जाना एक वरदान है न कि शाप। क्योंकि बांध में यदि मिट्टी आ गई तो बरसात में बांध जल्दी भरेगा, अर्थात नदी के उद्गम से दूर-दूर बसे गाँवों में पानी मिलने की प्रकिया जल्दी शुरू हो जाएगी। साथ ही सिंचाई के लिए पानी की वही मात्रा उपलब्ध होगी, जो कि यों भी मिल ही जाती। इस प्रकार आघुनिक बांधों में टेल-एंड जो प्रश्न है, कि अंतिम छोर को तब तक पानी नहीं मिलेगा, जब तक बीच के सभी को न मिल जाए, वह प्रश्न यहाँ पैदा नहीं होता । आधुनिक बांधो में बड़ी-बड़ी नहरें बनानी पड़ती हैं - जिन्हें आंरभ में अत्याधिक पानी ढोना पड़ता है, जिससे उनके रखरखाव, टूट-फूट की बड़ी समस्या हो जाती है। हमारे कई बड़े बांधो की उपयोगिता चालीस, पचास प्रतिशत से कम है, क्योंकि नहरें टूट-फूट गयीं, मरम्म्त नहीं हुई, कभी-कभी दुबारा बनानी पड़ी, जिससे प्रोजेक्ट पूरा करने में आठ-दस वर्ष ज़्यादा लग गयै। यह समस्या केवल बड़े ही नहीं, बल्कि मघ्यम आकार के और छोटे आकार के बांधो में भी है।
उस तुलना में पांझरा नदीकी विकेंद्रित सिंचन व्यवस्था के कारण व्यवस्थपन और मरम्मत की जिम्मेदारी छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गयी, हर गाँव के हिस्से थोड़ीसी ही जिम्मेदारी रही जो ग्रामवासियों के लिए सहज सरल था। उन्हें कहीं से ऊँचीं तनख़्वाह वाले इंजीनियर इंपोर्ट नहीं करने पड़े जैसा कि आधुनिक बांधों के लिए करने पडते हैं।
बडे बाँधोंमें बड़ी मात्रा में जमीन डूब जाती हे और लोगों के पुनर्वास की समस्या उत्पन्न होती है। साथ ही बांध और नहरों के पास की जमीन में अक्सर खारापन आ जाता है और वह खेती के लिए बेकार हो जाती है। कई बार किसान जरूरतसे अधिक पानी लेकर या गन्ने जैसी फ़सल बार-बार लेकर अपनी जमीन का भी नुकसान करते हैं। दूसरों को पानी भी नहीं मिलने देते - पानी चुराना और उससे पनपने वाली घूसखोरी और दबाव-तंत्र को कौन नहीं जानता?
दूसरा प्रश्न अधिक मूलभूत और व्यापक है। जब हम बड़ा बांध बनाकर ऊपर ही सार पानी रोक लेने हैं, तो नदी के निचले हिस्से के गाँवों का पीनेका पानी भी छीन लेते हैं। महाराष्ट्र में ऐसी कई नदियों के नाम गिनाया जा सकते है, जिनका वजूद छोटा था, छोटा है, फिर भी उनके किनारे बसे गाँव पीने के पानी और सिंचाई दोनों दृष्टि से खुशहाल थे, फिर नदी के मुहानों पर बांध बने, नीचे के प्रवाह सूख गए। बांध के आसपास पाँच-दस गाँवों की सिंचित जमीन बढी, नीचे पच्चीस-तीस गाँवों में संकट आ गया - वहाँ की जनता गऱीब ठहरी, झगड़ नहीं पाई और आज सरकार के लिए भी हर साल गर्मी के दिन एक सिरदर्द बन जाता है, जब इन गाँवों के लिए कहीं से ढूँड-ढाँडंकर, टैंकर में भरकर, पानी लाना पड़ता है। धुले में उन छोटे-छोटे बांधो से जुड़ा एक और भी प्यारासा दृश्य देखने को मिला। हर बांध मानों एक छोटा पक्षी अभयारण्य बन गया था। समय के साथ विज्ञान की प्रगति हो, या तकनीक भी आए, समाज-विकास के लिए यह आवश्यक है, लेकिन यह देखना भी आवश्यक है कि जो पुरातन तकनीक थी, उसका तुलनात्मक विश्लेषण क्या है। बांध बनाने का आधुनिक फ़लसफ़ा यह भी है कि आँखें मूंदकर उसे नकारो जो पहले था यह मत सोचो कि वह भी एक तरीक़ा हो सकता है और कभी-कभी अपनाया जा सकता है।
लेकिन शायद एक दूसरा फ़लसफ़ा इससे भी बड़ा है कि सारा व्यवस्थपन अपने हाथ में ही रखो। इस बहाने कि लोग अनाड़ी हैं, गैरजिम्मेदार हैं। फिर जो अपने हाथ में है उसे चाहे दोनों हाथों से लूटो, चाहे निरूपयोगी करार दो- पूछने वाला कौन है? इस प्रकार आधुनिक व्यास्थापन एक ईमानदार और कुशल अधिकारी के लिए मोहतात होकर रह जाता है और किसान उसकी प्रतीक्षा के अलावा कुछ नहीं कर सकते।
और हाँ एक बात और। पाझरा के बाँधोंका वर्णन मैंने गलतीसे वर्तमानकालमें कर दिया। विदित हो कि 1989 के आसपास प्रगत महाराष्ट्र के प्रगत सिंचाई-विभागने लोगोंके विरोधको तोडकर इस व्यवस्थाकी हत्या कर दी। अब वहाँ एख मध्यम सिंचन प्रकल्प है। पहले पैंतीस गांवोंमें पीनेका पानी व पंद्रहसौ एकड सिंचन होता था, अब आठ गाँवोंमें बत्तीससौ एकड सिंचन होता है, बाकी गाँव पानी के लिये तरस जाते हैं।
--------------------------------------------------------------------
11 राष्ट्रभाषा बचाने का एकसूत्री कार्यक्रम--पूरा है
राष्ट्रभाषा बचाने का एकसूत्री कार्यक्रम
- लीना मेहेंदले
करीब पैंतालीस वर्ष पहले हमारे देश में एक नया पर्व शुरू हुआ जब डेढ़ सौ वर्ष की गुलामी के बाद हम स्वतंत्र हुए। हमने अपने आप के लिये कई तरह के आश्वासन दिये, कई तरह की प्रतिज्ञाएँ की और कई तरह की आशा आकाँक्षाए भी उपजाई' भाईचारा, सबके लिये समुचित शिक्षा, सम्रपित मोका - यह थे हमारे आश्वासन और इसी के जरिये हमने उन्नति की भी आशा रखी । साथ ही एक आश्वस्तता थी कि हमें इस देश की संस्कृति, इसी देश की विचारघारा के द्धारा हम अपनी उन्नति करने जा रहे हैए इसीलिये जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कराया गया तो कई राज्यों ने राष्ट्रभाषा प्रचार का काम बडे उत्साह के साथ अपनाया।
आज कहाँ है वह प्रतिष्ठा और वह उत्साह न केवल अहिन्दी भाषी राज्यों में बल्कि हिन्दी भाषी राज्यो में भी हिन्दी का जो स्थान है वह बडा आशादायी नही कहा जा सकता हैं। यही नही, अन्य राज्यों की अपनी राजभाषा की भी क्या हालत है यह भी सोचने लायक है। कुछ वर्षो से हमने हर वर्ष संस्कृत दिन मनाने का रिवाण चलाया हुआ है। स्वतंत्रता के पूर्व और बाद में कई वर्षो तक संस्कृत का पठन-अघ्ययन हमारे यहाँ बडें उत्साह के साथ हो रहा था। अचानक यह उत्साह समाप्त हो गया मानों किसी बवंडर मे फस कर रह गया हो।
और हम ऐसी कगार पर आ खडे हुए है कि जब आज की बूढी पिढी समाप्त हो जायगी - आज से पंद्रह, बीस, वर्षो के बाद तो हमें जर्मनी सरीखे दूसरे देशों से संस्कृत सीखनी पडेगी।
फिर बात आई हिन्दी - दिवस मनाने की। अब हर वर्ष केंद्र सरकार के दप्तरो मे हिन्दी - दिवस या राष्ट्रभाषा - दिवस मनाया जा रहा है। और मै यदि कभी चार - पाँच दिनों के लिये बम्बई गई तो मुझे बडी गहराई से महसूस होता है कि जल्दी ही वहाँ मराठी दिवस मनाने की भी जरूरत आज पडेगी।
२
कही थम कर यह सोचने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है क्या इसलिये कि हमारी राष्ट्रीय भावना में कमी आ गई है या इसलिये कि हममें से हर शिक्षित आदमी युरोपीय देशों मे नौकरी करना चाहता है
या इसलिये कि अपने आसपास नजर उठाकर देखने पर हमें यह एहसास होता है कि जिसे व्यक्तिगत रूप से आगे बढना हो उसके लिये अंग्रेजी को अपनाने के अलावा कोई चारा नही है। यदि अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा दीक्षा दिलानी है, उनके लिये बडे ओहदे की आकांक्षा रखनी है तो उन्हे कान्व्हेन्ट स्कूल या अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल में भेजना पडेगा। आज देश की पचास प्रतिशत जनता और जो भी देहात या गाँव थोडा सा सुधर कर म्युनिसिपालिटी की श्रेणी में आ गया है वहाँ के लोग अपने बच्चो के लिये अंग्रेजी माध्यम का स्कूल ही पसंद करते हैं। आखिर क्यों
इस प्रश्न का विश्लेषण करने पर शायद कोई कहेगा कि हम दिखावटी हो गए है। चूँकि अंग्रजी स्कूलों का तामझाम बडा आकर्षक होता है और अंग्रेजी बोलना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है इसलिये हम उसी में उलझ कर रह गये है। यदि हम सच्चे देशभक्त है तो हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को कतई नही ठुकराना चाहिये। अंग्रेजी भाषा केवल एक खिडकी की तरह है लेकिन घर के दरवाजों से और घर के अन्दर
हमें अपनी भाषा को ही प्रतिष्ठित रखना चाहिये। पराई भाषा को अननाने की बजार अपना देशभिमान जागृत रखना चहिये इत्यादी लेकिन ऐसा कहने वालों के बच्चे भी प्रायः अंग्रेजी स्कूलों मे पढते पाये जाते है और इसमें में उनकी गलती नही मानती।
हमारी भाषाओं के पिछडते जाने का एक बडा जबर्दस्त कारण है लेखन का अभाव, पुस्तको का अभाव। दसवी पास करता हुआ विदयार्थी अपनी उमर की ऐसी कगार पर होता है कि लम्बी से लम्बी छलांग के लिये आकुल होता है। अपने आस पास, दुनियाँ से क्या लूँ, और क्या छोडूँ, अपनी जीत का झंडा कहीं गाडूँ, कुछ करके दिखाउूू ऐसा छलकता हुआ उत्साह उसमें होता है। इस उमर में हमारे आज के बच्चे यदि किसी विषय की किताबे पढना चाहे तो
३
तो किताबे हैं कहाँ हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओ में खूब किताबे लिखी जा रही है लेकिन वे सिर्फ ललितसाहित्य की श्रेणी में आती है उपन्यास, कहानी, कविता, समीक्षा, थोडे बहुत संस्मरण, कही कोई देश वर्णन इसके आगे हम कहाँ गये है भौतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, मनोविज्ञान, खेती, इलेक्ट्रानिकी, फोटोग्राफी, सँटेलाईटस, कम्प्यूटर - कोई भी विषय उठाकर गौर किजिये कि इन विष्यो पर पढने लायक कितनी किताबें हमारी भाषाओ में है पाठय पुस्तको को छोडो तो शायद कोई भी नही और पाठयपुस्तक भी हमारी जरूरतो के मुकाबले मे बहुत कम। हिन्दी के अखबारो मे पुस्तक समीक्षा पर नजर डालिये। या हिन्दी छापने वाले प्रकाशन सूची देख डालिये। चाहे पिछले तीन वर्षो का प्रकाशन पढ जाइये या पिछले तीस वर्षो का लेकिन आपकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर पानेवाली बात नही मिलेगी। यही हाल मराठी का है, गुजराती का है, बंगाली का है, और संभवतः हर भारतीय भाषा का है।
यदि हम इस भ्रम में हैं कि भाषा के फलने - फूलने का अर्थ है ललित साहित्य की बहुतायत, तो यह निःसंदेह एक निराशाजनक परिस्थिति है' जब तक किसी भाषा में हर एक विषय पर वाइमय नही तैयार होता तब तक वह भाषा पनप नही सकती, जी नही सकती। जिस संस्कृत भाषा ने हमारे देश में प्राचीन काल में कम से कम चार हजार वर्षो तक अपना प्रभाव कायम रखा, उसके साहित्य में प्रायः हर विषय पर कुछ ना कुछ लिखा गया है। न्यायशास्त्र, दशर्नशास्त्र, युध्दशास्त्र, आयुर्वेद, कृषि सिंचाई आदि कई विषयो में साहित्य - रचना हुई। अन्ततः संस्कृत भाषा का हास तब आरंभ हुआ जब उसकी साहित्य रचना केवल ललित साहित्य तक सीमित रह गई। बोलचाल की नई भाषाएँ पैदा हुई। उनका मूल ヒाोत फिर भी संस्कृत ही थी। अतः वह माना जा सकता है कि जब तक ये भाषाएं जीवित हैं, संस्कृत भाषा पूर्णतः लुप्त नहीं होंगी।
लेकिन इन भाषाओं की क्या हालत है शास्त्र साहित्य की कमी वहां भी है। और इस अभाव का नतीजा यह है कि किसी ज्ञान - पिपासु के लिए अंग्रेजी की शरण आवश्यक हो गयी है। यदि शास्त्र विषयों की किताबों की संख्या गिनी जाय तो पूरे भारत के भारतीय लेखक मिलकर जितनी पुस्तकें लिखतें हैं, उसकी कई गुनी अधिक किताबें भारतीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हैं और जो अन्य देशीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हों उनकी तो गिनती करना या तुलना करना बेकार है।
यदि हमें राष्ट्र भाषा को बचाना है तो साथ ही अन्य भाषाओं को बचाना है तो साहित्य निर्मिती का बडा अभियान चलाना होगा ताकि हर तरह के भाषाओं में कई किताबें उपलब्ध हों।
फिर सवाल केवल किताबें लिखने का नहीं हैं। यह किताबें रोचक होना भी आवश्यक है। मुझे महसूस होता है कि हमारे साहित्यकार, लेखक, या टीवी के प्रोग्राम निदेशक यह नहीं समझ पाते हैं कि जो बात या लेखन का जो ढंग एक प्रौढ व्यक्ति के लिए रोचक सिद्ध होगा, वहीं ढंग एक छोटे बच्चे के लिए नहीं अपनाया जा सकता और वही ढंग एक किशोरवयीन के लिए भी नहीं अपनाया जा सकता। अपने लेखकों के उदासीनता तब और भी अखरती है जब अंग्रेजी लाइब्रेरी में उनकी किताबों से सामना हो जाता है। दस वर्ष से छोटे बच्चों का सेक्सन मैंने एक विदेशी लाइब्रेरी में देखा। परिकथाएं, करीब पचास भाषाओं की प्रचलित लोककथाओं के संग्रह, फोटोग्राफी, संसार के प्रायः देश का भूगोल और इतिहास, आर्कियोलोजी सिविलाइजेशन्स कैसे बनते और लुप्त होते हैं, उन्हें कैसे खोजा जाता है, उनका स्थल काल कैसे तय किया जाता है इत्यादि। संसार के अच्छे म्युजियम्स, जादूगरी, माडल, हवाई जहाज बनाना और उङाना, कैलकुलस, बडे बडे वैज्ञानिकों की जीवनी और उनके प्रयोग और सिद्धांत, अंतरिक्ष उडान, गार्डनिंग, लान ग्रासेस - गरज की आप किसी भी विषय पर वहां किताब देख सकते हैं। कई विषय जो मुझे नीरस लगते थे, मैंने उस सेक्सन की किताबों से सीखे उन्ही में से एक पुस्तक पढकर मेरा बारह वर्षीय लडका मुझे समझाने लगा कि इन्पलेशन क्या होता है और उसके ''सोशल कान्सिक्वेन्सेस'' क्या होते है।
तबसे मैं अननी मान्यता के विषय मे और भी अघिक कायल हो गई हूँ कि यदि हमें राष्ट्रभाषा और अननी अन्य भाषाँए बचाना है तो यह एकसूत्री अभियान चलाना पडेगा।
साहित्य निर्मिती का साहित्य निमार्ण में भी खास कर बान साहित्य और किशोर साहित्य लिखने का काम अलग तौर पर करना पडेगा। तीसरा ध्यान रखने वाला क्षेत्र है कम्प्युटरो का आज चूँकि हर प्रोगाँम अग्रेजी भाषा में और उन्ही की लिपी में लिखे जाते है, संसार के अन्य भाषाविद भी घबराने लगे है कि कही अंग्रेजी के आगे उनकी भाषाएँ लुप्त न हो जाये। किसी दिन हमें इस समस्या को भी सुलझाना पडेगा। लेकिन हमारा पहला काम तो पूरा हो।
पता :-
लीना मेहेंदले
भाई बंगला
५० लोकमान्य काँलनी, पौड रोड,
पुणे-४११ ०२९
- लीना मेहेंदले
करीब पैंतालीस वर्ष पहले हमारे देश में एक नया पर्व शुरू हुआ जब डेढ़ सौ वर्ष की गुलामी के बाद हम स्वतंत्र हुए। हमने अपने आप के लिये कई तरह के आश्वासन दिये, कई तरह की प्रतिज्ञाएँ की और कई तरह की आशा आकाँक्षाए भी उपजाई' भाईचारा, सबके लिये समुचित शिक्षा, सम्रपित मोका - यह थे हमारे आश्वासन और इसी के जरिये हमने उन्नति की भी आशा रखी । साथ ही एक आश्वस्तता थी कि हमें इस देश की संस्कृति, इसी देश की विचारघारा के द्धारा हम अपनी उन्नति करने जा रहे हैए इसीलिये जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कराया गया तो कई राज्यों ने राष्ट्रभाषा प्रचार का काम बडे उत्साह के साथ अपनाया।
आज कहाँ है वह प्रतिष्ठा और वह उत्साह न केवल अहिन्दी भाषी राज्यों में बल्कि हिन्दी भाषी राज्यो में भी हिन्दी का जो स्थान है वह बडा आशादायी नही कहा जा सकता हैं। यही नही, अन्य राज्यों की अपनी राजभाषा की भी क्या हालत है यह भी सोचने लायक है। कुछ वर्षो से हमने हर वर्ष संस्कृत दिन मनाने का रिवाण चलाया हुआ है। स्वतंत्रता के पूर्व और बाद में कई वर्षो तक संस्कृत का पठन-अघ्ययन हमारे यहाँ बडें उत्साह के साथ हो रहा था। अचानक यह उत्साह समाप्त हो गया मानों किसी बवंडर मे फस कर रह गया हो।
और हम ऐसी कगार पर आ खडे हुए है कि जब आज की बूढी पिढी समाप्त हो जायगी - आज से पंद्रह, बीस, वर्षो के बाद तो हमें जर्मनी सरीखे दूसरे देशों से संस्कृत सीखनी पडेगी।
फिर बात आई हिन्दी - दिवस मनाने की। अब हर वर्ष केंद्र सरकार के दप्तरो मे हिन्दी - दिवस या राष्ट्रभाषा - दिवस मनाया जा रहा है। और मै यदि कभी चार - पाँच दिनों के लिये बम्बई गई तो मुझे बडी गहराई से महसूस होता है कि जल्दी ही वहाँ मराठी दिवस मनाने की भी जरूरत आज पडेगी।
२
कही थम कर यह सोचने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है क्या इसलिये कि हमारी राष्ट्रीय भावना में कमी आ गई है या इसलिये कि हममें से हर शिक्षित आदमी युरोपीय देशों मे नौकरी करना चाहता है
या इसलिये कि अपने आसपास नजर उठाकर देखने पर हमें यह एहसास होता है कि जिसे व्यक्तिगत रूप से आगे बढना हो उसके लिये अंग्रेजी को अपनाने के अलावा कोई चारा नही है। यदि अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा दीक्षा दिलानी है, उनके लिये बडे ओहदे की आकांक्षा रखनी है तो उन्हे कान्व्हेन्ट स्कूल या अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल में भेजना पडेगा। आज देश की पचास प्रतिशत जनता और जो भी देहात या गाँव थोडा सा सुधर कर म्युनिसिपालिटी की श्रेणी में आ गया है वहाँ के लोग अपने बच्चो के लिये अंग्रेजी माध्यम का स्कूल ही पसंद करते हैं। आखिर क्यों
इस प्रश्न का विश्लेषण करने पर शायद कोई कहेगा कि हम दिखावटी हो गए है। चूँकि अंग्रजी स्कूलों का तामझाम बडा आकर्षक होता है और अंग्रेजी बोलना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है इसलिये हम उसी में उलझ कर रह गये है। यदि हम सच्चे देशभक्त है तो हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को कतई नही ठुकराना चाहिये। अंग्रेजी भाषा केवल एक खिडकी की तरह है लेकिन घर के दरवाजों से और घर के अन्दर
हमें अपनी भाषा को ही प्रतिष्ठित रखना चाहिये। पराई भाषा को अननाने की बजार अपना देशभिमान जागृत रखना चहिये इत्यादी लेकिन ऐसा कहने वालों के बच्चे भी प्रायः अंग्रेजी स्कूलों मे पढते पाये जाते है और इसमें में उनकी गलती नही मानती।
हमारी भाषाओं के पिछडते जाने का एक बडा जबर्दस्त कारण है लेखन का अभाव, पुस्तको का अभाव। दसवी पास करता हुआ विदयार्थी अपनी उमर की ऐसी कगार पर होता है कि लम्बी से लम्बी छलांग के लिये आकुल होता है। अपने आस पास, दुनियाँ से क्या लूँ, और क्या छोडूँ, अपनी जीत का झंडा कहीं गाडूँ, कुछ करके दिखाउूू ऐसा छलकता हुआ उत्साह उसमें होता है। इस उमर में हमारे आज के बच्चे यदि किसी विषय की किताबे पढना चाहे तो
३
तो किताबे हैं कहाँ हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओ में खूब किताबे लिखी जा रही है लेकिन वे सिर्फ ललितसाहित्य की श्रेणी में आती है उपन्यास, कहानी, कविता, समीक्षा, थोडे बहुत संस्मरण, कही कोई देश वर्णन इसके आगे हम कहाँ गये है भौतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, मनोविज्ञान, खेती, इलेक्ट्रानिकी, फोटोग्राफी, सँटेलाईटस, कम्प्यूटर - कोई भी विषय उठाकर गौर किजिये कि इन विष्यो पर पढने लायक कितनी किताबें हमारी भाषाओ में है पाठय पुस्तको को छोडो तो शायद कोई भी नही और पाठयपुस्तक भी हमारी जरूरतो के मुकाबले मे बहुत कम। हिन्दी के अखबारो मे पुस्तक समीक्षा पर नजर डालिये। या हिन्दी छापने वाले प्रकाशन सूची देख डालिये। चाहे पिछले तीन वर्षो का प्रकाशन पढ जाइये या पिछले तीस वर्षो का लेकिन आपकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर पानेवाली बात नही मिलेगी। यही हाल मराठी का है, गुजराती का है, बंगाली का है, और संभवतः हर भारतीय भाषा का है।
यदि हम इस भ्रम में हैं कि भाषा के फलने - फूलने का अर्थ है ललित साहित्य की बहुतायत, तो यह निःसंदेह एक निराशाजनक परिस्थिति है' जब तक किसी भाषा में हर एक विषय पर वाइमय नही तैयार होता तब तक वह भाषा पनप नही सकती, जी नही सकती। जिस संस्कृत भाषा ने हमारे देश में प्राचीन काल में कम से कम चार हजार वर्षो तक अपना प्रभाव कायम रखा, उसके साहित्य में प्रायः हर विषय पर कुछ ना कुछ लिखा गया है। न्यायशास्त्र, दशर्नशास्त्र, युध्दशास्त्र, आयुर्वेद, कृषि सिंचाई आदि कई विषयो में साहित्य - रचना हुई। अन्ततः संस्कृत भाषा का हास तब आरंभ हुआ जब उसकी साहित्य रचना केवल ललित साहित्य तक सीमित रह गई। बोलचाल की नई भाषाएँ पैदा हुई। उनका मूल ヒाोत फिर भी संस्कृत ही थी। अतः वह माना जा सकता है कि जब तक ये भाषाएं जीवित हैं, संस्कृत भाषा पूर्णतः लुप्त नहीं होंगी।
लेकिन इन भाषाओं की क्या हालत है शास्त्र साहित्य की कमी वहां भी है। और इस अभाव का नतीजा यह है कि किसी ज्ञान - पिपासु के लिए अंग्रेजी की शरण आवश्यक हो गयी है। यदि शास्त्र विषयों की किताबों की संख्या गिनी जाय तो पूरे भारत के भारतीय लेखक मिलकर जितनी पुस्तकें लिखतें हैं, उसकी कई गुनी अधिक किताबें भारतीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हैं और जो अन्य देशीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हों उनकी तो गिनती करना या तुलना करना बेकार है।
यदि हमें राष्ट्र भाषा को बचाना है तो साथ ही अन्य भाषाओं को बचाना है तो साहित्य निर्मिती का बडा अभियान चलाना होगा ताकि हर तरह के भाषाओं में कई किताबें उपलब्ध हों।
फिर सवाल केवल किताबें लिखने का नहीं हैं। यह किताबें रोचक होना भी आवश्यक है। मुझे महसूस होता है कि हमारे साहित्यकार, लेखक, या टीवी के प्रोग्राम निदेशक यह नहीं समझ पाते हैं कि जो बात या लेखन का जो ढंग एक प्रौढ व्यक्ति के लिए रोचक सिद्ध होगा, वहीं ढंग एक छोटे बच्चे के लिए नहीं अपनाया जा सकता और वही ढंग एक किशोरवयीन के लिए भी नहीं अपनाया जा सकता। अपने लेखकों के उदासीनता तब और भी अखरती है जब अंग्रेजी लाइब्रेरी में उनकी किताबों से सामना हो जाता है। दस वर्ष से छोटे बच्चों का सेक्सन मैंने एक विदेशी लाइब्रेरी में देखा। परिकथाएं, करीब पचास भाषाओं की प्रचलित लोककथाओं के संग्रह, फोटोग्राफी, संसार के प्रायः देश का भूगोल और इतिहास, आर्कियोलोजी सिविलाइजेशन्स कैसे बनते और लुप्त होते हैं, उन्हें कैसे खोजा जाता है, उनका स्थल काल कैसे तय किया जाता है इत्यादि। संसार के अच्छे म्युजियम्स, जादूगरी, माडल, हवाई जहाज बनाना और उङाना, कैलकुलस, बडे बडे वैज्ञानिकों की जीवनी और उनके प्रयोग और सिद्धांत, अंतरिक्ष उडान, गार्डनिंग, लान ग्रासेस - गरज की आप किसी भी विषय पर वहां किताब देख सकते हैं। कई विषय जो मुझे नीरस लगते थे, मैंने उस सेक्सन की किताबों से सीखे उन्ही में से एक पुस्तक पढकर मेरा बारह वर्षीय लडका मुझे समझाने लगा कि इन्पलेशन क्या होता है और उसके ''सोशल कान्सिक्वेन्सेस'' क्या होते है।
तबसे मैं अननी मान्यता के विषय मे और भी अघिक कायल हो गई हूँ कि यदि हमें राष्ट्रभाषा और अननी अन्य भाषाँए बचाना है तो यह एकसूत्री अभियान चलाना पडेगा।
साहित्य निर्मिती का साहित्य निमार्ण में भी खास कर बान साहित्य और किशोर साहित्य लिखने का काम अलग तौर पर करना पडेगा। तीसरा ध्यान रखने वाला क्षेत्र है कम्प्युटरो का आज चूँकि हर प्रोगाँम अग्रेजी भाषा में और उन्ही की लिपी में लिखे जाते है, संसार के अन्य भाषाविद भी घबराने लगे है कि कही अंग्रेजी के आगे उनकी भाषाएँ लुप्त न हो जाये। किसी दिन हमें इस समस्या को भी सुलझाना पडेगा। लेकिन हमारा पहला काम तो पूरा हो।
पता :-
लीना मेहेंदले
भाई बंगला
५० लोकमान्य काँलनी, पौड रोड,
पुणे-४११ ०२९
07 भण्डाफोड से उजागर गलतियाँ--पूरा है
भण्डाफोड से उजागर गलतियाँ
आज जब देश के सारे पत्रो में यही समाचार उछाला जा रहा है, कि क्या श्री रावने हर्षद मेहता से एक करोड रुपये लिये, या कैसे लिये या नही लिये, तो आईये जरा उन गलतियो को गिनने का प्रयास भी करें, जो इस काण्ड में श्री राव ने की हैं, और हमने की हैं। पहले कुछ देर हम या मानकर चलते हैं कि अपने अफेडेविट में एक करोड की घटना के विषय में हर्षद मेहता ने जो कुछ कहा हैं, वह सारा सच है। बाद में दूसरी चर्चा हम यह मानकर करेंगें कि हर्षद ने गलत ब्यौरा दिया है।
श्री राव की पहली गलती है चुनाव लडने के लिये इतना बडा बजेट बनाने की। माना कि आज चुनाव लडने के लिये हर किसी को पैसे की जुगत भिडानी पडती हैं, माना कि अमरीका जैसे प्रगत और जागरुक देश के चुनावी उम्मीदवार भी इससे नही बच पाये है, फिर भी देश के कानून के मुताबिक और देश के लिये आवश्यक स्वच्छ प्रशासन को नजर मे रखते हुए यह कहना पडेगा कि जो भी चुनावी उम्मीदवार चुनाव लडने के लिए इतनी बडी रकम लागत पर लगाने बात को स्वीकार करता है, उससे आप भ्रष्ट प्रशासन की ही अपेक्षा कर सकते है, स्वच्छ प्रशासन की नही। और हम सारे बुध्दिजीवी जो हर चुनाव में बढोतरी होने वाली चुनावी लागत को देख रहे है, और स्वीकार कर रहे हैं कि, 'हाँ आखिर उम्मीदवार भी बिचारा क्या करें?' वो हम सारे भी उस भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी और दुष्परिणामों को ढो रहें हैं और ढोते रहेंगे। फिर भी हममें और उम्मीदवार में एक फर्क अवश्य रहेगा। हमनें जो गलती हताशा में और अकर्मण्यता के कारण स्वीकार की है और जिसका दुष्परिणाम भी हमें ही भुगतना है, वह गलती चुनावी उम्मीदवार अपनी मर्जी से करता है, और उस धन व सत्ता के लिये करता है जो कई बार उसे मिल भी जाते हैं। इसे करने में जो बेईमानी हैं, वह उम्मीदवार की ही हैं। और यदि सौ उम्मीदवार यह गलती करते हैं और नही पकडे जाते, तो इससे उस एक उम्मीदवार की गलती नही छिप जाती जो पकडा जाये। उसकी और बाकी न पकडे जाने वाले उम्मीदवारों की गलती के प्रति यदि हम और आप आवाज नही उठाते तो इसका अर्थ है कि हमें वह दुर्भाग्य और दुरवस्था मंजूर है, जिसे हम अपनी इस अकर्मण्यता के द्वारा आमंत्रण दे रहे है। अगर श्री राव ने भ्रष्ट आचरण की गलती की है, तो हमने भी गलती है अकर्मण्यता की। और हमारी गलती उनकी गलती से कई गुना अधिक गंभीर है।
अगर हम मान लें कि हर्षद मेहता ने जो कुछ कहा है, वह सच कहा है, तो कई और गलतियां उजागर हो जाती हैं। एक खतरनाक गलती सुरक्षा से संबंधित है। अगर हर्षद का कहना सच है तो यह मानना पडेगा कि, हर्षद जिन सुटकेसों को लेकर श्री राव से मिलने गया उन सुटकेसों की जाँच किसी भी सुरक्षाकर्मी ने नही की। साथ ही हर्षद का यह कहना है कि, उसने राव के साथ और श्री खांडेकर के साथ हुए वार्तालाप को टेप भी किया है और टेप भी उसके पास उपलब्ध है। प्रश्न यह उठता है की सुरक्षाकर्मियों ने उसे इस प्रकार टेपरेकॉर्डर अंदर किस प्रकार ले जाने दिया। अगर उसका कहना सही है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं की सुरक्षाकर्मियों का काम कितना ढीला पड गया है या पड सकता है। भविष्य में कोई भी धनी व्यक्ति पैसे भरा सूटकेस देने के बहाने रिवॉल्वर ले आ सकता है और कुछ भी हो सकता है।
कई लेखकों के विश्लेषण में यह तर्क आया कि जब हर्षद ने श्री राव को पैसे दिये उस समय बैंक
के प्रतिभूतियों के घोटाले नहीं शुरु हुए थे। इसलिये यह मानना गलत है कि इस प्रतिभूति के घोटाले के लेखक या कर्ताधर्ता भी श्री राव ही हैं। या यह मानना भी गलत है कि हर्षद मेहता ने यह पैसे राव को उन प्रतिभूति घोटालों को ठंडा करने के लिये दिये थे। लेकिन इस मुद्दे की चर्चा बाद में करेंगे। गौर करने की
बात हैं कि, अगर श्री राव ने हर्षद से एक करोड रुपये लिये या उन्हें बताया गया कि, उन्हें हर्षद से एक करोड रुपये मिलने वाले है, तो उनके दिमाग में सबसे पहले यह प्रश्न उठना चाहिए कि, हर्षद मुझे यह पैसे किस लिये दे रहा हैं? और बदले में मुझसे क्या लेने वाला है। और कितना लेनेवाला है। हर्षद कहता है, और चाहता है कि हम मान लें कि यह महज एक चुनावी डोनेशन था। लेकिन जरा अपने अपने शब्दकोष पल्ट कर देखिए कि ' महज चुनावी डोनेशन ' इन शब्दों का अर्थ क्या निकलता है? इसका अर्थ यह नही है कि उसने यह रुपये उठाए, दे दिये और दामन झटक कर अलग हो गया। वह जानता था और राव भी जानते थे इस एक करोड का मूल्य कई गुना बढा चढा कर ही वसूल किया जाएगा और मान रहा था कि राव को उसमें कोई आपत्त्िा भी नही होगी। यदी राव इसे गलती नही मानते और यदि हम और आप इसे गलत मानते हैं तो इसे सुधारने का उपाय भी हमें ही करना है।
हर्षद का कहना है कि, इसका परिचय बम्बई के दो जगमगाते सितारो के रुप मे कराया गया और तीन मिनिटों में उसने और उसके भाई अश्र्िवन मेहता ने श्री राव को समझाया कि इस देश की एकॉनॉमी को आगे ले जाने का, प्रगति के रास्ते पर, विकास के रास्ते पर ले जाने का वही आसान तरीका हो सकता है, जो वह अपना रहा है या अपनाने वाला है। यदी हम मान लें कि श्री राव ने उन तीन मिनटो की बात को अच्छी तरह से सुन लिया और स्वीकार भी कर लिया, तो यह सबसे बडी गलती मानी जानी चाहिए। बल्कि सच तो यह है कि, भले ही श्री राव ने यह गलती की हो या न की हो पर हम यह गलती कर रहें है, कि हम हर्षद को एक बडा व्यापारी मान रहे हैं, ईमानदार मान रहे हैं और जब वह यह प्रश्न उठाता है की क्या इस देश में उसे अपने मनपसंद रोजगार करने का हक नही है, तो हम भी अपना सिर हिला कर कहते है 'हाँ भाई हाँ, हक तो उसे होना ही चाहिए।' हाँलाकि कुछ अखबारों ने हर्षद के इस ब्यान का समर्थन नही किया है, फिर भी ऐसा लगता है कि सामान्य आदमी की सहानुभूति इस प्रश्न को सुनने के बाद हर्षद के साथ हो गई है। जब देश में करोड से अधिक बेरोजगार पडे हुए है, और ३० - ४० करोड से अधिक लोग पर्याप्त काम न होने से आधे पेट जिंदगी गुजार रहे है तो जो भी आदमी रोजगार के हक की दुहाई देगा, जनता उसके साथ साहनुभूति दिखाएगी।
इसलिए इस बात की जाँच परख करना आवश्यक हो जाता है की, जिसे हर्षद अपना व्यापार, अपना पेट पालने का धंधा कहता है। वह क्या इस वर्णन के पात्र है। इसके लिए हमें यह बडे साफ गोई के साथ समझना पडेगा कि, व्यापार या रोजगार ऐसी चीज है, ऐसी बात है जो पूर्णतया आपकी उत्पादन क्षमता पर निर्भर करती है। अगर आप किसी चीज की पैदावार नही कर रहे है, या अगर आपका व्यापार किसी बात के पैदावार को बढावा देने के लिये नही है तो इसे एक इमानदार व्यापार या इमानदार रोजगार नही कहा जा सकता। बल्कि इसे रोजगार ही नही कहा जा सकता। यह सरासर लूट है, डकैती है और हर्षद इसे कर रहा है और सवाल हम से पूछ रहा है, इस देश की जनता से पूछ रहा है कि क्या इस देश में उसे रोटी का हक नही है? क्या इस देश में उसे रोजगार करने का हक नही है? भई, रोजगार करने का हक तो था, अगर तुम्हें रोजगार करना होता। हर सामान्य आदमी इस बात को जानता है कि, इस देश में ऐसा कोई रोजगार, ऐसा कोई व्यापार, ऐसा कोई पैदावार, ऐसी कोई इंडस्ट्री, अभी तक नही पैदा हुई जिसमें एक आदमी चार या छः वर्षों में ही इतने पैसे कमा ले कि उसके पास बैंक के सेव्हिंग अकाउंट में इकट्ठे निकालने के लिये ८० लाख रुपये से भी ज्यादा रुपये पडे रहते है। जरा सोचिए, एक परफ तो सामान्य आदमी है जो अगर बैंक में १००० रुपये जमा हो जाते है तो सोचता है कि, चलो इसकी क़क़्ङ बना ली जाए। दूसरी तरफ हर्षद मेहता जैसा आदमी है जो अपने आदमी को बैंक में दो चैको के साथ भेजता है। इसमें से एक चैक है ८० लाख का और दूसरा चैक है कोरा कि चाहे उसमे जो रकम लिखवा लो। इसके अलावा हर्षद के घर में १५ लाख रुपये ऐसे ही फालतू पडे थे। और वो भी वह दिल्ली ले जा सका। इसके अलावा उसके उसके दूसरे बैंक के
सेव्हिंग में पैसे यूही पडे हुये थे और उसमें से उसने तीस लाख रुपये निकाले। फिर वह जाता है दिल्ली वहाँ भी यूही सेव्हिंग बैंक में उसके पैसे पडे हुये हैं, वहाँ से वह निकालता है ४५ लाख। इन आकडो को देखिए और बताइये अपने दिमाग पर हाथ रखकर और दिल पर हाथ रखकर कि इस देश में ऐसा कौन सा इमानदार व्यापार है, जो आप और हम जानते है, जिसको करने से इतने पैसे मिलते हो कि, आप अपने घर में इतनी कैश इकठ्ठी रखे और आप अपनी बैंक कि सेव्हिंग अकाउंट में इतनी कैश इकट्ठी पडी रहने दें। अगर हर्षद का यह कहना सच है कि, वह श्री नरसिंह राव से मिला, उसने श्री राव को एक करोड रुपये दिये और श्री नरसिंह राव ने उसकी बाते आंनदपूर्वक सुन ली और उससे कहा कि, आप आइए, और दोबारा मुलाकात किजिए। हम अपने अर्थमंत्री से आपको मिलवायेंगे इत्यादि तो इस पूरे काण्ड में मेरी निगाह में श्री राव की सबसे बडी गलती यह नही है की, उन्होनें एक करोड रुपये लिये। यह भी नही है कि उन्होने हर्षद जैसे आदमी को मिलने के लिए मौका दिया। उनकी सबसे बडी गलती यह थी, कि जब हर्षद ने उनसे कहा की कैसे कम ही समय में पैसे बनाये जाते है तो उसी समय श्री राव की समझ में आना चाहिए था कि यह इमानदारी के रास्ते की बात नही कर रहा । अगर हमारे देश का प्रधानमंत्री इस बात को नही समझ सकता है तो हमारी राजनिति, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारा समाज अवश्यमेव डूबेगा। हम आज श्री रीव के प्रति सहानुभूति रखे या न रखे यह बात अलाहिदा है। लेकिन हमें यह अच्छी तरह से समझना चाहिए कि इस पूरे काण्ड में अगर उनसे कई गलतियां हुई है तो सबसे बडी गलती कहा हुई । अगर इस गलती को हम गलती नही कहेंगे तो हम भी अपनी जिम्मेदारी से नही बच सकते और यदि कुछ आशा इस देश के बचने की है तो वह इसी बात पर निर्भर करती हैं, कि हम में से कितने व्यक्ति इस गलती को गलती कहकर पहचान सकते हैं।
दिनांक : २९-०६-२००५
आज जब देश के सारे पत्रो में यही समाचार उछाला जा रहा है, कि क्या श्री रावने हर्षद मेहता से एक करोड रुपये लिये, या कैसे लिये या नही लिये, तो आईये जरा उन गलतियो को गिनने का प्रयास भी करें, जो इस काण्ड में श्री राव ने की हैं, और हमने की हैं। पहले कुछ देर हम या मानकर चलते हैं कि अपने अफेडेविट में एक करोड की घटना के विषय में हर्षद मेहता ने जो कुछ कहा हैं, वह सारा सच है। बाद में दूसरी चर्चा हम यह मानकर करेंगें कि हर्षद ने गलत ब्यौरा दिया है।
श्री राव की पहली गलती है चुनाव लडने के लिये इतना बडा बजेट बनाने की। माना कि आज चुनाव लडने के लिये हर किसी को पैसे की जुगत भिडानी पडती हैं, माना कि अमरीका जैसे प्रगत और जागरुक देश के चुनावी उम्मीदवार भी इससे नही बच पाये है, फिर भी देश के कानून के मुताबिक और देश के लिये आवश्यक स्वच्छ प्रशासन को नजर मे रखते हुए यह कहना पडेगा कि जो भी चुनावी उम्मीदवार चुनाव लडने के लिए इतनी बडी रकम लागत पर लगाने बात को स्वीकार करता है, उससे आप भ्रष्ट प्रशासन की ही अपेक्षा कर सकते है, स्वच्छ प्रशासन की नही। और हम सारे बुध्दिजीवी जो हर चुनाव में बढोतरी होने वाली चुनावी लागत को देख रहे है, और स्वीकार कर रहे हैं कि, 'हाँ आखिर उम्मीदवार भी बिचारा क्या करें?' वो हम सारे भी उस भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी और दुष्परिणामों को ढो रहें हैं और ढोते रहेंगे। फिर भी हममें और उम्मीदवार में एक फर्क अवश्य रहेगा। हमनें जो गलती हताशा में और अकर्मण्यता के कारण स्वीकार की है और जिसका दुष्परिणाम भी हमें ही भुगतना है, वह गलती चुनावी उम्मीदवार अपनी मर्जी से करता है, और उस धन व सत्ता के लिये करता है जो कई बार उसे मिल भी जाते हैं। इसे करने में जो बेईमानी हैं, वह उम्मीदवार की ही हैं। और यदि सौ उम्मीदवार यह गलती करते हैं और नही पकडे जाते, तो इससे उस एक उम्मीदवार की गलती नही छिप जाती जो पकडा जाये। उसकी और बाकी न पकडे जाने वाले उम्मीदवारों की गलती के प्रति यदि हम और आप आवाज नही उठाते तो इसका अर्थ है कि हमें वह दुर्भाग्य और दुरवस्था मंजूर है, जिसे हम अपनी इस अकर्मण्यता के द्वारा आमंत्रण दे रहे है। अगर श्री राव ने भ्रष्ट आचरण की गलती की है, तो हमने भी गलती है अकर्मण्यता की। और हमारी गलती उनकी गलती से कई गुना अधिक गंभीर है।
अगर हम मान लें कि हर्षद मेहता ने जो कुछ कहा है, वह सच कहा है, तो कई और गलतियां उजागर हो जाती हैं। एक खतरनाक गलती सुरक्षा से संबंधित है। अगर हर्षद का कहना सच है तो यह मानना पडेगा कि, हर्षद जिन सुटकेसों को लेकर श्री राव से मिलने गया उन सुटकेसों की जाँच किसी भी सुरक्षाकर्मी ने नही की। साथ ही हर्षद का यह कहना है कि, उसने राव के साथ और श्री खांडेकर के साथ हुए वार्तालाप को टेप भी किया है और टेप भी उसके पास उपलब्ध है। प्रश्न यह उठता है की सुरक्षाकर्मियों ने उसे इस प्रकार टेपरेकॉर्डर अंदर किस प्रकार ले जाने दिया। अगर उसका कहना सही है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं की सुरक्षाकर्मियों का काम कितना ढीला पड गया है या पड सकता है। भविष्य में कोई भी धनी व्यक्ति पैसे भरा सूटकेस देने के बहाने रिवॉल्वर ले आ सकता है और कुछ भी हो सकता है।
कई लेखकों के विश्लेषण में यह तर्क आया कि जब हर्षद ने श्री राव को पैसे दिये उस समय बैंक
के प्रतिभूतियों के घोटाले नहीं शुरु हुए थे। इसलिये यह मानना गलत है कि इस प्रतिभूति के घोटाले के लेखक या कर्ताधर्ता भी श्री राव ही हैं। या यह मानना भी गलत है कि हर्षद मेहता ने यह पैसे राव को उन प्रतिभूति घोटालों को ठंडा करने के लिये दिये थे। लेकिन इस मुद्दे की चर्चा बाद में करेंगे। गौर करने की
बात हैं कि, अगर श्री राव ने हर्षद से एक करोड रुपये लिये या उन्हें बताया गया कि, उन्हें हर्षद से एक करोड रुपये मिलने वाले है, तो उनके दिमाग में सबसे पहले यह प्रश्न उठना चाहिए कि, हर्षद मुझे यह पैसे किस लिये दे रहा हैं? और बदले में मुझसे क्या लेने वाला है। और कितना लेनेवाला है। हर्षद कहता है, और चाहता है कि हम मान लें कि यह महज एक चुनावी डोनेशन था। लेकिन जरा अपने अपने शब्दकोष पल्ट कर देखिए कि ' महज चुनावी डोनेशन ' इन शब्दों का अर्थ क्या निकलता है? इसका अर्थ यह नही है कि उसने यह रुपये उठाए, दे दिये और दामन झटक कर अलग हो गया। वह जानता था और राव भी जानते थे इस एक करोड का मूल्य कई गुना बढा चढा कर ही वसूल किया जाएगा और मान रहा था कि राव को उसमें कोई आपत्त्िा भी नही होगी। यदी राव इसे गलती नही मानते और यदि हम और आप इसे गलत मानते हैं तो इसे सुधारने का उपाय भी हमें ही करना है।
हर्षद का कहना है कि, इसका परिचय बम्बई के दो जगमगाते सितारो के रुप मे कराया गया और तीन मिनिटों में उसने और उसके भाई अश्र्िवन मेहता ने श्री राव को समझाया कि इस देश की एकॉनॉमी को आगे ले जाने का, प्रगति के रास्ते पर, विकास के रास्ते पर ले जाने का वही आसान तरीका हो सकता है, जो वह अपना रहा है या अपनाने वाला है। यदी हम मान लें कि श्री राव ने उन तीन मिनटो की बात को अच्छी तरह से सुन लिया और स्वीकार भी कर लिया, तो यह सबसे बडी गलती मानी जानी चाहिए। बल्कि सच तो यह है कि, भले ही श्री राव ने यह गलती की हो या न की हो पर हम यह गलती कर रहें है, कि हम हर्षद को एक बडा व्यापारी मान रहे हैं, ईमानदार मान रहे हैं और जब वह यह प्रश्न उठाता है की क्या इस देश में उसे अपने मनपसंद रोजगार करने का हक नही है, तो हम भी अपना सिर हिला कर कहते है 'हाँ भाई हाँ, हक तो उसे होना ही चाहिए।' हाँलाकि कुछ अखबारों ने हर्षद के इस ब्यान का समर्थन नही किया है, फिर भी ऐसा लगता है कि सामान्य आदमी की सहानुभूति इस प्रश्न को सुनने के बाद हर्षद के साथ हो गई है। जब देश में करोड से अधिक बेरोजगार पडे हुए है, और ३० - ४० करोड से अधिक लोग पर्याप्त काम न होने से आधे पेट जिंदगी गुजार रहे है तो जो भी आदमी रोजगार के हक की दुहाई देगा, जनता उसके साथ साहनुभूति दिखाएगी।
इसलिए इस बात की जाँच परख करना आवश्यक हो जाता है की, जिसे हर्षद अपना व्यापार, अपना पेट पालने का धंधा कहता है। वह क्या इस वर्णन के पात्र है। इसके लिए हमें यह बडे साफ गोई के साथ समझना पडेगा कि, व्यापार या रोजगार ऐसी चीज है, ऐसी बात है जो पूर्णतया आपकी उत्पादन क्षमता पर निर्भर करती है। अगर आप किसी चीज की पैदावार नही कर रहे है, या अगर आपका व्यापार किसी बात के पैदावार को बढावा देने के लिये नही है तो इसे एक इमानदार व्यापार या इमानदार रोजगार नही कहा जा सकता। बल्कि इसे रोजगार ही नही कहा जा सकता। यह सरासर लूट है, डकैती है और हर्षद इसे कर रहा है और सवाल हम से पूछ रहा है, इस देश की जनता से पूछ रहा है कि क्या इस देश में उसे रोटी का हक नही है? क्या इस देश में उसे रोजगार करने का हक नही है? भई, रोजगार करने का हक तो था, अगर तुम्हें रोजगार करना होता। हर सामान्य आदमी इस बात को जानता है कि, इस देश में ऐसा कोई रोजगार, ऐसा कोई व्यापार, ऐसा कोई पैदावार, ऐसी कोई इंडस्ट्री, अभी तक नही पैदा हुई जिसमें एक आदमी चार या छः वर्षों में ही इतने पैसे कमा ले कि उसके पास बैंक के सेव्हिंग अकाउंट में इकट्ठे निकालने के लिये ८० लाख रुपये से भी ज्यादा रुपये पडे रहते है। जरा सोचिए, एक परफ तो सामान्य आदमी है जो अगर बैंक में १००० रुपये जमा हो जाते है तो सोचता है कि, चलो इसकी क़क़्ङ बना ली जाए। दूसरी तरफ हर्षद मेहता जैसा आदमी है जो अपने आदमी को बैंक में दो चैको के साथ भेजता है। इसमें से एक चैक है ८० लाख का और दूसरा चैक है कोरा कि चाहे उसमे जो रकम लिखवा लो। इसके अलावा हर्षद के घर में १५ लाख रुपये ऐसे ही फालतू पडे थे। और वो भी वह दिल्ली ले जा सका। इसके अलावा उसके उसके दूसरे बैंक के
सेव्हिंग में पैसे यूही पडे हुये थे और उसमें से उसने तीस लाख रुपये निकाले। फिर वह जाता है दिल्ली वहाँ भी यूही सेव्हिंग बैंक में उसके पैसे पडे हुये हैं, वहाँ से वह निकालता है ४५ लाख। इन आकडो को देखिए और बताइये अपने दिमाग पर हाथ रखकर और दिल पर हाथ रखकर कि इस देश में ऐसा कौन सा इमानदार व्यापार है, जो आप और हम जानते है, जिसको करने से इतने पैसे मिलते हो कि, आप अपने घर में इतनी कैश इकठ्ठी रखे और आप अपनी बैंक कि सेव्हिंग अकाउंट में इतनी कैश इकट्ठी पडी रहने दें। अगर हर्षद का यह कहना सच है कि, वह श्री नरसिंह राव से मिला, उसने श्री राव को एक करोड रुपये दिये और श्री नरसिंह राव ने उसकी बाते आंनदपूर्वक सुन ली और उससे कहा कि, आप आइए, और दोबारा मुलाकात किजिए। हम अपने अर्थमंत्री से आपको मिलवायेंगे इत्यादि तो इस पूरे काण्ड में मेरी निगाह में श्री राव की सबसे बडी गलती यह नही है की, उन्होनें एक करोड रुपये लिये। यह भी नही है कि उन्होने हर्षद जैसे आदमी को मिलने के लिए मौका दिया। उनकी सबसे बडी गलती यह थी, कि जब हर्षद ने उनसे कहा की कैसे कम ही समय में पैसे बनाये जाते है तो उसी समय श्री राव की समझ में आना चाहिए था कि यह इमानदारी के रास्ते की बात नही कर रहा । अगर हमारे देश का प्रधानमंत्री इस बात को नही समझ सकता है तो हमारी राजनिति, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारा समाज अवश्यमेव डूबेगा। हम आज श्री रीव के प्रति सहानुभूति रखे या न रखे यह बात अलाहिदा है। लेकिन हमें यह अच्छी तरह से समझना चाहिए कि इस पूरे काण्ड में अगर उनसे कई गलतियां हुई है तो सबसे बडी गलती कहा हुई । अगर इस गलती को हम गलती नही कहेंगे तो हम भी अपनी जिम्मेदारी से नही बच सकते और यदि कुछ आशा इस देश के बचने की है तो वह इसी बात पर निर्भर करती हैं, कि हम में से कितने व्यक्ति इस गलती को गलती कहकर पहचान सकते हैं।
दिनांक : २९-०६-२००५
12 खैरनार के पक्ष में
खैरनार के पक्ष में
-- लीना मेहेंदले
दो-चार महीने पहिले कई लोग श्री खैरनार को आदर की दृष्टि से देखते थे- इसलिये कि यह एक ऐसा अधिकारी था जिसने सरकार की सर्वोच्च कुर्सी को चॅलेंज दे दिया। उन्हे काम सौंपा था कि अतिक्रमणों को तोडो - मुंबई को क्लीन रखो ताकि हम शासकों की जिंदगी सुख चेन से गुजारें। जब तक खैरनार झोपडपट्टियों को तोडते रहे, फूटपाथ से स्टॉलवालों को हटाते रहे, रास्तों पर से मंदिर मस्जिद या कोई भी अन्य बिल्डिंग उठवाते रहे तब तक गरीबों का आक्रोश चाहे उनके सर पर आ पडा हो पर धनिकों का अंगार नही पडा था। और जिन गरीबों का आक्रोश था उन्हें कहीं न कहीं अपनी गलती का एहसास भी था। क्योंकि इसमें कोई दो राय नही है कि उनके अनधिकार व्यवसाय या झोपडपट्टी को रोककर उनके लिए किसी अलग तरह के प्लॉनिंग की जरूरत है।
लेकिन जब खैरनार ने अपना रूख उन धनिकों की ओर उठाया जो पैसे के बल पर कुर्सी और कुर्सीधारियों को खरीद सकते हैं- और बदले में न केवल धन बल्कि वोट, मसलमॅन, भूखंड, फ्लॅट, और आर डी एक्स भी दे सकते हैं तो सारे कुर्सीधारी चौंक गये। खैरनार को रोकने के प्रयास व्यर्थ रहे क्योंकि जब उन्हें अतिक्रमण विभाग से हटा दिया गया तो उन्होंने बोलना शुरू कर दिया। जब उन्हें सस्पेंड किया गया तो उन्होंने और अधिक बोलना शुरू कर दिया। इस बीच उन्हे मूर्ख और पागल कहा गया और न्यायालय के सामने खींचने की बात भी हुई लेकिन उन्हें चुप नही किया जा सका। वह हिम्मत दिखाते रहे और लोगों को बताते रहे कि उन्हें किसलिये रोका जा रहा है, किसके कहने से रोका जा रहा है, और इस रोकने का अर्थ केवल एक ही है- भ्रष्टाचार।
खैरनार के प्रति लोगों का आदर बढा वह उनकी इस हिम्मत के कारण। कुर्सी के भ्रष्टाचार का नतीजा तो सभी देख रहे थे। इसमें किसी को कोई संदेह नही था कि आज कानून और सुव्यवस्था की जो बिगडी हुई हालत है वह कुर्सी के भ्रष्टाचार के ही कारण है। लेकिन हमारे यहाँ महाभारत काल से ही एक आदर्श चला आ रहा है कि बेहोश अभिमन्यु के सिर पर लात मार कर उसका सिर काटने वाले जयद्रथ को सामने देखने पर भी वचनबद्ध अर्जुन ने उस पर शस्त्र नही उठाया- बेटे के अपमान और मृत्यु का दुख पीकर भी अर्जुन का धनुष नही उठा। आखिर कृष्ण को सूर्य पर से अपना चक्र हटाना पडा- तो देखो अर्जुन- वह है सूर्य और वह है जयद्रथ। यानि तुम्हारे वचन के अनुसार दिन अभी डूबा नही है- अब चलाओ अपना तीर! इसलिये जब खैरनार बोलने लगे तो लोगों का उत्साह उमड पडा अब यह हिम्मतवाला सबकी पोल खोलकर हमें से छुटकारा दिलायेगा।
वैसे पिछले पंद्रह दिनों में खैरनार को मिलने वाला जनता का सपोर्ट या सम्मान घटा नही है लेकिन अब उसमें एक दुर्भाग्यपूण मोड आ गया है। कई 'इंटलेक्चुअल्स्' कहने लगे हैं कि खैरनार जो आरोप कर रहे हैं उसका सबूत भी पेश करें। उधर खैरनार ने यह भूमिका अपनाई है कि सबूत जुटान मेरा काम नही है। इसी बात पर इंटलेक्चुअल्स भरमा गये हैं- खैरनार की बुराई करने की या कम से कम उनकी तरु एक प्रश्नचिन्ह लगाने की एक होड अब आरंभ हो गई है और इस सिद्धान्त की दुहाई दी जा रही है कि जब
तक न्यायालय के सम्मुख सारे सबूत पेश करके भ्रष्टाचार को सिद्ध नही किया जा सकता तब तक खैरनार को सही नही मानना चाहिये न ही उन्हें कोई बढावा देना चाहिये।
यह तर्क एक ऐसी गुगली है, ऐसी भूलभलैया है जिससे हमें बिल्कुल बचकर निकलना होगा। खैरनार की भूमिका को इस हद तक अवश्य स्वीकार करना होगा कि सबूत जुटाना उनका काम नही है। आज जो लोग इसे स्वीकार नही करते वह ऐसी गलती कर रहे हैं जिसकी भयानक सजा हम सभी को भुगतनी पडेगी। उधर यह सिद्धान्त भी शत-प्रतिशत खरा है कि जिस व्यक्ति के विरूद्ध आरोप सिद्ध न हो। उसे सजा नही मिलनी चाहिये और यही वह भूलभुलैया है जिसमें हमारे इंटलैक्युअल्स भरमा गये हैं।
गौर कीजिये कि एक कुर्सी है जो सारे में शासन व्यवस्था की प्रमुख है- और एक है अदना सा पोलिस का सिपाही, या इंस्पेक्टर, या डी सी पी, या डी.जी, या एक म्युनिसिपल कर्मचारी, या एक मंत्रालयीन डेप्युरी सेक्रटरी या- पर अपनी अपनी जगह पर सारे ही अदने- क्योंकि ये सेक्रेटरी- सारे उस कुर्सी की मेहेरबान नजर के कारण अपनी कुर्सी पर टिके हुए हैं, अपनी मनचाही पोस्ट पा सकते हैं, अपने मनचाहे सम्मान, सरकारी कोटे से प्लॉट या भूखंड, विदेश दौरा भी पा सकते हैं और कुर्सी के विरूद्ध कुछ बोलें तो ता उम्र देश निकाला (नौकरशाही के अर्थ मे- यानी की अवांछित पोस्टिंग, सारे सम्मान और
लाइमलाईटों से बाहर जिंदगी गुजारने की सजा, पैसा खाने हों तो जहॉ न खा सकें या कम खा सकें ऐसी पोस्टिंग इत्यादिऋ। सबूत जुटाने की प्रभुत्ता-यानी ऍथॉरिटी- इन अदने लोगों के कांपते हाथों को बहाल है। इस काम को जिम्मेदारी या जोखम न समझे- यह वह सत्ता है- वह प्रभुत्ता है जो एक मदमस्त हाथी से भी अधिक मदमस्त कर सकती है- लेकिन आपको तभी तक दी जा सकती है जब तक आप की ऑखें, सर और मस्तिष्क उस कुर्सी की शरणागत हैं। जब सबूत इनके हाथ आ जाय तो उसे नष्ट करने की ताकत भी उन हाथों को है। या फिर उस सबूत का क्या अर्थ लगाया जाय या उसे कोर्ट में किस तरह पेश किया जाय यह तय करने की प्रभुत्ता भी इन्हीं हाथों को है।
जो इंटेलेक्चुअल्स् खैरनार से सबूत जुटाने की माँग करते हैं क्या वे उन तमाम केसों की खबरों को भूल गये जिनमें स्वयं कोर्ट ने पुलिस पर केस को ठीक पेश न करने के लिये तीव्र आक्षेप उठाये। क्या हम अंतुले की केस को भूल गये जब खुद जस्टिस लेंटिन ने दुबारा फाईल देखी तो पाया कि पहली बार के उनके देखे कई कागज दूसरी बार फाईल में नही थे। क्या हम बोफोर्स की केस को भूल गये जब नोबेल कंपनी के कई अधिकारी दिल्ली में गवाही देने के लिए आये- और उनके देश की नैतिकता के मुताबिक वे यहाँ भी कोई के सामने यदि शपथपूर्वक बयान देते तो सच ही बताते लेकिन शंकरानंद की जेपीसी ने स्वयं सुझाव दिया कि उन्हें बयान देने की कोई आवश्यकता नही? क्या हम जलगांव नगरपालिका की केस भूल गये जिसे सरकार भी। लेकिन आज वे अपने अपने छोटे से दायरे में कैद हैं- और अपनी अपनी जगह पर अकेले हैं। उन्हें सपोर्ट चाहिये। सपोर्ट ऐसी किसी सिस्टम से नही आ सकता जिसका अस्तित्व उस बडी कुर्सी के इशारों पर निर्भर है। इसके लिये चाहिये कि इन्वेस्टिगेटिंग सिस्टम में जनसामान्य को प्रवेश हो न्यायदान का एक सिद्धान्त है कि जस्टिस शुड नॉट ओनली बी डन बट शुड ऑल्ले ऍपीयर टु हॅव बीन डन, अर्थात केवल न्याय कर देना काफी नही है- लोगों को भी लगना चाहिये कि वाकई पूरी सजगता और ईमानदारी के साथ न्याय किया गया है। यही सिद्धान्त इन्व्हेस्टिगेटिंग एजन्सी पर भी लागू हैं। आज हमारी एजन्सी कुर्सी के चरणों में झुकी हुई है, सबूत मिटा सकती है, झूठे सबूत जुटा सकती है, सबूतों को तोड मरोड सकती है, जनसामान्य से कह सकती है कि यह कॉन्फिडेन्शियल डॉक्यूमेंट है- और यदि कोई उन्हें सरकारी फाइलों से लेते हुए पकडा जाय तो उसे ऑफिशियल सीक्रट ऍक्ट के तहत जेल भेज सकती है। यह जानकर भी, और अपने आपको बुद्धिधारी कहलाते हुए भी जब हम खैरनार से सबूत जुटाने की माँग
करते हैं तो हम किसे धोखा दे रहे हैं, किससे धोखा खा रहे हैं और किस कीमत पर? क्या हम भूल गये कि जब भाई ठाकुर को कलकत्ता एअर पोर्ट पर पुलिस ने गिरफ्तार किया तो मुंबई पोलिस के बडे अधिकारियों ने यह कहकर उसे छुडवा दिया और नेपाल जाने दिया कि उसके विरूद्ध कोई केस नही है। क्या हम भूल गये कि जब पप्पू कलानी का सीमा रिझोर्ट तोडा गया और उसमें पोलिस और मंत्रियों की लीला दिखाने वाले कॅसेट मिले तो एक डी सी पी ने पुलिस इंस्पेक्टर को धमकाकर वे कॅसेट छीन लिये और बाद में यह कह कर लौटा दिये कि उनके किसी के अगेन्स्ट कुछ नही है। क्या हम वाकई विश्र्वास कर लें कि उस डी सी पी के लिये कॅसेट बदलना, इरेज करना या टॅम्पर करना असंभव था।
जो खैरनार से सबूत जुटाने की माँग करते हैं वे गलती कर रहे हैं। हमारी माँग यह होनी चाहिये कि वर्तमान कालीन पुलिस इन्वेस्टिगेस्टिंग की व्यवस्था बदली जाय। इस व्यवस्था में ऐसे बदलाव किये जायें, मॉनिटरिंग की ऐसी व्यवस्था हो, पारदर्शिता ऐसी हो कि यह संदेह नही बना रहे कि क्या पोलिस ने कोई टेंपरिंग किया? हमें नही भूलना चाहिये कि ईमानदार, कर्तव्य के प्रति जागरूक और सजग अधिकारी पुलिस में भी हैं और मंत्रालय में यह कह कर नही बर्खास्त कर रही कि उसे नोटिस नही दी गई- क्या हम भाई ठाकुर और पप्पू कलानी को भूल गये जो इसलिये टाडा से छूट ये कि सरकार ने १८० दिनों के अंदर अंदर उन्हें चार्जशीट नही किया। सरकारी नौकरशाही की भूलभुलैया में हर आदमी यदि फाईल को एक दिन रोक ले तो भी यह गॅरंटी हो जाती कि १८० दिनों की मियाद पूरी हो जायगी और अपना आदमी टाडा से बच निकलेगा। ऐसे कई टाडा वासियों को सरकार की इसी इन्वेस्टिगेटिंग एजन्सी ने बचाया है- कभी अपनी जेन्युइन अकार्यक्षमता के कारण तो कभी अकार्यक्षमता की आड में गॅरंटी से कह पायेगा कि भाई ठाकुर पुलिस की अकार्यक्षमता के कारण टाडा से बच निकला या कुर्सी के इशारों पर? जब ऐसा संदेह उत्पन्न होता है तो हम वही ऑप्शन अपनाते हैं जहाँ अपने अधिकारी को बलि चढाना संभव है ताकि कुर्सी बच जाय।
..............................................................
-- लीना मेहेंदले
दो-चार महीने पहिले कई लोग श्री खैरनार को आदर की दृष्टि से देखते थे- इसलिये कि यह एक ऐसा अधिकारी था जिसने सरकार की सर्वोच्च कुर्सी को चॅलेंज दे दिया। उन्हे काम सौंपा था कि अतिक्रमणों को तोडो - मुंबई को क्लीन रखो ताकि हम शासकों की जिंदगी सुख चेन से गुजारें। जब तक खैरनार झोपडपट्टियों को तोडते रहे, फूटपाथ से स्टॉलवालों को हटाते रहे, रास्तों पर से मंदिर मस्जिद या कोई भी अन्य बिल्डिंग उठवाते रहे तब तक गरीबों का आक्रोश चाहे उनके सर पर आ पडा हो पर धनिकों का अंगार नही पडा था। और जिन गरीबों का आक्रोश था उन्हें कहीं न कहीं अपनी गलती का एहसास भी था। क्योंकि इसमें कोई दो राय नही है कि उनके अनधिकार व्यवसाय या झोपडपट्टी को रोककर उनके लिए किसी अलग तरह के प्लॉनिंग की जरूरत है।
लेकिन जब खैरनार ने अपना रूख उन धनिकों की ओर उठाया जो पैसे के बल पर कुर्सी और कुर्सीधारियों को खरीद सकते हैं- और बदले में न केवल धन बल्कि वोट, मसलमॅन, भूखंड, फ्लॅट, और आर डी एक्स भी दे सकते हैं तो सारे कुर्सीधारी चौंक गये। खैरनार को रोकने के प्रयास व्यर्थ रहे क्योंकि जब उन्हें अतिक्रमण विभाग से हटा दिया गया तो उन्होंने बोलना शुरू कर दिया। जब उन्हें सस्पेंड किया गया तो उन्होंने और अधिक बोलना शुरू कर दिया। इस बीच उन्हे मूर्ख और पागल कहा गया और न्यायालय के सामने खींचने की बात भी हुई लेकिन उन्हें चुप नही किया जा सका। वह हिम्मत दिखाते रहे और लोगों को बताते रहे कि उन्हें किसलिये रोका जा रहा है, किसके कहने से रोका जा रहा है, और इस रोकने का अर्थ केवल एक ही है- भ्रष्टाचार।
खैरनार के प्रति लोगों का आदर बढा वह उनकी इस हिम्मत के कारण। कुर्सी के भ्रष्टाचार का नतीजा तो सभी देख रहे थे। इसमें किसी को कोई संदेह नही था कि आज कानून और सुव्यवस्था की जो बिगडी हुई हालत है वह कुर्सी के भ्रष्टाचार के ही कारण है। लेकिन हमारे यहाँ महाभारत काल से ही एक आदर्श चला आ रहा है कि बेहोश अभिमन्यु के सिर पर लात मार कर उसका सिर काटने वाले जयद्रथ को सामने देखने पर भी वचनबद्ध अर्जुन ने उस पर शस्त्र नही उठाया- बेटे के अपमान और मृत्यु का दुख पीकर भी अर्जुन का धनुष नही उठा। आखिर कृष्ण को सूर्य पर से अपना चक्र हटाना पडा- तो देखो अर्जुन- वह है सूर्य और वह है जयद्रथ। यानि तुम्हारे वचन के अनुसार दिन अभी डूबा नही है- अब चलाओ अपना तीर! इसलिये जब खैरनार बोलने लगे तो लोगों का उत्साह उमड पडा अब यह हिम्मतवाला सबकी पोल खोलकर हमें से छुटकारा दिलायेगा।
वैसे पिछले पंद्रह दिनों में खैरनार को मिलने वाला जनता का सपोर्ट या सम्मान घटा नही है लेकिन अब उसमें एक दुर्भाग्यपूण मोड आ गया है। कई 'इंटलेक्चुअल्स्' कहने लगे हैं कि खैरनार जो आरोप कर रहे हैं उसका सबूत भी पेश करें। उधर खैरनार ने यह भूमिका अपनाई है कि सबूत जुटान मेरा काम नही है। इसी बात पर इंटलेक्चुअल्स भरमा गये हैं- खैरनार की बुराई करने की या कम से कम उनकी तरु एक प्रश्नचिन्ह लगाने की एक होड अब आरंभ हो गई है और इस सिद्धान्त की दुहाई दी जा रही है कि जब
तक न्यायालय के सम्मुख सारे सबूत पेश करके भ्रष्टाचार को सिद्ध नही किया जा सकता तब तक खैरनार को सही नही मानना चाहिये न ही उन्हें कोई बढावा देना चाहिये।
यह तर्क एक ऐसी गुगली है, ऐसी भूलभलैया है जिससे हमें बिल्कुल बचकर निकलना होगा। खैरनार की भूमिका को इस हद तक अवश्य स्वीकार करना होगा कि सबूत जुटाना उनका काम नही है। आज जो लोग इसे स्वीकार नही करते वह ऐसी गलती कर रहे हैं जिसकी भयानक सजा हम सभी को भुगतनी पडेगी। उधर यह सिद्धान्त भी शत-प्रतिशत खरा है कि जिस व्यक्ति के विरूद्ध आरोप सिद्ध न हो। उसे सजा नही मिलनी चाहिये और यही वह भूलभुलैया है जिसमें हमारे इंटलैक्युअल्स भरमा गये हैं।
गौर कीजिये कि एक कुर्सी है जो सारे में शासन व्यवस्था की प्रमुख है- और एक है अदना सा पोलिस का सिपाही, या इंस्पेक्टर, या डी सी पी, या डी.जी, या एक म्युनिसिपल कर्मचारी, या एक मंत्रालयीन डेप्युरी सेक्रटरी या- पर अपनी अपनी जगह पर सारे ही अदने- क्योंकि ये सेक्रेटरी- सारे उस कुर्सी की मेहेरबान नजर के कारण अपनी कुर्सी पर टिके हुए हैं, अपनी मनचाही पोस्ट पा सकते हैं, अपने मनचाहे सम्मान, सरकारी कोटे से प्लॉट या भूखंड, विदेश दौरा भी पा सकते हैं और कुर्सी के विरूद्ध कुछ बोलें तो ता उम्र देश निकाला (नौकरशाही के अर्थ मे- यानी की अवांछित पोस्टिंग, सारे सम्मान और
लाइमलाईटों से बाहर जिंदगी गुजारने की सजा, पैसा खाने हों तो जहॉ न खा सकें या कम खा सकें ऐसी पोस्टिंग इत्यादिऋ। सबूत जुटाने की प्रभुत्ता-यानी ऍथॉरिटी- इन अदने लोगों के कांपते हाथों को बहाल है। इस काम को जिम्मेदारी या जोखम न समझे- यह वह सत्ता है- वह प्रभुत्ता है जो एक मदमस्त हाथी से भी अधिक मदमस्त कर सकती है- लेकिन आपको तभी तक दी जा सकती है जब तक आप की ऑखें, सर और मस्तिष्क उस कुर्सी की शरणागत हैं। जब सबूत इनके हाथ आ जाय तो उसे नष्ट करने की ताकत भी उन हाथों को है। या फिर उस सबूत का क्या अर्थ लगाया जाय या उसे कोर्ट में किस तरह पेश किया जाय यह तय करने की प्रभुत्ता भी इन्हीं हाथों को है।
जो इंटेलेक्चुअल्स् खैरनार से सबूत जुटाने की माँग करते हैं क्या वे उन तमाम केसों की खबरों को भूल गये जिनमें स्वयं कोर्ट ने पुलिस पर केस को ठीक पेश न करने के लिये तीव्र आक्षेप उठाये। क्या हम अंतुले की केस को भूल गये जब खुद जस्टिस लेंटिन ने दुबारा फाईल देखी तो पाया कि पहली बार के उनके देखे कई कागज दूसरी बार फाईल में नही थे। क्या हम बोफोर्स की केस को भूल गये जब नोबेल कंपनी के कई अधिकारी दिल्ली में गवाही देने के लिए आये- और उनके देश की नैतिकता के मुताबिक वे यहाँ भी कोई के सामने यदि शपथपूर्वक बयान देते तो सच ही बताते लेकिन शंकरानंद की जेपीसी ने स्वयं सुझाव दिया कि उन्हें बयान देने की कोई आवश्यकता नही? क्या हम जलगांव नगरपालिका की केस भूल गये जिसे सरकार भी। लेकिन आज वे अपने अपने छोटे से दायरे में कैद हैं- और अपनी अपनी जगह पर अकेले हैं। उन्हें सपोर्ट चाहिये। सपोर्ट ऐसी किसी सिस्टम से नही आ सकता जिसका अस्तित्व उस बडी कुर्सी के इशारों पर निर्भर है। इसके लिये चाहिये कि इन्वेस्टिगेटिंग सिस्टम में जनसामान्य को प्रवेश हो न्यायदान का एक सिद्धान्त है कि जस्टिस शुड नॉट ओनली बी डन बट शुड ऑल्ले ऍपीयर टु हॅव बीन डन, अर्थात केवल न्याय कर देना काफी नही है- लोगों को भी लगना चाहिये कि वाकई पूरी सजगता और ईमानदारी के साथ न्याय किया गया है। यही सिद्धान्त इन्व्हेस्टिगेटिंग एजन्सी पर भी लागू हैं। आज हमारी एजन्सी कुर्सी के चरणों में झुकी हुई है, सबूत मिटा सकती है, झूठे सबूत जुटा सकती है, सबूतों को तोड मरोड सकती है, जनसामान्य से कह सकती है कि यह कॉन्फिडेन्शियल डॉक्यूमेंट है- और यदि कोई उन्हें सरकारी फाइलों से लेते हुए पकडा जाय तो उसे ऑफिशियल सीक्रट ऍक्ट के तहत जेल भेज सकती है। यह जानकर भी, और अपने आपको बुद्धिधारी कहलाते हुए भी जब हम खैरनार से सबूत जुटाने की माँग
करते हैं तो हम किसे धोखा दे रहे हैं, किससे धोखा खा रहे हैं और किस कीमत पर? क्या हम भूल गये कि जब भाई ठाकुर को कलकत्ता एअर पोर्ट पर पुलिस ने गिरफ्तार किया तो मुंबई पोलिस के बडे अधिकारियों ने यह कहकर उसे छुडवा दिया और नेपाल जाने दिया कि उसके विरूद्ध कोई केस नही है। क्या हम भूल गये कि जब पप्पू कलानी का सीमा रिझोर्ट तोडा गया और उसमें पोलिस और मंत्रियों की लीला दिखाने वाले कॅसेट मिले तो एक डी सी पी ने पुलिस इंस्पेक्टर को धमकाकर वे कॅसेट छीन लिये और बाद में यह कह कर लौटा दिये कि उनके किसी के अगेन्स्ट कुछ नही है। क्या हम वाकई विश्र्वास कर लें कि उस डी सी पी के लिये कॅसेट बदलना, इरेज करना या टॅम्पर करना असंभव था।
जो खैरनार से सबूत जुटाने की माँग करते हैं वे गलती कर रहे हैं। हमारी माँग यह होनी चाहिये कि वर्तमान कालीन पुलिस इन्वेस्टिगेस्टिंग की व्यवस्था बदली जाय। इस व्यवस्था में ऐसे बदलाव किये जायें, मॉनिटरिंग की ऐसी व्यवस्था हो, पारदर्शिता ऐसी हो कि यह संदेह नही बना रहे कि क्या पोलिस ने कोई टेंपरिंग किया? हमें नही भूलना चाहिये कि ईमानदार, कर्तव्य के प्रति जागरूक और सजग अधिकारी पुलिस में भी हैं और मंत्रालय में यह कह कर नही बर्खास्त कर रही कि उसे नोटिस नही दी गई- क्या हम भाई ठाकुर और पप्पू कलानी को भूल गये जो इसलिये टाडा से छूट ये कि सरकार ने १८० दिनों के अंदर अंदर उन्हें चार्जशीट नही किया। सरकारी नौकरशाही की भूलभुलैया में हर आदमी यदि फाईल को एक दिन रोक ले तो भी यह गॅरंटी हो जाती कि १८० दिनों की मियाद पूरी हो जायगी और अपना आदमी टाडा से बच निकलेगा। ऐसे कई टाडा वासियों को सरकार की इसी इन्वेस्टिगेटिंग एजन्सी ने बचाया है- कभी अपनी जेन्युइन अकार्यक्षमता के कारण तो कभी अकार्यक्षमता की आड में गॅरंटी से कह पायेगा कि भाई ठाकुर पुलिस की अकार्यक्षमता के कारण टाडा से बच निकला या कुर्सी के इशारों पर? जब ऐसा संदेह उत्पन्न होता है तो हम वही ऑप्शन अपनाते हैं जहाँ अपने अधिकारी को बलि चढाना संभव है ताकि कुर्सी बच जाय।
..............................................................
08 भारतीय नौकरशाही की पुनसंरचना -- Restructuring Indian Bureaucracy
भारतीय नौकरशाही की पुनसंरचना
(1st prize winner article in the IIPA Essay Competition for 199????)
मुद्दा उठा है भारतीय नौकरशाही की पुन संरचना का, तो पहले हम इस मान्यता को स्वीकार करके चलेंगें कि किसी देश के प्रशासन में, अर्थात् देश की समस्याओं का निराकरण करते हुए देश को विकास और प्रगति के पथ पर ले जाने में नौकरशाही का अहम् स्थान है। फिर आज की हालत में तीन प्रकार के प्रश्नों की जाँच बड़ी आवश्यक हो जाती है, आज से अगले पचास वर्षों में भारत को क्या करना है, उसके लिए किस प्रकार की नौकरशाही की आवश्यकता है,क्या आज वह कैसी नहीं है? दूसरा प्रश्न यह है कि नौकरशाही का आज का ढाँचा किस प्रकार का है? और इसकी नई संरचना किस प्रकार होनी चाहिए? इस संरचना के लिए हमें किस प्रकार के नौकरशाह चाहिए? उनमें क्या-क्या गुण हों? तीसरा मुद्दा उठेगा कि वह नई संरचना किस प्रकार प्रत्यक्ष में लाई जाये, इसके लिये कितना समय उपलब्ध है? कौन इसके लिए समर्थ है, किसे इसके लिए प्रयास करना होगा, इत्यादि। अर्थात् Why What and How?
किसी जमाने में भारतीय नौकरशाही को स्टील फ्रेम कहा जाता था। आज कई लोग मानते हैं कि यह बदलकर अल्युमिनियम फ्रेम हो गई है। सतह पर खूब चमकीली, देखनेपर यही भ्रम पैदा करेगी स्टील फ्रेम ही है। लेकिन जब जहाँ झुकना या मोड़ना चाहो, वैसी ही मुड़ेगी और वैसी ही झुकेगी। यह मैलीएबल हो गई है। यानी पीट पीट कर इसे जैसा चाहो आकार दे सकते हैं.., डक्टाइल भी है, खींचकर इसकी तार बनाई सकती है। जरा सी समस्या आये तो इसकी spluttering शुरु हो जाती है और सतह को कुरदने पर अंदर कोई दम-खम नहीं हैं।
लेकिन अब समस्या यह नहीं है कि कैसे हम वापस स्टील फ्रेम को कायम करें। हमें समझना होगा कि यह असंभव है और अवांछित भी है, वैसे ही जैसे घड़ी की सुई को उल्टा घुमाकर पुराने समय को छूने का प्रयास करना। समय बदला। समय के साथ-साथ हमारी नौकरशाही बदली। उसके रीति-रिवाज बदले, उसकी मान्यताएँ बदलीं, उसके काम करने का ढंग बदला। यह तो होना ही था। जब हो चुका तब हम जागे और कहने लगे 'अरे, यह जो सब कुछ हुआ यह तो सिस्टम फेल्युअर है।' क्यों ऐसी नौबत आई? इसलिये कि सिस्टम कोई स्थिर व्यवस्था नही है; इसमें प्रवाह है, गति है और गति का जो डायनॉमिक इक्विलिब्रियम होता है उसे बड़ी सूझ बूझ से बनाये रखना पड़ता है। हमारी नौकरशाही भी एक सिस्टम है। हम इसे स्टेटिक, स्थिर मान कर चल रहे थे। हमने विचारपूर्वक आवश्यक परिवर्तन इसमें नहीं किये। इसलिये जो परिवर्तन होते गये उन्होंने हमें सिस्टेमिक फेल्युअर के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। सिस्टम का हर पल पुनर्मूल्यांकन करना पड़ता है, उसे नित नये रुप में ढालना पड़ता है और यह प्रयास करना पड़ता है कि वह प्रत्येक व्यक्ति जो इस बदलाव के सम्पर्क में आनेवाला है, उसका प्रबोधन हो, प्रशिक्षण हो और वह इस बदलाव को समझे, माने, और इसमे सहयोग दे। हमारी नौकरशाही बिखर गई क्योंकि यह सतर्कता हम नहीं रख पाये - न तो नौकरशाही के बड़े अधिकार, न देश के नेतागण, न अकेडेमिशिअन्स और न समाज।
इसे हम एक छोटे उदाहरण द्वारा यूँ समझें - कि मंत्रालय की लिफ्ट के सामने क्यू में सब लोग खड़े होते थे - यह भी एक सिस्टम थी - किसी दिन एक आदमी ने कह दिया - भई मिनिस्टर को आगे जाने दो, वह जल्दी पहुँच गये अपने कमरे में, तो हमारे कुछ काम ही निबटा देंगे। सो मंत्री जी को क्यू से हटकर आगे भेजने का सिस्टम चल पड़ा। लेकिन जल्दी ही दो जने ऐसे और निकले जो मंत्री जी के काम में हाथ बटाने के नाम पर क्यू से आगे निकलने लगे। दो से चार हुए, चार से आठ। बस हो गया सिस्टम फेल्युअर। लेकिन यदि मंत्रीजीको क्यू में ही रखनेका नियम रहता तो क्यू सनस्टम अधिक कारगर हो जाती।
एक दूसरा उदाहरण भी है। सागरी तट पर स्मगलिंग रोकने के लिए कस्टम विभाग की नियुक्ति हुई। विभाग में कभी किसी ने छिपकर या धीमी आवाज में कह दिया - कि यदि मैंने थोड़ी घूस ले ली तो क्या हुआ? फिर औरों ने भी घूस में अपना हाथ बंटाया। एक दिन बंबई में आर्.डी.एक्स पहुँच गया और उसने तबाही बचाई। अब थापा जैसा सिनीयर अफसर कहता है कि हमने चाँदी समझ रखी थी, और चूँकि चाँदी की स्मगलिंग में आजकल ज़्यादा लाभ है इसलिए ज़्यादा रेट से घूस मांगी। इसी पर चिढ़ कर मुझे पकड़वाया गया। अब पुलिस और कस्टम वाले कहते हैं कि छि छि देखो कैसा सिस्टम फेल्युअर आ गया कि स्मगलर खुद तो ज़्यादा कमाऊ चीज ला रहे हैं (यानी चाँदी) लेकिन हमें ज़्यादा घूस देने को तैयार नहीं। मेरी निगाह में सबसे बड़ा सिस्टम फेल्युअर यह है कि कस्टम और पुलिस वालों का यह रिमार्क सुनकर नौकरशाही में कोई खलबली नहीं मची है और इस प्रवृत्ती के गंभीर खतरे के प्रति हम सजग या संवेदनशील नहीं हैं।
उपरी परिच्छेदों के व्यंग को हम न देखें। उन उदाहरणों से हमें यह समझना है कि आज की नौकरशाही की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसकी संवेदनशीलता और सतर्कता दोनों लुप्त हो चुके हैं। पुनर्रचना किस प्रकारकी हो जहाँ ये दोंनों गुण लाये जा सकें?
हमारे सामने प्रश्न है कि अगले पचास वर्षों में भारत को क्या करना है, इसके लिये किस प्रकार की नौकरशाही चाहिये और क्या आज की नौकरशाही उस प्रकार की नहीं है? पिछले चालीस पैंतालीस वर्षों में हमनें जब जब प्रश्न पूछा कि एक देश के नाते भारत को आगे क्या करना है तो कुछ ठोस उत्तर सामने आये जैसे - विकास की गति अर्थात् GDP को बढ़ाना, कल-कारखानदारी बढ़ाना, कृषि उत्पादन में स्वावलंबन लाना, अधिक रोजगार निर्माण करना, शिक्षा का समुचित प्रबंध करना, लोकसंख्या वृद्धि को रोकना, गरीबी हटाना, भ्रष्टाचार रोकना, कम्युनल हार्मोनी और राष्ट्रीय एकात्मता बनाये रखना, अंतर्गत सुरक्षा को सुधारना या सँवारना। आज भी ये मुद्दे कम नहीं हुए हैं। इनमें से प्रत्येक काम आज भी हमारी लिस्ट पर है। बल्कि हम तो यह देखते हैं कि चालीस वर्षों पहले इन कामों की जितनी अहमियत रही होगी उससे आज अधिक अहमियत है क्योंकि इसमें से प्रत्येक क्षेत्र में हमारा प्रयास अपरिपूर्ण रहा और समस्या का समाधान नहीं हो सका। यहाँ हमें सौ फीट नदी तैर कर पार करना है और हमने जी तोड़ कोशिश से नब्बे या निन्यानवे फीट भी पार कर लिय और डूब गये तो परिणाम क्या हुआ? डूबने के बाद क्या इस बात पर संतोष किया जा सकता है कि अपनी शक्ति भरसक प्रयास हमने किया? या कि इस बातसे कि चलो नब्बे फीट तो हम पार कर गये? असल कसौटी है कि आपने ध्येय पाया या नहीं? इसका उत्तर यही है कि भारतीय नौकरशाही बार-बार डूबी है वह भी अकेले नहीं, साथ में कई करोड़ की संपत्ति, मेहनत और सपने लेकर डूबी है।
नतीजा यह है कि अगले पचास वर्षों में भारत को वे सब काम भी करने हैं जो पिछले चालीस वर्षों में खतम करने थे। पर अब उनसे भारी अहमियत के कुछ प्रश्न उत्पन्न हो गये हैं। जैसे यह प्रश्न कि उपरोक्त ध्येय प्राप्ति के लिये हमारे पास कितना समय बचा है? यदि उतने समय में हम कुछ हासिल नहीं कर पाये तो क्या यह देश एक सार्वभौम एकसंघ देश के रूप में जीवित रहेगा? इस ध्येय प्राप्ति के लिये यदि कुछ त्याग करना पड़े तो इसके लिये कौन राजी होगा? चालीस वर्ष पहले यह प्रश्न नहीं उठा था क्योंकि तब त्याग और सेवा की भावना से जुड़े कई हजारों नेता, कार्यकर्ता और नौकरशाहभी मौजूद थे। लेकिन आज यह प्रश्न उठेगा। क्या लोगों को हम आज भी भरोसा दिला सकते हैं कि भारतीय नौकरशाही सच्चे मन से उपरोक्त ध्येय प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं? क्या जनता इस बात पर विश्वास करती है कि देश की नौकरशाही में कमसे कम कुछेक प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो भ्रष्ट नहीं हैं, सक्षम हैं, समर्थ हैं और देश के जनसामान्य की सुख-सुविधा के लिये काम करते हैं? यदि जनता में यह विश्वास होगा तभी हमें उतना समय मिलेगा कि हम नौकरशाही की पुनः संरचना कर उससे कुछ उपयोगी काम करवा सकें।
आज भ्रष्टाचार ने समाज के हर क्षेत्र को छू लिया है। हमने यह स्वीकार कर लिया है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार है, वह सर्वव्यापी है, राजकीय नेता और नौकरशाह उससे अछूते नहीं हैं बल्कि कई-कई तो इसमें आकण्ठ डूबे हैं। यदि राजकाजमेंसे भ्रष्टाचार पूरी तरह निकल गया होता तो भी हमें नौकरशाही की पुनर्रचना की आवश्यकता होती क्योंकि आज का ढाँचा हमारे ध्येय प्राप्ति में फिर भी असमर्थ ही होगा- उसकी चर्चा हम थोड़ा रुक कर करेंगे। और जब हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भ्रष्टाचार को हटाना या कम करना या आज की लेवल पर रोक कर रखना तत्काल संभव नहीं है तो हमारी कठिनाई बढ़ जाती है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि 'रुको, पहले सारे भ्रष्टाचार को समाप्त करो, फिर नौकरशाही को सुधारेगें'। दूसरी ओर यदि हम ऐसी नौकरशाही चाहते हों जे भ्रष्टाचार को तो जरा भी न छुये, उसके प्रति चुँ तक न करे और फिर भी देश को वे सारे ध्येय प्राप्त करा दे तो यह भी संभव नहीं है। नौकरशाही की पुनर्रचना इस प्रकार करनी पड़ेगी कि नई पुनर्गठित नौकरशाही भ्रष्टाचार को रोकती रहे और धीर धीर कम करती रहे ताकि अन्य कार्यक्रमों के अच्छे फल समाज तक जल्दी से जल्दी पहुँच सके। यह अतिरिक्त शक्ति नौकरशाही में लानेका क्या उपाय हो सकता है?
विचारणीय है कि नौकरशाहीका आजका गठन कैसा है। इसके चार हिस्सों की अलग अलग जाँच करनी होगी। एक हिस्सा है डी, सी और बी वर्ग के कर्मचारियों का। आज का ढाँचा ऐसा है कि ये कर्मचारी नीति-निर्धारण
(policy formulation) के काम में हाथ नहीं बँटाते। साथ ही implementation की जिम्मेदारी भी इनपर नहीं हैं। यह दोनों काम ए वर्ग के अधिकारियों के जिम्मे पड़ते हैं। लेकिन सिस्टम की गतिमानता को बनाये रखनेमें इनका महत्वपूर्ण योगदान है जिसे आजतक अनदेखा गया है। नई संरचना में इस मुद्दे की विस्तृत चर्चा आगे करेंगे। ए वर्ग में भी दो हिस्से पड़ते हैं - IAS और non-IAS अर्थात जनरॅलिस्ट और स्पेशॅलिस्ट। इसिलिये कि जो non-IAS हैं वे अपने-अपने क्षेत्र के कुशल तंत्रज्ञ या यंत्रज्ञ होते हैं जैसे डॉक्टर हों या रॉकेट के विशेषज्ञ हों या बैंक की क्रेडिट पॉलिसी के माहिर हों। इनकी तुलना में IAS अधिकारी संख्या में अत्यंत कम होते हुए भी उनका पूर्णतया अलग रोल होता है। उनका अपना कोई एक क्षेत्र नहीं होता, फिर भी एक तरह की सर्वव्यापकता उन्हें सौंपी जाती है। यह माना जाता है कि स्पेशॅलिस्ट केवल अपने एक दायरेके बारेमें सोचता है, इस तरह के कई दायरे मिलाने हों तो जो ग्रुप बनेगा, उसमें स्पेशॅलिस्ट कुछ नहीं कर सकता। तो वहाँ ऐसे अफसर की जरुरत होगी जिसने कई समस्याओं को एक साथ देखा है। इसिलिये IAS अधिकारी के जिलास्तरीय पोस्टींग में ही कई कामों के निपटारे का जिम्मा और अधिकार दोनों उन्हें दिये गये हैं। आजकल बर जिलेके लिये एक संपर्क मंत्री नियुक्त करने का रिवाज भी चल पडा है। निचले स्तर पर यही अधिकार पंचायत समिती अध्यक्ष, सरपंच आदि को दिये गये हैं।
इस नौकरशाही में जो दुर्गुण उतर गये हैं, एक नजर उनपर डालें - इन्हें हम दो भागों में बाँटेंगे - एक ऐसे ऑफिसों के दुर्गुण जो टिपिकली छोटे हैं और जिन्हें केवल प्रोग्राम implementation करना पड़ता है - दूसरे उन ऑफिसों के दुर्गुण जिन्हें पॉलिसी भी बनानी पड़ती है।
पहली श्रेणी के ऑफिसों का सबसे बड़ा दुर्गुण है अविश्वास का। प्रशासन के लिये हमारे देश में जो नियम और कानून बने हैं, उन्हें पढ़ने पर यह स्पष्ट रुप में देखा जा सकता है कि उन सबका केंद्रीय सूत्र यही है कि अपने निचले अधिकारी पर विश्वास मत करो - सदा उसे अविश्वास की दृष्टि देखो। यह एक अत्यंत downgrading मानसिकता है जिससे नौकरशाही को उबारना आवश्यक है।
जिस कर्मचारी को हमेशा अविश्वास के वातावरण में काम करना पड़ता है, उसकी मानसिकता ऐसी बन जाती है कि खुद भी अपने आपको विश्वास का अपात्र मानने लगता है। यहीं से धीरे धीरे उसका आत्मसमान, उसका initiative खतम होने लगता है। दूसरी और जो कर्मचारी जिम्मेदारी नहीं निभाता, विश्वास का दुरुपयोग करता है, उसे सजा देने की पध्दती और नीति अत्यंत धीमी गती से चलती है। इस प्रकार निचले तबके के कर्मचारियों में काम करने का, काम को अच्छे ढ़ंग से निबटाने का, या काम की जिम्मेदारी उठाने का motivation खतम हो चुका है। कामचोर या भ्रष्टाचारी को सजा मिलती नही और काम करनेवालों को पुरस्कार और प्रशंसा के बदले अविश्वास से भरपूर नियम मिलते हैं जो उसकी कार्यक्षमता को बांध कर रख देते हैं। यह एक बात भी बाकी कर्मचारियों को हतोत्साह करने के लिये काफी है। वरिष्ठ अधिकारी भी ऐसे नियम बनाने का प्रयास करते हैं जो फुलप्रुफ हों। जिसमें निचला अधिकारी गलती या भ्रष्टाचार न कर सके। अकसर ऐसे नियमों में पहला नियम होता है कि सारी फाइलें, सारे निर्णय अधिकारी के हाथों ही निपटाई जायें। यानी उसका काम बढ़ा, डेलीगेशन ऑफ पॉवर की जितनी अच्छाइयाँ हों उनसे ऑफिस वंचित रहा, लोगों के काम में देर लगने लगी और निचले वर्ग में जो अच्छे कर्मचारी थे उन्हें अपनी कार्यप्रणवता बढ़ाने का कोई मौका नहीं मिला। मुझे याद आता है, कि एक जिला कार्यालय में ऐसा नियम बनाया गया कि सारे क्लर्क एक जगह बैठे, उसी कमरे में सुपरवाइजर भी बैठे ताकि बाहर से आनेवाला व्यक्ति केवल सुपरवाइजर से मिले ताकि कोई क्लर्क भ्रष्टाचार नहीं कर सके। बहुत वाहवाही हुई। उस सुपरवाइजर को बाद में यह कहते सुना गया कि लोगों से उसका जितना समय बरबाद हुआ उसकी तुलना में पुरानी ही सिस्टम अच्छी थी। क्योंकि इस नई सिस्टम में भी क्लर्क का मोटिवेशन तो हुआ नहीं।
ऐसा अविश्वास और उससे उपजी अकर्मण्यता धीरे धीरे उपर तक पहुँचने लगती है। हर व्यक्ति डेलिगेशन ऑफ पॉवर से कतराता है। लेकिन जो स्मार्ट व्यक्ति है और जिसे कामचोरी करनी है या भ्रष्टाचार, वह तो उसे करने के सौ तरीके ढूँढ ही लेगा क्योंकि सजा उसे होनी नहीं है। आज सरकारी नौकरी में बी, सी और डी वर्ग में आनेवाला कर्मचारी आने से पहले ही सोचता है कि उसे उपरी आमदनी कितनी मिलेगी, काम कितना टाला जा सकता है, घूमने का मौका कितना है, और देर से ऑफिस आने तथा आकर काम न करने की क्या क्या सुविधाएँ हैं। कई व्यक्ति अपने सारे काम निचले अधिकरियों को डेलिगेट कर अपना सारा काम टाल जायेंगा - यहाँ तक कि जो अधिकार और जिम्मेदारी उनकी अपनी है - वह भी। लेकिन मॉनिटरिंग नहीं कर पायेंगे। बगैर proper monitoring के कोई भी delegation प्रभावशाली नही हो सकता। साथ ही अब अपवार्ड डेलिगेशन ऑफ पॉवर भी होने लगा है। निर्णय की जिम्मेदारी टालना हो, और फाइलें पढ़ने में अपनी पूरी इमानदारी या समय नहीं लगाना हो तो आसान तरीका है कि फाइल को बॉस के पास भेज दिया जाय।
इन बातों की विस्तृत चर्चा यहाँ करने का कारण है कि नई संरचना में इस स्थिति में सुधार लाना अत्यंत आवश्यक होगा।
इसके लिये नौकरशाही के निचले तबके में जो सुधार तत्काल आवश्यक हैं वे है -
(क) विश्वास और विश्वसनीयता का वातावरण पैदा करना
(ख) हर कर्मचारी को जिम्मेदारी उठाने की, समय के माँग को तोलने की ट्रेनिंग देकर इस लायक बनाना।
(ग) अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार को शीध्रगति से कड़ी सजा देना।
(घ) निचले अधिकारियों को जिम्मेदारी सौंपकर उनके कामके monitoring की व्यवस्था सुधारना।
(ङ) ऑडिट और इन्स्पेक्शन के जिन मुद्दोंमें खास आर्थिक खतरे नहीं हैं और कर्मचारियों का समय बचाया जा सकता है वहाँ वे आवश्यक सुधार लाना। इन सुधारों का उद्देश हो विश्वास पैदा करना और आर्थिक efficiency लाना।
(च) कर्मचारियों को काम के लिये प्रोत्साहित करने के उपाय लागू करना।
(छ) सरकारी कामों की लाभ हानि की जाँच की ट्रेनिंग देना।
इत्यादि।
अच्छे प्रशासन की एक बड़ी फिट व्याख्या शिवाजी के गुरु रामदास ने एक पत्र में की है। शिवाजी पुत्र संभाजी महाराज को यह समझाते हुए कि प्रशासन कैसे चलाया जाये, गुरु रामदास कहते है -'जनांचा प्रवाहो चालला, म्हणिजे कार्यभाग झाला, जन ठायी-ठायी तुंबला, म्हणजे खोटे!' अर्थात् यदि लोगों के काफिले आ - जा रहे हों, उनके काम में रुकावटें नहीं आती हों, तो समझना तुम्हारा शासन अच्छा है, जव देखना कि लोग जगह जगह अटक रहे हैं, उनकी समस्याएँ उलझ रही हैं, उनके समस्या-निवारण में देर लग रही है तो समझना कि तुम्हारे प्रशासन में खोट है - कमजोरी है। जिस नौकरशाही में सबसे निचला कर्मचारी भी इस व्याख्या को निभा लेता हो, वही सक्षम नौकरशाही है। जो इस व्याख्या को कपोल कल्यना या utopia मानते हों वे जान लें कि विदेशों में इस व्याख्या का प्रत्यक्ष उदाहरण रोजाना ही देखा जा सकता है।
आज देशभर में कई training institutes प्रशिक्षण का काम करने का प्रयास भी कर रही हैं। किन्तु गैरसरकारी क्षेत्रों के कई गण्य मान्य व्यक्तियों को सरकारी प्रशिक्षण संस्थाओं के प्रभावशाली होने पर संदेह है। क्योंकि जब उन संस्थाओंकोभी भी आज के प्रभावहीन ढाँचे के मुताबिक काम करना है तो वे दूसरों को क्या सुधार सिखायेंगी। खासतौर पर जहाँ नवीनता लाने की आवश्यकता है, प्रशिक्षण संस्थाओं को आज तक प्रभावी नही पाया गया। इसका कारण यह नही कि प्रशिक्षणकी संकल्पना गलत है। कारण है कि उसका तरीका शायद गलत, अपूर्ण, inadequate और केद्रित है। वास्तविक ट्रेनिंग तब होगी जब ऑफिस का हर बड़ा अधिकारी छोटे अधिकारी के ट्रेनिंग को अपनी जिम्मेदारी मानता हो, साथ ही प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश हो कि कैसे ऑफिस एक अच्छे टीमवर्कसे कामको निपटाता है और टीमके हर मेंबरके प्रशिक्षणमें रुचि लेता है। वैसी सिस्टम हम नहीं बना पायें हैं।
अब जरा देखें उन दुर्गुणों को जो ऊंचे स्तर के अधिकारियों और ऑफिसों में आ गये हैं। तत्काल दिख जाने वाले और गिनाये जा सकने वाले दुर्गुण हैं कि आज की नौकरशाही असंवेदनशील है, सतर्क नही है, भ्रष्टाचार को निबटाना आवश्यक नहीं समझती बल्कि स्वंय ही भ्रष्टाचारी है। जनता यह भी बड़े पैमाने पर मानती है कि नौकरशाही भ्रष्ट के अलावा अकर्मण्य है, आलसी है, और निराश भी है। लेकिन जनता ने एक बड़ा अहम् दुर्गुण अभी तक नोट नहीं किया है। वह है नौकरशाही का अहंकार या arrogance, उध्दतता। यहाँ सरकारी अफसरों के व्यक्तिगत अहंकार या घमण्डी स्वभाव की नहीं बल्कि उस अहंकार की बात है जिसके तहत नौकरशाही कुछ मान्यताएँ लेकर चलती है
१)कि सरकार अर्थात् नौकरशाही जो भी कर रही है वह बहुत अच्छा है
२)सरकार जो कर रही है उससे अच्छा कुछ नहीं किया जा सकता।
३)जिस काम को सरकार खुद नहीं करे वह कभी नहीं हो सकता।
इस अहंकार का परिणाम पिछले चालीस वर्षों में scam का बवंडर बन कर हमारे सामने आया जिसकी चर्चा आगे चल कर करेंगे। पर अभी इसकी अन्य बुराइयों को देखें। यह ग्रुप अहंकार इतना बढ़ गया कि इसने सरकारको टुकड़े-टुकड़ेमें बाँट कर रख दिया। उदाहरण स्वरुप हम शिक्षा का क्षेत्र देखें। नौकरशाही केवल यह कह कर नहीं रुक जाती कि शिक्षा विषयक सरकारी नीतियाँ ही सर्वश्रेष्ठ हैं और सरकार के बाहरी लोगों को इस पर टिप्पणी करने का हक नहीं है - नौकरशाही आगे यह भी कहती है कि शिक्षा के विषय में नौकरशाही का शिक्षा विभाग जो कुछ कह रहा है वही सही है और बाकी नौकरशाह इस पर टिप्पणी न करे। इसीलिये यदि आप बड़े नौकरशाह भी हुए तो भी आप नहीं पूछ सकते कि शिक्षा विभाग में ऐसी सुव्यवस्था क्यों नहीं है कि आपके बच्चों को आसानी से स्कूल में एडमिशन मिल जाय? मजे की बात है कि यदि आप बहुत बड़े नौकरशाह है तो अपनी हस्ती का, अपने रुतबे का, अपने रुआब का वजन डालकर आप यह ensure कर सकते हैं कि आपके अपने बच्चों के स्कूल एडमिशन का इन्तजाम हो जाये। अर्थात् जहाँ सबके कामों में अव्यवस्था हो रही है, वहाँ आपका रुतबा या स्टेटस भी आपको अव्यवस्था हटाने की मांग का हक नहीं देता, और उस दिशा में आपकी सलाह रुतबे के बावजूद नहीं मानी जाएगी। हाँ, नौकरशाही यह इन्तजाम कर सकती है कि आपकी व्यक्तिगत कठिनाई दूर की जा सके।
इस कम्पार्टमेंटलाइसेशन के फलस्वरुप देश के हर क्षेत्र में पॉलिसी मेकिंग के exercise में हमने reductionist method अपनाई है - ये लोग नहीं बोलेंगे - वे नहीं बोलेंगे - वे तीसरे ग्रुप के भी नहीं बोलेंगे - करते करते बाकी बचता है एक डिपार्टमेंट - उसका भी एक डेस्क, और वहाँ का एक अधिकारी - यदा कदा दो या तीन। बोलने का या सोचने का अधिकार केवल उन्हीं के पास बाकी बचता है। इसलिये एकत्रित विचार नामकी कोई प्रोसेस ही सरकार में नहीं हो पाती है। कम्पार्टमेंटलाइझेशन का दूसरा असर यह पड़ा है, कि जब कोई नई समस्या, नई आइडिया, नया काम अर्थात् कुछ भी नया, कुछ भी ज़्यादा, कुछ भी वह काम जो कल नहीं किया था पर आज करना पड़ेगा - उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति यह रुख अपनाता है कि यह काम मेरा नहीं है - यह जिम्मेदारी मेरी नहीं है। कम्पार्टमेंटलाइझेशन का तीसरा नतीजा यह है कि हर नौकरशाह के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपना रुतबा, अपना धौंस बढ़ायें - क्योंकि तभी उसे दूसरे डिपार्टमेंट से वह सहायता मिल सकती है जो उसे एक सामान्य आदमी के नाते भी मिलनी चाहिये थी, लेकिन वास्तविकता में नहीं मिलती है। इस प्रकार जो जहाँ है वहीं अपना रुतबा बढ़ाने की कोशिश करता है। यह रुतबा मापने का तरीका भी बड़ा मजेदार है। मसलन आपका ऑफिस रुम कितना बड़ा है, आपके कण्ट्रोल में कितनी कारें हैं, कितना बजट है, कितने आदमी हैं, कितने कम्प्यूटर्स हैं, कितने सुरक्षा गार्डस हैं, आप अपने विजिटरों को कितनी देर अटका कर रख सकते हैं और सर्वोच्च मानदण्ड यह कि कितने आदमियों का काम आपकी व्यक्तिगत स्वीकृति के बगैर नहीं होता। यह एक बड़ी नकारात्मक प्रवृति नौकरशाही में पल रही है और बढ़ रही है।
नौकरशाही की पुनर्रचना की जरुरत क्यों आन पड़ी? इसका एक मुख्य कारण है कि १९५०-१९६० की तुलना में आज हमारी विकास के तरीकों की मान्यता ही बदल गई है। तब हमारा नारा था समाजवादी समाज का जिसमें प्राईवेट और पब्लिक दोनों सेक्टरों के सहयोग, और सह-अस्तित्व की बात थी। पिछले चालीस वर्षों में बड़ी धीमी गति से हम इस बात के प्रति जागे कि न तो हमने अपने प्राइवेट सेक्टर को अधिक एफिशियंट बनाया और न पब्लिक सेक्टर को। सरकार हर क्षेत्र में घुसपैठ करने लगी और कई निरर्धक काम अपने सिर पर ओढने लगी। जहाँ पब्लिक सेक्टर में नये काम किसी खास वजह से लेने पड़े वहाँ भी withdrawal scheme की आवश्यकता होती है। पर इस बात को नजरअंदाज किया गया। जिन कामोंसे सरकार १०-१५ वर्ष पहले से ही अच्छी तरह प्लान करके बाहर निकल सकती थी, वह प्लानिंग नहीं की गई। यहाँ जमशेदपूर की टाटा कंपनी का उदाहरण पेश है। उन्होंने मजदूरोंसे सलाह करके एक प्लान बनाया कि कैसे अगले १५ वर्षों में वे उनकी संख्या में कटौती कर ऑटोमेशन बढ़ायेंगे और फिर भी मजदूरी में कटौती नहीं होगी। लेकिन सरकारी क्षेत्रमें इस तरह के प्लानिंग की बात ही असंभव है। यह भी आज के ढाँचे की अपरिपक्वता का सबूत है और नये ढाँचे के लिये सावधानी बरतने की बात है।
आज हम आर्थिक सुधार और लिबरलाइझेशन की बात करते हैं। इसका उद्देश क्या है? जब हमने समाजवादी आर्थिक नीति अपनाई तो उसका उद्देश था गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को दूर करना। इसलिये दो महत्वपूर्ण नीतियाँ अपनाई गईं - कि कोअर सेक्टर के रॉ मटेरियल जैसे कोयला, स्टील, बैंक, रेल आदि सरकारी कबजे में रहेंगे - ताकि उनके सरकारी वितरण का लाभ गरीब जनता को भी मिलता रहे और मूलभूत सुविधाएँ जैसे स्वास्थ्य, आवागमन, इत्यादि को उपलब्ध कराने का जिम्मा सरकार ले। लेकिन वास्तव में सरकार ने कोअर सेक्टर के बाहर के भी कई काम ले लिये और केवल एक expansionist या रुतबा बढ़ानेवाली नीति अपनाई!!
पुनर्संरचना के लिये नौकरशाही के ढाँचे में क्या परिवर्तन करने चाहिये यह प्रश्न और यह विषय आजकी तिथिमें महत्वपूर्ण क्यों बन गये हैं? इसका मुख्य कारण यह मान्यता है कि आज हमारी नौकरशाही आर्थिक लिबरलाइझेशन के सिद्धांतों की ओर उन्मुख नहीं है, और उसे वैसा बनाना आवश्यक है। हमारी नौकरशाही विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया में भी बाधक है, पुनर्रचना से उसे विकेंद्रीकरण में भी सहायक बनाना होगा।
पहले हम विकेंद्रीकरण की बात करेंगे। नौकरशाही का या प्रशासकीय सत्ता का आज का ढाँचा पिरॅमिड की तरह है। मानों एक बड़े मैदान में सैकड़ों पिरॅमिड खड़े कर दिये हों। हर व्यक्ति अपने अपने पिरॅमिड में एक दूसरे को पछाड़ते हुए ऊंचा उठ सकता है लेकिन एक functional sector का दूसरे के साथ कोई कम्यूनिकेशन नहीं- कोई साझा नहीं। जिस क्षेत्र में कोई पिरॅमिड नहीं उसका ख्याल रखनेवाला कोई नहीं। आज हमारा सारा प्लॅनिंग functional sector के आधार पर होता है यथा कृषि sector का प्लॅनिंग या यातायात sector का प्लॅनिंग। इसकी जगह हमें Area planning और spatial planning का ढाँचा अपनाना होगा। इस दिशा में अत्यंत छोटा प्रयास पंचायत राज व्यवस्था के अंतर्गत अभिनिविष्ट है। लेकिन उस ढाँचे को हमने पूरी तरह विकसित नहीं किया है। यहाँ फिर एक बार समय बड़ा महत्वपूर्ण बन जाता है। यदि हम आर्थिक लिबरलाइझेशन को बड़ी तेजी से लाने का प्रयास करें तो उस तेजी में हम पुराने ढांचे को खींचखांच कर, फाड़कर, तोड़-मरोड़ कर फेंक देंगे और जल्दबाजी में वह उठा लेंगे जो भी हाथ आयेगा। हमारा रवैया वैसा ही होगा जैसा किसी आग में जलते व्यक्ति का अपने कपड़ों के प्रति होता है। जाहिर है कि वैसी पुनर्रचना की बात हम नहीं कर रहे बल्कि एक सूझबूझ के साथ की जानेवाली पुनर्रचना की बात करेंगे जहाँ पुराने को सुधार कर या बदलकर नया परिवर्तन लाने के लिये कुछ समय अवश्य दिया गया हो। लेकिन यह ध्यान हमेशा रखना पड़ेगा कि बहुत कम ही समय हमारे पास उपलब्ध है।
किसी भी देश की सरकार का, प्रशासन का और नौकरशाही का एकमात्र नैतिक justification यही होता है कि वह ऐसे नियमों का सुचारु रूप से पालन करवाती है जो समाज ने अपनी सुखसुविधा के लिये उपयोगी मानकर नियत किये हैं। यह एक अत्यंत व्यापक कल्पना है जिसके सभी पहलुओं को ठीक से देखना पड़ेगा। समाज अपने लिये किस सुखसुविधा की अपेक्षा करता है? इसका प्रतिबिम्ब है रामचरितमानस में तुलसीदासजी के वचन -'दैहिक, दैविक भौतिक तापा, रामराज्य नहीं काहुंहि व्यापा' - अर्थात् प्रत्येक प्रकार की दुश्चिंतासे छुटकारा। हम सत्य की ओर चलें, प्रकाश की ओर चलें, अमृतत्वकी ओर चलें और यह करने में समाज व्यवस्था हमारी सहायक हो और इतनी ही माँग समाज का हर व्यक्ति करता है। इसका उपाय भी बताते हैं - 'संगच्छध्वं, सं वदध्वं, सं वो मनांसि जाननाम् - हम साथ साथ चलें - एकत्रित रुप से विचार करके बोलें, एक दूसरे के मन को मन से मिलायें ............... इसी नियम का पालन करके देवताओं ने श्रेष्ठत्व अर्जित किया'। यहाँ 'हम' कौन हैं? पूरा समाज - न कि केवल नौकरशाही। इसलिये आज भी नौकरशाही को बार-बार अपने मूलतत्व की ओर, अपने जड़ों की ओर देखना होगा। यह मूलतत्व - या जड़ें समाज ही हैं। नौकरशाही की उपयोगिता और प्रभावशक्ति तभी तक रहेगी जब तक वह लोगों से, समाज से अपना पोषण ले सकें, या दूसरे शब्दों में तब तक जब तक समाज उसे पोषण देने में दिलचस्पी ले। और नौकरशाही को स्वंय भी समाज की ओर उन्मुख होना होगा। समाज से उसका कम्यूनिकेशन बराबर चलता रहे और जन सामान्य की सुख सुविधा के अनुसार तुरंत ढल सकने का लचीलापन, नौकरशाही में हो। इसके लिये समाज की इकाइयों और नौकरशाही के बीच विचारों का, योजनाओं का और स्वंय व्यक्तियों का (पर्सनॅलिटीज) का भी आदान प्रदान बढ़ाना होगा। नौकरशाही को समाज के घर-आंगन तक पहुँचना होगा और समाज के हर व्यक्ति को नौकरशाही के अंतरंग तक। ऐसा हो सके इसकी दो शर्तें हैं। पहली शर्त यह कि समाज के हर व्यक्ति का स्तर ऊँचा हो, विकासमान हो और यह विकास विकेंद्रित हो। दूसरी शर्त थोड़ी अधिक गहरी है।
यद्यपि हम नौकरशाही की पुनर्रचना की बात कर रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि यह विषय हमारे समाज जीवन को प्रभावित करने वाले अन्य विषयों से अछूता होता हो। नौकरशाही का जितना सीधा संबंध प्रशासन चलाने से है उतना ही संबंध देश की आर्थिक नीति से भी है, सामाजिक स्थिति से है, राजनैतिक व्यवस्था से है और उससे भी गहरा संबंध देश की चिंतन प्रणाली से है।
आज देश में चाहे नौकरशाही की पुनर्रचना करना हो या कोई दूसरा बड़ा फेरफार करना हो, पहले तीन क्षेत्रों का सम्यक् विचार करना पड़ेगा - हमारी आर्थिक नीति, हमारी शिक्षा नीति (क्योंकि यही हमारी आर्थिक efficiency को तय करेगी) और हमारा सामाजिक फलसफा, चिंतन या दर्शन।
एक खेद की बात है कि हमारे सारे प्लानिंग प्रोसेस में शिक्षा का क्षेत्र महज एक मूलभूत सुविधा का क्षेत्र बन कर रह गया। इस क्षेत्र का स्पेशल स्टेटस बहुत कम नौकरशाहों ने पहचाना। वास्तविकता यह है कि यदि शिक्षा है जो आदमी आदमी है। शिक्षा है तो समाज है, शिक्षा है तो रोजगार है, उत्पादन है, कार्यकुशलता है, efficiency है, नैतिक मूल्य है, विचार-प्रणवता है और अपनी थाति, अपनी achievements को आनेवाली पीढ़ी को सौंपने की क्षमता है। यदि शिक्षा है तो देश है। हमारी नौकरशाही का फेल्युअर यहाँ से आरंभ हुआ कि शिक्षा पध्दति को हम अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं ढाल सकें। आर्थिक क्षेत्र में हम capital expenditure, return on investment, और gestation period आदि बातें करतें हैं। लेकिन शिक्षा क्षेत्र में हमारा gestation period बढ़ता रहा। Rate of return on capital समान रुप से बढ़ने की बजाय ऐसी स्थिति आई कि ग्रॅज्युएशन अर्थात् १५ वर्ष बिताने पर भी शिक्षा के बल पर रोजी-रोटी मिलने की कोई गॅरंटी नहीं रही। जिसके पास पाँच या दस वर्ष का ही समय हो उसके लिये शिक्षा लेने या न लेने का कोई मतलब नहीं रहा। कार्यप्रणव या हुनरवाले लोग नहीं बन पाये इसलिये औद्दोगिक प्रगति भी कम रही। आज भी देश में अकुशल मजदूरों की संख्या ७० प्रतिशत से अधिक है और शिक्षित जनसंख्या ५० प्रतिशत से कम।
यह अकार्यकुशल, अशिक्षित जनता दो क्षेत्रों में हमारे पाँव पीछे खींचती है - एक तो आर्थिक efficiency के क्षेत्र में। यही एक क्षेत्र है जो तय करता है कि कोई देश सार्वभौम और स्वतंत्र रहेगा या नहीं। विचारणीय है कि भारत में ईस्ट इंडिया का काम भी व्यापार की सहुलियतों से ही आरंभ हुआ था। और जब कंपनी ने अपने पांव जमाने आरंभ किये तो सबसे पहले यहाँ के हुनरवाले, कुशल कारीगरों को समाप्त कर यहाँ के औद्योगिक उत्पादन को खतम करना उनका प्राथमिक कार्य था। आज भी आर्थिक सुधार करने हुए यदि हम अपने मानवीय संसाधनों में कम पड़ गये (और जो स्पष्ट चिन्ह दिख रहे हैं उनके अनुसार हम वाकई अपने manpower resources में कम पड़ रहे हैं) तो केवल आर्थिक लिबरलाइझेशन से देश की आर्थिक कठिनाई दूर नहीं हो सकती और न GNP बढ़ सकता है और न अमीरी-गरीबी के बीच की खाई भरी जा सकती है। अर्थात् वह आर्थिक विकास हम नहीं पा सकते जिसके लिये आर्थिक सुधार का सारा प्रयास पिछले दो वर्षों में किया जा रहा है।
दूसरा सवाल है empowerment of masses का। जब हमारी साठ से सत्तर प्रतिशत जनता अशिक्षित और अकार्यकुशल हो तो फिर empowerment of masses की संकल्पना में कितना तथ्य या जोर हो सकता है? हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि यही जनसामान्य नौकरशाही के साथ हाथ बँटायेंगे? यहाँ हम 'नौकरशाही पर अंकुश' की चर्चा नहीं कर रहे। क्योंकि अंकुश में फिर अविश्र्वास वाली बात निहित है। हमें एक साझेवाली नौकरशाही का ढाँचा चाहिये जिस ढाँचे में सामान्य जनता आसानी से आ-जा सके - कभी केवल सुझाव देकर हाथ बँटाये, कभी प्रत्यक्ष रुप में जिम्मेदारियाँ निभाकर। थोड़ी हदतक निगरानी का काम भी जनसामान्य को करना होगा क्योंकि नौकरशाही का भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और immunity from punishments एक दिन में दूर नहीं होंगे। नौकरशाही की सिस्टम को गतिमान और balanced रखने के लिये इसके प्रत्येक काम में जनसामान्य का विचारपूर्वक साझा होना चाहिये - वह वैचारिक परिपूर्णता उचित शिक्षा के बगैर नहीं आती। इस प्रकार शिक्षा क्षेत्र को neglect करके हमने अपने लोकतंत्र को भी खतरे में डाल दिया है और नौकरशाही को भी अवरुद्ध कर दिया है। दुर्भाग्य से आज हमने नई आर्थिक नीति की बात तो आरंभ कर दी पर शिक्षा नीति की हम आज भी उतनी ही उपेक्षा कर रहे हैं बल्कि अब तो पहले से अधिक।
अन्तिम प्रश्न समूह है कि नौकरशाही की पुनर्रचना कौन करे? पुनर्रचना के कारण जिनकी अनिर्बध सत्ता खतरे में आनेवाली हो वे क्यों आसानी से पुनर्रचना लाने देंगे? एक दूसरा प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। नौकरशाही की पुनर्संरचना करनी है यही सोचकर यदि नौकरशाही में कुछ उलटा - पुलटा कर दिया तो उससे क्या लाभ? यदि विचारपूर्वक फेरफार नहीं किये तो उनसे उत्पन्न खतरे के विषय में भी हमें ठहरकर सोचना पड़ेगा। यहीं हमारे सामाजिक फलसफे का मुद्दा महत्वपूर्ण बन जाता है। नौकरशाही की सही दिशा में पुन संरचना तभी संभव है जब जनता इसकी माँग करे। जनता माँग तभी करेगी - जब वह सुशिक्षित हो और जानती हो कि 'सं वो मनांसि जानताम्' के सूत्र में उसका अपना क्या रोल है। यह रोल विचार-प्रक्रिया और कार्यकुशलता दोनों क्षेत्र में होगा। अर्थात् हमारी जनता तभी सुशिक्षित कहलायेगी जब वह कार्यकुशल भी हो और विचार प्रणव भी। क्या हमें अंदाजा है कि यह सुशिक्षा का कार्य कितने बड़े पैमाने पर करना है? देश के लगभग तीस करोड़ नाबालिग (आयु अठारह वर्ष से कम) और करीब उतने ही प्रौढ़ व्यक्ति आज शिक्षा की दृष्टि से 'empowered' नहीं हैं और इसीसे शिक्षाकी आर्थिक कीमत (फीस और समय दोनों के हिसाब से) प्रतिवर्ष बढ़ रही है। आर्थिक सुधारों की लिस्ट में एक महत्वपूर्ण और रामबाण औषधी यह मानी जा रही है कि शिक्षा की पूरी कीमत विद्यार्थी से वसूल की जाय। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय दूसरा नहीं हो सकता है। यदि यही निर्णय कायम रहा तो जनसामान्य का empowerment कभी नहीं हो सकता और जनसामान्य की नौकरशाही में साझेदारी भी नहीं हो सकती।
अर्थात् नौकरशाही की accountability में कुछ मूलभूत सुधार आवश्यक हैं। आज की स्थिति यह है प्रशासक के गलत निर्णय का आर्थिक बोझ जनता उठाती है और राजकीय consequence नेतागण उठाते हैं। नेता का गलत प्रशासकीय निर्णय हो(जैसे भ्रष्टाचार, पैरवी, शिफारस इत्यादि से उत्पन्न निर्णय) तो उसका फल भी - चाहे आर्थिक या प्रशासनिक-वह भी जनता को भुगतना पड़ता है और यदि दोनों के आर्थिक निर्णय गलत हुए तो पूरे देश का भविष्य डूब सकता है लेकिन व्यक्तिगत रुप में वह जिम्मेदार नौकरशाह बच ही जायेंगे - बल्कि कई बार तो अच्छी खासी संपत्ति या नाम भी इकठ्ठा कर लेंगा।
ऐसी स्थिति में फससफे की बात इसलिये उठी है कि सदियों से भारतीय मानस यही मानता आया है कि जीवन की सार्थकता देने में है - छीनने में नहीं। शिक्षा और ज्ञान का प्रचार और विस्तार कुछ ऐसी वस्तु है जिसकी तौल आर्थिक तराजू पर नहीं तुलती। अच्छे शिक्षक की पहचान यही बताई गई कि उसकी वृति अपरिग्रह की हो न कि चीजें बटोरने की। अच्छे समाज की पहचान बताई गई कि शिक्षक के सर्वाधिक अपरिग्रही (यानी सिक्के बटोरने की भाषा में 'गऱीब')होते हुए भी समाज उसका सर्वाधिक आदर करें। इस एक सामाजिक मूल्य ने हमारे समाज को सदियों तक बचाये रखा। टूट फूट कर बिखरने नहीं दिया। हमारी शिक्षा नीति को बनानेवाले नौकरशाह इस सामाजिक दर्शन का सदुपयोग कर शिक्षा प्रणाली को कम खर्चीली, जीवन से अधिक जुड़ी हुई बना सकते थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नई आर्थिक नीति में सारी सोच इस फलसफे से उल्टी है। इसलिये नौकरशाही की संरचना में कोई प्रभावशाली पुनर्गठन होगा ऐसा आज नहीं लगता। शायद सरकार कई सेक्टरों में से अपने आपको हटा ले जैसा घोषित किया है। इस प्रकार नौकरशाही के आकार को कम किया जा सकता है लेकिन जरुरी नहीं कि उसके परिणामस्वरुप आर्थिक विकास की गति तेज हो। और यदि यह जल्दबाजी में हुआ तो व्यापक हिंसाचार और सामाजिक मूल्यों के अधिक ह्रास की ही संभावना अधिक है। अतएव आर्थिक विकास मापने का तरीका भी सोच समझकर ही तय करना पड़ेगा। लोगों ने यह जता दिया है कि इस देश की भूमि पर यदि कारगिल कंपनी नमक बनकर पैसे कमाती है और सरकार उनके प्रॉफिट को अपने GDP में शामिल करना चाहती है तो यह जनना को मंजूर नहीं। जनता देखना चाहेगी कि इस देश की अपनी संपत्ती बढ़ी या नहीं। यदि नई आर्थिक लहर में यह सामाजिक मूल्य बचा रह सका तो समाज में सुविधा का फैलाव भी होगा और फिर समाज नौकरशाही को बदलने में समर्थ होगा।
तब तक नौकरशाही में रहकर जिन्हें कुछ करना है उनके लिये यही सूत्र है कि अपनी अपनी जगह पर पारदर्शिता लाने का प्रयास करो, अपने अधीनस्थोंके प्रति प्रशिक्षक की भूमिका अपनाओ, जहाँ अच्छाई दिखे उससे तुरंत समानुभूति प्रकट करो, उसे अकेले न पड़ने दो और अपने कार्य की आर्थिक efficiency बढ़ाओ। जहाँ जहाँ विकेंद्रीकरण संभव है उसे अपनाओ और जनसामान्य से सिस्टम का वैचारिक आदान प्रदान बढ़ाने के तरीके अपनाओ। पुनर्रचना के लिये बना बनाया सूत्र या मॉडेल खोजने की बजाय उसे अपने देश की मिट्टी से जुड़कर यदि हम विकसित होने दें तो ही उसमें आंतरिक सामर्थ्य टिक पायेगा।
लीना मेहेंदले
(1st prize winner article in the IIPA Essay Competition for 199????)
मुद्दा उठा है भारतीय नौकरशाही की पुन संरचना का, तो पहले हम इस मान्यता को स्वीकार करके चलेंगें कि किसी देश के प्रशासन में, अर्थात् देश की समस्याओं का निराकरण करते हुए देश को विकास और प्रगति के पथ पर ले जाने में नौकरशाही का अहम् स्थान है। फिर आज की हालत में तीन प्रकार के प्रश्नों की जाँच बड़ी आवश्यक हो जाती है, आज से अगले पचास वर्षों में भारत को क्या करना है, उसके लिए किस प्रकार की नौकरशाही की आवश्यकता है,क्या आज वह कैसी नहीं है? दूसरा प्रश्न यह है कि नौकरशाही का आज का ढाँचा किस प्रकार का है? और इसकी नई संरचना किस प्रकार होनी चाहिए? इस संरचना के लिए हमें किस प्रकार के नौकरशाह चाहिए? उनमें क्या-क्या गुण हों? तीसरा मुद्दा उठेगा कि वह नई संरचना किस प्रकार प्रत्यक्ष में लाई जाये, इसके लिये कितना समय उपलब्ध है? कौन इसके लिए समर्थ है, किसे इसके लिए प्रयास करना होगा, इत्यादि। अर्थात् Why What and How?
किसी जमाने में भारतीय नौकरशाही को स्टील फ्रेम कहा जाता था। आज कई लोग मानते हैं कि यह बदलकर अल्युमिनियम फ्रेम हो गई है। सतह पर खूब चमकीली, देखनेपर यही भ्रम पैदा करेगी स्टील फ्रेम ही है। लेकिन जब जहाँ झुकना या मोड़ना चाहो, वैसी ही मुड़ेगी और वैसी ही झुकेगी। यह मैलीएबल हो गई है। यानी पीट पीट कर इसे जैसा चाहो आकार दे सकते हैं.., डक्टाइल भी है, खींचकर इसकी तार बनाई सकती है। जरा सी समस्या आये तो इसकी spluttering शुरु हो जाती है और सतह को कुरदने पर अंदर कोई दम-खम नहीं हैं।
लेकिन अब समस्या यह नहीं है कि कैसे हम वापस स्टील फ्रेम को कायम करें। हमें समझना होगा कि यह असंभव है और अवांछित भी है, वैसे ही जैसे घड़ी की सुई को उल्टा घुमाकर पुराने समय को छूने का प्रयास करना। समय बदला। समय के साथ-साथ हमारी नौकरशाही बदली। उसके रीति-रिवाज बदले, उसकी मान्यताएँ बदलीं, उसके काम करने का ढंग बदला। यह तो होना ही था। जब हो चुका तब हम जागे और कहने लगे 'अरे, यह जो सब कुछ हुआ यह तो सिस्टम फेल्युअर है।' क्यों ऐसी नौबत आई? इसलिये कि सिस्टम कोई स्थिर व्यवस्था नही है; इसमें प्रवाह है, गति है और गति का जो डायनॉमिक इक्विलिब्रियम होता है उसे बड़ी सूझ बूझ से बनाये रखना पड़ता है। हमारी नौकरशाही भी एक सिस्टम है। हम इसे स्टेटिक, स्थिर मान कर चल रहे थे। हमने विचारपूर्वक आवश्यक परिवर्तन इसमें नहीं किये। इसलिये जो परिवर्तन होते गये उन्होंने हमें सिस्टेमिक फेल्युअर के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। सिस्टम का हर पल पुनर्मूल्यांकन करना पड़ता है, उसे नित नये रुप में ढालना पड़ता है और यह प्रयास करना पड़ता है कि वह प्रत्येक व्यक्ति जो इस बदलाव के सम्पर्क में आनेवाला है, उसका प्रबोधन हो, प्रशिक्षण हो और वह इस बदलाव को समझे, माने, और इसमे सहयोग दे। हमारी नौकरशाही बिखर गई क्योंकि यह सतर्कता हम नहीं रख पाये - न तो नौकरशाही के बड़े अधिकार, न देश के नेतागण, न अकेडेमिशिअन्स और न समाज।
इसे हम एक छोटे उदाहरण द्वारा यूँ समझें - कि मंत्रालय की लिफ्ट के सामने क्यू में सब लोग खड़े होते थे - यह भी एक सिस्टम थी - किसी दिन एक आदमी ने कह दिया - भई मिनिस्टर को आगे जाने दो, वह जल्दी पहुँच गये अपने कमरे में, तो हमारे कुछ काम ही निबटा देंगे। सो मंत्री जी को क्यू से हटकर आगे भेजने का सिस्टम चल पड़ा। लेकिन जल्दी ही दो जने ऐसे और निकले जो मंत्री जी के काम में हाथ बटाने के नाम पर क्यू से आगे निकलने लगे। दो से चार हुए, चार से आठ। बस हो गया सिस्टम फेल्युअर। लेकिन यदि मंत्रीजीको क्यू में ही रखनेका नियम रहता तो क्यू सनस्टम अधिक कारगर हो जाती।
एक दूसरा उदाहरण भी है। सागरी तट पर स्मगलिंग रोकने के लिए कस्टम विभाग की नियुक्ति हुई। विभाग में कभी किसी ने छिपकर या धीमी आवाज में कह दिया - कि यदि मैंने थोड़ी घूस ले ली तो क्या हुआ? फिर औरों ने भी घूस में अपना हाथ बंटाया। एक दिन बंबई में आर्.डी.एक्स पहुँच गया और उसने तबाही बचाई। अब थापा जैसा सिनीयर अफसर कहता है कि हमने चाँदी समझ रखी थी, और चूँकि चाँदी की स्मगलिंग में आजकल ज़्यादा लाभ है इसलिए ज़्यादा रेट से घूस मांगी। इसी पर चिढ़ कर मुझे पकड़वाया गया। अब पुलिस और कस्टम वाले कहते हैं कि छि छि देखो कैसा सिस्टम फेल्युअर आ गया कि स्मगलर खुद तो ज़्यादा कमाऊ चीज ला रहे हैं (यानी चाँदी) लेकिन हमें ज़्यादा घूस देने को तैयार नहीं। मेरी निगाह में सबसे बड़ा सिस्टम फेल्युअर यह है कि कस्टम और पुलिस वालों का यह रिमार्क सुनकर नौकरशाही में कोई खलबली नहीं मची है और इस प्रवृत्ती के गंभीर खतरे के प्रति हम सजग या संवेदनशील नहीं हैं।
उपरी परिच्छेदों के व्यंग को हम न देखें। उन उदाहरणों से हमें यह समझना है कि आज की नौकरशाही की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसकी संवेदनशीलता और सतर्कता दोनों लुप्त हो चुके हैं। पुनर्रचना किस प्रकारकी हो जहाँ ये दोंनों गुण लाये जा सकें?
हमारे सामने प्रश्न है कि अगले पचास वर्षों में भारत को क्या करना है, इसके लिये किस प्रकार की नौकरशाही चाहिये और क्या आज की नौकरशाही उस प्रकार की नहीं है? पिछले चालीस पैंतालीस वर्षों में हमनें जब जब प्रश्न पूछा कि एक देश के नाते भारत को आगे क्या करना है तो कुछ ठोस उत्तर सामने आये जैसे - विकास की गति अर्थात् GDP को बढ़ाना, कल-कारखानदारी बढ़ाना, कृषि उत्पादन में स्वावलंबन लाना, अधिक रोजगार निर्माण करना, शिक्षा का समुचित प्रबंध करना, लोकसंख्या वृद्धि को रोकना, गरीबी हटाना, भ्रष्टाचार रोकना, कम्युनल हार्मोनी और राष्ट्रीय एकात्मता बनाये रखना, अंतर्गत सुरक्षा को सुधारना या सँवारना। आज भी ये मुद्दे कम नहीं हुए हैं। इनमें से प्रत्येक काम आज भी हमारी लिस्ट पर है। बल्कि हम तो यह देखते हैं कि चालीस वर्षों पहले इन कामों की जितनी अहमियत रही होगी उससे आज अधिक अहमियत है क्योंकि इसमें से प्रत्येक क्षेत्र में हमारा प्रयास अपरिपूर्ण रहा और समस्या का समाधान नहीं हो सका। यहाँ हमें सौ फीट नदी तैर कर पार करना है और हमने जी तोड़ कोशिश से नब्बे या निन्यानवे फीट भी पार कर लिय और डूब गये तो परिणाम क्या हुआ? डूबने के बाद क्या इस बात पर संतोष किया जा सकता है कि अपनी शक्ति भरसक प्रयास हमने किया? या कि इस बातसे कि चलो नब्बे फीट तो हम पार कर गये? असल कसौटी है कि आपने ध्येय पाया या नहीं? इसका उत्तर यही है कि भारतीय नौकरशाही बार-बार डूबी है वह भी अकेले नहीं, साथ में कई करोड़ की संपत्ति, मेहनत और सपने लेकर डूबी है।
नतीजा यह है कि अगले पचास वर्षों में भारत को वे सब काम भी करने हैं जो पिछले चालीस वर्षों में खतम करने थे। पर अब उनसे भारी अहमियत के कुछ प्रश्न उत्पन्न हो गये हैं। जैसे यह प्रश्न कि उपरोक्त ध्येय प्राप्ति के लिये हमारे पास कितना समय बचा है? यदि उतने समय में हम कुछ हासिल नहीं कर पाये तो क्या यह देश एक सार्वभौम एकसंघ देश के रूप में जीवित रहेगा? इस ध्येय प्राप्ति के लिये यदि कुछ त्याग करना पड़े तो इसके लिये कौन राजी होगा? चालीस वर्ष पहले यह प्रश्न नहीं उठा था क्योंकि तब त्याग और सेवा की भावना से जुड़े कई हजारों नेता, कार्यकर्ता और नौकरशाहभी मौजूद थे। लेकिन आज यह प्रश्न उठेगा। क्या लोगों को हम आज भी भरोसा दिला सकते हैं कि भारतीय नौकरशाही सच्चे मन से उपरोक्त ध्येय प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हैं? क्या जनता इस बात पर विश्वास करती है कि देश की नौकरशाही में कमसे कम कुछेक प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो भ्रष्ट नहीं हैं, सक्षम हैं, समर्थ हैं और देश के जनसामान्य की सुख-सुविधा के लिये काम करते हैं? यदि जनता में यह विश्वास होगा तभी हमें उतना समय मिलेगा कि हम नौकरशाही की पुनः संरचना कर उससे कुछ उपयोगी काम करवा सकें।
आज भ्रष्टाचार ने समाज के हर क्षेत्र को छू लिया है। हमने यह स्वीकार कर लिया है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार है, वह सर्वव्यापी है, राजकीय नेता और नौकरशाह उससे अछूते नहीं हैं बल्कि कई-कई तो इसमें आकण्ठ डूबे हैं। यदि राजकाजमेंसे भ्रष्टाचार पूरी तरह निकल गया होता तो भी हमें नौकरशाही की पुनर्रचना की आवश्यकता होती क्योंकि आज का ढाँचा हमारे ध्येय प्राप्ति में फिर भी असमर्थ ही होगा- उसकी चर्चा हम थोड़ा रुक कर करेंगे। और जब हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भ्रष्टाचार को हटाना या कम करना या आज की लेवल पर रोक कर रखना तत्काल संभव नहीं है तो हमारी कठिनाई बढ़ जाती है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि 'रुको, पहले सारे भ्रष्टाचार को समाप्त करो, फिर नौकरशाही को सुधारेगें'। दूसरी ओर यदि हम ऐसी नौकरशाही चाहते हों जे भ्रष्टाचार को तो जरा भी न छुये, उसके प्रति चुँ तक न करे और फिर भी देश को वे सारे ध्येय प्राप्त करा दे तो यह भी संभव नहीं है। नौकरशाही की पुनर्रचना इस प्रकार करनी पड़ेगी कि नई पुनर्गठित नौकरशाही भ्रष्टाचार को रोकती रहे और धीर धीर कम करती रहे ताकि अन्य कार्यक्रमों के अच्छे फल समाज तक जल्दी से जल्दी पहुँच सके। यह अतिरिक्त शक्ति नौकरशाही में लानेका क्या उपाय हो सकता है?
विचारणीय है कि नौकरशाहीका आजका गठन कैसा है। इसके चार हिस्सों की अलग अलग जाँच करनी होगी। एक हिस्सा है डी, सी और बी वर्ग के कर्मचारियों का। आज का ढाँचा ऐसा है कि ये कर्मचारी नीति-निर्धारण
(policy formulation) के काम में हाथ नहीं बँटाते। साथ ही implementation की जिम्मेदारी भी इनपर नहीं हैं। यह दोनों काम ए वर्ग के अधिकारियों के जिम्मे पड़ते हैं। लेकिन सिस्टम की गतिमानता को बनाये रखनेमें इनका महत्वपूर्ण योगदान है जिसे आजतक अनदेखा गया है। नई संरचना में इस मुद्दे की विस्तृत चर्चा आगे करेंगे। ए वर्ग में भी दो हिस्से पड़ते हैं - IAS और non-IAS अर्थात जनरॅलिस्ट और स्पेशॅलिस्ट। इसिलिये कि जो non-IAS हैं वे अपने-अपने क्षेत्र के कुशल तंत्रज्ञ या यंत्रज्ञ होते हैं जैसे डॉक्टर हों या रॉकेट के विशेषज्ञ हों या बैंक की क्रेडिट पॉलिसी के माहिर हों। इनकी तुलना में IAS अधिकारी संख्या में अत्यंत कम होते हुए भी उनका पूर्णतया अलग रोल होता है। उनका अपना कोई एक क्षेत्र नहीं होता, फिर भी एक तरह की सर्वव्यापकता उन्हें सौंपी जाती है। यह माना जाता है कि स्पेशॅलिस्ट केवल अपने एक दायरेके बारेमें सोचता है, इस तरह के कई दायरे मिलाने हों तो जो ग्रुप बनेगा, उसमें स्पेशॅलिस्ट कुछ नहीं कर सकता। तो वहाँ ऐसे अफसर की जरुरत होगी जिसने कई समस्याओं को एक साथ देखा है। इसिलिये IAS अधिकारी के जिलास्तरीय पोस्टींग में ही कई कामों के निपटारे का जिम्मा और अधिकार दोनों उन्हें दिये गये हैं। आजकल बर जिलेके लिये एक संपर्क मंत्री नियुक्त करने का रिवाज भी चल पडा है। निचले स्तर पर यही अधिकार पंचायत समिती अध्यक्ष, सरपंच आदि को दिये गये हैं।
इस नौकरशाही में जो दुर्गुण उतर गये हैं, एक नजर उनपर डालें - इन्हें हम दो भागों में बाँटेंगे - एक ऐसे ऑफिसों के दुर्गुण जो टिपिकली छोटे हैं और जिन्हें केवल प्रोग्राम implementation करना पड़ता है - दूसरे उन ऑफिसों के दुर्गुण जिन्हें पॉलिसी भी बनानी पड़ती है।
पहली श्रेणी के ऑफिसों का सबसे बड़ा दुर्गुण है अविश्वास का। प्रशासन के लिये हमारे देश में जो नियम और कानून बने हैं, उन्हें पढ़ने पर यह स्पष्ट रुप में देखा जा सकता है कि उन सबका केंद्रीय सूत्र यही है कि अपने निचले अधिकारी पर विश्वास मत करो - सदा उसे अविश्वास की दृष्टि देखो। यह एक अत्यंत downgrading मानसिकता है जिससे नौकरशाही को उबारना आवश्यक है।
जिस कर्मचारी को हमेशा अविश्वास के वातावरण में काम करना पड़ता है, उसकी मानसिकता ऐसी बन जाती है कि खुद भी अपने आपको विश्वास का अपात्र मानने लगता है। यहीं से धीरे धीरे उसका आत्मसमान, उसका initiative खतम होने लगता है। दूसरी और जो कर्मचारी जिम्मेदारी नहीं निभाता, विश्वास का दुरुपयोग करता है, उसे सजा देने की पध्दती और नीति अत्यंत धीमी गती से चलती है। इस प्रकार निचले तबके के कर्मचारियों में काम करने का, काम को अच्छे ढ़ंग से निबटाने का, या काम की जिम्मेदारी उठाने का motivation खतम हो चुका है। कामचोर या भ्रष्टाचारी को सजा मिलती नही और काम करनेवालों को पुरस्कार और प्रशंसा के बदले अविश्वास से भरपूर नियम मिलते हैं जो उसकी कार्यक्षमता को बांध कर रख देते हैं। यह एक बात भी बाकी कर्मचारियों को हतोत्साह करने के लिये काफी है। वरिष्ठ अधिकारी भी ऐसे नियम बनाने का प्रयास करते हैं जो फुलप्रुफ हों। जिसमें निचला अधिकारी गलती या भ्रष्टाचार न कर सके। अकसर ऐसे नियमों में पहला नियम होता है कि सारी फाइलें, सारे निर्णय अधिकारी के हाथों ही निपटाई जायें। यानी उसका काम बढ़ा, डेलीगेशन ऑफ पॉवर की जितनी अच्छाइयाँ हों उनसे ऑफिस वंचित रहा, लोगों के काम में देर लगने लगी और निचले वर्ग में जो अच्छे कर्मचारी थे उन्हें अपनी कार्यप्रणवता बढ़ाने का कोई मौका नहीं मिला। मुझे याद आता है, कि एक जिला कार्यालय में ऐसा नियम बनाया गया कि सारे क्लर्क एक जगह बैठे, उसी कमरे में सुपरवाइजर भी बैठे ताकि बाहर से आनेवाला व्यक्ति केवल सुपरवाइजर से मिले ताकि कोई क्लर्क भ्रष्टाचार नहीं कर सके। बहुत वाहवाही हुई। उस सुपरवाइजर को बाद में यह कहते सुना गया कि लोगों से उसका जितना समय बरबाद हुआ उसकी तुलना में पुरानी ही सिस्टम अच्छी थी। क्योंकि इस नई सिस्टम में भी क्लर्क का मोटिवेशन तो हुआ नहीं।
ऐसा अविश्वास और उससे उपजी अकर्मण्यता धीरे धीरे उपर तक पहुँचने लगती है। हर व्यक्ति डेलिगेशन ऑफ पॉवर से कतराता है। लेकिन जो स्मार्ट व्यक्ति है और जिसे कामचोरी करनी है या भ्रष्टाचार, वह तो उसे करने के सौ तरीके ढूँढ ही लेगा क्योंकि सजा उसे होनी नहीं है। आज सरकारी नौकरी में बी, सी और डी वर्ग में आनेवाला कर्मचारी आने से पहले ही सोचता है कि उसे उपरी आमदनी कितनी मिलेगी, काम कितना टाला जा सकता है, घूमने का मौका कितना है, और देर से ऑफिस आने तथा आकर काम न करने की क्या क्या सुविधाएँ हैं। कई व्यक्ति अपने सारे काम निचले अधिकरियों को डेलिगेट कर अपना सारा काम टाल जायेंगा - यहाँ तक कि जो अधिकार और जिम्मेदारी उनकी अपनी है - वह भी। लेकिन मॉनिटरिंग नहीं कर पायेंगे। बगैर proper monitoring के कोई भी delegation प्रभावशाली नही हो सकता। साथ ही अब अपवार्ड डेलिगेशन ऑफ पॉवर भी होने लगा है। निर्णय की जिम्मेदारी टालना हो, और फाइलें पढ़ने में अपनी पूरी इमानदारी या समय नहीं लगाना हो तो आसान तरीका है कि फाइल को बॉस के पास भेज दिया जाय।
इन बातों की विस्तृत चर्चा यहाँ करने का कारण है कि नई संरचना में इस स्थिति में सुधार लाना अत्यंत आवश्यक होगा।
इसके लिये नौकरशाही के निचले तबके में जो सुधार तत्काल आवश्यक हैं वे है -
(क) विश्वास और विश्वसनीयता का वातावरण पैदा करना
(ख) हर कर्मचारी को जिम्मेदारी उठाने की, समय के माँग को तोलने की ट्रेनिंग देकर इस लायक बनाना।
(ग) अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार को शीध्रगति से कड़ी सजा देना।
(घ) निचले अधिकारियों को जिम्मेदारी सौंपकर उनके कामके monitoring की व्यवस्था सुधारना।
(ङ) ऑडिट और इन्स्पेक्शन के जिन मुद्दोंमें खास आर्थिक खतरे नहीं हैं और कर्मचारियों का समय बचाया जा सकता है वहाँ वे आवश्यक सुधार लाना। इन सुधारों का उद्देश हो विश्वास पैदा करना और आर्थिक efficiency लाना।
(च) कर्मचारियों को काम के लिये प्रोत्साहित करने के उपाय लागू करना।
(छ) सरकारी कामों की लाभ हानि की जाँच की ट्रेनिंग देना।
इत्यादि।
अच्छे प्रशासन की एक बड़ी फिट व्याख्या शिवाजी के गुरु रामदास ने एक पत्र में की है। शिवाजी पुत्र संभाजी महाराज को यह समझाते हुए कि प्रशासन कैसे चलाया जाये, गुरु रामदास कहते है -'जनांचा प्रवाहो चालला, म्हणिजे कार्यभाग झाला, जन ठायी-ठायी तुंबला, म्हणजे खोटे!' अर्थात् यदि लोगों के काफिले आ - जा रहे हों, उनके काम में रुकावटें नहीं आती हों, तो समझना तुम्हारा शासन अच्छा है, जव देखना कि लोग जगह जगह अटक रहे हैं, उनकी समस्याएँ उलझ रही हैं, उनके समस्या-निवारण में देर लग रही है तो समझना कि तुम्हारे प्रशासन में खोट है - कमजोरी है। जिस नौकरशाही में सबसे निचला कर्मचारी भी इस व्याख्या को निभा लेता हो, वही सक्षम नौकरशाही है। जो इस व्याख्या को कपोल कल्यना या utopia मानते हों वे जान लें कि विदेशों में इस व्याख्या का प्रत्यक्ष उदाहरण रोजाना ही देखा जा सकता है।
आज देशभर में कई training institutes प्रशिक्षण का काम करने का प्रयास भी कर रही हैं। किन्तु गैरसरकारी क्षेत्रों के कई गण्य मान्य व्यक्तियों को सरकारी प्रशिक्षण संस्थाओं के प्रभावशाली होने पर संदेह है। क्योंकि जब उन संस्थाओंकोभी भी आज के प्रभावहीन ढाँचे के मुताबिक काम करना है तो वे दूसरों को क्या सुधार सिखायेंगी। खासतौर पर जहाँ नवीनता लाने की आवश्यकता है, प्रशिक्षण संस्थाओं को आज तक प्रभावी नही पाया गया। इसका कारण यह नही कि प्रशिक्षणकी संकल्पना गलत है। कारण है कि उसका तरीका शायद गलत, अपूर्ण, inadequate और केद्रित है। वास्तविक ट्रेनिंग तब होगी जब ऑफिस का हर बड़ा अधिकारी छोटे अधिकारी के ट्रेनिंग को अपनी जिम्मेदारी मानता हो, साथ ही प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश हो कि कैसे ऑफिस एक अच्छे टीमवर्कसे कामको निपटाता है और टीमके हर मेंबरके प्रशिक्षणमें रुचि लेता है। वैसी सिस्टम हम नहीं बना पायें हैं।
अब जरा देखें उन दुर्गुणों को जो ऊंचे स्तर के अधिकारियों और ऑफिसों में आ गये हैं। तत्काल दिख जाने वाले और गिनाये जा सकने वाले दुर्गुण हैं कि आज की नौकरशाही असंवेदनशील है, सतर्क नही है, भ्रष्टाचार को निबटाना आवश्यक नहीं समझती बल्कि स्वंय ही भ्रष्टाचारी है। जनता यह भी बड़े पैमाने पर मानती है कि नौकरशाही भ्रष्ट के अलावा अकर्मण्य है, आलसी है, और निराश भी है। लेकिन जनता ने एक बड़ा अहम् दुर्गुण अभी तक नोट नहीं किया है। वह है नौकरशाही का अहंकार या arrogance, उध्दतता। यहाँ सरकारी अफसरों के व्यक्तिगत अहंकार या घमण्डी स्वभाव की नहीं बल्कि उस अहंकार की बात है जिसके तहत नौकरशाही कुछ मान्यताएँ लेकर चलती है
१)कि सरकार अर्थात् नौकरशाही जो भी कर रही है वह बहुत अच्छा है
२)सरकार जो कर रही है उससे अच्छा कुछ नहीं किया जा सकता।
३)जिस काम को सरकार खुद नहीं करे वह कभी नहीं हो सकता।
इस अहंकार का परिणाम पिछले चालीस वर्षों में scam का बवंडर बन कर हमारे सामने आया जिसकी चर्चा आगे चल कर करेंगे। पर अभी इसकी अन्य बुराइयों को देखें। यह ग्रुप अहंकार इतना बढ़ गया कि इसने सरकारको टुकड़े-टुकड़ेमें बाँट कर रख दिया। उदाहरण स्वरुप हम शिक्षा का क्षेत्र देखें। नौकरशाही केवल यह कह कर नहीं रुक जाती कि शिक्षा विषयक सरकारी नीतियाँ ही सर्वश्रेष्ठ हैं और सरकार के बाहरी लोगों को इस पर टिप्पणी करने का हक नहीं है - नौकरशाही आगे यह भी कहती है कि शिक्षा के विषय में नौकरशाही का शिक्षा विभाग जो कुछ कह रहा है वही सही है और बाकी नौकरशाह इस पर टिप्पणी न करे। इसीलिये यदि आप बड़े नौकरशाह भी हुए तो भी आप नहीं पूछ सकते कि शिक्षा विभाग में ऐसी सुव्यवस्था क्यों नहीं है कि आपके बच्चों को आसानी से स्कूल में एडमिशन मिल जाय? मजे की बात है कि यदि आप बहुत बड़े नौकरशाह है तो अपनी हस्ती का, अपने रुतबे का, अपने रुआब का वजन डालकर आप यह ensure कर सकते हैं कि आपके अपने बच्चों के स्कूल एडमिशन का इन्तजाम हो जाये। अर्थात् जहाँ सबके कामों में अव्यवस्था हो रही है, वहाँ आपका रुतबा या स्टेटस भी आपको अव्यवस्था हटाने की मांग का हक नहीं देता, और उस दिशा में आपकी सलाह रुतबे के बावजूद नहीं मानी जाएगी। हाँ, नौकरशाही यह इन्तजाम कर सकती है कि आपकी व्यक्तिगत कठिनाई दूर की जा सके।
इस कम्पार्टमेंटलाइसेशन के फलस्वरुप देश के हर क्षेत्र में पॉलिसी मेकिंग के exercise में हमने reductionist method अपनाई है - ये लोग नहीं बोलेंगे - वे नहीं बोलेंगे - वे तीसरे ग्रुप के भी नहीं बोलेंगे - करते करते बाकी बचता है एक डिपार्टमेंट - उसका भी एक डेस्क, और वहाँ का एक अधिकारी - यदा कदा दो या तीन। बोलने का या सोचने का अधिकार केवल उन्हीं के पास बाकी बचता है। इसलिये एकत्रित विचार नामकी कोई प्रोसेस ही सरकार में नहीं हो पाती है। कम्पार्टमेंटलाइझेशन का दूसरा असर यह पड़ा है, कि जब कोई नई समस्या, नई आइडिया, नया काम अर्थात् कुछ भी नया, कुछ भी ज़्यादा, कुछ भी वह काम जो कल नहीं किया था पर आज करना पड़ेगा - उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति यह रुख अपनाता है कि यह काम मेरा नहीं है - यह जिम्मेदारी मेरी नहीं है। कम्पार्टमेंटलाइझेशन का तीसरा नतीजा यह है कि हर नौकरशाह के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपना रुतबा, अपना धौंस बढ़ायें - क्योंकि तभी उसे दूसरे डिपार्टमेंट से वह सहायता मिल सकती है जो उसे एक सामान्य आदमी के नाते भी मिलनी चाहिये थी, लेकिन वास्तविकता में नहीं मिलती है। इस प्रकार जो जहाँ है वहीं अपना रुतबा बढ़ाने की कोशिश करता है। यह रुतबा मापने का तरीका भी बड़ा मजेदार है। मसलन आपका ऑफिस रुम कितना बड़ा है, आपके कण्ट्रोल में कितनी कारें हैं, कितना बजट है, कितने आदमी हैं, कितने कम्प्यूटर्स हैं, कितने सुरक्षा गार्डस हैं, आप अपने विजिटरों को कितनी देर अटका कर रख सकते हैं और सर्वोच्च मानदण्ड यह कि कितने आदमियों का काम आपकी व्यक्तिगत स्वीकृति के बगैर नहीं होता। यह एक बड़ी नकारात्मक प्रवृति नौकरशाही में पल रही है और बढ़ रही है।
नौकरशाही की पुनर्रचना की जरुरत क्यों आन पड़ी? इसका एक मुख्य कारण है कि १९५०-१९६० की तुलना में आज हमारी विकास के तरीकों की मान्यता ही बदल गई है। तब हमारा नारा था समाजवादी समाज का जिसमें प्राईवेट और पब्लिक दोनों सेक्टरों के सहयोग, और सह-अस्तित्व की बात थी। पिछले चालीस वर्षों में बड़ी धीमी गति से हम इस बात के प्रति जागे कि न तो हमने अपने प्राइवेट सेक्टर को अधिक एफिशियंट बनाया और न पब्लिक सेक्टर को। सरकार हर क्षेत्र में घुसपैठ करने लगी और कई निरर्धक काम अपने सिर पर ओढने लगी। जहाँ पब्लिक सेक्टर में नये काम किसी खास वजह से लेने पड़े वहाँ भी withdrawal scheme की आवश्यकता होती है। पर इस बात को नजरअंदाज किया गया। जिन कामोंसे सरकार १०-१५ वर्ष पहले से ही अच्छी तरह प्लान करके बाहर निकल सकती थी, वह प्लानिंग नहीं की गई। यहाँ जमशेदपूर की टाटा कंपनी का उदाहरण पेश है। उन्होंने मजदूरोंसे सलाह करके एक प्लान बनाया कि कैसे अगले १५ वर्षों में वे उनकी संख्या में कटौती कर ऑटोमेशन बढ़ायेंगे और फिर भी मजदूरी में कटौती नहीं होगी। लेकिन सरकारी क्षेत्रमें इस तरह के प्लानिंग की बात ही असंभव है। यह भी आज के ढाँचे की अपरिपक्वता का सबूत है और नये ढाँचे के लिये सावधानी बरतने की बात है।
आज हम आर्थिक सुधार और लिबरलाइझेशन की बात करते हैं। इसका उद्देश क्या है? जब हमने समाजवादी आर्थिक नीति अपनाई तो उसका उद्देश था गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को दूर करना। इसलिये दो महत्वपूर्ण नीतियाँ अपनाई गईं - कि कोअर सेक्टर के रॉ मटेरियल जैसे कोयला, स्टील, बैंक, रेल आदि सरकारी कबजे में रहेंगे - ताकि उनके सरकारी वितरण का लाभ गरीब जनता को भी मिलता रहे और मूलभूत सुविधाएँ जैसे स्वास्थ्य, आवागमन, इत्यादि को उपलब्ध कराने का जिम्मा सरकार ले। लेकिन वास्तव में सरकार ने कोअर सेक्टर के बाहर के भी कई काम ले लिये और केवल एक expansionist या रुतबा बढ़ानेवाली नीति अपनाई!!
पुनर्संरचना के लिये नौकरशाही के ढाँचे में क्या परिवर्तन करने चाहिये यह प्रश्न और यह विषय आजकी तिथिमें महत्वपूर्ण क्यों बन गये हैं? इसका मुख्य कारण यह मान्यता है कि आज हमारी नौकरशाही आर्थिक लिबरलाइझेशन के सिद्धांतों की ओर उन्मुख नहीं है, और उसे वैसा बनाना आवश्यक है। हमारी नौकरशाही विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया में भी बाधक है, पुनर्रचना से उसे विकेंद्रीकरण में भी सहायक बनाना होगा।
पहले हम विकेंद्रीकरण की बात करेंगे। नौकरशाही का या प्रशासकीय सत्ता का आज का ढाँचा पिरॅमिड की तरह है। मानों एक बड़े मैदान में सैकड़ों पिरॅमिड खड़े कर दिये हों। हर व्यक्ति अपने अपने पिरॅमिड में एक दूसरे को पछाड़ते हुए ऊंचा उठ सकता है लेकिन एक functional sector का दूसरे के साथ कोई कम्यूनिकेशन नहीं- कोई साझा नहीं। जिस क्षेत्र में कोई पिरॅमिड नहीं उसका ख्याल रखनेवाला कोई नहीं। आज हमारा सारा प्लॅनिंग functional sector के आधार पर होता है यथा कृषि sector का प्लॅनिंग या यातायात sector का प्लॅनिंग। इसकी जगह हमें Area planning और spatial planning का ढाँचा अपनाना होगा। इस दिशा में अत्यंत छोटा प्रयास पंचायत राज व्यवस्था के अंतर्गत अभिनिविष्ट है। लेकिन उस ढाँचे को हमने पूरी तरह विकसित नहीं किया है। यहाँ फिर एक बार समय बड़ा महत्वपूर्ण बन जाता है। यदि हम आर्थिक लिबरलाइझेशन को बड़ी तेजी से लाने का प्रयास करें तो उस तेजी में हम पुराने ढांचे को खींचखांच कर, फाड़कर, तोड़-मरोड़ कर फेंक देंगे और जल्दबाजी में वह उठा लेंगे जो भी हाथ आयेगा। हमारा रवैया वैसा ही होगा जैसा किसी आग में जलते व्यक्ति का अपने कपड़ों के प्रति होता है। जाहिर है कि वैसी पुनर्रचना की बात हम नहीं कर रहे बल्कि एक सूझबूझ के साथ की जानेवाली पुनर्रचना की बात करेंगे जहाँ पुराने को सुधार कर या बदलकर नया परिवर्तन लाने के लिये कुछ समय अवश्य दिया गया हो। लेकिन यह ध्यान हमेशा रखना पड़ेगा कि बहुत कम ही समय हमारे पास उपलब्ध है।
किसी भी देश की सरकार का, प्रशासन का और नौकरशाही का एकमात्र नैतिक justification यही होता है कि वह ऐसे नियमों का सुचारु रूप से पालन करवाती है जो समाज ने अपनी सुखसुविधा के लिये उपयोगी मानकर नियत किये हैं। यह एक अत्यंत व्यापक कल्पना है जिसके सभी पहलुओं को ठीक से देखना पड़ेगा। समाज अपने लिये किस सुखसुविधा की अपेक्षा करता है? इसका प्रतिबिम्ब है रामचरितमानस में तुलसीदासजी के वचन -'दैहिक, दैविक भौतिक तापा, रामराज्य नहीं काहुंहि व्यापा' - अर्थात् प्रत्येक प्रकार की दुश्चिंतासे छुटकारा। हम सत्य की ओर चलें, प्रकाश की ओर चलें, अमृतत्वकी ओर चलें और यह करने में समाज व्यवस्था हमारी सहायक हो और इतनी ही माँग समाज का हर व्यक्ति करता है। इसका उपाय भी बताते हैं - 'संगच्छध्वं, सं वदध्वं, सं वो मनांसि जाननाम् - हम साथ साथ चलें - एकत्रित रुप से विचार करके बोलें, एक दूसरे के मन को मन से मिलायें ............... इसी नियम का पालन करके देवताओं ने श्रेष्ठत्व अर्जित किया'। यहाँ 'हम' कौन हैं? पूरा समाज - न कि केवल नौकरशाही। इसलिये आज भी नौकरशाही को बार-बार अपने मूलतत्व की ओर, अपने जड़ों की ओर देखना होगा। यह मूलतत्व - या जड़ें समाज ही हैं। नौकरशाही की उपयोगिता और प्रभावशक्ति तभी तक रहेगी जब तक वह लोगों से, समाज से अपना पोषण ले सकें, या दूसरे शब्दों में तब तक जब तक समाज उसे पोषण देने में दिलचस्पी ले। और नौकरशाही को स्वंय भी समाज की ओर उन्मुख होना होगा। समाज से उसका कम्यूनिकेशन बराबर चलता रहे और जन सामान्य की सुख सुविधा के अनुसार तुरंत ढल सकने का लचीलापन, नौकरशाही में हो। इसके लिये समाज की इकाइयों और नौकरशाही के बीच विचारों का, योजनाओं का और स्वंय व्यक्तियों का (पर्सनॅलिटीज) का भी आदान प्रदान बढ़ाना होगा। नौकरशाही को समाज के घर-आंगन तक पहुँचना होगा और समाज के हर व्यक्ति को नौकरशाही के अंतरंग तक। ऐसा हो सके इसकी दो शर्तें हैं। पहली शर्त यह कि समाज के हर व्यक्ति का स्तर ऊँचा हो, विकासमान हो और यह विकास विकेंद्रित हो। दूसरी शर्त थोड़ी अधिक गहरी है।
यद्यपि हम नौकरशाही की पुनर्रचना की बात कर रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि यह विषय हमारे समाज जीवन को प्रभावित करने वाले अन्य विषयों से अछूता होता हो। नौकरशाही का जितना सीधा संबंध प्रशासन चलाने से है उतना ही संबंध देश की आर्थिक नीति से भी है, सामाजिक स्थिति से है, राजनैतिक व्यवस्था से है और उससे भी गहरा संबंध देश की चिंतन प्रणाली से है।
आज देश में चाहे नौकरशाही की पुनर्रचना करना हो या कोई दूसरा बड़ा फेरफार करना हो, पहले तीन क्षेत्रों का सम्यक् विचार करना पड़ेगा - हमारी आर्थिक नीति, हमारी शिक्षा नीति (क्योंकि यही हमारी आर्थिक efficiency को तय करेगी) और हमारा सामाजिक फलसफा, चिंतन या दर्शन।
एक खेद की बात है कि हमारे सारे प्लानिंग प्रोसेस में शिक्षा का क्षेत्र महज एक मूलभूत सुविधा का क्षेत्र बन कर रह गया। इस क्षेत्र का स्पेशल स्टेटस बहुत कम नौकरशाहों ने पहचाना। वास्तविकता यह है कि यदि शिक्षा है जो आदमी आदमी है। शिक्षा है तो समाज है, शिक्षा है तो रोजगार है, उत्पादन है, कार्यकुशलता है, efficiency है, नैतिक मूल्य है, विचार-प्रणवता है और अपनी थाति, अपनी achievements को आनेवाली पीढ़ी को सौंपने की क्षमता है। यदि शिक्षा है तो देश है। हमारी नौकरशाही का फेल्युअर यहाँ से आरंभ हुआ कि शिक्षा पध्दति को हम अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं ढाल सकें। आर्थिक क्षेत्र में हम capital expenditure, return on investment, और gestation period आदि बातें करतें हैं। लेकिन शिक्षा क्षेत्र में हमारा gestation period बढ़ता रहा। Rate of return on capital समान रुप से बढ़ने की बजाय ऐसी स्थिति आई कि ग्रॅज्युएशन अर्थात् १५ वर्ष बिताने पर भी शिक्षा के बल पर रोजी-रोटी मिलने की कोई गॅरंटी नहीं रही। जिसके पास पाँच या दस वर्ष का ही समय हो उसके लिये शिक्षा लेने या न लेने का कोई मतलब नहीं रहा। कार्यप्रणव या हुनरवाले लोग नहीं बन पाये इसलिये औद्दोगिक प्रगति भी कम रही। आज भी देश में अकुशल मजदूरों की संख्या ७० प्रतिशत से अधिक है और शिक्षित जनसंख्या ५० प्रतिशत से कम।
यह अकार्यकुशल, अशिक्षित जनता दो क्षेत्रों में हमारे पाँव पीछे खींचती है - एक तो आर्थिक efficiency के क्षेत्र में। यही एक क्षेत्र है जो तय करता है कि कोई देश सार्वभौम और स्वतंत्र रहेगा या नहीं। विचारणीय है कि भारत में ईस्ट इंडिया का काम भी व्यापार की सहुलियतों से ही आरंभ हुआ था। और जब कंपनी ने अपने पांव जमाने आरंभ किये तो सबसे पहले यहाँ के हुनरवाले, कुशल कारीगरों को समाप्त कर यहाँ के औद्योगिक उत्पादन को खतम करना उनका प्राथमिक कार्य था। आज भी आर्थिक सुधार करने हुए यदि हम अपने मानवीय संसाधनों में कम पड़ गये (और जो स्पष्ट चिन्ह दिख रहे हैं उनके अनुसार हम वाकई अपने manpower resources में कम पड़ रहे हैं) तो केवल आर्थिक लिबरलाइझेशन से देश की आर्थिक कठिनाई दूर नहीं हो सकती और न GNP बढ़ सकता है और न अमीरी-गरीबी के बीच की खाई भरी जा सकती है। अर्थात् वह आर्थिक विकास हम नहीं पा सकते जिसके लिये आर्थिक सुधार का सारा प्रयास पिछले दो वर्षों में किया जा रहा है।
दूसरा सवाल है empowerment of masses का। जब हमारी साठ से सत्तर प्रतिशत जनता अशिक्षित और अकार्यकुशल हो तो फिर empowerment of masses की संकल्पना में कितना तथ्य या जोर हो सकता है? हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि यही जनसामान्य नौकरशाही के साथ हाथ बँटायेंगे? यहाँ हम 'नौकरशाही पर अंकुश' की चर्चा नहीं कर रहे। क्योंकि अंकुश में फिर अविश्र्वास वाली बात निहित है। हमें एक साझेवाली नौकरशाही का ढाँचा चाहिये जिस ढाँचे में सामान्य जनता आसानी से आ-जा सके - कभी केवल सुझाव देकर हाथ बँटाये, कभी प्रत्यक्ष रुप में जिम्मेदारियाँ निभाकर। थोड़ी हदतक निगरानी का काम भी जनसामान्य को करना होगा क्योंकि नौकरशाही का भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और immunity from punishments एक दिन में दूर नहीं होंगे। नौकरशाही की सिस्टम को गतिमान और balanced रखने के लिये इसके प्रत्येक काम में जनसामान्य का विचारपूर्वक साझा होना चाहिये - वह वैचारिक परिपूर्णता उचित शिक्षा के बगैर नहीं आती। इस प्रकार शिक्षा क्षेत्र को neglect करके हमने अपने लोकतंत्र को भी खतरे में डाल दिया है और नौकरशाही को भी अवरुद्ध कर दिया है। दुर्भाग्य से आज हमने नई आर्थिक नीति की बात तो आरंभ कर दी पर शिक्षा नीति की हम आज भी उतनी ही उपेक्षा कर रहे हैं बल्कि अब तो पहले से अधिक।
अन्तिम प्रश्न समूह है कि नौकरशाही की पुनर्रचना कौन करे? पुनर्रचना के कारण जिनकी अनिर्बध सत्ता खतरे में आनेवाली हो वे क्यों आसानी से पुनर्रचना लाने देंगे? एक दूसरा प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। नौकरशाही की पुनर्संरचना करनी है यही सोचकर यदि नौकरशाही में कुछ उलटा - पुलटा कर दिया तो उससे क्या लाभ? यदि विचारपूर्वक फेरफार नहीं किये तो उनसे उत्पन्न खतरे के विषय में भी हमें ठहरकर सोचना पड़ेगा। यहीं हमारे सामाजिक फलसफे का मुद्दा महत्वपूर्ण बन जाता है। नौकरशाही की सही दिशा में पुन संरचना तभी संभव है जब जनता इसकी माँग करे। जनता माँग तभी करेगी - जब वह सुशिक्षित हो और जानती हो कि 'सं वो मनांसि जानताम्' के सूत्र में उसका अपना क्या रोल है। यह रोल विचार-प्रक्रिया और कार्यकुशलता दोनों क्षेत्र में होगा। अर्थात् हमारी जनता तभी सुशिक्षित कहलायेगी जब वह कार्यकुशल भी हो और विचार प्रणव भी। क्या हमें अंदाजा है कि यह सुशिक्षा का कार्य कितने बड़े पैमाने पर करना है? देश के लगभग तीस करोड़ नाबालिग (आयु अठारह वर्ष से कम) और करीब उतने ही प्रौढ़ व्यक्ति आज शिक्षा की दृष्टि से 'empowered' नहीं हैं और इसीसे शिक्षाकी आर्थिक कीमत (फीस और समय दोनों के हिसाब से) प्रतिवर्ष बढ़ रही है। आर्थिक सुधारों की लिस्ट में एक महत्वपूर्ण और रामबाण औषधी यह मानी जा रही है कि शिक्षा की पूरी कीमत विद्यार्थी से वसूल की जाय। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय दूसरा नहीं हो सकता है। यदि यही निर्णय कायम रहा तो जनसामान्य का empowerment कभी नहीं हो सकता और जनसामान्य की नौकरशाही में साझेदारी भी नहीं हो सकती।
अर्थात् नौकरशाही की accountability में कुछ मूलभूत सुधार आवश्यक हैं। आज की स्थिति यह है प्रशासक के गलत निर्णय का आर्थिक बोझ जनता उठाती है और राजकीय consequence नेतागण उठाते हैं। नेता का गलत प्रशासकीय निर्णय हो(जैसे भ्रष्टाचार, पैरवी, शिफारस इत्यादि से उत्पन्न निर्णय) तो उसका फल भी - चाहे आर्थिक या प्रशासनिक-वह भी जनता को भुगतना पड़ता है और यदि दोनों के आर्थिक निर्णय गलत हुए तो पूरे देश का भविष्य डूब सकता है लेकिन व्यक्तिगत रुप में वह जिम्मेदार नौकरशाह बच ही जायेंगे - बल्कि कई बार तो अच्छी खासी संपत्ति या नाम भी इकठ्ठा कर लेंगा।
ऐसी स्थिति में फससफे की बात इसलिये उठी है कि सदियों से भारतीय मानस यही मानता आया है कि जीवन की सार्थकता देने में है - छीनने में नहीं। शिक्षा और ज्ञान का प्रचार और विस्तार कुछ ऐसी वस्तु है जिसकी तौल आर्थिक तराजू पर नहीं तुलती। अच्छे शिक्षक की पहचान यही बताई गई कि उसकी वृति अपरिग्रह की हो न कि चीजें बटोरने की। अच्छे समाज की पहचान बताई गई कि शिक्षक के सर्वाधिक अपरिग्रही (यानी सिक्के बटोरने की भाषा में 'गऱीब')होते हुए भी समाज उसका सर्वाधिक आदर करें। इस एक सामाजिक मूल्य ने हमारे समाज को सदियों तक बचाये रखा। टूट फूट कर बिखरने नहीं दिया। हमारी शिक्षा नीति को बनानेवाले नौकरशाह इस सामाजिक दर्शन का सदुपयोग कर शिक्षा प्रणाली को कम खर्चीली, जीवन से अधिक जुड़ी हुई बना सकते थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नई आर्थिक नीति में सारी सोच इस फलसफे से उल्टी है। इसलिये नौकरशाही की संरचना में कोई प्रभावशाली पुनर्गठन होगा ऐसा आज नहीं लगता। शायद सरकार कई सेक्टरों में से अपने आपको हटा ले जैसा घोषित किया है। इस प्रकार नौकरशाही के आकार को कम किया जा सकता है लेकिन जरुरी नहीं कि उसके परिणामस्वरुप आर्थिक विकास की गति तेज हो। और यदि यह जल्दबाजी में हुआ तो व्यापक हिंसाचार और सामाजिक मूल्यों के अधिक ह्रास की ही संभावना अधिक है। अतएव आर्थिक विकास मापने का तरीका भी सोच समझकर ही तय करना पड़ेगा। लोगों ने यह जता दिया है कि इस देश की भूमि पर यदि कारगिल कंपनी नमक बनकर पैसे कमाती है और सरकार उनके प्रॉफिट को अपने GDP में शामिल करना चाहती है तो यह जनना को मंजूर नहीं। जनता देखना चाहेगी कि इस देश की अपनी संपत्ती बढ़ी या नहीं। यदि नई आर्थिक लहर में यह सामाजिक मूल्य बचा रह सका तो समाज में सुविधा का फैलाव भी होगा और फिर समाज नौकरशाही को बदलने में समर्थ होगा।
तब तक नौकरशाही में रहकर जिन्हें कुछ करना है उनके लिये यही सूत्र है कि अपनी अपनी जगह पर पारदर्शिता लाने का प्रयास करो, अपने अधीनस्थोंके प्रति प्रशिक्षक की भूमिका अपनाओ, जहाँ अच्छाई दिखे उससे तुरंत समानुभूति प्रकट करो, उसे अकेले न पड़ने दो और अपने कार्य की आर्थिक efficiency बढ़ाओ। जहाँ जहाँ विकेंद्रीकरण संभव है उसे अपनाओ और जनसामान्य से सिस्टम का वैचारिक आदान प्रदान बढ़ाने के तरीके अपनाओ। पुनर्रचना के लिये बना बनाया सूत्र या मॉडेल खोजने की बजाय उसे अपने देश की मिट्टी से जुड़कर यदि हम विकसित होने दें तो ही उसमें आंतरिक सामर्थ्य टिक पायेगा।
लीना मेहेंदले
सदस्यता लें
संदेश (Atom)