सोमवार, 19 जुलाई 2010

22 स्वास्थ्य नीति : सेवा बनाम शिक्षा

स्वास्थ्य नीति : सेवा बनाम शिक्षा (last 2-3 paras missing

इक्कीसवीं सदी के पहले ही देश की जनसंख्या सौ करोड़ के जादुई अंक को छू लेगी। जैसी दिशाहीन बढ़ती हुई हमारी आबादी है, वैसी ही दिशाहीन फैलती हुई हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ भी है। किसी जमाने में डॉक्टरी का पेशा सेवाव्रत माना जाता था। ऐसे कई आदर्शवादी डॉक्टरों को नजदीक से देखने पर भी, तब भी मेरी मान्यता यह थी कि शायद उनकी सेवा की दिशा गलत है। आज तो डॉक्टरों की सेवा भावना पर ही शक किये जाने लायक परिस्थितियॉ मौजूद हो गई है।

सरकारी ऑकडे बताते है कि आज देशा में लगभग पांच लाख एम.बी.बी.एस.डॉक्टर्स और करीब इतने ही आयुवेग्द, होमियो चिकित्सा और अन्य प्रणालियों के डॉक्टर है। स्कूलों के सबसे मेघावी छात्र डॉक्टरी की ओर जाते है। परीक्षाओं की रैट रेस में आगे बने रहना, इसके लिये मेहलत और पैसे खर्च करना और डॉक्टरी के पढाई के दौरान भी वही मेहलत बनाये कोई मामूली बात नहीं है। साथ में परिवार का और समाज का भी काफी पैसा खर्च करके ही यह शिक्षा हासिल होती है। अब समाज के खर्च की बात कोई क्यों सोचे? लेकिन परिवार की लागत की पूरी-पूरी वसूली तो होनी ही चाहिये। और फिर जब उन्हें भी यह सर्टिफिकेट हासिल है कि वे समाज के सबसे अधिक मेघवी, मेहनती और विद्वान संवर्ग मे है। तो क्यों न पैसा, प्रतिष्ठा, और अन्य सुख-सुविधाओं पर उनका हक माना जाय? वह भी तब, जब कि वह डॉक्टर दिन रात मेहनत करने के लिये भी तैयार है। इस प्रकार आजकल जब डॉक्टर्स बैंक बैलेन्स के पीछे भागते दीखते हैं। तो उनके पास जस्टिफिकेशन भी होता है। यही कारण है कि डॉक्टरों में सेवा भावना विदा लेकर व्यावसायिकता की भावना आ चुकी है और होड़ लगाकर बितारों से पैसा वसूल किया जा रहा है।

कोई बड़ा मेघावी छात्र सर्जन बनता है। तुरंत अपना अस्पताल खड़ा कर देता है। उस बिल्डिंग का भी अपना ही एक अर्थशास्त्र होता है। हर दिन अमुक-अमुक ऑपरेशन न हो पायें तो बिल्डिंग का खर्चा नहीं निकलेगा। फिर यह सोच गैर लोगू हो जाता है कि पेशंट की वाकई में ऑपरेशन की जरुरत है या नहीं। या यदि किसी पेशट को अब भी अस्पताल में रखना जरुरी है लेकिन उसे वापस भेज दिया जायेगा क्यांकि किसी ऑपरेशन के पेशंट के लिये खाली कमरा चाहिये होता है।

कोई और मेघावी डॉक्टर है - पैथॅलॉजिस्ट है। चालीस-पचास लाख का नया उपकरण लाकर वह अपनी लैब खोलता है। अब इस मशीनी लागत का हर दिन का ब्याज ही दो हजार रुपये के आसपास है। वहॉ ज्यादा केसेस चाहिये हों तो जनरल प्रैक्टीशनर का सहयोग चाहिये। वह कहे कि फलो-फलो टेस्ट किये बगैर मैं रोग निदान नहीं कर सकता और दवाई नहीं दे सकता। इसके लिये हर रेफर्ड केस के पीछे प्रतिशत का जनरल प्रॅक्टीशनर को पहुँचाया जाता है। वह चाहे ऍलोपैथी का हो या आयुर्वेद का या होमियोपैथी का और तरीके है। मरीज को कहा जाता है कि फलों ऍण्टीबायोटिक अच्छा नहीं - इसकी - जगह वह दूसरा ही लेना। इस प्रकार दूसरी दवाई की मार्केटिंग भी ये धडल्ले से करते रहते है। इस बीच नई दवा की जानकारी कितनी मालूम होती है? केवल वही जो मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव ने बताई हो, और जो उसे कंपनी ने बनाई हो।

ऐसे चित्र आये दिन देखे जाते है। ऐसा नहीं कि हर डाक्टर गलत भावना से ही मरीज को सजाह देता हो - शायद आधे डॉक्टर्स सही हो। लेकिन मरीज को उनकी पहचान कैसे हो? क्योंकि रोग के विषय में जानकारी, समझ और अगली सलाह देने के सारे हक डॉक्टर के ही पास होते है।

आप डॉक्टर से ज्यादा पूछताछ भी नहीं कर सकते उनके अहंकार को ठेस पहुँचती है। उनका उत्तर होगा - डॉक्टर आप है। या हम? चुपचाप कहे मुताबिक कीजिये अर्थात् आप यदि पेशंट है। तो आप अज्ञानी ही है, वैसे चाहे पढ़े लिखें हो पर मेडिकल लेंग्वेज समझने के - हिसाब से तो अज्ञानी ही हुए। फिर वह डॉक्टर जो दिन में पांच दस हजार कमा लेता है। उसके एक मिनट की कीमत भी चार-पॉच सौ रुपये होगी, वह क्योंकर आपको समझाने के लिए अपना एक भी मिनट जाया करें। और अब तो ग्राहक मंच भी है। यदि आप कुछ जानकारी रखते हों अपने विषय में, डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर क्यों रिस्क लें? इन सब कारणों से डॉक्टर पेशंट के हित को प्राथमिकता नहीं
देता उसकी प्राथमिकता होती है अपनी कमाई, अपना अहंकार बडप्पन और कोर्ट से अपना बचाव। फिर पेशंट का निरर्थक आपॅरेशन टालने के लिये या उसकी अनावश्यक दवाइयाँ और अनावश्यक टैस्ट्स रोने के लिये डॉक्टर कुछ नहीं करना। कई बार इलाज के दौरान मरीज को किसी दवाई के प्रति ऍलर्जी पैदा हो जाती है, पर उसे नही समझाया जाता कि भविष्य में उसें कौनसी दवाइयाँ टालनी है। यहाँ तक कि उसके केस रिपोर्टस भी उसे नहीं दिये जाते - उन्हें अस्पताल का प्रॉपर्टी कहकर रख लिया जाता है। यदि किसी पेशंट को चार वर्ष बाद या उसी समय भी दूसरे डॉक्टर की सलाह लेनी हो तो उसे उन रिपोर्टस् का उपयोग नहीं करने दिया जाता। यह है हमारे अस्पतालों की नैतिकता का मापदण्ड। सौभाग्य से हाल ही में हाई कोर्ट ने एस केस में फैसला दिया है कि मरीज के मागने पर अस्पताल को उसके टेस्ट रिपोर्ट उसे देने होंगें। यह अभी देखना बाकी है कि कितने बीमार इस फैसले का फायदा उठा पा रहे है।

यह सब लिखने का यह उद्देश्य नहीं कि डॉक्टरी पेशे के काले किस्से को भडकीले ढंग से प्रस्तुत किया जाय। केवल यही स्पष्ट करना है कि आज डॉक्टरी पेशे में व्यावसायिकता और बैंक बैलेन्स का विचार अवश्यंभावी बन गया है। इसके लिये आवश्यक सारी तिकड़मबाजी मेहलत और लागत लगाने का पैसा, सब डॉक्टरों के पास है। और जस्टिफिकेशन भी है। फिर जो ये हमारे अति बुद्धिमान छात्र डॉक्टर होते चलते है। उन्हें बैंक बैलेन्स के पीछे भागने में कोई संकोच नहीं होता। यह हुआ व्यावसायिक डॉक्टरों का पक्ष।

पिसा जाता है बेचारा मरीज और उसके रिश्तेदार। व्यावसायिकता की ढाल की आड़ में उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को डॉक्टर लोग नहीं निभाते मेरा और कई सैकड़ो लोगों का मानना है कि मरीज के रोग के बाबत खुद उससे और उसके रिश्तेदारों से विस्तृत चर्चा करना डॉक्टर का परम और प्रथम कर्तव्य है लेकिन यह सिद्धांत डाक्टरों को तीन प्रकार से खलता है। एक तो उनका सुपिरिऑरिटी का अंहकार चोट खा जाता है यदि मरीज अपने विषय में कुछ करना या जानना चाहे। दूसरे उनका कमाई का समय खर्च हो जाता है, तीसरे यह भी डर है कि जानकारी लेने के दौरान उनकी कोई गलती मरीज ने पकड़ ली तो कन्ज्यूमर कोर्ट में उन्हें खींचा जा सकता है।

कई बार इससे थलग डॉक्टर्स भी देखे जाते है। जो मरीज को अनावश्यक टेस्ट तो करवाये अनावश्यक ऑपरेशन की सलाह न दे लेकिन वे भी मरीज से चर्चा करने से कतराते। उनके लिये पूरा आदर भव रखकर भी कहना पडेगा कि मैं केवल उनकी सेवा भावना से ही सहमत हूँ सेवा की दिशा से नहीं। इसका भी एक महत्वपूर्ण कारण है।

यह प्रायः देखा गया है कि अच्छे अच्छे सेवाभावी डॉक्टर्स भी अपने डॉक्टरी झाम को लेकर एक अहंकार या कहिये कि एक बडप्पन का भाव पाल लेते है। और उस रौ में यह भूल जाते है कि सामने वाला हर रोगी अपने आप में एक बुद्धिशाली व्यक्ति है जिसके जीवन और जीवन्नता ने उसे भी बहुत कुछ सिखाया होता है। उसके अपने अनुभव के आधार पर जो ज्ञान उसके पास संचित होता है उसे नकारकर इलाज नहीं किया जा सकता। इसीलिये डॉक्टर की रोगी से विस्तृत चर्चा होनी आवश्यक है। डॉक्टर केवल सेवाभावी न हो, वह एक अच्छा शिक्षक और एक अच्छा विद्यार्थी भी हो। उसका प्रयत्न हो कि औरों के पास भी छोटे पैमाने पर ही सही मेडिकल ज्ञान बढ़े न कि उनके संचित अनुभव और ज्ञान का उपहास हो।

एक उदाहरण देखें। मैंने बचपन में कभी नानी से सुना कि हरसिंगार के पत्ते चबाने से बुखार उतर जाता है। अभी चल कर इसका उपयोग हमारे घर मे जमकर किया गया। अब हर बार तो नहीं, लेकिन कई बार हरसिंगार की पत्त्िायाँ खाने से बुखार उतर गया है। अब अगर आप डॉक्टर से कहें कि साधारण ही बुखार हो तो बताइये, फिर हम आपकी दवा खाने के बजाय हरसिंगार की पत्त्िायाँ ही खा लेगें तो उसकी प्रतिक्रिया क्यों होगी? बेहद गुस्से की - आप यहाँ आये ही क्यों?

गुस्सा उतर चुकने के बाद ऍलोपैथी डॉक्टर ही तो कहेगा - यह बकवास है, अंधश्रद्धा है, आप ही जैसे लोगों के कारण हिन्दुस्तान में इतना अस्वास्थ्य है इत्यादि। और आयुर्वेद का वैद्य भ्ंी हो तो उसकी भी प्रतिक्रिया होगी तो हम उनके लिये अच्छी और पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं करापा रहे है। और दूसरी ओर उनका स्वास्थ्य विषयों का ज्ञान बढ़े इसके लिये भी हम कुछ नहीं कर रहे। जब भी पैसा उनलब्ध हुआ और चुन्ना पडा कि हम उनके लिये कौन सी नीति उपनीयेंगे अधिक स्वास्थ्य सेवा देने की अधिक स्वास्थ्य शिक्षा देने की तो हर बार हमने स्वास्थ्य सेवा को ही प्रधानता दी
नतीजा यह है कि आज वह स्वास्थ्य सेवा हर तरह से लडखड़ा रही है और गरीब तथा पिछड़े इलाकों का समाज स्वास्थ्य सेवा के साथ साथ स्वस्थ्य शिक्षा से भी वंचित हो रहा है। आज अमारे दुर्गम और पिछड़े इलाके प्यादा मात्रा में डॉक्टरों पर निर्भर है जबकि वहॉ डॉक्टर उपलब्ध ही नहीं है। फिर क्यों उन्हें कमसे कम इतना नहीं सिखा पाते है कि चलो इस बीमारी में डॉक्टर के न मिलने तक कम से कम ये ये बातें करते रहना। यह शिक्षा देने की जिम्मेदारी डॉक्टरों की है, जिसे उन्होंने पूरी तरह टाल दिया है और इसके लिये लज्जिात भी नहीं है।

मुझे एक प्रसंग याद आता है। एक सज्जान के घर एक सुविख्यात प्राईवेट डॉक्टर से परिचय हुआ। यह सुनकर कि मैं IAS हूँ और कलेक्टर हूँ - उन्होंने कहा - आप IAS अधिकारी बड़ी गलत नीतियाँ बनाते है। 'सो कैसे' तो उनका उत्तर था - देखिये गाँव गाँव में जो बीमारियाँ और महामारियों फैलती है उनका मुख्य कारण होता है पीने का दूषित पानी।
और आप लोग पर्याप्त और शुद्ध पानी मुहैया करने पर अधिक जोर देने के बजाय ज्यादा नये PHU खोलने की नीति बनाते है। अरे PHU में डॉक्टर जायेगा भी तो दूषित पानी से कैसे लड़ेगा? बात बिल्कुल सही कही डॉक्टर साहब ! यह बात तो एक डॉक्टर ही ज्यादा अच्छी तरह समझ सकता है, फिर आज तक कितने डॉक्टरों ने बुलन्द आवाज उठाकर माँग की है कि PHU का बजट कम करके अच्छे पानी की सुविधा के लिये बजट बढ़ाया जाय? वैसे हाल में कुछ डॉक्टर धीमी आवाज में यह कह रहे है। लेकिन वे सारे Public Health Systems के डॉक्टर्स है। जिन्हें डॉक्टरों की जमात में सबसे निचले दर्जे का माना जाता है।

एक प्रसंग और है। पिछले चार वर्षो से महाराष्ट्र के आदिवासी भागों में मलेरिया महामारी की तरह आता है और हाहाःकार मचाता हुआ तीन चार महीनों के बाद कम हो जाता है। ऐसे हर मौके पर पाया गया कि ग्रामीण अस्तताल और जन स्वास्थ्य केंद्र  इस संकट के आगे ढुलमुल हो गये है। एक छोटा सा आवश्यक काम होता है कि रोगी के खून की जॉच कर मलेरिया पॉजिटिव है या नहीं और यदि है तो कौन सा पॉल्सिफेरम या साधारण..इसकी जॉच की जाय। इसमें टैक्निकल स्टाफ कम पड़ जाता है। सीधी सी बात है कि क्यों नही उसी इलाके के नौंवी और ग्यारहवी के छात्रों को यह सिखाया जाय कि रोगी की अंगुली से एक बूंद खून कैसे जमा किया जाता है और स्लाइड को माइक्रोस्कोप में कैसे टेस्ट किया जाता है? टेस्ट करने में पांच मिनट से अधिक समय नहीं लगताऔर यूँ भी इन छात्रों की पढ़ाई में स्लाइड बनाकर उनके निरीक्षण की बात शामिल है। फिर मलेरिया की जॉच के लिए उनका उपयोग क्यों न किया जाय? यदि ऐसा हो सके तो स्टाफ की कमीके कारण जो असुविधा है वह समाप्त हो सकती है।

यदि कोई डॉक्टर सुनता है कि हरसिंगारकी पत्तियाँ चबानेसे बुखार उतरता है और उसकी जिज्ञासा नही जागती तोमेरी समझ में वह अच्छा डॉक्टर हो ही नहीं सकता क्यांकि रोग जिज्ञासा और औपध जिज्ञासा इन दो गुणों को उसने भुला दिया है। वेद्य के लिए यह ज्ञान कोई नई बात नहीं। लेकिन उसे भी यह विचार करना चाहिए और रोगी से चार्चा करनी चाहिये कि किस रोग में किस कारण से केवल हरसिंगार के पत्ते पर्याप्त नहीं होते, किस किस प्रकार के अन्य रोग में क्या क्या पूरक औपधियाँ चाहियें इसके बजाए यदि वह रेडिमेड पारिजातक वटि खाने की सलाह देता है तो वह रोगी के ज्ञान की बढ़ावा नहीं देता बल्कि उसे परावलंबी ही बनाता है।

शायद यह परावलंबिता शहरी जीवन के लिये ठीक भी हो। लेकिन गांव के इलाके में, आदिवासी और दुर्गम भागों में क्या हो? एक ओर कि सीधे पेड को तोडकर हरसिंगार संस्कृत नाम - परिजातक के पत्ते खाने के बजाय आप परिजातक वटी खाइये - आयुर्वेद में पश्य, कुपथ्य का विचार बहुत होता है, सब है। - आप वही लीजिये - अर्थात् रेडिमेड ! धंधे की वजह से करोडों लोगों के पास रोग और स्वास्थ्य के विषय में जो भी ज्ञान है उसका विचार होने के बजाय उसका हम खात्मा कर रहे है। बुद्धिमान अलोपैथी की डॉक्टर हो और हरसिंगार की पत्त्िायों से बुखार उतरने की बात उसुनकर यदि उसकी उत्सुकता जागृत नहीं होती, यदि वह नहीं सोच पाता कि मैं भी अपने चार पांच रोगियों के लिये यह जॉचकर देखूँ कुछ आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़कर देखूँ।
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