सोमवार, 19 जुलाई 2010

14 प्लेग का भय एक हतोत्साही मानसिकता--पूरा है

प्लेग का भय एक हतोत्साही मानसिकता
दै. हिन्दुस्तान, दिल्ली, सप्टें. 1995
बात है बहुत छोटी सी, पर पिछले हफते से बतंगड़ बनी हुई है। वह है प्लेग। वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि पिछले दिन मुझे भी डर लगा था।लेकिन मेरा जो डर पहले दिन उतर गया वह औरों के दिमाग में अभी तक मौजूद है। यह अंतर क्योंकर है?
२२ सिंतबर की शाम मैं कार्यालयीन कामकाजवश बडौदा पहुंची। मेरे साथ महाराष्ट्र के एडीशनल डायरेक्टर आफॅ हेल्थ भी थे। हमने बड़ौदा शहर का एक लंबा चक्कर लगाया तो पता चला कि ८-१० दिनों पहले गुजरात में जो भयानक बाढ़ आई थी उसने बड़ौदा में भी अपनी तबाही का रंग दिखाया था। बेसमेंट की बिल्डिंगें, जिनमें कई दुकानें थीं, वहां सवार्धिक हानि हुई। गलिसां , रास्ते कचरे के ढेर से भर गये। वह ढेर अब तक साफ नहीं हुए-प्रायःयही हाल अन्य शहरों में रहा होगा। कई बार दूर-दराज से पानी के रेले में बहकर लाशें भी आईं जो शहर में जगह-जगह अटक कर रह गई। धीरे-धीरे पाली कम हुआ लेकिन लाशें तुरंत हटा पाना संभव नहीं हुआ था। बहरहाल, कुछ ऐसा ही दृश्य सूरत में भी रहा होगा।
२३ की सुबह सारे गुजराती अखबारों में सूरत में प्लेग शीर्षक की र्क खबरें थीं। कोई मृतकों की संख्या १४ बताता था, कोई चालीस तो कोई चार सौ। मेरे दिमाग में वे सारे वर्णन कौंध गये जो कि १९२६ के प्लेग के विषय में पढ़े थे-खासकर उस प्लेग के कारण पूना में अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के जो कांड हुए थे-वह भी। यदि आज भी प्लेग की संहारकता उसी प्रकार की हुई तो क्या हमारी सरकार को भी प्लेग का फैलाव रोकने के लिए वही ज्यादती करनी पड़ेगी? और जबकि मैं सरकार में एक उच्च पद पर हूं, तो मेरी भूमिका क्या होगी?
मैंने डा.वानेरे से पूछा - अब क्या होगा? उनका उत्तर था-टेट्रासाइक्लिन। उन्होने समझाया कि १९२६ में जब प्लेग की महामारी फैली, तब टेट्रासाइक्लिन या एण्टीबायोब्कि का अविष्कार नहीं हुआ था। आज यह ज्ञान है और गोलियां हैं। बस सीधा-सा उपाय है कि मरीज की टेट्रासाइक्लिन का एक कोर्स करा दो - वह ठीक हो जाएगा। यथासंभव उसे बाकी लोगों से अलग रखो-ताकि अन्य लोगों को इंफेक्शन होने की संभावना कम हो, और जैसा कि हर बैक्टीरियल इंफेक्शन में होता है, बुखार आ गया तो ७-९ दिन रहेगा, उतने दिन धैर्य रखो। है न सीधी-सी बात। बस इतनी-सी बात कोई सुरत के लोागों को समझा दे, कूड़े-कचरे के ढेर उठवा दे, हो गया प्लेग का किस्सा खत्म। तभी किसी ने कहा-टेट्रासाइक्लिन के साइड इफेक्टस भी है। तो चलो उसके साथ विटामिन ए.बी. कर गोलियां भी खाओ और यदि अपना खुद का बाडी रेजिस्टेन्स अच्छा है तो प्लेग वैसे भी पास नहीं फटकेगा। लेकिन शाम होते होते सारा चित्र बदल गया। धुलिया के कलेक्टर तब हमारे साथ थे। उनके लिउ संदेशा था कि सुरत से लोग भारी संख्या में धुलिया आ रहे है, उनका क्या किया जाए? कलेक्टर ने मेरी ओर देखा। हमने तय किया कि बॉर्डर सील नही करना है। आखिर यह कोई जानलेवा बीमारी तो रही नहीं। जिन्हें यह बात ठीक से समझाई नहीं जा सकी, वही सूरत से भागे है। वे बीमार भी नही है -लेकिन बीमारी के कैरियर हो सकते है, सो उन पर निगरान रखनी होगी। फिर पता चला कि सुरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में भी बाजार से टेट्रासाइक्लिन लुप्त हो गया है। वैसी हालत में अच्छा ही है कि ये लोग दूसरी जगह चले जाए जहाँ दवाई मिलना दुश्र्वार हो।
शनिवार को मुंबई आकर मैंने अपनी डिवीजन के तीनों कलेक्टरों से बात की जिनका जिला बॉर्डर गुजरात से लगा हुआ है। जलगांव कलेक्टर ने भ्सुसावल - सुरत लाइन के हर रेलवे स्टेशन पर गुजरात से आने वालों के लिए मेडिकल चैक पोस्ट रखे थे। धुलिया कलेक्टर ने धुलिया में स्कुल,कालेज और सिनेमा शो बंद करवाए और हर रेलवे स्टेशन और हर प्रमुख बस अड्डों पर मेडिकल चैक पोस्ट लगवाए। नासिक कलेक्टा ने भी मेडिकल टीमें बनाकर पेठ और सुरगना - दोनों तहसीलों में चार चैक पोस्ट पर चैकिंग करवाई।
अगले चार दिनों में हर जगह बी.एच.सी. या डी.टी.सूप्रेइंग करवाया , यह व्यवस्था की गई कि टेट्रासाइक्लिन बड़े पैमाने पर उपलब्ध हो। तीनों कलेक्टरों ने प्रेस और आकाशवाणी के मार्फत लोगों को बताया कि सरकार के पास किस-किस बात की उपलब्धता है-अर्थात दवाइयां, बी.एच.सी.पावडर , कितने लोग गुजरात से आए, कितनों के मेडिकल टैस्ट हुए, कितने बीमार पाए गए, किताने बीमारों का बॅल्ड टेस्टिंग किया - उसमें कितनों प्लेग बाधित निकले, कितने चूहे मरे, इत्यादि। चौबीस से तीस तारीख तक छः दिनों में सूरत से करीब साठ हजार लोग इन तीन जिलों में पहुंचे जिनमें से करीब पांस सौ को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। उन्हें टेट्रासाइक्लिन दिया गया और बल्ड सेम्पलिंग भी करवरना पड़ा। हालांकि इसकी रिपोर्ट आने में एक या दो दिन लग जाते हैख् फिर भी कुल प्लेग के जीवाणु पाए जाने वाले पचास से भी कम निकले जब कि मुत्यु किसी की भी नहीं हुई।
सबसे बड़ा डर था कि शायद लोग अपनी बीमारी छिपाने की कोशिश करेंगे। जिनके दिल में पिछले प्लेग के
दिनों का भय है और जो अपनी अशिक्षा या अज्ञान के कारण नहीं जानते कि अब प्लेग एक आसानी से इलाज की जाने वाली बीमारी है,वही इसे छिपाना चाहेंगे। लेकिन यदि उन्हें विश्र्वास दिलाया जा सके कि इसमें डरने जैसा कुछ नहीं है, तो लोग इसे छिपाना नहीं चाहेंगे न ही इतने भयग्रस्त होंगे। उपरोक्त आंकडे भर में चार-पांच सौ लोग तो यों भी बीमार पड़ ही जाते हैं। इसी से मुझे लगता है कि यह पेनिक की, घबराहट की नौबत निराधार थी। थोड़ी सही जानकारी लोगों को पहले ही दिन मिल जाती तो लोग इतने भयभीत नहीं होते।
पर एक क्षेत्र ऐसा है जहां वाकई बात का बतंगड़ , राई का पर्वत बन गया। हमारे लोगों का अज्ञान और हमारे शहरों की सफाई कितने छोटे से दो विषय हैं। लेकिन आज प्रायः हर शहर का प्रशासन इस एक मामले में कमजोर पड़ गया है। सूरत में सफाई नहीं हुई, तो बीमारी फैली। जनता को इलाज पता नहीं था तो लोग-बाग भागे-बंबई गए, दिल्ली गए, धुलिया और नासिक भी गए। यदि वहां की सफाई पहले ही अच्छी तरह होती तो डर की कोई बसत नहीं थी। लेकिन चूंकि पता था कि सफाई डांवाडोल है, इसलिए लोग भी डर गए। घबराहट फैली, चर्चा होने लगी और नतीजा यह हुआ कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय हवाई कंपनियों ने भारत से आने'जाने वाली फाइट्रस पर रोक लगा दी। सूरत के हीरों के व्यापार को जितना नुकसान हुआ,टेट्रासाइक्लिन या बी.एच.सी.के लिए शहरी प्रशासन को जितना पैसा खर्च करना पड़ा उससे कई गुना अधिक नुकसान इस बात से हुआ कि विदेश व्यापार घटा और वापस नार्मल पर आने के लिए दो-तीन महीने लग जाएंगे।
हमारे रोजमर्रा जीवन का अभिन्न अंग है हमारी उदासीनता और निष्क्रियता, जिसके चलते न हमने कभी शहरों की गंदगी के प्रति आवाज उठाई और न कभी सरकार से विस्तृत जानकारी पाने के लिए। आज उसी ने हमारा इतना नुकसान कर दिया।
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