गुरुवार, 15 जुलाई 2010

11 राष्ट्रभाषा बचाने का एकसूत्री कार्यक्रम--पूरा है

राष्ट्रभाषा बचाने का एकसूत्री कार्यक्रम
- लीना मेहेंदले

करीब पैंतालीस वर्ष पहले हमारे देश में एक नया पर्व शुरू हुआ जब डेढ़ सौ वर्ष की गुलामी के बाद हम स्वतंत्र हुए। हमने अपने आप के लिये कई तरह के आश्वासन दिये, कई तरह की प्रतिज्ञाएँ की और कई तरह की आशा आकाँक्षाए भी उपजाई' भाईचारा, सबके लिये समुचित शिक्षा, सम्रपित मोका - यह थे हमारे आश्वासन और इसी के जरिये हमने उन्नति की भी आशा रखी । साथ ही एक आश्वस्तता थी कि हमें इस देश की संस्कृति, इसी देश की विचारघारा के द्धारा हम अपनी उन्नति करने जा रहे हैए इसीलिये जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कराया गया तो कई राज्यों ने राष्ट्रभाषा प्रचार का काम बडे उत्साह के साथ अपनाया।

आज कहाँ है वह प्रतिष्ठा और वह उत्साह न केवल अहिन्दी भाषी राज्यों में बल्कि हिन्दी भाषी राज्यो में भी हिन्दी का जो स्थान है वह बडा आशादायी नही कहा जा सकता हैं। यही नही, अन्य राज्यों की अपनी राजभाषा की भी क्या हालत है यह भी सोचने लायक है। कुछ वर्षो से हमने हर वर्ष संस्कृत दिन मनाने का रिवाण चलाया हुआ है। स्वतंत्रता के पूर्व और बाद में कई वर्षो तक संस्कृत का पठन-अघ्ययन हमारे यहाँ बडें उत्साह के साथ हो रहा था। अचानक यह उत्साह समाप्त हो गया मानों किसी बवंडर मे फस कर रह गया हो।

और हम ऐसी कगार पर आ खडे हुए है कि जब आज की बूढी पिढी समाप्त हो जायगी - आज से पंद्रह, बीस, वर्षो के बाद तो हमें जर्मनी सरीखे दूसरे देशों से संस्कृत सीखनी पडेगी।

फिर बात आई हिन्दी - दिवस मनाने की। अब हर वर्ष केंद्र सरकार के दप्तरो मे हिन्दी - दिवस या राष्ट्रभाषा - दिवस मनाया जा रहा है। और मै यदि कभी चार - पाँच दिनों के लिये बम्बई गई तो मुझे बडी गहराई से महसूस होता है कि जल्दी ही वहाँ मराठी दिवस मनाने की भी जरूरत आज पडेगी।


कही थम कर यह सोचने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है क्या इसलिये कि हमारी राष्ट्रीय भावना में कमी आ गई है या इसलिये कि हममें से हर शिक्षित आदमी युरोपीय देशों मे नौकरी करना चाहता है

या इसलिये कि अपने आसपास नजर उठाकर देखने पर हमें यह एहसास होता है कि जिसे व्यक्तिगत रूप से आगे बढना हो उसके लिये अंग्रेजी को अपनाने के अलावा कोई चारा नही है। यदि अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा दीक्षा दिलानी है, उनके लिये बडे ओहदे की आकांक्षा रखनी है तो उन्हे कान्व्हेन्ट स्कूल या अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल में भेजना पडेगा। आज देश की पचास प्रतिशत जनता और जो भी देहात या गाँव थोडा सा सुधर कर म्युनिसिपालिटी की श्रेणी में आ गया है वहाँ के लोग अपने बच्चो के लिये अंग्रेजी माध्यम का स्कूल ही पसंद करते हैं। आखिर क्यों

इस प्रश्न का विश्लेषण करने पर शायद कोई कहेगा कि हम दिखावटी हो गए है। चूँकि अंग्रजी स्कूलों का तामझाम बडा आकर्षक होता है और अंग्रेजी बोलना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है इसलिये हम उसी में उलझ कर रह गये है। यदि हम सच्चे देशभक्त है तो हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को कतई नही ठुकराना चाहिये। अंग्रेजी भाषा केवल एक खिडकी की तरह है लेकिन घर के दरवाजों से और घर के अन्दर

हमें अपनी भाषा को ही प्रतिष्ठित रखना चाहिये। पराई भाषा को अननाने की बजार अपना देशभिमान जागृत रखना चहिये इत्यादी लेकिन ऐसा कहने वालों के बच्चे भी प्रायः अंग्रेजी स्कूलों मे पढते पाये जाते है और इसमें में उनकी गलती नही मानती।

हमारी भाषाओं के पिछडते जाने का एक बडा जबर्दस्त कारण है लेखन का अभाव, पुस्तको का अभाव। दसवी पास करता हुआ विदयार्थी अपनी उमर की ऐसी कगार पर होता है कि लम्बी से लम्बी छलांग के लिये आकुल होता है। अपने आस पास, दुनियाँ से क्या लूँ, और क्या छोडूँ, अपनी जीत का झंडा कहीं गाडूँ, कुछ करके दिखाउूू ऐसा छलकता हुआ उत्साह उसमें होता है। इस उमर में हमारे आज के बच्चे यदि किसी विषय की किताबे पढना चाहे तो




तो किताबे हैं कहाँ हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओ में खूब किताबे लिखी जा रही है लेकिन वे सिर्फ ललितसाहित्य की श्रेणी में आती है उपन्यास, कहानी, कविता, समीक्षा, थोडे बहुत संस्मरण, कही कोई देश वर्णन इसके आगे हम कहाँ गये है भौतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, मनोविज्ञान, खेती, इलेक्ट्रानिकी, फोटोग्राफी, सँटेलाईटस, कम्प्यूटर - कोई भी विषय उठाकर गौर किजिये कि इन विष्यो पर पढने लायक कितनी किताबें हमारी भाषाओ में है पाठय पुस्तको को छोडो तो शायद कोई भी नही और पाठयपुस्तक भी हमारी जरूरतो के मुकाबले मे बहुत कम। हिन्दी के अखबारो मे पुस्तक समीक्षा पर नजर डालिये। या हिन्दी छापने वाले प्रकाशन सूची देख डालिये। चाहे पिछले तीन वर्षो का प्रकाशन पढ जाइये या पिछले तीस वर्षो का लेकिन आपकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर पानेवाली बात नही मिलेगी। यही हाल मराठी का है, गुजराती का है, बंगाली का है, और संभवतः हर भारतीय भाषा का है।

यदि हम इस भ्रम में हैं कि भाषा के फलने - फूलने का अर्थ है ललित साहित्य की बहुतायत, तो यह निःसंदेह एक निराशाजनक परिस्थिति है' जब तक किसी भाषा में हर एक विषय पर वाइमय नही तैयार होता तब तक वह भाषा पनप नही सकती, जी नही सकती। जिस संस्कृत भाषा ने हमारे देश में प्राचीन काल में कम से कम चार हजार वर्षो तक अपना प्रभाव कायम रखा, उसके साहित्य में प्रायः हर विषय पर कुछ ना कुछ लिखा गया है। न्यायशास्त्र, दशर्नशास्त्र, युध्दशास्त्र, आयुर्वेद, कृषि सिंचाई आदि कई विषयो में साहित्य - रचना हुई। अन्ततः संस्कृत भाषा का हास तब आरंभ हुआ जब उसकी साहित्य रचना केवल ललित साहित्य तक सीमित रह गई। बोलचाल की नई भाषाएँ पैदा हुई। उनका मूल ヒाोत फिर भी संस्कृत ही थी। अतः वह माना जा सकता है कि जब तक ये भाषाएं जीवित हैं, संस्कृत भाषा पूर्णतः लुप्त नहीं होंगी।

लेकिन इन भाषाओं की क्या हालत है शास्त्र साहित्य की कमी वहां भी है। और इस अभाव का नतीजा यह है कि किसी ज्ञान - पिपासु के लिए अंग्रेजी की शरण आवश्यक हो गयी है। यदि शास्त्र विषयों की किताबों की संख्या गिनी जाय तो पूरे भारत के भारतीय लेखक मिलकर जितनी पुस्तकें लिखतें हैं, उसकी कई गुनी अधिक किताबें भारतीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हैं और जो अन्य देशीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हों उनकी तो गिनती करना या तुलना करना बेकार है।

यदि हमें राष्ट्र भाषा को बचाना है तो साथ ही अन्य भाषाओं को बचाना है तो साहित्य निर्मिती का बडा अभियान चलाना होगा ताकि हर तरह के भाषाओं में कई किताबें उपलब्ध हों।

फिर सवाल केवल किताबें लिखने का नहीं हैं। यह किताबें रोचक होना भी आवश्यक है। मुझे महसूस होता है कि हमारे साहित्यकार, लेखक, या टीवी के प्रोग्राम निदेशक यह नहीं समझ पाते हैं कि जो बात या लेखन का जो ढंग एक प्रौढ व्यक्ति के लिए रोचक सिद्ध होगा, वहीं ढंग एक छोटे बच्चे के लिए नहीं अपनाया जा सकता और वही ढंग एक किशोरवयीन के लिए भी नहीं अपनाया जा सकता। अपने लेखकों के उदासीनता तब और भी अखरती है जब अंग्रेजी लाइब्रेरी में उनकी किताबों से सामना हो जाता है। दस वर्ष से छोटे बच्चों का सेक्सन मैंने एक विदेशी लाइब्रेरी में देखा। परिकथाएं, करीब पचास भाषाओं की प्रचलित लोककथाओं के संग्रह, फोटोग्राफी, संसार के प्रायः देश का भूगोल और इतिहास, आर्कियोलोजी सिविलाइजेशन्स कैसे बनते और लुप्त होते हैं, उन्हें कैसे खोजा जाता है, उनका स्थल काल कैसे तय किया जाता है इत्यादि। संसार के अच्छे म्युजियम्स, जादूगरी, माडल, हवाई जहाज बनाना और उङाना, कैलकुलस, बडे बडे वैज्ञानिकों की जीवनी और उनके प्रयोग और सिद्धांत, अंतरिक्ष उडान, गार्डनिंग, लान ग्रासेस - गरज की आप किसी भी विषय पर वहां किताब देख सकते हैं। कई विषय जो मुझे नीरस लगते थे, मैंने उस सेक्सन की किताबों से सीखे उन्ही में से एक पुस्तक पढकर मेरा बारह वर्षीय लडका मुझे समझाने लगा कि इन्पलेशन क्या होता है और उसके ''सोशल कान्सिक्वेन्सेस'' क्या होते है।

तबसे मैं अननी मान्यता के विषय मे और भी अघिक कायल हो गई हूँ कि यदि हमें राष्ट्रभाषा और अननी अन्य भाषाँए बचाना है तो यह एकसूत्री अभियान चलाना पडेगा।

साहित्य निर्मिती का साहित्य निमार्ण में भी खास कर बान साहित्य और किशोर साहित्य लिखने का काम अलग तौर पर करना पडेगा। तीसरा ध्यान रखने वाला क्षेत्र है कम्प्युटरो का आज चूँकि हर प्रोगाँम अग्रेजी भाषा में और उन्ही की लिपी में लिखे जाते है, संसार के अन्य भाषाविद भी घबराने लगे है कि कही अंग्रेजी के आगे उनकी भाषाएँ लुप्त न हो जाये। किसी दिन हमें इस समस्या को भी सुलझाना पडेगा। लेकिन हमारा पहला काम तो पूरा हो।


पता :-
लीना मेहेंदले
भाई बंगला
५० लोकमान्य काँलनी, पौड रोड,
पुणे-४११ ०२९

1 टिप्पणी:

विनोद पाराशर ने कहा…

लीना जी,राष्ट्रभाषा को बचाने के संबंध में आपने बहुत ही उपयोगी जानकारी दी हॆ,अपने लेख में.मुझे तो लगता हॆ कि अभी अंगेज अपने देश से गये नहीं हॆं,यहीं हमारे आस-पास ही मॊजूद हॆं.फर्क सिर्फ इतना हॆ कि उन अंग्रेजों की चमडी गोरी थी,इनकी हमारे जॆसी ही हॆ.ये उन अंग्रेजों से भी ज्यादा चालाक हॆ.लोहिया जी ने कहा था-"जो लोग यह कहते हॆ कि वे इस देश में लोकत्रंत लाना चाहते हॆं,झूठ बोलते हॆं.बिना अपनी भाषा को प्रशासन में लाये,तो लोकतंत्र तो बहुत दूर की बात हॆ,ईमानदारी तक नहीं ला सकते".कोई भी भाषा, केवल भाषा नहीं होती,उसकी संस्कृति उससे जुडी होती हॆ.हमें अपनी भाषा से दूर रखने का मतलब हॆ,अपनी संस्कृति से दूर ले जाना.प्रशासन में अंग्रेजी को बनाये रखकर,इस साजिश को अंजाम दिया जा रहा हॆ-क्योंकि इसके साथ कुछ लोगों को निजि हित जुडे हुए हॆ.इस साजिश को समझे बिना-राष्ट्रभाषा,राजभाषा व जन-भाषा हिंदी के महत्व को नहीं समझा जा सकता.