खैरनार के पक्ष में
-- लीना मेहेंदले
दो-चार महीने पहिले कई लोग श्री खैरनार को आदर की दृष्टि से देखते थे- इसलिये कि यह एक ऐसा अधिकारी था जिसने सरकार की सर्वोच्च कुर्सी को चॅलेंज दे दिया। उन्हे काम सौंपा था कि अतिक्रमणों को तोडो - मुंबई को क्लीन रखो ताकि हम शासकों की जिंदगी सुख चेन से गुजारें। जब तक खैरनार झोपडपट्टियों को तोडते रहे, फूटपाथ से स्टॉलवालों को हटाते रहे, रास्तों पर से मंदिर मस्जिद या कोई भी अन्य बिल्डिंग उठवाते रहे तब तक गरीबों का आक्रोश चाहे उनके सर पर आ पडा हो पर धनिकों का अंगार नही पडा था। और जिन गरीबों का आक्रोश था उन्हें कहीं न कहीं अपनी गलती का एहसास भी था। क्योंकि इसमें कोई दो राय नही है कि उनके अनधिकार व्यवसाय या झोपडपट्टी को रोककर उनके लिए किसी अलग तरह के प्लॉनिंग की जरूरत है।
लेकिन जब खैरनार ने अपना रूख उन धनिकों की ओर उठाया जो पैसे के बल पर कुर्सी और कुर्सीधारियों को खरीद सकते हैं- और बदले में न केवल धन बल्कि वोट, मसलमॅन, भूखंड, फ्लॅट, और आर डी एक्स भी दे सकते हैं तो सारे कुर्सीधारी चौंक गये। खैरनार को रोकने के प्रयास व्यर्थ रहे क्योंकि जब उन्हें अतिक्रमण विभाग से हटा दिया गया तो उन्होंने बोलना शुरू कर दिया। जब उन्हें सस्पेंड किया गया तो उन्होंने और अधिक बोलना शुरू कर दिया। इस बीच उन्हे मूर्ख और पागल कहा गया और न्यायालय के सामने खींचने की बात भी हुई लेकिन उन्हें चुप नही किया जा सका। वह हिम्मत दिखाते रहे और लोगों को बताते रहे कि उन्हें किसलिये रोका जा रहा है, किसके कहने से रोका जा रहा है, और इस रोकने का अर्थ केवल एक ही है- भ्रष्टाचार।
खैरनार के प्रति लोगों का आदर बढा वह उनकी इस हिम्मत के कारण। कुर्सी के भ्रष्टाचार का नतीजा तो सभी देख रहे थे। इसमें किसी को कोई संदेह नही था कि आज कानून और सुव्यवस्था की जो बिगडी हुई हालत है वह कुर्सी के भ्रष्टाचार के ही कारण है। लेकिन हमारे यहाँ महाभारत काल से ही एक आदर्श चला आ रहा है कि बेहोश अभिमन्यु के सिर पर लात मार कर उसका सिर काटने वाले जयद्रथ को सामने देखने पर भी वचनबद्ध अर्जुन ने उस पर शस्त्र नही उठाया- बेटे के अपमान और मृत्यु का दुख पीकर भी अर्जुन का धनुष नही उठा। आखिर कृष्ण को सूर्य पर से अपना चक्र हटाना पडा- तो देखो अर्जुन- वह है सूर्य और वह है जयद्रथ। यानि तुम्हारे वचन के अनुसार दिन अभी डूबा नही है- अब चलाओ अपना तीर! इसलिये जब खैरनार बोलने लगे तो लोगों का उत्साह उमड पडा अब यह हिम्मतवाला सबकी पोल खोलकर हमें से छुटकारा दिलायेगा।
वैसे पिछले पंद्रह दिनों में खैरनार को मिलने वाला जनता का सपोर्ट या सम्मान घटा नही है लेकिन अब उसमें एक दुर्भाग्यपूण मोड आ गया है। कई 'इंटलेक्चुअल्स्' कहने लगे हैं कि खैरनार जो आरोप कर रहे हैं उसका सबूत भी पेश करें। उधर खैरनार ने यह भूमिका अपनाई है कि सबूत जुटान मेरा काम नही है। इसी बात पर इंटलेक्चुअल्स भरमा गये हैं- खैरनार की बुराई करने की या कम से कम उनकी तरु एक प्रश्नचिन्ह लगाने की एक होड अब आरंभ हो गई है और इस सिद्धान्त की दुहाई दी जा रही है कि जब
तक न्यायालय के सम्मुख सारे सबूत पेश करके भ्रष्टाचार को सिद्ध नही किया जा सकता तब तक खैरनार को सही नही मानना चाहिये न ही उन्हें कोई बढावा देना चाहिये।
यह तर्क एक ऐसी गुगली है, ऐसी भूलभलैया है जिससे हमें बिल्कुल बचकर निकलना होगा। खैरनार की भूमिका को इस हद तक अवश्य स्वीकार करना होगा कि सबूत जुटाना उनका काम नही है। आज जो लोग इसे स्वीकार नही करते वह ऐसी गलती कर रहे हैं जिसकी भयानक सजा हम सभी को भुगतनी पडेगी। उधर यह सिद्धान्त भी शत-प्रतिशत खरा है कि जिस व्यक्ति के विरूद्ध आरोप सिद्ध न हो। उसे सजा नही मिलनी चाहिये और यही वह भूलभुलैया है जिसमें हमारे इंटलैक्युअल्स भरमा गये हैं।
गौर कीजिये कि एक कुर्सी है जो सारे में शासन व्यवस्था की प्रमुख है- और एक है अदना सा पोलिस का सिपाही, या इंस्पेक्टर, या डी सी पी, या डी.जी, या एक म्युनिसिपल कर्मचारी, या एक मंत्रालयीन डेप्युरी सेक्रटरी या- पर अपनी अपनी जगह पर सारे ही अदने- क्योंकि ये सेक्रेटरी- सारे उस कुर्सी की मेहेरबान नजर के कारण अपनी कुर्सी पर टिके हुए हैं, अपनी मनचाही पोस्ट पा सकते हैं, अपने मनचाहे सम्मान, सरकारी कोटे से प्लॉट या भूखंड, विदेश दौरा भी पा सकते हैं और कुर्सी के विरूद्ध कुछ बोलें तो ता उम्र देश निकाला (नौकरशाही के अर्थ मे- यानी की अवांछित पोस्टिंग, सारे सम्मान और
लाइमलाईटों से बाहर जिंदगी गुजारने की सजा, पैसा खाने हों तो जहॉ न खा सकें या कम खा सकें ऐसी पोस्टिंग इत्यादिऋ। सबूत जुटाने की प्रभुत्ता-यानी ऍथॉरिटी- इन अदने लोगों के कांपते हाथों को बहाल है। इस काम को जिम्मेदारी या जोखम न समझे- यह वह सत्ता है- वह प्रभुत्ता है जो एक मदमस्त हाथी से भी अधिक मदमस्त कर सकती है- लेकिन आपको तभी तक दी जा सकती है जब तक आप की ऑखें, सर और मस्तिष्क उस कुर्सी की शरणागत हैं। जब सबूत इनके हाथ आ जाय तो उसे नष्ट करने की ताकत भी उन हाथों को है। या फिर उस सबूत का क्या अर्थ लगाया जाय या उसे कोर्ट में किस तरह पेश किया जाय यह तय करने की प्रभुत्ता भी इन्हीं हाथों को है।
जो इंटेलेक्चुअल्स् खैरनार से सबूत जुटाने की माँग करते हैं क्या वे उन तमाम केसों की खबरों को भूल गये जिनमें स्वयं कोर्ट ने पुलिस पर केस को ठीक पेश न करने के लिये तीव्र आक्षेप उठाये। क्या हम अंतुले की केस को भूल गये जब खुद जस्टिस लेंटिन ने दुबारा फाईल देखी तो पाया कि पहली बार के उनके देखे कई कागज दूसरी बार फाईल में नही थे। क्या हम बोफोर्स की केस को भूल गये जब नोबेल कंपनी के कई अधिकारी दिल्ली में गवाही देने के लिए आये- और उनके देश की नैतिकता के मुताबिक वे यहाँ भी कोई के सामने यदि शपथपूर्वक बयान देते तो सच ही बताते लेकिन शंकरानंद की जेपीसी ने स्वयं सुझाव दिया कि उन्हें बयान देने की कोई आवश्यकता नही? क्या हम जलगांव नगरपालिका की केस भूल गये जिसे सरकार भी। लेकिन आज वे अपने अपने छोटे से दायरे में कैद हैं- और अपनी अपनी जगह पर अकेले हैं। उन्हें सपोर्ट चाहिये। सपोर्ट ऐसी किसी सिस्टम से नही आ सकता जिसका अस्तित्व उस बडी कुर्सी के इशारों पर निर्भर है। इसके लिये चाहिये कि इन्वेस्टिगेटिंग सिस्टम में जनसामान्य को प्रवेश हो न्यायदान का एक सिद्धान्त है कि जस्टिस शुड नॉट ओनली बी डन बट शुड ऑल्ले ऍपीयर टु हॅव बीन डन, अर्थात केवल न्याय कर देना काफी नही है- लोगों को भी लगना चाहिये कि वाकई पूरी सजगता और ईमानदारी के साथ न्याय किया गया है। यही सिद्धान्त इन्व्हेस्टिगेटिंग एजन्सी पर भी लागू हैं। आज हमारी एजन्सी कुर्सी के चरणों में झुकी हुई है, सबूत मिटा सकती है, झूठे सबूत जुटा सकती है, सबूतों को तोड मरोड सकती है, जनसामान्य से कह सकती है कि यह कॉन्फिडेन्शियल डॉक्यूमेंट है- और यदि कोई उन्हें सरकारी फाइलों से लेते हुए पकडा जाय तो उसे ऑफिशियल सीक्रट ऍक्ट के तहत जेल भेज सकती है। यह जानकर भी, और अपने आपको बुद्धिधारी कहलाते हुए भी जब हम खैरनार से सबूत जुटाने की माँग
करते हैं तो हम किसे धोखा दे रहे हैं, किससे धोखा खा रहे हैं और किस कीमत पर? क्या हम भूल गये कि जब भाई ठाकुर को कलकत्ता एअर पोर्ट पर पुलिस ने गिरफ्तार किया तो मुंबई पोलिस के बडे अधिकारियों ने यह कहकर उसे छुडवा दिया और नेपाल जाने दिया कि उसके विरूद्ध कोई केस नही है। क्या हम भूल गये कि जब पप्पू कलानी का सीमा रिझोर्ट तोडा गया और उसमें पोलिस और मंत्रियों की लीला दिखाने वाले कॅसेट मिले तो एक डी सी पी ने पुलिस इंस्पेक्टर को धमकाकर वे कॅसेट छीन लिये और बाद में यह कह कर लौटा दिये कि उनके किसी के अगेन्स्ट कुछ नही है। क्या हम वाकई विश्र्वास कर लें कि उस डी सी पी के लिये कॅसेट बदलना, इरेज करना या टॅम्पर करना असंभव था।
जो खैरनार से सबूत जुटाने की माँग करते हैं वे गलती कर रहे हैं। हमारी माँग यह होनी चाहिये कि वर्तमान कालीन पुलिस इन्वेस्टिगेस्टिंग की व्यवस्था बदली जाय। इस व्यवस्था में ऐसे बदलाव किये जायें, मॉनिटरिंग की ऐसी व्यवस्था हो, पारदर्शिता ऐसी हो कि यह संदेह नही बना रहे कि क्या पोलिस ने कोई टेंपरिंग किया? हमें नही भूलना चाहिये कि ईमानदार, कर्तव्य के प्रति जागरूक और सजग अधिकारी पुलिस में भी हैं और मंत्रालय में यह कह कर नही बर्खास्त कर रही कि उसे नोटिस नही दी गई- क्या हम भाई ठाकुर और पप्पू कलानी को भूल गये जो इसलिये टाडा से छूट ये कि सरकार ने १८० दिनों के अंदर अंदर उन्हें चार्जशीट नही किया। सरकारी नौकरशाही की भूलभुलैया में हर आदमी यदि फाईल को एक दिन रोक ले तो भी यह गॅरंटी हो जाती कि १८० दिनों की मियाद पूरी हो जायगी और अपना आदमी टाडा से बच निकलेगा। ऐसे कई टाडा वासियों को सरकार की इसी इन्वेस्टिगेटिंग एजन्सी ने बचाया है- कभी अपनी जेन्युइन अकार्यक्षमता के कारण तो कभी अकार्यक्षमता की आड में गॅरंटी से कह पायेगा कि भाई ठाकुर पुलिस की अकार्यक्षमता के कारण टाडा से बच निकला या कुर्सी के इशारों पर? जब ऐसा संदेह उत्पन्न होता है तो हम वही ऑप्शन अपनाते हैं जहाँ अपने अधिकारी को बलि चढाना संभव है ताकि कुर्सी बच जाय।
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गुरुवार, 15 जुलाई 2010
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