एक सिंचन व्यवस्था: एक विचारधारा
- लीना मेहेंदले
- सेटलमेंट कमिशनर, महाराष्ट्र
बड़े बांध, बड़ा बजट, बड़ी तकनीक, बड़ी मशीनरी, बड़े फ़ायदे और बड़ी समस्यांएँ एक तरफ़ और छोटे बांध , छोटा बजट, छोटे फ़ायदे और छोटी समस्यांएँ दूसरी तरफ़। इनमें से आप किसे चुनेंगे ? उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद अब तक यह मान्यता रही कि चुनाव का निर्णय मुख्यतया तकनीकी पर निर्भर है। जो तकनीक जितने बडे पैमाने पर लागू हो सकती है, जितनी आधुनिक है, वही ज़्यादा अच्छी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते-आते अब पश्चिमी और प्रगत देश मानने लगे हैं कि किसी प्रणाली के व्यवस्थापन की सहूलियत देखनी भी जरूरी है। वे अब सस्टेनेबिबलटी अर्थात् सुचारु ढंग से किसी प्रणाली का चलना आवश्यक मानने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है, एक पुरानी सिंचन प्रणाली पर कुछ विचार।
महाराष्ट्र के उत्तर-पश्चिम छोर पर स्थित है, जिला धुलिया या धुळे, जो आजकल सरदार सरोवर की वजह से बहुचर्चित है। इसके भूगोल में है, पूरब-पश्चिम फैले हुए विन्ध्य पर्वत, विन्ध्यपुत्री नदी नर्मदा, फिर सातपुडा पर्वत और सातपुडापुत्री नदी ताप्ती। एक तीसरी नदी भी है - पांझरा, जो सह्याद्री से निकली है। पहले यह पूरब की ओर साक्री और धुले तहसीलों से बहती है। फिर धुले शहर का चक्कर लगाकर उत्तर और पश्चिम को मुड़कर ताप्ती से मिल जाती है।
नर्मदा और पांझरा - इन दो नदियों के माघ्यम से हमारी सिंचन प्रणाली के दो विभिन्न चित्रों की तुलना यहाँ प्रस्तुत है। यह दो चित्र अलग कालखंडों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पांझरा की सिंचन प्रणाली क़रीब तीन सौ वर्ष पुरानी है, जबकि नर्मदा की और ख़ासकर सद्य-प्रस्तावित नर्मदा-सागर से जुड़ी हुई सिंचन व्यवस्था अत्याधुनिक है। इन दो कालखंडों के बीच विज्ञान और तकनीकी की जो प्रगति हुई है, उसका प्रभाव या यों कहिए कि उस कारण पड़ने वाला अंतर दोनों प्रणालियों में अवश्यंभावी है। यह कहा जा सकता हे कि पांझरा पर जब सिचंन प्रणाली बनी तो आज उपलब्ध तकनीक उन लोगों के पास नहीं थी, अतः जो सिंचन व्यवस्था उस काल के अज्ञान की द्योतक है, उसकी आज चर्चा क्यों ? लेकिन उस काल की मजबूरी, अज्ञान या भिन्नता के कारण ही सही, पर जो अंतर दो प्रणालियों में आ ही गया है उसे देखने में क्या हर्ज है, ख़ासकर मैंने महसूस किया कि विचार प्रणालियों की और व्यवस्थापन प्रणालियों की भिन्नता भी जो इन दो चित्रों से जुड़ी हुई है वह शायद इस प्रश्न से जुड़े सभी व्यक्तियों को कुछ सोचने के लिए उकसा सके।
पहले देखें कि नर्मदा पर बन रही सिंचन प्रणाली क्या है। भारत की नदियाँ दो तरह की हैं -- वे जो हिमालय से निकलती है और जिनमें बर्फ़ पिघलकर आती है, जिसके कारण वे कभी सूखती नहीं, दूसरी अन्य सभी पर्वतों से निकलने वाली नदियाँ, जिनमें केवल वर्षा का ही पानी बहता है। यादि उनके उद्गम पर्वतों पर झाड़ियों की बहुतायत हो तो उनमें आने वाला पानी धीरे धीरे आएगा, जिससे नदी में पानी की धारा अघिक महीनों तक बनी रहेगी। यदि पहाड़ों पर कम पानी बरसा या बरसने वाले पानी कं वेग रोका नहीं जा सका और वह जल्दी बहकर समुद्र में चला गया तो उस नदी की, व उस पानी की उपयोगिता कम हो जाती है। नर्मदा और पांझरा दोनों ही नदियाँ दूसरी श्रेणी में आती हैं। आधुनिक काल में इन नदियों पर जो बाँध बन रहे है - जैसे भाखरा नांगल बाध हो, या नर्मदा-सागर बांध - उनका तरीक़ा यह है कि काफ़ी ऊँचां बड़ा बाधं बनाकर बारिश के पानी को पूरी तरह रोक लियं जाता है।
जब तक बांध पूरा भर न जाए, तब तक नदी की धार में पानी नहीं बहेगा। (इस प्रकार कई नदियाँ पूरे साल भर सूखी रह सकती हैं, क्योकि सारा पानी बाधं में ही रोक लिया गयं है। प्रसिद्ध विचारक सुंदरलाल बहुगुणाजी इसे नदीकी हत्या का अपराध मानते हैं।)
आधुनिक कालमें चूँकीं यह मालूम है कि बाधं में कितना पानी है, अतः यह प्लानिंग भी की जा सकती है कि उस पानीकी उपलब्धता पर आधारित कौन सी फ़सल बोनी चाहिए। प्रायः हर बड़े बांध से सिचाई किये जाने वाला क्षेत्र पचास हजार एकड़ से अघिक होता है, जिसकी प्लनिगं के लिए काड़ा अर्थात कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटीज बनाई जाती हैं। इनका काम होता है हर साल पानी की उपलब्धता देखकर किसानों को बताया जाए कि उस साल उन्हें कौन सी फ़सल उगानी चाहिए और उसके लिए कितने पानी की गारंटी दी जा सकती है ।
लेकिन अक्सर यह प्लानिंग काग़ज पर धरी ही रह जाती है। अक्सर देखा जाता है कि जब बारिश अच्छी हो, बांध में पानी की बहुतायत हो, तो किसान के खेत में भी अच्छी बारिश हुई होती है, उसे नहर के पानी की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार पिछले वर्षोंमें देखा गया है कि काडा की प्लानिंग असफल भी हो सकती है। जब किसान को सूखे के कारण पानी चाहिए होता है, तो काडा के बाधं में भी पानी कम होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसान अपनी बुद्धि से ही अंततः तय करता हे कि वह कौन सी फ़सल उगाएगा। काड़ा व्यवस्था में यह भी मान्यता है कि घूसखोरी या राजनीतिक दबाव के आधार पर पानी नहीं चुराया जा सकता। पर यह मान्यता व्यावहारिक स्तर पर ग़लत उतरती है। सिंचाई के अलावा बड़े-बड़े बाधों के दो अन्य उपयोग बताते जाते हैं - बाढ़ को रोकना और बिजली बनाना, उसकी चर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं है ।
आज से तीन सौ वर्ष पूर्व पांझरा और उसकी दो उपनदियों में आने वाले पानी की उपलब्धता के अधार पर क़रीब साढ़े तीन हजार एकड़ क्षेत्र के लिए एक सिंचन व्यवस्था बनाई गई, जो कई मायनों में आज की व्यवस्था से नितांत भिन्न है अपने उद्गम स्थान से नीचे तक आते-आते पांझरा क़रीब दो सौ किलोमीटर की दूरी तय करती है और क़रीब पैंतीस गाँवों को पीने का पानी देती है। सिंचाई के लिए पांझरा और दोनों उपनदियों पर जगह छोटे-छोटे कुल सत्तर बाँध बनाए गए हैं, जिनमें से कुछ मिट्टी और कुछ पत्थर-चूने के हैं, लेकिन बाँधो का उद्देश्य यह नहीं है कि पानी को पूरी तरह रोककर रखा जाए। बाँधोंकी ऊँचांई आठ या दस फीट ही है। बांध से समकोण बनाती हुई नदी की धारा के समान्तर एक दिवाल बांधी गई है, जिसकी उचांई धीरे-धीरे घटते हुए, जमीन की सतह तक आ जाती है । इस दिवाल के ऊपरी मुहानेपर सुयोग्य स्थान पर एक छोटा गड्डा बनाकर एक नहर निकली जाती है, जिससे पानी खेतों तक पहुँचाया जाता है। लेकिन नहर की क्षमता से ज़्यादा जितना भी पानी नदी में आता है, वह दिवाल के साथ - साथ बहता हुआ वापस नदी में चला जाता है। इस प्रकार नदी की धार कहीं भी सूखती नहीं। अगले बाँध पर फिर इसका कुछ पानी सिंचाई के लिए रोक लिया जाता है, लेकिन नदी का मुख्य प्रवाह बना रहता है। नहर में कितना पानी उपलब्ध होगा, यह निर्भर करता है कि नहर के मुहाने पर दिवाल की उचांई कितनी है।
नहर का पानर ढलान की राह खेतों तक पहुँचाता है। यह तय है कि पानी किस-किस खेत तक पहुँचेगा। पूरी सिंचनयोग्य जमीन तीन हिस्सों में बाटीं गई है जिन्हें फड कहते है। ये है गेंहू, गन्ने और ज्चार के फड। फ़सल के लिए प्रत्येक फड के सभी किसान तीन वर्षों का प्रोग्राम बनाते हैं। पहले फड के किसान गेहूँ बोएगें तो दूसरे फड के किसान गन्ना, ओर तीसरे फड के किसान ज्वार बोएगें। और अगले वर्ष गेहूँ के फड में गन्ना, गन्ना के फड में ज्वार, और ज्वार के फड में गेहूँ बोया जाएगा। किसान को अपने फड के ग्रुप के मुताबिक़ ही फ़सल उगानी पड़ेगी, उसे इन तीन फ़सलों के अलावा अन्य फ़सलें उगाने की अनुमति नहीं है। केवल गन्नें की जगह कहीं-कहीं पूरे फडमें केले उगाने की अनुमति है, और गेहूँकी जगह चना। यह व्यवस्था तीन सौ वर्षों से चली आ रही है - बिना झगड़े झंझट के।
इस सिचांई व्यवस्था में जिस बात ने मुझे सबसे अघिक प्रभावित किया वह है इस प्रणाली की सुचारुता और आत्मनिर्भरता। पंझरा के किनारे बसा हर गाँव पानी के लिए इस पर निर्भर है। साथ ही हर गाँव के कुछ किसान (पर सभी नहीं) इस व्यवस्था से सिंचाई का पानी पाते हैं। अतः यह तय किया गया है कि किसी समय किसी को एक ख़ास मात्रा से अघिक पानी नहीं दिया जा सकेगा। पानी की अघिकतम मात्रा क्या होगी - यह निर्भर है नहर की दिवाल और बांध की ऊँचाई पर। तीन सौ वर्ष पहले मराठा-राज में पेशवाओंने जब यह सिंचन व्यवस्था बनाई तभी तय किया गया कि प्रत्येक गाँव के बाँध की उचांई क्यं होगी। यह ऊँचांई बढ़ाने का हक़ किसी को नहीं है। यदि पानी नहीं बरसा, तो किसी को पानी नहीं मिलेगा। लेकिन यदि बरसा तो भी किसी एक दिन एक ख़ास मात्रा से अधिक जितना पानी आएगा, वह नदी की धारा में ही वापस जाएगा ताकि पीने के पानी का मूल स्त्रोत बना रहे। हाँ, यह संभव है कि सिंचाई के लिए अधिक दिनों तक पानी मिलता रहे -- यदि नदी की धार बरसात के मौसम के बाद भी अधिक दिनों तक बनी रहे। यह तभी सभंव है जब नदी के ऊपरी हिस्से में पेड़-झाड़ी-जंगल बहुतायत में हों, ताकि बरिश का सारा पानी बरसात में ही बहकर बह न जाए, बल्कि पहाड़ों से झरकर धीरे-धीरे आता रहे और महीनों तक बहता रहे।
नदी किनारे के सभी तीस-पैतीस गाँवों की एक समिति हर साल बरसात के मौसम से पहले और बाद में प्रत्येक बांध की जाँच-पड़ताल करती है कि कहीं किसी ने बांध को थोड़ा ऊँचा न कर दिया हो और कहीं बाँध में मरम्मत की जरूरत न हो। साथ ही गाँव के सिंचाई करने वाले सारे किसान इस बात की भी जाँच करते हैं कि क्या नहर को मरम्मत की जरूरत है। यदि बाँध या नहर में मरम्मत की आवश्यकता हुई तो उस गाँव के किसान श्रमदान के माघ्यम से इसकी पूर्ति करते हैं। इस प्रकंर बांध और नहरो की मरम्मत और नदी के पानी के बँटवारे और व्यवस्था की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से इन तीस-पैंतीस ग्रामवासियों की है, जो उन्होंने पिछले तीन सौ वर्षों से निभाई। सफल भी रहे और काडा का ख़र्चा जो आज सरकार उठाती है, वह नहीं उठाना पड़ा, क्योकि गाँव वाले सहर्ष उस काम को बखूबी करते रहे।
आज बड़े - बड़े बांधो में सिल्टिंग या मिट्टी छा जाने की समस्या बडे पैमाने पर सिरदर्द बनी हुई है। यदि बांधमें मिट्टी भर जाए तो फिर उनमें उतना पानी जमा नहीं हो पाएगा जितना डिजायन में था और किसान को उतना पानी नहीं दिया जा सकेगा, जिसकी गांरटी की चाह थी। इस प्रकार कई बांध आज निरुपयोगी होने की राह पर हैं। धुले मॉडल में मैने देखा कि सिल्टिंग या बांध में मिट्टी का आ जाना एक वरदान है न कि शाप। क्योंकि बांध में यदि मिट्टी आ गई तो बरसात में बांध जल्दी भरेगा, अर्थात नदी के उद्गम से दूर-दूर बसे गाँवों में पानी मिलने की प्रकिया जल्दी शुरू हो जाएगी। साथ ही सिंचाई के लिए पानी की वही मात्रा उपलब्ध होगी, जो कि यों भी मिल ही जाती। इस प्रकार आघुनिक बांधों में टेल-एंड जो प्रश्न है, कि अंतिम छोर को तब तक पानी नहीं मिलेगा, जब तक बीच के सभी को न मिल जाए, वह प्रश्न यहाँ पैदा नहीं होता । आधुनिक बांधो में बड़ी-बड़ी नहरें बनानी पड़ती हैं - जिन्हें आंरभ में अत्याधिक पानी ढोना पड़ता है, जिससे उनके रखरखाव, टूट-फूट की बड़ी समस्या हो जाती है। हमारे कई बड़े बांधो की उपयोगिता चालीस, पचास प्रतिशत से कम है, क्योंकि नहरें टूट-फूट गयीं, मरम्म्त नहीं हुई, कभी-कभी दुबारा बनानी पड़ी, जिससे प्रोजेक्ट पूरा करने में आठ-दस वर्ष ज़्यादा लग गयै। यह समस्या केवल बड़े ही नहीं, बल्कि मघ्यम आकार के और छोटे आकार के बांधो में भी है।
उस तुलना में पांझरा नदीकी विकेंद्रित सिंचन व्यवस्था के कारण व्यवस्थपन और मरम्मत की जिम्मेदारी छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गयी, हर गाँव के हिस्से थोड़ीसी ही जिम्मेदारी रही जो ग्रामवासियों के लिए सहज सरल था। उन्हें कहीं से ऊँचीं तनख़्वाह वाले इंजीनियर इंपोर्ट नहीं करने पड़े जैसा कि आधुनिक बांधों के लिए करने पडते हैं।
बडे बाँधोंमें बड़ी मात्रा में जमीन डूब जाती हे और लोगों के पुनर्वास की समस्या उत्पन्न होती है। साथ ही बांध और नहरों के पास की जमीन में अक्सर खारापन आ जाता है और वह खेती के लिए बेकार हो जाती है। कई बार किसान जरूरतसे अधिक पानी लेकर या गन्ने जैसी फ़सल बार-बार लेकर अपनी जमीन का भी नुकसान करते हैं। दूसरों को पानी भी नहीं मिलने देते - पानी चुराना और उससे पनपने वाली घूसखोरी और दबाव-तंत्र को कौन नहीं जानता?
दूसरा प्रश्न अधिक मूलभूत और व्यापक है। जब हम बड़ा बांध बनाकर ऊपर ही सार पानी रोक लेने हैं, तो नदी के निचले हिस्से के गाँवों का पीनेका पानी भी छीन लेते हैं। महाराष्ट्र में ऐसी कई नदियों के नाम गिनाया जा सकते है, जिनका वजूद छोटा था, छोटा है, फिर भी उनके किनारे बसे गाँव पीने के पानी और सिंचाई दोनों दृष्टि से खुशहाल थे, फिर नदी के मुहानों पर बांध बने, नीचे के प्रवाह सूख गए। बांध के आसपास पाँच-दस गाँवों की सिंचित जमीन बढी, नीचे पच्चीस-तीस गाँवों में संकट आ गया - वहाँ की जनता गऱीब ठहरी, झगड़ नहीं पाई और आज सरकार के लिए भी हर साल गर्मी के दिन एक सिरदर्द बन जाता है, जब इन गाँवों के लिए कहीं से ढूँड-ढाँडंकर, टैंकर में भरकर, पानी लाना पड़ता है। धुले में उन छोटे-छोटे बांधो से जुड़ा एक और भी प्यारासा दृश्य देखने को मिला। हर बांध मानों एक छोटा पक्षी अभयारण्य बन गया था। समय के साथ विज्ञान की प्रगति हो, या तकनीक भी आए, समाज-विकास के लिए यह आवश्यक है, लेकिन यह देखना भी आवश्यक है कि जो पुरातन तकनीक थी, उसका तुलनात्मक विश्लेषण क्या है। बांध बनाने का आधुनिक फ़लसफ़ा यह भी है कि आँखें मूंदकर उसे नकारो जो पहले था यह मत सोचो कि वह भी एक तरीक़ा हो सकता है और कभी-कभी अपनाया जा सकता है।
लेकिन शायद एक दूसरा फ़लसफ़ा इससे भी बड़ा है कि सारा व्यवस्थपन अपने हाथ में ही रखो। इस बहाने कि लोग अनाड़ी हैं, गैरजिम्मेदार हैं। फिर जो अपने हाथ में है उसे चाहे दोनों हाथों से लूटो, चाहे निरूपयोगी करार दो- पूछने वाला कौन है? इस प्रकार आधुनिक व्यास्थापन एक ईमानदार और कुशल अधिकारी के लिए मोहतात होकर रह जाता है और किसान उसकी प्रतीक्षा के अलावा कुछ नहीं कर सकते।
और हाँ एक बात और। पाझरा के बाँधोंका वर्णन मैंने गलतीसे वर्तमानकालमें कर दिया। विदित हो कि 1989 के आसपास प्रगत महाराष्ट्र के प्रगत सिंचाई-विभागने लोगोंके विरोधको तोडकर इस व्यवस्थाकी हत्या कर दी। अब वहाँ एख मध्यम सिंचन प्रकल्प है। पहले पैंतीस गांवोंमें पीनेका पानी व पंद्रहसौ एकड सिंचन होता था, अब आठ गाँवोंमें बत्तीससौ एकड सिंचन होता है, बाकी गाँव पानी के लिये तरस जाते हैं।
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गुरुवार, 15 जुलाई 2010
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