सोमवार, 19 जुलाई 2010

14 प्लेग का भय एक हतोत्साही मानसिकता--पूरा है

प्लेग का भय एक हतोत्साही मानसिकता
दै. हिन्दुस्तान, दिल्ली, सप्टें. 1995
बात है बहुत छोटी सी, पर पिछले हफते से बतंगड़ बनी हुई है। वह है प्लेग। वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि पिछले दिन मुझे भी डर लगा था।लेकिन मेरा जो डर पहले दिन उतर गया वह औरों के दिमाग में अभी तक मौजूद है। यह अंतर क्योंकर है?
२२ सिंतबर की शाम मैं कार्यालयीन कामकाजवश बडौदा पहुंची। मेरे साथ महाराष्ट्र के एडीशनल डायरेक्टर आफॅ हेल्थ भी थे। हमने बड़ौदा शहर का एक लंबा चक्कर लगाया तो पता चला कि ८-१० दिनों पहले गुजरात में जो भयानक बाढ़ आई थी उसने बड़ौदा में भी अपनी तबाही का रंग दिखाया था। बेसमेंट की बिल्डिंगें, जिनमें कई दुकानें थीं, वहां सवार्धिक हानि हुई। गलिसां , रास्ते कचरे के ढेर से भर गये। वह ढेर अब तक साफ नहीं हुए-प्रायःयही हाल अन्य शहरों में रहा होगा। कई बार दूर-दराज से पानी के रेले में बहकर लाशें भी आईं जो शहर में जगह-जगह अटक कर रह गई। धीरे-धीरे पाली कम हुआ लेकिन लाशें तुरंत हटा पाना संभव नहीं हुआ था। बहरहाल, कुछ ऐसा ही दृश्य सूरत में भी रहा होगा।
२३ की सुबह सारे गुजराती अखबारों में सूरत में प्लेग शीर्षक की र्क खबरें थीं। कोई मृतकों की संख्या १४ बताता था, कोई चालीस तो कोई चार सौ। मेरे दिमाग में वे सारे वर्णन कौंध गये जो कि १९२६ के प्लेग के विषय में पढ़े थे-खासकर उस प्लेग के कारण पूना में अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के जो कांड हुए थे-वह भी। यदि आज भी प्लेग की संहारकता उसी प्रकार की हुई तो क्या हमारी सरकार को भी प्लेग का फैलाव रोकने के लिए वही ज्यादती करनी पड़ेगी? और जबकि मैं सरकार में एक उच्च पद पर हूं, तो मेरी भूमिका क्या होगी?
मैंने डा.वानेरे से पूछा - अब क्या होगा? उनका उत्तर था-टेट्रासाइक्लिन। उन्होने समझाया कि १९२६ में जब प्लेग की महामारी फैली, तब टेट्रासाइक्लिन या एण्टीबायोब्कि का अविष्कार नहीं हुआ था। आज यह ज्ञान है और गोलियां हैं। बस सीधा-सा उपाय है कि मरीज की टेट्रासाइक्लिन का एक कोर्स करा दो - वह ठीक हो जाएगा। यथासंभव उसे बाकी लोगों से अलग रखो-ताकि अन्य लोगों को इंफेक्शन होने की संभावना कम हो, और जैसा कि हर बैक्टीरियल इंफेक्शन में होता है, बुखार आ गया तो ७-९ दिन रहेगा, उतने दिन धैर्य रखो। है न सीधी-सी बात। बस इतनी-सी बात कोई सुरत के लोागों को समझा दे, कूड़े-कचरे के ढेर उठवा दे, हो गया प्लेग का किस्सा खत्म। तभी किसी ने कहा-टेट्रासाइक्लिन के साइड इफेक्टस भी है। तो चलो उसके साथ विटामिन ए.बी. कर गोलियां भी खाओ और यदि अपना खुद का बाडी रेजिस्टेन्स अच्छा है तो प्लेग वैसे भी पास नहीं फटकेगा। लेकिन शाम होते होते सारा चित्र बदल गया। धुलिया के कलेक्टर तब हमारे साथ थे। उनके लिउ संदेशा था कि सुरत से लोग भारी संख्या में धुलिया आ रहे है, उनका क्या किया जाए? कलेक्टर ने मेरी ओर देखा। हमने तय किया कि बॉर्डर सील नही करना है। आखिर यह कोई जानलेवा बीमारी तो रही नहीं। जिन्हें यह बात ठीक से समझाई नहीं जा सकी, वही सूरत से भागे है। वे बीमार भी नही है -लेकिन बीमारी के कैरियर हो सकते है, सो उन पर निगरान रखनी होगी। फिर पता चला कि सुरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में भी बाजार से टेट्रासाइक्लिन लुप्त हो गया है। वैसी हालत में अच्छा ही है कि ये लोग दूसरी जगह चले जाए जहाँ दवाई मिलना दुश्र्वार हो।
शनिवार को मुंबई आकर मैंने अपनी डिवीजन के तीनों कलेक्टरों से बात की जिनका जिला बॉर्डर गुजरात से लगा हुआ है। जलगांव कलेक्टर ने भ्सुसावल - सुरत लाइन के हर रेलवे स्टेशन पर गुजरात से आने वालों के लिए मेडिकल चैक पोस्ट रखे थे। धुलिया कलेक्टर ने धुलिया में स्कुल,कालेज और सिनेमा शो बंद करवाए और हर रेलवे स्टेशन और हर प्रमुख बस अड्डों पर मेडिकल चैक पोस्ट लगवाए। नासिक कलेक्टा ने भी मेडिकल टीमें बनाकर पेठ और सुरगना - दोनों तहसीलों में चार चैक पोस्ट पर चैकिंग करवाई।
अगले चार दिनों में हर जगह बी.एच.सी. या डी.टी.सूप्रेइंग करवाया , यह व्यवस्था की गई कि टेट्रासाइक्लिन बड़े पैमाने पर उपलब्ध हो। तीनों कलेक्टरों ने प्रेस और आकाशवाणी के मार्फत लोगों को बताया कि सरकार के पास किस-किस बात की उपलब्धता है-अर्थात दवाइयां, बी.एच.सी.पावडर , कितने लोग गुजरात से आए, कितनों के मेडिकल टैस्ट हुए, कितने बीमार पाए गए, किताने बीमारों का बॅल्ड टेस्टिंग किया - उसमें कितनों प्लेग बाधित निकले, कितने चूहे मरे, इत्यादि। चौबीस से तीस तारीख तक छः दिनों में सूरत से करीब साठ हजार लोग इन तीन जिलों में पहुंचे जिनमें से करीब पांस सौ को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। उन्हें टेट्रासाइक्लिन दिया गया और बल्ड सेम्पलिंग भी करवरना पड़ा। हालांकि इसकी रिपोर्ट आने में एक या दो दिन लग जाते हैख् फिर भी कुल प्लेग के जीवाणु पाए जाने वाले पचास से भी कम निकले जब कि मुत्यु किसी की भी नहीं हुई।
सबसे बड़ा डर था कि शायद लोग अपनी बीमारी छिपाने की कोशिश करेंगे। जिनके दिल में पिछले प्लेग के
दिनों का भय है और जो अपनी अशिक्षा या अज्ञान के कारण नहीं जानते कि अब प्लेग एक आसानी से इलाज की जाने वाली बीमारी है,वही इसे छिपाना चाहेंगे। लेकिन यदि उन्हें विश्र्वास दिलाया जा सके कि इसमें डरने जैसा कुछ नहीं है, तो लोग इसे छिपाना नहीं चाहेंगे न ही इतने भयग्रस्त होंगे। उपरोक्त आंकडे भर में चार-पांच सौ लोग तो यों भी बीमार पड़ ही जाते हैं। इसी से मुझे लगता है कि यह पेनिक की, घबराहट की नौबत निराधार थी। थोड़ी सही जानकारी लोगों को पहले ही दिन मिल जाती तो लोग इतने भयभीत नहीं होते।
पर एक क्षेत्र ऐसा है जहां वाकई बात का बतंगड़ , राई का पर्वत बन गया। हमारे लोगों का अज्ञान और हमारे शहरों की सफाई कितने छोटे से दो विषय हैं। लेकिन आज प्रायः हर शहर का प्रशासन इस एक मामले में कमजोर पड़ गया है। सूरत में सफाई नहीं हुई, तो बीमारी फैली। जनता को इलाज पता नहीं था तो लोग-बाग भागे-बंबई गए, दिल्ली गए, धुलिया और नासिक भी गए। यदि वहां की सफाई पहले ही अच्छी तरह होती तो डर की कोई बसत नहीं थी। लेकिन चूंकि पता था कि सफाई डांवाडोल है, इसलिए लोग भी डर गए। घबराहट फैली, चर्चा होने लगी और नतीजा यह हुआ कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय हवाई कंपनियों ने भारत से आने'जाने वाली फाइट्रस पर रोक लगा दी। सूरत के हीरों के व्यापार को जितना नुकसान हुआ,टेट्रासाइक्लिन या बी.एच.सी.के लिए शहरी प्रशासन को जितना पैसा खर्च करना पड़ा उससे कई गुना अधिक नुकसान इस बात से हुआ कि विदेश व्यापार घटा और वापस नार्मल पर आने के लिए दो-तीन महीने लग जाएंगे।
हमारे रोजमर्रा जीवन का अभिन्न अंग है हमारी उदासीनता और निष्क्रियता, जिसके चलते न हमने कभी शहरों की गंदगी के प्रति आवाज उठाई और न कभी सरकार से विस्तृत जानकारी पाने के लिए। आज उसी ने हमारा इतना नुकसान कर दिया।
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22 स्वास्थ्य नीति : सेवा बनाम शिक्षा

स्वास्थ्य नीति : सेवा बनाम शिक्षा (last 2-3 paras missing

इक्कीसवीं सदी के पहले ही देश की जनसंख्या सौ करोड़ के जादुई अंक को छू लेगी। जैसी दिशाहीन बढ़ती हुई हमारी आबादी है, वैसी ही दिशाहीन फैलती हुई हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ भी है। किसी जमाने में डॉक्टरी का पेशा सेवाव्रत माना जाता था। ऐसे कई आदर्शवादी डॉक्टरों को नजदीक से देखने पर भी, तब भी मेरी मान्यता यह थी कि शायद उनकी सेवा की दिशा गलत है। आज तो डॉक्टरों की सेवा भावना पर ही शक किये जाने लायक परिस्थितियॉ मौजूद हो गई है।

सरकारी ऑकडे बताते है कि आज देशा में लगभग पांच लाख एम.बी.बी.एस.डॉक्टर्स और करीब इतने ही आयुवेग्द, होमियो चिकित्सा और अन्य प्रणालियों के डॉक्टर है। स्कूलों के सबसे मेघावी छात्र डॉक्टरी की ओर जाते है। परीक्षाओं की रैट रेस में आगे बने रहना, इसके लिये मेहलत और पैसे खर्च करना और डॉक्टरी के पढाई के दौरान भी वही मेहलत बनाये कोई मामूली बात नहीं है। साथ में परिवार का और समाज का भी काफी पैसा खर्च करके ही यह शिक्षा हासिल होती है। अब समाज के खर्च की बात कोई क्यों सोचे? लेकिन परिवार की लागत की पूरी-पूरी वसूली तो होनी ही चाहिये। और फिर जब उन्हें भी यह सर्टिफिकेट हासिल है कि वे समाज के सबसे अधिक मेघवी, मेहनती और विद्वान संवर्ग मे है। तो क्यों न पैसा, प्रतिष्ठा, और अन्य सुख-सुविधाओं पर उनका हक माना जाय? वह भी तब, जब कि वह डॉक्टर दिन रात मेहनत करने के लिये भी तैयार है। इस प्रकार आजकल जब डॉक्टर्स बैंक बैलेन्स के पीछे भागते दीखते हैं। तो उनके पास जस्टिफिकेशन भी होता है। यही कारण है कि डॉक्टरों में सेवा भावना विदा लेकर व्यावसायिकता की भावना आ चुकी है और होड़ लगाकर बितारों से पैसा वसूल किया जा रहा है।

कोई बड़ा मेघावी छात्र सर्जन बनता है। तुरंत अपना अस्पताल खड़ा कर देता है। उस बिल्डिंग का भी अपना ही एक अर्थशास्त्र होता है। हर दिन अमुक-अमुक ऑपरेशन न हो पायें तो बिल्डिंग का खर्चा नहीं निकलेगा। फिर यह सोच गैर लोगू हो जाता है कि पेशंट की वाकई में ऑपरेशन की जरुरत है या नहीं। या यदि किसी पेशट को अब भी अस्पताल में रखना जरुरी है लेकिन उसे वापस भेज दिया जायेगा क्यांकि किसी ऑपरेशन के पेशंट के लिये खाली कमरा चाहिये होता है।

कोई और मेघावी डॉक्टर है - पैथॅलॉजिस्ट है। चालीस-पचास लाख का नया उपकरण लाकर वह अपनी लैब खोलता है। अब इस मशीनी लागत का हर दिन का ब्याज ही दो हजार रुपये के आसपास है। वहॉ ज्यादा केसेस चाहिये हों तो जनरल प्रैक्टीशनर का सहयोग चाहिये। वह कहे कि फलो-फलो टेस्ट किये बगैर मैं रोग निदान नहीं कर सकता और दवाई नहीं दे सकता। इसके लिये हर रेफर्ड केस के पीछे प्रतिशत का जनरल प्रॅक्टीशनर को पहुँचाया जाता है। वह चाहे ऍलोपैथी का हो या आयुर्वेद का या होमियोपैथी का और तरीके है। मरीज को कहा जाता है कि फलों ऍण्टीबायोटिक अच्छा नहीं - इसकी - जगह वह दूसरा ही लेना। इस प्रकार दूसरी दवाई की मार्केटिंग भी ये धडल्ले से करते रहते है। इस बीच नई दवा की जानकारी कितनी मालूम होती है? केवल वही जो मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव ने बताई हो, और जो उसे कंपनी ने बनाई हो।

ऐसे चित्र आये दिन देखे जाते है। ऐसा नहीं कि हर डाक्टर गलत भावना से ही मरीज को सजाह देता हो - शायद आधे डॉक्टर्स सही हो। लेकिन मरीज को उनकी पहचान कैसे हो? क्योंकि रोग के विषय में जानकारी, समझ और अगली सलाह देने के सारे हक डॉक्टर के ही पास होते है।

आप डॉक्टर से ज्यादा पूछताछ भी नहीं कर सकते उनके अहंकार को ठेस पहुँचती है। उनका उत्तर होगा - डॉक्टर आप है। या हम? चुपचाप कहे मुताबिक कीजिये अर्थात् आप यदि पेशंट है। तो आप अज्ञानी ही है, वैसे चाहे पढ़े लिखें हो पर मेडिकल लेंग्वेज समझने के - हिसाब से तो अज्ञानी ही हुए। फिर वह डॉक्टर जो दिन में पांच दस हजार कमा लेता है। उसके एक मिनट की कीमत भी चार-पॉच सौ रुपये होगी, वह क्योंकर आपको समझाने के लिए अपना एक भी मिनट जाया करें। और अब तो ग्राहक मंच भी है। यदि आप कुछ जानकारी रखते हों अपने विषय में, डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर ने कोई बात कही, उसमें कोई गलती हो ही गई और आपने पकड ली तो डॉक्टर क्यों रिस्क लें? इन सब कारणों से डॉक्टर पेशंट के हित को प्राथमिकता नहीं
देता उसकी प्राथमिकता होती है अपनी कमाई, अपना अहंकार बडप्पन और कोर्ट से अपना बचाव। फिर पेशंट का निरर्थक आपॅरेशन टालने के लिये या उसकी अनावश्यक दवाइयाँ और अनावश्यक टैस्ट्स रोने के लिये डॉक्टर कुछ नहीं करना। कई बार इलाज के दौरान मरीज को किसी दवाई के प्रति ऍलर्जी पैदा हो जाती है, पर उसे नही समझाया जाता कि भविष्य में उसें कौनसी दवाइयाँ टालनी है। यहाँ तक कि उसके केस रिपोर्टस भी उसे नहीं दिये जाते - उन्हें अस्पताल का प्रॉपर्टी कहकर रख लिया जाता है। यदि किसी पेशंट को चार वर्ष बाद या उसी समय भी दूसरे डॉक्टर की सलाह लेनी हो तो उसे उन रिपोर्टस् का उपयोग नहीं करने दिया जाता। यह है हमारे अस्पतालों की नैतिकता का मापदण्ड। सौभाग्य से हाल ही में हाई कोर्ट ने एस केस में फैसला दिया है कि मरीज के मागने पर अस्पताल को उसके टेस्ट रिपोर्ट उसे देने होंगें। यह अभी देखना बाकी है कि कितने बीमार इस फैसले का फायदा उठा पा रहे है।

यह सब लिखने का यह उद्देश्य नहीं कि डॉक्टरी पेशे के काले किस्से को भडकीले ढंग से प्रस्तुत किया जाय। केवल यही स्पष्ट करना है कि आज डॉक्टरी पेशे में व्यावसायिकता और बैंक बैलेन्स का विचार अवश्यंभावी बन गया है। इसके लिये आवश्यक सारी तिकड़मबाजी मेहलत और लागत लगाने का पैसा, सब डॉक्टरों के पास है। और जस्टिफिकेशन भी है। फिर जो ये हमारे अति बुद्धिमान छात्र डॉक्टर होते चलते है। उन्हें बैंक बैलेन्स के पीछे भागने में कोई संकोच नहीं होता। यह हुआ व्यावसायिक डॉक्टरों का पक्ष।

पिसा जाता है बेचारा मरीज और उसके रिश्तेदार। व्यावसायिकता की ढाल की आड़ में उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को डॉक्टर लोग नहीं निभाते मेरा और कई सैकड़ो लोगों का मानना है कि मरीज के रोग के बाबत खुद उससे और उसके रिश्तेदारों से विस्तृत चर्चा करना डॉक्टर का परम और प्रथम कर्तव्य है लेकिन यह सिद्धांत डाक्टरों को तीन प्रकार से खलता है। एक तो उनका सुपिरिऑरिटी का अंहकार चोट खा जाता है यदि मरीज अपने विषय में कुछ करना या जानना चाहे। दूसरे उनका कमाई का समय खर्च हो जाता है, तीसरे यह भी डर है कि जानकारी लेने के दौरान उनकी कोई गलती मरीज ने पकड़ ली तो कन्ज्यूमर कोर्ट में उन्हें खींचा जा सकता है।

कई बार इससे थलग डॉक्टर्स भी देखे जाते है। जो मरीज को अनावश्यक टेस्ट तो करवाये अनावश्यक ऑपरेशन की सलाह न दे लेकिन वे भी मरीज से चर्चा करने से कतराते। उनके लिये पूरा आदर भव रखकर भी कहना पडेगा कि मैं केवल उनकी सेवा भावना से ही सहमत हूँ सेवा की दिशा से नहीं। इसका भी एक महत्वपूर्ण कारण है।

यह प्रायः देखा गया है कि अच्छे अच्छे सेवाभावी डॉक्टर्स भी अपने डॉक्टरी झाम को लेकर एक अहंकार या कहिये कि एक बडप्पन का भाव पाल लेते है। और उस रौ में यह भूल जाते है कि सामने वाला हर रोगी अपने आप में एक बुद्धिशाली व्यक्ति है जिसके जीवन और जीवन्नता ने उसे भी बहुत कुछ सिखाया होता है। उसके अपने अनुभव के आधार पर जो ज्ञान उसके पास संचित होता है उसे नकारकर इलाज नहीं किया जा सकता। इसीलिये डॉक्टर की रोगी से विस्तृत चर्चा होनी आवश्यक है। डॉक्टर केवल सेवाभावी न हो, वह एक अच्छा शिक्षक और एक अच्छा विद्यार्थी भी हो। उसका प्रयत्न हो कि औरों के पास भी छोटे पैमाने पर ही सही मेडिकल ज्ञान बढ़े न कि उनके संचित अनुभव और ज्ञान का उपहास हो।

एक उदाहरण देखें। मैंने बचपन में कभी नानी से सुना कि हरसिंगार के पत्ते चबाने से बुखार उतर जाता है। अभी चल कर इसका उपयोग हमारे घर मे जमकर किया गया। अब हर बार तो नहीं, लेकिन कई बार हरसिंगार की पत्त्िायाँ खाने से बुखार उतर गया है। अब अगर आप डॉक्टर से कहें कि साधारण ही बुखार हो तो बताइये, फिर हम आपकी दवा खाने के बजाय हरसिंगार की पत्त्िायाँ ही खा लेगें तो उसकी प्रतिक्रिया क्यों होगी? बेहद गुस्से की - आप यहाँ आये ही क्यों?

गुस्सा उतर चुकने के बाद ऍलोपैथी डॉक्टर ही तो कहेगा - यह बकवास है, अंधश्रद्धा है, आप ही जैसे लोगों के कारण हिन्दुस्तान में इतना अस्वास्थ्य है इत्यादि। और आयुर्वेद का वैद्य भ्ंी हो तो उसकी भी प्रतिक्रिया होगी तो हम उनके लिये अच्छी और पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं करापा रहे है। और दूसरी ओर उनका स्वास्थ्य विषयों का ज्ञान बढ़े इसके लिये भी हम कुछ नहीं कर रहे। जब भी पैसा उनलब्ध हुआ और चुन्ना पडा कि हम उनके लिये कौन सी नीति उपनीयेंगे अधिक स्वास्थ्य सेवा देने की अधिक स्वास्थ्य शिक्षा देने की तो हर बार हमने स्वास्थ्य सेवा को ही प्रधानता दी
नतीजा यह है कि आज वह स्वास्थ्य सेवा हर तरह से लडखड़ा रही है और गरीब तथा पिछड़े इलाकों का समाज स्वास्थ्य सेवा के साथ साथ स्वस्थ्य शिक्षा से भी वंचित हो रहा है। आज अमारे दुर्गम और पिछड़े इलाके प्यादा मात्रा में डॉक्टरों पर निर्भर है जबकि वहॉ डॉक्टर उपलब्ध ही नहीं है। फिर क्यों उन्हें कमसे कम इतना नहीं सिखा पाते है कि चलो इस बीमारी में डॉक्टर के न मिलने तक कम से कम ये ये बातें करते रहना। यह शिक्षा देने की जिम्मेदारी डॉक्टरों की है, जिसे उन्होंने पूरी तरह टाल दिया है और इसके लिये लज्जिात भी नहीं है।

मुझे एक प्रसंग याद आता है। एक सज्जान के घर एक सुविख्यात प्राईवेट डॉक्टर से परिचय हुआ। यह सुनकर कि मैं IAS हूँ और कलेक्टर हूँ - उन्होंने कहा - आप IAS अधिकारी बड़ी गलत नीतियाँ बनाते है। 'सो कैसे' तो उनका उत्तर था - देखिये गाँव गाँव में जो बीमारियाँ और महामारियों फैलती है उनका मुख्य कारण होता है पीने का दूषित पानी।
और आप लोग पर्याप्त और शुद्ध पानी मुहैया करने पर अधिक जोर देने के बजाय ज्यादा नये PHU खोलने की नीति बनाते है। अरे PHU में डॉक्टर जायेगा भी तो दूषित पानी से कैसे लड़ेगा? बात बिल्कुल सही कही डॉक्टर साहब ! यह बात तो एक डॉक्टर ही ज्यादा अच्छी तरह समझ सकता है, फिर आज तक कितने डॉक्टरों ने बुलन्द आवाज उठाकर माँग की है कि PHU का बजट कम करके अच्छे पानी की सुविधा के लिये बजट बढ़ाया जाय? वैसे हाल में कुछ डॉक्टर धीमी आवाज में यह कह रहे है। लेकिन वे सारे Public Health Systems के डॉक्टर्स है। जिन्हें डॉक्टरों की जमात में सबसे निचले दर्जे का माना जाता है।

एक प्रसंग और है। पिछले चार वर्षो से महाराष्ट्र के आदिवासी भागों में मलेरिया महामारी की तरह आता है और हाहाःकार मचाता हुआ तीन चार महीनों के बाद कम हो जाता है। ऐसे हर मौके पर पाया गया कि ग्रामीण अस्तताल और जन स्वास्थ्य केंद्र  इस संकट के आगे ढुलमुल हो गये है। एक छोटा सा आवश्यक काम होता है कि रोगी के खून की जॉच कर मलेरिया पॉजिटिव है या नहीं और यदि है तो कौन सा पॉल्सिफेरम या साधारण..इसकी जॉच की जाय। इसमें टैक्निकल स्टाफ कम पड़ जाता है। सीधी सी बात है कि क्यों नही उसी इलाके के नौंवी और ग्यारहवी के छात्रों को यह सिखाया जाय कि रोगी की अंगुली से एक बूंद खून कैसे जमा किया जाता है और स्लाइड को माइक्रोस्कोप में कैसे टेस्ट किया जाता है? टेस्ट करने में पांच मिनट से अधिक समय नहीं लगताऔर यूँ भी इन छात्रों की पढ़ाई में स्लाइड बनाकर उनके निरीक्षण की बात शामिल है। फिर मलेरिया की जॉच के लिए उनका उपयोग क्यों न किया जाय? यदि ऐसा हो सके तो स्टाफ की कमीके कारण जो असुविधा है वह समाप्त हो सकती है।

यदि कोई डॉक्टर सुनता है कि हरसिंगारकी पत्तियाँ चबानेसे बुखार उतरता है और उसकी जिज्ञासा नही जागती तोमेरी समझ में वह अच्छा डॉक्टर हो ही नहीं सकता क्यांकि रोग जिज्ञासा और औपध जिज्ञासा इन दो गुणों को उसने भुला दिया है। वेद्य के लिए यह ज्ञान कोई नई बात नहीं। लेकिन उसे भी यह विचार करना चाहिए और रोगी से चार्चा करनी चाहिये कि किस रोग में किस कारण से केवल हरसिंगार के पत्ते पर्याप्त नहीं होते, किस किस प्रकार के अन्य रोग में क्या क्या पूरक औपधियाँ चाहियें इसके बजाए यदि वह रेडिमेड पारिजातक वटि खाने की सलाह देता है तो वह रोगी के ज्ञान की बढ़ावा नहीं देता बल्कि उसे परावलंबी ही बनाता है।

शायद यह परावलंबिता शहरी जीवन के लिये ठीक भी हो। लेकिन गांव के इलाके में, आदिवासी और दुर्गम भागों में क्या हो? एक ओर कि सीधे पेड को तोडकर हरसिंगार संस्कृत नाम - परिजातक के पत्ते खाने के बजाय आप परिजातक वटी खाइये - आयुर्वेद में पश्य, कुपथ्य का विचार बहुत होता है, सब है। - आप वही लीजिये - अर्थात् रेडिमेड ! धंधे की वजह से करोडों लोगों के पास रोग और स्वास्थ्य के विषय में जो भी ज्ञान है उसका विचार होने के बजाय उसका हम खात्मा कर रहे है। बुद्धिमान अलोपैथी की डॉक्टर हो और हरसिंगार की पत्त्िायों से बुखार उतरने की बात उसुनकर यदि उसकी उत्सुकता जागृत नहीं होती, यदि वह नहीं सोच पाता कि मैं भी अपने चार पांच रोगियों के लिये यह जॉचकर देखूँ कुछ आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़कर देखूँ।
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गुरुवार, 15 जुलाई 2010

13 बटमारी के हिस्सेदार--पूरा है

बटमारी के हिस्सेदार
दै. मुंबई महानगर (१९९२-९३ में कभी)
वाणिज्य राज्यमंत्री ने फेयरग्रोथ कंपनी में खरीदे शेयरों के कारण इस्तीफा दे दिया तो एक नयी बहस की शुरूआत हो गयी। लोग पुछने लगे कि किसी कंपनी ने गैरकानूनी ढंग से मुनाफ़ा कमाया हो और उस कंपनी के मुनाफ़े के कारण शेयर होल्डरों को डिविडेंड मिलता हो या उनके शेयरों के दाम बढ़ते हों तो इस मुनाफ़े को स्वीकार करने में क्यों कोई दोष माना जाय ? आखिर कंपनी के कामकाज के तरीकों पर या सिद्धांतों पर शेयर होल्डर का नियंत्रण नहीं के बराबर होता है। खासकर जब लाखों शेयरों की तुलना में उसके शेयरों की संख्या केवल सैकड़ों या हजारों में ही होता है। प्रश्न है कि क्या यह दलील सही मानी जा सकती है ? इसके लिए हमें अर्थशास्त्र के कुछ मूलभूत सिद्धांतों पर नजर डालनी पड़ेगी।

किसी भी उत्पादन के लिए पूंजी एक महत्वपूर्ण घटक होता है। इसके अलावा चाहिए जमीन, कच्ची सामग्री और म.जदूर। लेकिन इन सबसे पहले चाहिए एक अच्छा दिमाग, तकनीकी ज्ञान, उत्पादन से हो सकने वाले मुनाफ़े का सही अंदाज लगा पाने की क्षमता और इस काम में कूद पड़ने के लिए निर्णय ले पाने का साहस ! ये अंतिम गुण जिस उद्योजक में होंगे वही पूंजी जुटाने की बात सोचेगा। उसकी अपनी पूंजी कम हो तो शेयरों के माध्यम से पूंजी जुटायेगा। शेयरों की अधिक से अधिक बिक्री हो इसलिए वह अपनी योजना और उससे होने वाले मुनाफ़े का अनुमान लोगों के सामने रखेगा। लोग उसका प्रस्ताव परखेंगे। यह जानना चाहेंगे कि उसके कारखाने का मैनेजमेंट अच्छा होगा या नहीं। खासकर यदि उसने पहले किसी उद्योग में अच्छा मुनाफ़ा कमाया हो तो लोग उसकी जांच परख की क्षमता और उद्योग चला सकने की क्षमता पर भरोसा रखेंगे और उसकी नयी प्रस्तावित कंपनी में अपनी भी पूंजी लगायेंगे। किसी नये उद्योग का पब्लिक इशू जब ओवर सब्सक्राइब हो जाता है तो इसका अर्थ होता है कि लोगों को उस उद्योजक के या उसकी कंपनी के सफल होने की आशा है। इसलिए उन्होंने अपनी पूंजी भी उसके साथ लगायी ताकि मुनाफ़े और शेयर एप्रीसिएशन के लाभ में उनका भी हिस्सा रहे।

जब सामान्य आदमी किसी उद्योग में पूंजी लगाता है तो माना जाता है कि उस उद्योग के कारण बढ़ने वाली उत्पादकता और राष्ट्रीय संपत्त्िा की बढ़ोतरी में वह हाथ बंटा रहा है। इसी कारण मुनाफ़े में हिस्सा कमाना भी उसका हक माना जायेगा। लेकिन यह है उन देशों की परिस्थिति जहां पिछले दो शतकों में औधोगिक क्रांति हुई। नई-नई मशीनों के आविष्कार हुए, उन मशीनों से उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। लोगों ने नए-नए कल-कारखाने लगाये, देश की उद्योग क्षमता और उद्योग संपत्त्िा बढ़ायी। दुर्भाग्य से हमारा देश उनकी पंक्ति में नहीं बैठाया जा सकता।

पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से हमारे देश में प्रथा चल पड़ी है कि नयी कंपनी घोषित करना ही काफी है, उसमें अच्छी प्लानिंग करना या अच्छा उत्पादन निकालना या पूरी कार्यक्षमता से कंपनी को चलाना आवश्यक नहीं है। आप पूछेंगे कि भाई उत्पादन न हो तो मुनाफ़ा कहां से आयेगा। इसका उत्तर भी इस प्रथा में है। कंपनी का उद्देश्य जब केवल मुनाफ़ा कमाना ही है, तो हर चीज जाय.ज है वाली कहावत लागू हो जाती है। फिर आप अलग तरीकों से भी मुनाफ़ा कमा सकते हैं -- मसलन आपकी कंपनी टैक्स ही न दे। कहा जाता है कि हर्षद मेहता और उसकी कंपनियों ने अब तक ३००० करोड़ से भी अधिक रुपये का टैक्स छिपाया है। यह तो मुम्बई शहर से वसूल होने वाले कुल टैक्स से भी अधिक है। लेकिन टैक्स छिपाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ानेवाला पहला व्यक्ति हर्षद मेहता हो एसा भी नहीं है। उसके पहले भी कई और नाम सामने आ चुके हैं। मुनाफ़ेखोरी का दूसरा तरीका यह भी है, आपकी कंपनी या आप साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर सरकारी नीतियों को ही अपने हक में यूं घूमा-फिरा लें कि आयात और निर्यात की सुविधा, कम ब्याज दर पर बैंक से कर्ज मिलने की सुविधा या अपनी कंपनी के शेयरों को उछालने के लिए थोड़े समय तक बैंक से पैसे या कर्ज हासिल करने की सुविधा इत्यादि आपको मिलती रहे जो कि अन्य किसी कंपनी को नहीं मिल रही हो। यह मुनाफ़ा उत्पादन से नहीं बल्कि हिसाब की हेरा-फेरी से बढ़ा है, भले ही शेयर मार्केट में इसे स्मार्ट्-नेस का नाम दे दिया गया हो।






अब अर्थशास्त्र का नियम है कि जब वास्तविक उत्पादन के कारण मुनाफ़ा बढ़ रहा तो किसी से कुछ छिने बगैर कंपनी अपनी आय और मुनाफ़ा बढ़ा रही होती है। कंपनी का उत्पादन लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध हो रहा होता है, लेकिन जब उत्पादन करके भी हेरा-फेरी से मुनाफ़ा कमाया जाता है तो किसी की जेब से निकलकर पैसा ''स्मार्ट गाय'' की जेब में जा रहा होता है। आखिर किसकी जेब से पैसा जाता है? उसकी जेब से जिसने अपनी मेहनत की कमाई बैंक में डिपॉजिट की या उछाल आने पर अपनी कमाई से शेयर खरीद लिये, क्योंकि जिन शेयरों को उत्पादन का जोर नहीं है, उन्हें कभी तो गिरना ही है। आज भी स्टेट बैंक का ५०० करोड़ रुपये के घाटे का उदाहरण हम देखें या कराड़ बैंक के डिपॉजिटर्स का नतीजा वही है कि इस घाटे में सामान्य आदमी ही पिसेगा। बैंक के वरिष्ठ अधिकारी तो कई एक करोड़ डकार जायेंगे। किसी एकाध को सजा हो जायेगी बस क्योंकि अपने देश के कानून भी उतने सक्षम नहीं हैं।

देश को सरकार की या शासन की असल जरुरत इसलिए होती है कि एसी हेरा-फेरी को सरकार रोक सके, कानून को और कानूनी प्रक्रिया को सक्षम रखे और आम आदमी के आर्थिक हितों को सुरक्षित रखे। लेकिन आम आदमी से अलग अपने देश में एक ऊंचे तबके का कुनबा है जिसके लोग इस हेरा-फेरी को रोकने के बजाय इसके मुनाफ़े में हाथ बंटाने में विश्र्वास रखते हैं। इसलिए जब फेयरग्रोथ जैसी कंपनी धड़ल्ले से मुनाफ़ा कमाती है तो शेयर होल्डर यह नहीं पूछता कि मुनाफ़ा कहां से आया? कंपनी के तौर-तरीके क्या हैं। वह मुनाफ़े में अपना हिस्सा पाकर संतुष्ट हो जाता है बल्कि कंपनी के लिए दुआ भी करता है। लेकिन यह अब जाहिर है कि फेयरग्रोथ का मुनाफ़ा ईमानदारी से नहीं आया बल्कि यह लूट का मुनाफ़ा ही है। फिर क्या शेयर होल्डर का इस दोष में कोई भी हिस्सा नहीं?

कहते हैं कि ऋषि वाल्मीकि पहले बटमार थे, राह चलतों को लूटकर उनका धन लूटते थे। एक दिन नारद मुनि से सामना हो गया। मुनि ने कहा -- मुझे मारते हो तो मारो, लेकिन यह पाप ही है। जिन घरवालों और रिश्तेदारों की सुख-सुविधा के लिए तुमने यह पाप का रास्ता चुना, वे तुम्हारी लूट से खुश होते हैं, लूट में हिस्सा बंटाते हैं, लेकिन क्या वे तुम्हारे पाप में भी हिस्सा बांटेंगें? जरा पूछकर तो आना। डाकू ने घर जाकर सबसे पूछा तो वे कहने लगे - तुम्हारा पाप तुम्हारे पास, इसका जिम्मा हमपर कैसा? और जब जिम्मा नहीं तो पाप में हमारा हिस्सा भी क्यों करें? इस पर वाल्मीकि का मोहभंग हुआ और वो बटमारी छोड़कर तपस्या करने चले गये। हर्षद मेहता या फेयरग्रोथ जैसी नावों पर सवार हजारों की संख्या में शेयरों की खरीद-फ़रोख्त करने वाले इस कलयुग में वाल्मीकि के रिश्तेदार ही हैं। उन्हें इससे क्या मतलब कि कंपनी वाकई कुछ उत्पादन कुछ काम करती है या हेरा-फेरी! वह तो यही कहेंगें कि हमने इतनी पूंजी लगायी। कंपनी ने इतने डिविडेंड दिये और शेयर इतने चढ़े, इससे हमें इतना मुनाफ़ा हुआ बस! और इन हेरा-फेरी प्रवीण कंपनियों की मदद से अपना ढोल पिटवाते लोग भी कहेंगें कि देखो-देखो, पूछो इन शेयर होल्डरों से।

लेकिन जो जानता है कि बिना उत्पादन के देश की संपत्त्िा नहीं बढ़ती और जिसे इस देश की चिंता है, यहां के उत्पादन की चिंता है, या जिस पर यह चिंता करने की जिम्मेदारी है, वह जानता है कि फेयरग्रोथ जैसी कंपनी के मुनाफ़े में हिस्सा बांटने पर वह किस दोष की श्रेणी में आता है।

25 व्यर्थ न हो यह बलिदान (सत्येंद्र दुबे)--पूरा है

व्यर्थ न हो यह बलिदान
( The climax chapter of my book है कोई वकील लोकतंत्रका!)
सत्येंद्र दूबे की हत्या हुई और सारे ईमानदार अफसरों को धमका गई कि खबरदार, हो जाओ तैयार, या तो अपना मुँह पर पड़ी चुप्पी पर सात ताले और लगा लो या फिर कफन के अंदर घुस जाओ। दोनों ही सूरतों में मुँह से आवाज न निकले- शिकायत में कलम न चले। क्यों कि यदि यह हो गया तो क्या भ्रष्टाचारी और क्या सत्ताधारी, दोनों तुमसे पल्ला झाड़ लेंगे।

जब हत्या हो गई तो सबसे पहले जो एक तबका जागा- वह था उन नौजवान, होनहार, उच्चशिक्षित इंजिनियरों का जो अभी तक देश छोड़ कर भागे नही हैं। हालाँकि सुनहरे मौके उनके लिए भी होंगे, यदि वे जाना चाहें, लेकिन वे अभी गए नही हैं और इसी देश का कुछ कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। और एक वह तबका भी जागा जो विदेश में है लेकिन दिल में एक आस बसाए हुए कि कभी उन्हें भी अपने देश में वापस आना है।

जब ऐसे हजारों लोगों ने आवाज उठाई तब कहीं जाकर सरकार के सर्वोच्च पदस्थ व्यक्ति ने कहा कि कातिलों को नहीं छोड़ा जायगा।

वैसे यह हजारों बार कहा जाता है कि इसे, उसे नही छोड़ा जाएगा, सब को न्याय मिलेगा, सत्य की विजय होगी इत्यादि। उसके बाद क्या होता है- लोग हिंदी सिनेमा का अगला हिस्सा देखने लगते हैं कि कैसे हीरो छत से कूदा, सात मशीनगनों के बीच सीना ताने चलता रहा एक मुष्टिप्रहार में सारी दीवारें तोड़ दीं वगैरा वगैरा। लोगों में अभी यह उम्मीद जग ही रही होती है कि अब अपराधी पकडे जाएंगे और उन्हें दंड मिलेगा कि फिल्म खत्म हो जाती है और मुँह बाए दर्शक को एहसास होता है कि यह सब तो तमाशा था- अब रात हो गई- चल कर सो जाओ।

सत्येंद्र दुबे के परिवार के दुख में इस देश का हर संवेदनशील और ईमानदार व्यक्ति शामिल है। लेकिन क्या हरेक के दिल में यह पूरा पूर्ण विश्र्वास है कि कातिल पकड़ा जाएगा?

और जब वह पकड़ा जाएगा तो क्या होगा? चलेगा एक लम्बा सिलसिला कोर्ट कचहरी की तारीखों का और शायद आज से पच्चीस वर्ष बाद हमें कोई अखबार सातवें पेज के कॉलम चार के निचले कोने में बताएगा कि सत्येंद्र के अपराधी को सजा मिल गई।

तब कोई यह पूछने की स्थिंति में नही होगा कि अपराधी कौन था और अपराध क्या था। इसलिए यह चर्चा आज ही होनी चाहिए।

क्या हम भी मान लें कि सत्येंद्र का अपराधी वह आदमी है जिसने गोली चलाई। नही, मैं नही मानती। वह तो अपराधियों की एक लम्बी कतार का सबसे आखिरी व्यक्ति है। उसके पहले कतार में कई कई लोग खड़े हैं। क्या हमारी नजरें और उंगली उन पर पड़ी है?

सत्येंद्र ने एक लम्बा पत्र लिखकर स्वप्निल स्वर्णिम परियोजना में चल रहे भ्रष्टाचार की ओर ध्यान आकर्षित किया था। सत्येंद्र जीवित रहा तो बार बार ध्यान आकर्षित करेगा इसलिए उसे मार दिया गया। यदि उन बातों से हमारा ध्यान हटा जिन्हें उजागर करने और रोकने के लिए सत्येंद्र ने अपनी जान गँवाई तो उसका बलिदान व्यर्थ हो जायगा।

आइए, हम याद करें कि सरकारी तंत्र में चल रहे भ्रष्टाचार पर उंगली उठाकर मौत को ललकारने वाला और शहीद होने वाला पहला अफसर सत्येंद्र ही है। उसे मृत्यु का खतरा भी अवगत था जो उसने अपने पत्र में भी लिखा था। इस खतरे के बावजूद वह पीछे नही हटा।

मुझे इतिहास याद आता है कि जब साइमन कमिशन के विरोध में सभा का नेतृत्व करने का निर्णय लाला लाजपतराय ने लिया या असेम्बली में बम धमाका करके अपने आपको पुलिस को सौंप देने का निर्णय भगतसिंह ने लिया तो वे भी अपनी मृत्यु के खतरे को पहचानते थे। लालाजी ने जब लाठियाँ झेलीं तब उन्होंने कहा था कि मेरे शरीर पर पड़ने वाली एक एक लाठी वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य पर एक एक प्रहार है जिसमें वह साम्राज्य ढह जायगा। और यही हुआ भी। लालाजी की खाई चोटें व्यर्थ नही गईं। उन्होंने अन्ततः देश को स्वाधीनता दिलाई। इसी प्रकार सत्येंद्र का बलिदान भी व्यर्थ नही होना चाहिए। उससे शुरूआत होनी चाहिए कि देश में संगठित रूप में चल रहे भ्रष्टाचार का समापन हो। वह केवल सत्येंद्र पर गोली चलाने वाले को ढूँढने से नहीं होगा। हमें कतार में आगे खड़े लोगों को देखना होगा।

क्या लिखा था सत्येंद्र ने अपने पत्र में? क्यों किसी भी अखबार में वह पत्र नही छापा? वह छप जाय तो लोगों को पता चले कि शक की सुई किन किन की ओर है। उनके पास सत्येंद्र की हत्या का मकसद 'थ््रदृद्यत्ध्ड्ढ' है। सी.बी.आई. की जाँच की शुरूआत उनसे होनी चाहिए और वह भी जनता को बताकर।

जो लोग सत्येन्द्र के हत्यारे को ढूँढने में लगे हैं उन्हें लगने दीजिए। लेकिन मुझे लगता है कि हमारी नजरें केवल उस गोली पर टिककर न रह जाए जो सत्येंद्र के शरीर में धँसी। हमारी नजरें उस पत्र पर होनी चाहिए जो सत्येंद्र के कलम से निकला था। उसमें वह था जो सत्येंद्र चाहता था। आज हर आईआईटीयन को चाहिए और देश के हर ईमानदार अफसर को चाहिए कि सत्येंद्र का वह पत्र फ्रेम में मढवाकर अपने सामने दीवार पर टाँग कर रखे। इस एक बात से कुछ ऐसी शुरूआत होगी जिससे सत्येंद्र का बलिदान व्यर्थ न हो।

- लीना मेहेंदले
ई-१८, बापूधाम,
सेन्ट मार्टिन मार्ग,
नई दिल्ली- ११००२१

18 एक सिंचन व्यवस्था : एक विचारधारा--पूरा है

एक सिंचन व्यवस्था: एक विचारधारा
- लीना मेहेंदले
- सेटलमेंट कमिशनर, महाराष्ट्र

बड़े बांध, बड़ा बजट, बड़ी तकनीक, बड़ी मशीनरी, बड़े फ़ायदे और बड़ी समस्यांएँ एक तरफ़ और छोटे बांध , छोटा बजट, छोटे फ़ायदे और छोटी समस्यांएँ दूसरी तरफ़। इनमें से आप किसे चुनेंगे ? उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद अब तक यह मान्यता रही कि चुनाव का निर्णय मुख्यतया तकनीकी पर निर्भर है। जो तकनीक जितने बडे पैमाने पर लागू हो सकती है, जितनी आधुनिक है, वही ज़्यादा अच्छी। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते-आते अब पश्चिमी और प्रगत देश मानने लगे हैं कि किसी प्रणाली के व्यवस्थापन की सहूलियत देखनी भी जरूरी है। वे अब सस्टेनेबिबलटी अर्थात् सुचारु ढंग से किसी प्रणाली का चलना आवश्यक मानने लगे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है, एक पुरानी सिंचन प्रणाली पर कुछ विचार।
महाराष्ट्र के उत्तर-पश्चिम छोर पर स्थित है, जिला धुलिया या धुळे, जो आजकल सरदार सरोवर की वजह से बहुचर्चित है। इसके भूगोल में है, पूरब-पश्चिम फैले हुए विन्ध्य पर्वत, विन्ध्यपुत्री नदी नर्मदा, फिर सातपुडा पर्वत और सातपुडापुत्री नदी ताप्ती। एक तीसरी नदी भी है - पांझरा, जो सह्याद्री से निकली है। पहले यह पूरब की ओर साक्री और धुले तहसीलों से बहती है। फिर धुले शहर का चक्कर लगाकर उत्तर और पश्चिम को मुड़कर ताप्ती से मिल जाती है।
नर्मदा और पांझरा - इन दो नदियों के माघ्यम से हमारी सिंचन प्रणाली के दो विभिन्न चित्रों की तुलना यहाँ प्रस्तुत है। यह दो चित्र अलग कालखंडों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पांझरा की सिंचन प्रणाली क़रीब तीन सौ वर्ष पुरानी है, जबकि नर्मदा की और ख़ासकर सद्य-प्रस्तावित नर्मदा-सागर से जुड़ी हुई सिंचन व्यवस्था अत्याधुनिक है। इन दो कालखंडों के बीच विज्ञान और तकनीकी की जो प्रगति हुई है, उसका प्रभाव या यों कहिए कि उस कारण पड़ने वाला अंतर दोनों प्रणालियों में अवश्यंभावी है। यह कहा जा सकता हे कि पांझरा पर जब सिचंन प्रणाली बनी तो आज उपलब्ध तकनीक उन लोगों के पास नहीं थी, अतः जो सिंचन व्यवस्था उस काल के अज्ञान की द्योतक है, उसकी आज चर्चा क्यों ? लेकिन उस काल की मजबूरी, अज्ञान या भिन्नता के कारण ही सही, पर जो अंतर दो प्रणालियों में आ ही गया है उसे देखने में क्या हर्ज है, ख़ासकर मैंने महसूस किया कि विचार प्रणालियों की और व्यवस्थापन प्रणालियों की भिन्नता भी जो इन दो चित्रों से जुड़ी हुई है वह शायद इस प्रश्न से जुड़े सभी व्यक्तियों को कुछ सोचने के लिए उकसा सके।

पहले देखें कि नर्मदा पर बन रही सिंचन प्रणाली क्या है। भारत की नदियाँ दो तरह की हैं -- वे जो हिमालय से निकलती है और जिनमें बर्फ़ पिघलकर आती है, जिसके कारण वे कभी सूखती नहीं, दूसरी अन्य सभी पर्वतों से निकलने वाली नदियाँ, जिनमें केवल वर्षा का ही पानी बहता है। यादि उनके उद्गम पर्वतों पर झाड़ियों की बहुतायत हो तो उनमें आने वाला पानी धीरे धीरे आएगा, जिससे नदी में पानी की धारा अघिक महीनों तक बनी रहेगी। यदि पहाड़ों पर कम पानी बरसा या बरसने वाले पानी कं वेग रोका नहीं जा सका और वह जल्दी बहकर समुद्र में चला गया तो उस नदी की, व उस पानी की उपयोगिता कम हो जाती है। नर्मदा और पांझरा दोनों ही नदियाँ दूसरी श्रेणी में आती हैं। आधुनिक काल में इन नदियों पर जो बाँध बन रहे है - जैसे भाखरा नांगल बाध हो, या नर्मदा-सागर बांध - उनका तरीक़ा यह है कि काफ़ी ऊँचां बड़ा बाधं बनाकर बारिश के पानी को पूरी तरह रोक लियं जाता है।

जब तक बांध पूरा भर न जाए, तब तक नदी की धार में पानी नहीं बहेगा। (इस प्रकार कई नदियाँ पूरे साल भर सूखी रह सकती हैं, क्योकि सारा पानी बाधं में ही रोक लिया गयं है। प्रसिद्ध विचारक सुंदरलाल बहुगुणाजी इसे नदीकी हत्या का अपराध मानते हैं।)

आधुनिक कालमें चूँकीं यह मालूम है कि बाधं में कितना पानी है, अतः यह प्लानिंग भी की जा सकती है कि उस पानीकी उपलब्धता पर आधारित कौन सी फ़सल बोनी चाहिए। प्रायः हर बड़े बांध से सिचाई किये जाने वाला क्षेत्र पचास हजार एकड़ से अघिक होता है, जिसकी प्लनिगं के लिए काड़ा अर्थात कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटीज बनाई जाती हैं। इनका काम होता है हर साल पानी की उपलब्धता देखकर किसानों को बताया जाए कि उस साल उन्हें कौन सी फ़सल उगानी चाहिए और उसके लिए कितने पानी की गारंटी दी जा सकती है ।

लेकिन अक्सर यह प्लानिंग काग़ज पर धरी ही रह जाती है। अक्सर देखा जाता है कि जब बारिश अच्छी हो, बांध में पानी की बहुतायत हो, तो किसान के खेत में भी अच्छी बारिश हुई होती है, उसे नहर के पानी की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार पिछले वर्षोंमें देखा गया है कि काडा की प्लानिंग असफल भी हो सकती है। जब किसान को सूखे के कारण पानी चाहिए होता है, तो काडा के बाधं में भी पानी कम होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि किसान अपनी बुद्धि से ही अंततः तय करता हे कि वह कौन सी फ़सल उगाएगा। काड़ा व्यवस्था में यह भी मान्यता है कि घूसखोरी या राजनीतिक दबाव के आधार पर पानी नहीं चुराया जा सकता। पर यह मान्यता व्यावहारिक स्तर पर ग़लत उतरती है। सिंचाई के अलावा बड़े-बड़े बाधों के दो अन्य उपयोग बताते जाते हैं - बाढ़ को रोकना और बिजली बनाना, उसकी चर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं है ।

आज से तीन सौ वर्ष पूर्व पांझरा और उसकी दो उपनदियों में आने वाले पानी की उपलब्धता के अधार पर क़रीब साढ़े तीन हजार एकड़ क्षेत्र के लिए एक सिंचन व्यवस्था बनाई गई, जो कई मायनों में आज की व्यवस्था से नितांत भिन्न है अपने उद्गम स्थान से नीचे तक आते-आते पांझरा क़रीब दो सौ किलोमीटर की दूरी तय करती है और क़रीब पैंतीस गाँवों को पीने का पानी देती है। सिंचाई के लिए पांझरा और दोनों उपनदियों पर जगह छोटे-छोटे कुल सत्तर बाँध बनाए गए हैं, जिनमें से कुछ मिट्टी और कुछ पत्थर-चूने के हैं, लेकिन बाँधो का उद्देश्य यह नहीं है कि पानी को पूरी तरह रोककर रखा जाए। बाँधोंकी ऊँचांई आठ या दस फीट ही है। बांध से समकोण बनाती हुई नदी की धारा के समान्तर एक दिवाल बांधी गई है, जिसकी उचांई धीरे-धीरे घटते हुए, जमीन की सतह तक आ जाती है । इस दिवाल के ऊपरी मुहानेपर सुयोग्य स्थान पर एक छोटा गड्डा बनाकर एक नहर निकली जाती है, जिससे पानी खेतों तक पहुँचाया जाता है। लेकिन नहर की क्षमता से ज़्यादा जितना भी पानी नदी में आता है, वह दिवाल के साथ - साथ बहता हुआ वापस नदी में चला जाता है। इस प्रकार नदी की धार कहीं भी सूखती नहीं। अगले बाँध पर फिर इसका कुछ पानी सिंचाई के लिए रोक लिया जाता है, लेकिन नदी का मुख्य प्रवाह बना रहता है। नहर में कितना पानी उपलब्ध होगा, यह निर्भर करता है कि नहर के मुहाने पर दिवाल की उचांई कितनी है।

नहर का पानर ढलान की राह खेतों तक पहुँचाता है। यह तय है कि पानी किस-किस खेत तक पहुँचेगा। पूरी सिंचनयोग्य जमीन तीन हिस्सों में बाटीं गई है जिन्हें फड कहते है। ये है गेंहू, गन्ने और ज्चार के फड। फ़सल के लिए प्रत्येक फड के सभी किसान तीन वर्षों का प्रोग्राम बनाते हैं। पहले फड के किसान गेहूँ बोएगें तो दूसरे फड के किसान गन्ना, ओर तीसरे फड के किसान ज्वार बोएगें। और अगले वर्ष गेहूँ के फड में गन्ना, गन्ना के फड में ज्वार, और ज्वार के फड में गेहूँ बोया जाएगा। किसान को अपने फड के ग्रुप के मुताबिक़ ही फ़सल उगानी पड़ेगी, उसे इन तीन फ़सलों के अलावा अन्य फ़सलें उगाने की अनुमति नहीं है। केवल गन्नें की जगह कहीं-कहीं पूरे फडमें केले उगाने की अनुमति है, और गेहूँकी जगह चना। यह व्यवस्था तीन सौ वर्षों से चली आ रही है - बिना झगड़े झंझट के।

इस सिचांई व्यवस्था में जिस बात ने मुझे सबसे अघिक प्रभावित किया वह है इस प्रणाली की सुचारुता और आत्मनिर्भरता। पंझरा के किनारे बसा हर गाँव पानी के लिए इस पर निर्भर है। साथ ही हर गाँव के कुछ किसान (पर सभी नहीं) इस व्यवस्था से सिंचाई का पानी पाते हैं। अतः यह तय किया गया है कि किसी समय किसी को एक ख़ास मात्रा से अघिक पानी नहीं दिया जा सकेगा। पानी की अघिकतम मात्रा क्या होगी - यह निर्भर है नहर की दिवाल और बांध की ऊँचाई पर। तीन सौ वर्ष पहले मराठा-राज में पेशवाओंने जब यह सिंचन व्यवस्था बनाई तभी तय किया गया कि प्रत्येक गाँव के बाँध की उचांई क्यं होगी। यह ऊँचांई बढ़ाने का हक़ किसी को नहीं है। यदि पानी नहीं बरसा, तो किसी को पानी नहीं मिलेगा। लेकिन यदि बरसा तो भी किसी एक दिन एक ख़ास मात्रा से अधिक जितना पानी आएगा, वह नदी की धारा में ही वापस जाएगा ताकि पीने के पानी का मूल स्त्रोत बना रहे। हाँ, यह संभव है कि सिंचाई के लिए अधिक दिनों तक पानी मिलता रहे -- यदि नदी की धार बरसात के मौसम के बाद भी अधिक दिनों तक बनी रहे। यह तभी सभंव है जब नदी के ऊपरी हिस्से में पेड़-झाड़ी-जंगल बहुतायत में हों, ताकि बरिश का सारा पानी बरसात में ही बहकर बह न जाए, बल्कि पहाड़ों से झरकर धीरे-धीरे आता रहे और महीनों तक बहता रहे।

नदी किनारे के सभी तीस-पैतीस गाँवों की एक समिति हर साल बरसात के मौसम से पहले और बाद में प्रत्येक बांध की जाँच-पड़ताल करती है कि कहीं किसी ने बांध को थोड़ा ऊँचा न कर दिया हो और कहीं बाँध में मरम्मत की जरूरत न हो। साथ ही गाँव के सिंचाई करने वाले सारे किसान इस बात की भी जाँच करते हैं कि क्या नहर को मरम्मत की जरूरत है। यदि बाँध या नहर में मरम्मत की आवश्यकता हुई तो उस गाँव के किसान श्रमदान के माघ्यम से इसकी पूर्ति करते हैं। इस प्रकंर बांध और नहरो की मरम्मत और नदी के पानी के बँटवारे और व्यवस्था की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से इन तीस-पैंतीस ग्रामवासियों की है, जो उन्होंने पिछले तीन सौ वर्षों से निभाई। सफल भी रहे और काडा का ख़र्चा जो आज सरकार उठाती है, वह नहीं उठाना पड़ा, क्योकि गाँव वाले सहर्ष उस काम को बखूबी करते रहे।
आज बड़े - बड़े बांधो में सिल्टिंग या मिट्टी छा जाने की समस्या बडे पैमाने पर सिरदर्द बनी हुई है। यदि बांधमें मिट्टी भर जाए तो फिर उनमें उतना पानी जमा नहीं हो पाएगा जितना डिजायन में था और किसान को उतना पानी नहीं दिया जा सकेगा, जिसकी गांरटी की चाह थी। इस प्रकार कई बांध आज निरुपयोगी होने की राह पर हैं। धुले मॉडल में मैने देखा कि सिल्टिंग या बांध में मिट्टी का आ जाना एक वरदान है न कि शाप। क्योंकि बांध में यदि मिट्टी आ गई तो बरसात में बांध जल्दी भरेगा, अर्थात नदी के उद्गम से दूर-दूर बसे गाँवों में पानी मिलने की प्रकिया जल्दी शुरू हो जाएगी। साथ ही सिंचाई के लिए पानी की वही मात्रा उपलब्ध होगी, जो कि यों भी मिल ही जाती। इस प्रकार आघुनिक बांधों में टेल-एंड जो प्रश्न है, कि अंतिम छोर को तब तक पानी नहीं मिलेगा, जब तक बीच के सभी को न मिल जाए, वह प्रश्न यहाँ पैदा नहीं होता । आधुनिक बांधो में बड़ी-बड़ी नहरें बनानी पड़ती हैं - जिन्हें आंरभ में अत्याधिक पानी ढोना पड़ता है, जिससे उनके रखरखाव, टूट-फूट की बड़ी समस्या हो जाती है। हमारे कई बड़े बांधो की उपयोगिता चालीस, पचास प्रतिशत से कम है, क्योंकि नहरें टूट-फूट गयीं, मरम्म्त नहीं हुई, कभी-कभी दुबारा बनानी पड़ी, जिससे प्रोजेक्ट पूरा करने में आठ-दस वर्ष ज़्यादा लग गयै। यह समस्या केवल बड़े ही नहीं, बल्कि मघ्यम आकार के और छोटे आकार के बांधो में भी है।
उस तुलना में पांझरा नदीकी विकेंद्रित सिंचन व्यवस्था के कारण व्यवस्थपन और मरम्मत की जिम्मेदारी छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गयी, हर गाँव के हिस्से थोड़ीसी ही जिम्मेदारी रही जो ग्रामवासियों के लिए सहज सरल था। उन्हें कहीं से ऊँचीं तनख़्वाह वाले इंजीनियर इंपोर्ट नहीं करने पड़े जैसा कि आधुनिक बांधों के लिए करने पडते हैं।
बडे बाँधोंमें बड़ी मात्रा में जमीन डूब जाती हे और लोगों के पुनर्वास की समस्या उत्पन्न होती है। साथ ही बांध और नहरों के पास की जमीन में अक्सर खारापन आ जाता है और वह खेती के लिए बेकार हो जाती है। कई बार किसान जरूरतसे अधिक पानी लेकर या गन्ने जैसी फ़सल बार-बार लेकर अपनी जमीन का भी नुकसान करते हैं। दूसरों को पानी भी नहीं मिलने देते - पानी चुराना और उससे पनपने वाली घूसखोरी और दबाव-तंत्र को कौन नहीं जानता?

दूसरा प्रश्न अधिक मूलभूत और व्यापक है। जब हम बड़ा बांध बनाकर ऊपर ही सार पानी रोक लेने हैं, तो नदी के निचले हिस्से के गाँवों का पीनेका पानी भी छीन लेते हैं। महाराष्ट्र में ऐसी कई नदियों के नाम गिनाया जा सकते है, जिनका वजूद छोटा था, छोटा है, फिर भी उनके किनारे बसे गाँव पीने के पानी और सिंचाई दोनों दृष्टि से खुशहाल थे, फिर नदी के मुहानों पर बांध बने, नीचे के प्रवाह सूख गए। बांध के आसपास पाँच-दस गाँवों की सिंचित जमीन बढी, नीचे पच्चीस-तीस गाँवों में संकट आ गया - वहाँ की जनता गऱीब ठहरी, झगड़ नहीं पाई और आज सरकार के लिए भी हर साल गर्मी के दिन एक सिरदर्द बन जाता है, जब इन गाँवों के लिए कहीं से ढूँड-ढाँडंकर, टैंकर में भरकर, पानी लाना पड़ता है। धुले में उन छोटे-छोटे बांधो से जुड़ा एक और भी प्यारासा दृश्य देखने को मिला। हर बांध मानों एक छोटा पक्षी अभयारण्य बन गया था। समय के साथ विज्ञान की प्रगति हो, या तकनीक भी आए, समाज-विकास के लिए यह आवश्यक है, लेकिन यह देखना भी आवश्यक है कि जो पुरातन तकनीक थी, उसका तुलनात्मक विश्लेषण क्या है। बांध बनाने का आधुनिक फ़लसफ़ा यह भी है कि आँखें मूंदकर उसे नकारो जो पहले था यह मत सोचो कि वह भी एक तरीक़ा हो सकता है और कभी-कभी अपनाया जा सकता है।
लेकिन शायद एक दूसरा फ़लसफ़ा इससे भी बड़ा है कि सारा व्यवस्थपन अपने हाथ में ही रखो। इस बहाने कि लोग अनाड़ी हैं, गैरजिम्मेदार हैं। फिर जो अपने हाथ में है उसे चाहे दोनों हाथों से लूटो, चाहे निरूपयोगी करार दो- पूछने वाला कौन है? इस प्रकार आधुनिक व्यास्थापन एक ईमानदार और कुशल अधिकारी के लिए मोहतात होकर रह जाता है और किसान उसकी प्रतीक्षा के अलावा कुछ नहीं कर सकते।
और हाँ एक बात और। पाझरा के बाँधोंका वर्णन मैंने गलतीसे वर्तमानकालमें कर दिया। विदित हो कि 1989 के आसपास प्रगत महाराष्ट्र के प्रगत सिंचाई-विभागने लोगोंके विरोधको तोडकर इस व्यवस्थाकी हत्या कर दी। अब वहाँ एख मध्यम सिंचन प्रकल्प है। पहले पैंतीस गांवोंमें पीनेका पानी व पंद्रहसौ एकड सिंचन होता था, अब आठ गाँवोंमें बत्तीससौ एकड सिंचन होता है, बाकी गाँव पानी के लिये तरस जाते हैं।
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11 राष्ट्रभाषा बचाने का एकसूत्री कार्यक्रम--पूरा है

राष्ट्रभाषा बचाने का एकसूत्री कार्यक्रम
- लीना मेहेंदले

करीब पैंतालीस वर्ष पहले हमारे देश में एक नया पर्व शुरू हुआ जब डेढ़ सौ वर्ष की गुलामी के बाद हम स्वतंत्र हुए। हमने अपने आप के लिये कई तरह के आश्वासन दिये, कई तरह की प्रतिज्ञाएँ की और कई तरह की आशा आकाँक्षाए भी उपजाई' भाईचारा, सबके लिये समुचित शिक्षा, सम्रपित मोका - यह थे हमारे आश्वासन और इसी के जरिये हमने उन्नति की भी आशा रखी । साथ ही एक आश्वस्तता थी कि हमें इस देश की संस्कृति, इसी देश की विचारघारा के द्धारा हम अपनी उन्नति करने जा रहे हैए इसीलिये जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित कराया गया तो कई राज्यों ने राष्ट्रभाषा प्रचार का काम बडे उत्साह के साथ अपनाया।

आज कहाँ है वह प्रतिष्ठा और वह उत्साह न केवल अहिन्दी भाषी राज्यों में बल्कि हिन्दी भाषी राज्यो में भी हिन्दी का जो स्थान है वह बडा आशादायी नही कहा जा सकता हैं। यही नही, अन्य राज्यों की अपनी राजभाषा की भी क्या हालत है यह भी सोचने लायक है। कुछ वर्षो से हमने हर वर्ष संस्कृत दिन मनाने का रिवाण चलाया हुआ है। स्वतंत्रता के पूर्व और बाद में कई वर्षो तक संस्कृत का पठन-अघ्ययन हमारे यहाँ बडें उत्साह के साथ हो रहा था। अचानक यह उत्साह समाप्त हो गया मानों किसी बवंडर मे फस कर रह गया हो।

और हम ऐसी कगार पर आ खडे हुए है कि जब आज की बूढी पिढी समाप्त हो जायगी - आज से पंद्रह, बीस, वर्षो के बाद तो हमें जर्मनी सरीखे दूसरे देशों से संस्कृत सीखनी पडेगी।

फिर बात आई हिन्दी - दिवस मनाने की। अब हर वर्ष केंद्र सरकार के दप्तरो मे हिन्दी - दिवस या राष्ट्रभाषा - दिवस मनाया जा रहा है। और मै यदि कभी चार - पाँच दिनों के लिये बम्बई गई तो मुझे बडी गहराई से महसूस होता है कि जल्दी ही वहाँ मराठी दिवस मनाने की भी जरूरत आज पडेगी।


कही थम कर यह सोचने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है क्या इसलिये कि हमारी राष्ट्रीय भावना में कमी आ गई है या इसलिये कि हममें से हर शिक्षित आदमी युरोपीय देशों मे नौकरी करना चाहता है

या इसलिये कि अपने आसपास नजर उठाकर देखने पर हमें यह एहसास होता है कि जिसे व्यक्तिगत रूप से आगे बढना हो उसके लिये अंग्रेजी को अपनाने के अलावा कोई चारा नही है। यदि अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा दीक्षा दिलानी है, उनके लिये बडे ओहदे की आकांक्षा रखनी है तो उन्हे कान्व्हेन्ट स्कूल या अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल में भेजना पडेगा। आज देश की पचास प्रतिशत जनता और जो भी देहात या गाँव थोडा सा सुधर कर म्युनिसिपालिटी की श्रेणी में आ गया है वहाँ के लोग अपने बच्चो के लिये अंग्रेजी माध्यम का स्कूल ही पसंद करते हैं। आखिर क्यों

इस प्रश्न का विश्लेषण करने पर शायद कोई कहेगा कि हम दिखावटी हो गए है। चूँकि अंग्रजी स्कूलों का तामझाम बडा आकर्षक होता है और अंग्रेजी बोलना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है इसलिये हम उसी में उलझ कर रह गये है। यदि हम सच्चे देशभक्त है तो हमें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को कतई नही ठुकराना चाहिये। अंग्रेजी भाषा केवल एक खिडकी की तरह है लेकिन घर के दरवाजों से और घर के अन्दर

हमें अपनी भाषा को ही प्रतिष्ठित रखना चाहिये। पराई भाषा को अननाने की बजार अपना देशभिमान जागृत रखना चहिये इत्यादी लेकिन ऐसा कहने वालों के बच्चे भी प्रायः अंग्रेजी स्कूलों मे पढते पाये जाते है और इसमें में उनकी गलती नही मानती।

हमारी भाषाओं के पिछडते जाने का एक बडा जबर्दस्त कारण है लेखन का अभाव, पुस्तको का अभाव। दसवी पास करता हुआ विदयार्थी अपनी उमर की ऐसी कगार पर होता है कि लम्बी से लम्बी छलांग के लिये आकुल होता है। अपने आस पास, दुनियाँ से क्या लूँ, और क्या छोडूँ, अपनी जीत का झंडा कहीं गाडूँ, कुछ करके दिखाउूू ऐसा छलकता हुआ उत्साह उसमें होता है। इस उमर में हमारे आज के बच्चे यदि किसी विषय की किताबे पढना चाहे तो




तो किताबे हैं कहाँ हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओ में खूब किताबे लिखी जा रही है लेकिन वे सिर्फ ललितसाहित्य की श्रेणी में आती है उपन्यास, कहानी, कविता, समीक्षा, थोडे बहुत संस्मरण, कही कोई देश वर्णन इसके आगे हम कहाँ गये है भौतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, मनोविज्ञान, खेती, इलेक्ट्रानिकी, फोटोग्राफी, सँटेलाईटस, कम्प्यूटर - कोई भी विषय उठाकर गौर किजिये कि इन विष्यो पर पढने लायक कितनी किताबें हमारी भाषाओ में है पाठय पुस्तको को छोडो तो शायद कोई भी नही और पाठयपुस्तक भी हमारी जरूरतो के मुकाबले मे बहुत कम। हिन्दी के अखबारो मे पुस्तक समीक्षा पर नजर डालिये। या हिन्दी छापने वाले प्रकाशन सूची देख डालिये। चाहे पिछले तीन वर्षो का प्रकाशन पढ जाइये या पिछले तीस वर्षो का लेकिन आपकी जिज्ञासा को संतुष्ट कर पानेवाली बात नही मिलेगी। यही हाल मराठी का है, गुजराती का है, बंगाली का है, और संभवतः हर भारतीय भाषा का है।

यदि हम इस भ्रम में हैं कि भाषा के फलने - फूलने का अर्थ है ललित साहित्य की बहुतायत, तो यह निःसंदेह एक निराशाजनक परिस्थिति है' जब तक किसी भाषा में हर एक विषय पर वाइमय नही तैयार होता तब तक वह भाषा पनप नही सकती, जी नही सकती। जिस संस्कृत भाषा ने हमारे देश में प्राचीन काल में कम से कम चार हजार वर्षो तक अपना प्रभाव कायम रखा, उसके साहित्य में प्रायः हर विषय पर कुछ ना कुछ लिखा गया है। न्यायशास्त्र, दशर्नशास्त्र, युध्दशास्त्र, आयुर्वेद, कृषि सिंचाई आदि कई विषयो में साहित्य - रचना हुई। अन्ततः संस्कृत भाषा का हास तब आरंभ हुआ जब उसकी साहित्य रचना केवल ललित साहित्य तक सीमित रह गई। बोलचाल की नई भाषाएँ पैदा हुई। उनका मूल ヒाोत फिर भी संस्कृत ही थी। अतः वह माना जा सकता है कि जब तक ये भाषाएं जीवित हैं, संस्कृत भाषा पूर्णतः लुप्त नहीं होंगी।

लेकिन इन भाषाओं की क्या हालत है शास्त्र साहित्य की कमी वहां भी है। और इस अभाव का नतीजा यह है कि किसी ज्ञान - पिपासु के लिए अंग्रेजी की शरण आवश्यक हो गयी है। यदि शास्त्र विषयों की किताबों की संख्या गिनी जाय तो पूरे भारत के भारतीय लेखक मिलकर जितनी पुस्तकें लिखतें हैं, उसकी कई गुनी अधिक किताबें भारतीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हैं और जो अन्य देशीय लेखक अंग्रेजी में लिखते हों उनकी तो गिनती करना या तुलना करना बेकार है।

यदि हमें राष्ट्र भाषा को बचाना है तो साथ ही अन्य भाषाओं को बचाना है तो साहित्य निर्मिती का बडा अभियान चलाना होगा ताकि हर तरह के भाषाओं में कई किताबें उपलब्ध हों।

फिर सवाल केवल किताबें लिखने का नहीं हैं। यह किताबें रोचक होना भी आवश्यक है। मुझे महसूस होता है कि हमारे साहित्यकार, लेखक, या टीवी के प्रोग्राम निदेशक यह नहीं समझ पाते हैं कि जो बात या लेखन का जो ढंग एक प्रौढ व्यक्ति के लिए रोचक सिद्ध होगा, वहीं ढंग एक छोटे बच्चे के लिए नहीं अपनाया जा सकता और वही ढंग एक किशोरवयीन के लिए भी नहीं अपनाया जा सकता। अपने लेखकों के उदासीनता तब और भी अखरती है जब अंग्रेजी लाइब्रेरी में उनकी किताबों से सामना हो जाता है। दस वर्ष से छोटे बच्चों का सेक्सन मैंने एक विदेशी लाइब्रेरी में देखा। परिकथाएं, करीब पचास भाषाओं की प्रचलित लोककथाओं के संग्रह, फोटोग्राफी, संसार के प्रायः देश का भूगोल और इतिहास, आर्कियोलोजी सिविलाइजेशन्स कैसे बनते और लुप्त होते हैं, उन्हें कैसे खोजा जाता है, उनका स्थल काल कैसे तय किया जाता है इत्यादि। संसार के अच्छे म्युजियम्स, जादूगरी, माडल, हवाई जहाज बनाना और उङाना, कैलकुलस, बडे बडे वैज्ञानिकों की जीवनी और उनके प्रयोग और सिद्धांत, अंतरिक्ष उडान, गार्डनिंग, लान ग्रासेस - गरज की आप किसी भी विषय पर वहां किताब देख सकते हैं। कई विषय जो मुझे नीरस लगते थे, मैंने उस सेक्सन की किताबों से सीखे उन्ही में से एक पुस्तक पढकर मेरा बारह वर्षीय लडका मुझे समझाने लगा कि इन्पलेशन क्या होता है और उसके ''सोशल कान्सिक्वेन्सेस'' क्या होते है।

तबसे मैं अननी मान्यता के विषय मे और भी अघिक कायल हो गई हूँ कि यदि हमें राष्ट्रभाषा और अननी अन्य भाषाँए बचाना है तो यह एकसूत्री अभियान चलाना पडेगा।

साहित्य निर्मिती का साहित्य निमार्ण में भी खास कर बान साहित्य और किशोर साहित्य लिखने का काम अलग तौर पर करना पडेगा। तीसरा ध्यान रखने वाला क्षेत्र है कम्प्युटरो का आज चूँकि हर प्रोगाँम अग्रेजी भाषा में और उन्ही की लिपी में लिखे जाते है, संसार के अन्य भाषाविद भी घबराने लगे है कि कही अंग्रेजी के आगे उनकी भाषाएँ लुप्त न हो जाये। किसी दिन हमें इस समस्या को भी सुलझाना पडेगा। लेकिन हमारा पहला काम तो पूरा हो।


पता :-
लीना मेहेंदले
भाई बंगला
५० लोकमान्य काँलनी, पौड रोड,
पुणे-४११ ०२९

07 भण्डाफोड से उजागर गलतियाँ--पूरा है

भण्डाफोड से उजागर गलतियाँ


आज जब देश के सारे पत्रो में यही समाचार उछाला जा रहा है, कि क्या श्री रावने हर्षद मेहता से एक करोड रुपये लिये, या कैसे लिये या नही लिये, तो आईये जरा उन गलतियो को गिनने का प्रयास भी करें, जो इस काण्ड में श्री राव ने की हैं, और हमने की हैं। पहले कुछ देर हम या मानकर चलते हैं कि अपने अफेडेविट में एक करोड की घटना के विषय में हर्षद मेहता ने जो कुछ कहा हैं, वह सारा सच है। बाद में दूसरी चर्चा हम यह मानकर करेंगें कि हर्षद ने गलत ब्यौरा दिया है।

श्री राव की पहली गलती है चुनाव लडने के लिये इतना बडा बजेट बनाने की। माना कि आज चुनाव लडने के लिये हर किसी को पैसे की जुगत भिडानी पडती हैं, माना कि अमरीका जैसे प्रगत और जागरुक देश के चुनावी उम्मीदवार भी इससे नही बच पाये है, फिर भी देश के कानून के मुताबिक और देश के लिये आवश्यक स्वच्छ प्रशासन को नजर मे रखते हुए यह कहना पडेगा कि जो भी चुनावी उम्मीदवार चुनाव लडने के लिए इतनी बडी रकम लागत पर लगाने बात को स्वीकार करता है, उससे आप भ्रष्ट प्रशासन की ही अपेक्षा कर सकते है, स्वच्छ प्रशासन की नही। और हम सारे बुध्दिजीवी जो हर चुनाव में बढोतरी होने वाली चुनावी लागत को देख रहे है, और स्वीकार कर रहे हैं कि, 'हाँ आखिर उम्मीदवार भी बिचारा क्या करें?' वो हम सारे भी उस भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी और दुष्परिणामों को ढो रहें हैं और ढोते रहेंगे। फिर भी हममें और उम्मीदवार में एक फर्क अवश्य रहेगा। हमनें जो गलती हताशा में और अकर्मण्यता के कारण स्वीकार की है और जिसका दुष्परिणाम भी हमें ही भुगतना है, वह गलती चुनावी उम्मीदवार अपनी मर्जी से करता है, और उस धन व सत्ता के लिये करता है जो कई बार उसे मिल भी जाते हैं। इसे करने में जो बेईमानी हैं, वह उम्मीदवार की ही हैं। और यदि सौ उम्मीदवार यह गलती करते हैं और नही पकडे जाते, तो इससे उस एक उम्मीदवार की गलती नही छिप जाती जो पकडा जाये। उसकी और बाकी न पकडे जाने वाले उम्मीदवारों की गलती के प्रति यदि हम और आप आवाज नही उठाते तो इसका अर्थ है कि हमें वह दुर्भाग्य और दुरवस्था मंजूर है, जिसे हम अपनी इस अकर्मण्यता के द्वारा आमंत्रण दे रहे है। अगर श्री राव ने भ्रष्ट आचरण की गलती की है, तो हमने भी गलती है अकर्मण्यता की। और हमारी गलती उनकी गलती से कई गुना अधिक गंभीर है।

अगर हम मान लें कि हर्षद मेहता ने जो कुछ कहा है, वह सच कहा है, तो कई और गलतियां उजागर हो जाती हैं। एक खतरनाक गलती सुरक्षा से संबंधित है। अगर हर्षद का कहना सच है तो यह मानना पडेगा कि, हर्षद जिन सुटकेसों को लेकर श्री राव से मिलने गया उन सुटकेसों की जाँच किसी भी सुरक्षाकर्मी ने नही की। साथ ही हर्षद का यह कहना है कि, उसने राव के साथ और श्री खांडेकर के साथ हुए वार्तालाप को टेप भी किया है और टेप भी उसके पास उपलब्ध है। प्रश्न यह उठता है की सुरक्षाकर्मियों ने उसे इस प्रकार टेपरेकॉर्डर अंदर किस प्रकार ले जाने दिया। अगर उसका कहना सही है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं की सुरक्षाकर्मियों का काम कितना ढीला पड गया है या पड सकता है। भविष्य में कोई भी धनी व्यक्ति पैसे भरा सूटकेस देने के बहाने रिवॉल्वर ले आ सकता है और कुछ भी हो सकता है।
कई लेखकों के विश्लेषण में यह तर्क आया कि जब हर्षद ने श्री राव को पैसे दिये उस समय बैंक
के प्रतिभूतियों के घोटाले नहीं शुरु हुए थे। इसलिये यह मानना गलत है कि इस प्रतिभूति के घोटाले के लेखक या कर्ताधर्ता भी श्री राव ही हैं। या यह मानना भी गलत है कि हर्षद मेहता ने यह पैसे राव को उन प्रतिभूति घोटालों को ठंडा करने के लिये दिये थे। लेकिन इस मुद्दे की चर्चा बाद में करेंगे। गौर करने की
बात हैं कि, अगर श्री राव ने हर्षद से एक करोड रुपये लिये या उन्हें बताया गया कि, उन्हें हर्षद से एक करोड रुपये मिलने वाले है, तो उनके दिमाग में सबसे पहले यह प्रश्न उठना चाहिए कि, हर्षद मुझे यह पैसे किस लिये दे रहा हैं? और बदले में मुझसे क्या लेने वाला है। और कितना लेनेवाला है। हर्षद कहता है, और चाहता है कि हम मान लें कि यह महज एक चुनावी डोनेशन था। लेकिन जरा अपने अपने शब्दकोष पल्ट कर देखिए कि ' महज चुनावी डोनेशन ' इन शब्दों का अर्थ क्या निकलता है? इसका अर्थ यह नही है कि उसने यह रुपये उठाए, दे दिये और दामन झटक कर अलग हो गया। वह जानता था और राव भी जानते थे इस एक करोड का मूल्य कई गुना बढा चढा कर ही वसूल किया जाएगा और मान रहा था कि राव को उसमें कोई आपत्त्िा भी नही होगी। यदी राव इसे गलती नही मानते और यदि हम और आप इसे गलत मानते हैं तो इसे सुधारने का उपाय भी हमें ही करना है।

हर्षद का कहना है कि, इसका परिचय बम्बई के दो जगमगाते सितारो के रुप मे कराया गया और तीन मिनिटों में उसने और उसके भाई अश्र्िवन मेहता ने श्री राव को समझाया कि इस देश की एकॉनॉमी को आगे ले जाने का, प्रगति के रास्ते पर, विकास के रास्ते पर ले जाने का वही आसान तरीका हो सकता है, जो वह अपना रहा है या अपनाने वाला है। यदी हम मान लें कि श्री राव ने उन तीन मिनटो की बात को अच्छी तरह से सुन लिया और स्वीकार भी कर लिया, तो यह सबसे बडी गलती मानी जानी चाहिए। बल्कि सच तो यह है कि, भले ही श्री राव ने यह गलती की हो या न की हो पर हम यह गलती कर रहें है, कि हम हर्षद को एक बडा व्यापारी मान रहे हैं, ईमानदार मान रहे हैं और जब वह यह प्रश्न उठाता है की क्या इस देश में उसे अपने मनपसंद रोजगार करने का हक नही है, तो हम भी अपना सिर हिला कर कहते है 'हाँ भाई हाँ, हक तो उसे होना ही चाहिए।' हाँलाकि कुछ अखबारों ने हर्षद के इस ब्यान का समर्थन नही किया है, फिर भी ऐसा लगता है कि सामान्य आदमी की सहानुभूति इस प्रश्न को सुनने के बाद हर्षद के साथ हो गई है। जब देश में करोड से अधिक बेरोजगार पडे हुए है, और ३० - ४० करोड से अधिक लोग पर्याप्त काम न होने से आधे पेट जिंदगी गुजार रहे है तो जो भी आदमी रोजगार के हक की दुहाई देगा, जनता उसके साथ साहनुभूति दिखाएगी।

इसलिए इस बात की जाँच परख करना आवश्यक हो जाता है की, जिसे हर्षद अपना व्यापार, अपना पेट पालने का धंधा कहता है। वह क्या इस वर्णन के पात्र है। इसके लिए हमें यह बडे साफ गोई के साथ समझना पडेगा कि, व्यापार या रोजगार ऐसी चीज है, ऐसी बात है जो पूर्णतया आपकी उत्पादन क्षमता पर निर्भर करती है। अगर आप किसी चीज की पैदावार नही कर रहे है, या अगर आपका व्यापार किसी बात के पैदावार को बढावा देने के लिये नही है तो इसे एक इमानदार व्यापार या इमानदार रोजगार नही कहा जा सकता। बल्कि इसे रोजगार ही नही कहा जा सकता। यह सरासर लूट है, डकैती है और हर्षद इसे कर रहा है और सवाल हम से पूछ रहा है, इस देश की जनता से पूछ रहा है कि क्या इस देश में उसे रोटी का हक नही है? क्या इस देश में उसे रोजगार करने का हक नही है? भई, रोजगार करने का हक तो था, अगर तुम्हें रोजगार करना होता। हर सामान्य आदमी इस बात को जानता है कि, इस देश में ऐसा कोई रोजगार, ऐसा कोई व्यापार, ऐसा कोई पैदावार, ऐसी कोई इंडस्ट्री, अभी तक नही पैदा हुई जिसमें एक आदमी चार या छः वर्षों में ही इतने पैसे कमा ले कि उसके पास बैंक के सेव्हिंग अकाउंट में इकट्ठे निकालने के लिये ८० लाख रुपये से भी ज्यादा रुपये पडे रहते है। जरा सोचिए, एक परफ तो सामान्य आदमी है जो अगर बैंक में १००० रुपये जमा हो जाते है तो सोचता है कि, चलो इसकी क़क़्ङ बना ली जाए। दूसरी तरफ हर्षद मेहता जैसा आदमी है जो अपने आदमी को बैंक में दो चैको के साथ भेजता है। इसमें से एक चैक है ८० लाख का और दूसरा चैक है कोरा कि चाहे उसमे जो रकम लिखवा लो। इसके अलावा हर्षद के घर में १५ लाख रुपये ऐसे ही फालतू पडे थे। और वो भी वह दिल्ली ले जा सका। इसके अलावा उसके उसके दूसरे बैंक के
सेव्हिंग में पैसे यूही पडे हुये थे और उसमें से उसने तीस लाख रुपये निकाले। फिर वह जाता है दिल्ली वहाँ भी यूही सेव्हिंग बैंक में उसके पैसे पडे हुये हैं, वहाँ से वह निकालता है ४५ लाख। इन आकडो को देखिए और बताइये अपने दिमाग पर हाथ रखकर और दिल पर हाथ रखकर कि इस देश में ऐसा कौन सा इमानदार व्यापार है, जो आप और हम जानते है, जिसको करने से इतने पैसे मिलते हो कि, आप अपने घर में इतनी कैश इकठ्ठी रखे और आप अपनी बैंक कि सेव्हिंग अकाउंट में इतनी कैश इकट्ठी पडी रहने दें। अगर हर्षद का यह कहना सच है कि, वह श्री नरसिंह राव से मिला, उसने श्री राव को एक करोड रुपये दिये और श्री नरसिंह राव ने उसकी बाते आंनदपूर्वक सुन ली और उससे कहा कि, आप आइए, और दोबारा मुलाकात किजिए। हम अपने अर्थमंत्री से आपको मिलवायेंगे इत्यादि तो इस पूरे काण्ड में मेरी निगाह में श्री राव की सबसे बडी गलती यह नही है की, उन्होनें एक करोड रुपये लिये। यह भी नही है कि उन्होने हर्षद जैसे आदमी को मिलने के लिए मौका दिया। उनकी सबसे बडी गलती यह थी, कि जब हर्षद ने उनसे कहा की कैसे कम ही समय में पैसे बनाये जाते है तो उसी समय श्री राव की समझ में आना चाहिए था कि यह इमानदारी के रास्ते की बात नही कर रहा । अगर हमारे देश का प्रधानमंत्री इस बात को नही समझ सकता है तो हमारी राजनिति, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारा समाज अवश्यमेव डूबेगा। हम आज श्री रीव के प्रति सहानुभूति रखे या न रखे यह बात अलाहिदा है। लेकिन हमें यह अच्छी तरह से समझना चाहिए कि इस पूरे काण्ड में अगर उनसे कई गलतियां हुई है तो सबसे बडी गलती कहा हुई । अगर इस गलती को हम गलती नही कहेंगे तो हम भी अपनी जिम्मेदारी से नही बच सकते और यदि कुछ आशा इस देश के बचने की है तो वह इसी बात पर निर्भर करती हैं, कि हम में से कितने व्यक्ति इस गलती को गलती कहकर पहचान सकते हैं।

दिनांक : २९-०६-२००५