गुरुवार, 1 जुलाई 2010

03 आदि शंकराचार्य के उत्तराधिकारी

आदि शंकराचार्य के उत्तराधिकारी
published in weekly Ravivar

कवि इकबाल ने बडे फख्र के साथ कहा कि युनानी, मिस्त्री, रोमन सभी सभ्यताएँ जहाँ मिट गई, मगर हमारी पहचान अभी बाकी है - कुछ ऐसी बात है कि हमारी सभ्यता मिटती नही है ।

मिटती तो खैर न हो, लेकिन सिमटती जा रही है जरूर वह भी हमारे ही बनाये छलावो के कारण ऐसे समय में पथदीपक कौन है ? जब इतिहास की ओर नजर उठाई तो सबसे पास एक व्यक्तित्व दीख पड़ता है - आदि शंकराचार्य

प्रचुर विव्दता, सन्यासी प्रवृत्त्िा, सामाजिक प्रश्नों की मार्मिक पहचान एक तिलतिलाहट, एक चुभन - कि क्योंकर हिन्दु समाज सारी सामाजिक कुरीतियों के दलदल में फंस रहा है, क्योंकर लोगो को सामाजिक न्याय की निश्च्िातंता केवल बौध्द धर्म में ही मिल रही है ? क्योंकर वैदिक कर्मकांण्ड़ मे उलझ कर रह गया हमारा विव्दत् समाज एक शिक्षक, एक आलोचक और एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाने में असमर्थ है? आदि शंकराचार्य की पहचान हम जाने अनजाने इन प्रश्नों के साथ और उनके समाधान के साथ करते है.

अत्यंत छोटी आयु मे ही आदि शंकराचार्य संन्यास ग्रहण किया और फिर घर से बाहर सुदूर प्रांतो में जाकर विधाध्ययन किया । हिंदू समाज रचना में संन्यासी का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है । सारे समाज को पीढीदर - पीढी गलत रास्ते पर भटकने से रोकते रहना हो तो समाज में कुछ ऐसी परम्परा का होना और कुछ ऐसे व्यक्तियों का होना आवश्यक है जो द्रष्टा हो, दार्शनिक हों और अपने वैयक्तिक लाभ से परे उठकर समाज के विषय मे सोच सकें और समाज को राह दिखाने का काम कर सकें. कहते है कि इस प्रकार पथप्रदर्शन का काम राजा और विद्वान छोटे पैमाने पर और सन्यासी बडे पैमाने पर कर सकते है । लेकिन शर्त यह है कि सन्यासी को अपना धर्म अच्छी तरह मालूम हो । उसका सन्यासी बनना महज एक आलसी के लिये पेट पालने का बहाना न हो।

निश्च्िात ही यह माना जा सकता है कि आदि शंकराचार्य को उस मर्म की पहचान थी। तभी तो सन्यासी होते हुए भी उन्होने समाज से दूर, समाज से अपरिचित रहने का रास्ता नहीं अपनाया। बल्कि समाज में रहते हुए, घुम घुम कर, समाज की अनिष्ट मान्यताओ का खंड़न किया व्दैतवाद के चक्कर में बुरी तरह से फँसे और वैष्णव - शैव - शाक्वत वाद के फलस्वरूप टुकडे टुकड़े होकर बिखर रहे समाज में अव्दैतवाद की स्थापना कर समाज में एकीकरण की प्रक्रिया जारी कराई. इसके साथ बुध्द धर्म में भी जो अधःपतन और अवनति हो रहा था उस पर चोट की जिससे एक और यधापि बौध्द धर्म का भारतवर्ष में विस्तार भले ही रूक गया हो, पर इस अवनति से उबरने के प्रयत्न भी आरंभ हो गये।

अंततः शंकराचार्य ने भारतवर्ष के चारो कोने में चार ज्ञानपीठों की स्थापना की और अपने उत्तराधिकारियों की वहाँ प्रस्थापित किया ताकि यह ज्ञानपीठ पूर्णतः सही माने में समाज के पथप्रदर्शन के लिये एक परमेंनेट इनस्टियुशॅन बन जाये

यह बडे दुर्भाग्य की बात है कि शंकराचार्य की विभिन्न रचनाओं को जिस प्रकार उन्होने शब्दबध्द किया, निबधित किया और उसकी प्रतियाँ बनाकर सुरक्षित रखी गई, उस प्रकार शंकराचार्य के विभिन्न वाद - विवाद, शास्त्रार्थ और चर्चाओ को शब्दाकिंत कर सुरक्षित रखने कि आवश्कता किसी ने नही समझी

परंतु शंकराचार्य के जीवन काल की एक घटना ऐसी है जिसकी दुहाई उनके उत्तराधिकारी बार बार देते है उस घटना व्दारा अव्दैतवाद के सिध्दान्त की पुष्टि कराने के लिये

कहते है कि एक बार आदि शंकराचार्य बनारस के घाट पर गंगा स्नान करके बाहर निकले ही थे कि एक चमार उनसे छुआ गया संस्कारों के प्रबल प्रभाव के अंतगर्त शंकराचार्य ने कहा दिया अपसर अर्थात 'दूर हो जा'

चमार ने हँसकर उनसे पुछा यह तुम किससे दूर हटने के लिये कह रहे हो क्या मेरी आत्मा से? पर वह और तुम्हारी आत्मा ब्रह्म एक ही है. रही बात मेरी दोह की तो तुम्हे उससे क्या अंतर पड़ता है? वह उसी के चाभ से बनी है जिससे तुम्हारी भी देह बनी है.
इस पर शंकराचार्य को अपनी गलती का पता चला और उन्होने चमार को प्रणाम कर अपना गुरू बना लिया.

इस घटना से वह स्पष्ट है कि स्पृश्य - अस्पृश्य के भेदभाव को समाप्त करना का निर्णय शंकराचार्य ने अवश्य किया होगा. अवश्य ही उनके ज्ञानपीठो में उन्होने कुछ निर्देश दिये होगें. लेकिन आज इन्ही ज्ञानपीठो के सत्ताधिकारी किसी सामाजिक प्रश्न पर चर्चाए चलाते हुए नही पाये जाते है - और खासकर अस्पृश्यता के प्रश्न पर तो अब ऐसा रुख अपनाया जा रहा है जो अव्दैतवाद के सिध्दान्त को किसी गहन अंधेरे कोने में फेंक देने का सामथ्य रखता है यह भ एक दुर्भाग्य की ही बात है कि ज्ञानपीठो के ये अधिकारी सत्ताधिकारी तो है लेकिन वे ज्ञानाधिकारी है या नही इसके विषय में संदेह किया जो सकता है जब मंड़न मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को विव्दत्सभा में शास्त्रार्थ के लिए ललकारा तो आदि शंकराचार्य पीछे नही हटे . परन्तु आज यादि कोई जिज्ञासु भी प्रश्न पुछे तो उसे दरकिनार कर दिया जाएगा फिर शास्त्रार्थ के लिए तैयार होना तो दुर ही रहा.


इसलिए आदि शंकराचार्य की गद्दी पर जो भी बैठते हो, यदि उनका दावा है कि वे ज्ञान के अधिकार से वहाँ बैठे है - तो एक प्रश्न उनसे पुछना आवश्यक है । वह यह कि समाज पुरूष की प्रगति के लिए सबसे बाछनीय क्या है? धन धान्य का विस्तार या निरंकुश सत्ता का विस्तार या ज्ञान का विस्तार? यदि ज्ञान का विस्तार ही सबसे - अधिक वाछनीय है, तो किसी को अस्पृश्यता के नाम पर ज्ञान से वंचित रखना क्या उचित है ? यह भी उनसे पुछना चाहिए कि ज्ञानोपासना में श्रध्दा का क्या महत्व है ? (हालाँकि इसका उत्तर भगवद्गीता में है - जब श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि मेरे दर्शन के अधिकारी तुम ङुए हो वह तुम्हारे ज्ञान, दान, जप, तप की अपेक्षा तुम्हारी भक्ति के कारण हुए हो. ) यदि नही है तो स्वयं भी मंदिरो में जाना छोड़ दें - और यदि है तो किसी को श्रध्दास्थान में जाने से रोककर क्या ज्ञान का विस्तार हो सकता है ?

ज्ञान की बात मेंने इसलिए उठाई है के अस्पृश्यता सिध्दान्त को जब कभी बढाया दिया गया और दूसरी ओर से कबुल भी कर लिया गया - उस समय निश्चय ही उनके अज्ञान का लाभ उठाया गया और फिर लाभ कायम रखने के लिये उनके अज्ञान को पनपाया गया - यह कहकर कि वे ज्ञान के अधिकारी नही है. और खासकर आज के परिप्रेक्ष्य में जब हमारा समय अपने ही दायरे में सिमट कर छोटा होता जा रहा है और बिखर रहा है, और वही काम एक बार फिर करना आवश्यक हो गया है जो कभी आदि शंकराचार्य ने किया था - तो जाहिर है कि इस प्रश्न की जिम्मेदारी न केवल उनके उत्तराधिकारियों को ही निभानी है बल्कि उन सभी को जो इन शंकराचार्येकी भक्त मंड़ली में है. क्या वे निभायेगें इस जिम्मेदारी को?
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1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

मेरा यह विचार है की अव्दैतवाद और बौध्दधर्म के संतुलन से ईसका रास्ता निकाला जा सकता है।