रविवार, 21 अक्तूबर 2007

02 सावित्री के साथ समाज ने अन्याय किया है

सावित्री के साथ समाज ने अन्याय किया है
(इसे जनता की राय-- हिन्दी संग्रह 2-3 अंतर्गत हिन्दी संग्रह 2 भी पर देख सकते हैं)
-लीना मेहेंदले
सा. रविवार, मुंबई, १९९६

रूप कंवर सती हुई, और जाते-जाते इस देश की अंधविश्र्वासी जनता को और गहरे अंधविश्र्वास और गहरी रुढ़िवादिता के दौर में धकेल गयी जितने लोगों के मन में औरत की इस मजबुरी के विरुद्ध ज्वाला धधक उठी, उससे कहीं अधिक लोगों ने, अधिक तीव्रता से यह मान लिया कि नारी जीवन का आदर्श यही है,

जिसने यह आदर्श प्रस्तुत किया, वह 'देवी' हो गयी।
इस घटना के विभिन्न विवरण पढ़ने और सुनने के दौरान मैंने जाना कि अपना यह समाज न केवल वर्तमान महिलाओं पर अन्याय कर रहा है, बल्कि बीते हुए जमाने की एक ऐसी महान स्त्री पर भी अन्याय कर रहा है, जिसे न जाने कितने वर्षों से मैंने एक उच्चतम आदर्श के रूप में जाना है। वह स्त्री है, सावित्री, किसी समाज की अधोगति कि परिसीमा इससे अधिक क्या हो सकती है कि जो स्त्री शूरवीरता की प्रतीक है, चंडी से भी उग्र है, जेता है, मृत्युंजयी है, उसके नाम की दुहाई दे कर किसी स्त्री को दुर्बल-निरीह और मूक बलिदान के योग्य करार दिया जाता है।

सावित्री के चरित्र का कोई ऐसा पहलू नहीं था, जिसने मेरे किशोर मन को सम्मोहित न किया हो, एक बड़े साम्राज्य की राजकन्या, जो युद्ध कला और अश्र्व संचालन में निपुण थी। स्वयंवर तो तब भी हुआ करते थे और स्त्री को अपना पति चुनने का अधिकार भी था, पर सावित्री मातर इससे संतुष्ट नहीं थी, इच्छुक वरों को घर बुलाने के बजाय यह स्वयं अपने योग्य वर ढूंढ़ने निकल पड़ी, और ढूंढ़ लायी रिश्ता सत्यवान का, जो तब अत्यंत दरिद्र अवस्था में था और जिस पर अपने अंधे मां-बाप का बोझ भी था। क्यों? क्या इसलिए कि वह आत्मबलिदान का नमूना पेश करना चाहती थी? क्या वह लोगों को दिखाना चाहती थी कि कैसे वह सिर झुकाये और आंसू पीती हुई दरिद्रता में भी रह सकती है? जी नहीं! उसमी सत्यवादिता, शौर्य, धीरज और कष्ट सह कर भी पराजित न होने की क्षमता-ये सारे गुण देख कर सावित्री ने उसे अपना पति चुना।
जब वह वापस अपने पिता के पास आयी और सत्यवान से ब्याह करने का अपना निश्चय बताया, तो खलवली मच गयी, क्योंकि ज्योतिषियों की ज्योतिष विद्या के मुताबिक सत्यान को एक वर्ष के अंतराल में ही मृत्युयोग था।

अंधश्रद्धा उन्मूलन आंदोलन के कार्यकर्ताओ ने आज तक क्यों ध्यान नहीं दिया कि सावित्री ने उन ज्योतिषियों को चुनौती दी थी। उसने पूछा'क्या मेरी कुंडली में आपको वैधव्य योग नजर आता है?' 'नहीं !' 'फिर तो मैं' निश्चय ही यह विवाह करूंगी। आप जोड़ -घाटे का हिसाब लगाते रहिए कि मेरी कुंडली का फल मिलनेवाला है या सत्यवान की।'
ऐसी सावित्री, जो साधारण व्यवहार में अपने पिता और गुरुजनों कि प्रति संयम और आदर भाव बरतती थी। लेकिन जरूरत पड़ने पर उन्हें चुनौति देने से भी बाज नहीं आयी, यही उसका रूप उसके चरित्र में आगे भी दिखाई पड़ता है।

विवाह के बाद पिता ने प्रस्ताव रखा कि सावित्री और सत्यवान वहीं रहे, तो उन्हें सारी सुख-सुविधाएं मिल सकती है, पर सावित्री ने इसे कबूल नहीं किया। यदि यह सत्यवान के इसी गुण पर आकर्षित हुई हो कि राजपुत्र होते हुए भी वह कष्ट सहने से और दरिद्र रहने से नहीं डरता है, तो क्यों वह सत्यवान से उस गुण को तिलांजलि देने को कहे-क्यों न स्वयं उस गुण को अपनाने का प्रयत्न करे? और राजप्रासाद से उठ कर सावित्री आ गयी एक झोंपड़ी में रहने के लिए, और सहज भाव से रहने लगी, पर एक सामान्य गृहिणी कि तरह नहीं- वह सत्यवान के साथ उसके काम में हाथ बंटाने जंगलों में भी जा सकती थी- सारे कष्टों को दोनों एक साथ बांट सकते थे-और मुझे पूरा विश्र्वास है कि उनके जीवन में कष्ट के क्षण कम और आनंद के क्षण निश्चय ही कई गुने अधिक रहे होंगे।
और फिर वह दिन आया, जव सत्यवान की आत्मा को देह से छुड़ा कर ले जाने के लिए यमराज पधारे, हम सब जो मृत्यु से डरते है, मृत्यु को कल्पन मात्र से मुंह मोड़ लेगे आंखे बंद कर लेगे, लेकिन उसमें मृत्यु से आंखे मिलाने की हिम्मत थी, स्वयं यमराज ने उसकी प्रशंसा की, 'तू मुझसे डरती नहीं, इसलिए मुझे देख सहती है- और मुझे बाध्य कर सकती है कि यदि तू चाहती है, तो मैं तुझसे बात करूं।'

पलटिए अपने सारे धर्मग्रंथों को और दिखाइए निडरता का ऐसा दूसरा उदाहरण!

और केवल निडरता ही नहीं, आशंका से भरे उस वातावरण में भी सावित्री का मन अडोल था और बुद्धि सजग थी, यहां सावित्री की युद्ध कुशलता का कोई काम नहीं था, उसकी बुद्धि का टकराव था एक देवता से, अपनी बुद्धि और तर्क शक्ति बल पर उसने यमराज को पराजित कर दिया।

इस उपलब्धि का आनंद क्या रहा होगा ? मैंने बार-बार अपने से यह प्रश्न पूछा है, क्या हममें से कोई उस आनंद को दूर से भी छू सकता है?
वह विजयिनी, गर्व से सिर ऊंचा करके आयी होगी, उसी का नाम ले कर हम एक स्त्री को सिर झुकाने के लिए बाध्य कर देते हैं, जिसने मृत्यु को जीता, उसका नाम ले कर हम एक स्त्री को दयनीय और विनीत हो मृत्यु की शरण जाने को कहते हैं, सती का अर्थ होता है, वह सत्री जिसमें सत्य है, सत्य है और स्वत्व है, जिसमें ये गुण हों, वह मृत्यु पर विजय पाने की अधिकारिणी है, वही विशेषण हम लगाते हैं, 'एक ऐसी स्त्री के लिए जिसे समाज ने कुचल दिया और जो उस समाज से लड़ न सकी।'

मैंने सुना कि राजस्थान में जगह-जगह सती सावित्री के मंदिर हैं, यदि हैं, तो मंदिर में जानेवाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपने आप में पूछना पड़ेगा। क्या वह उस मंदिर में जाने का अधिकारी है।

2 टिप्‍पणियां:

इरफ़ान ने कहा…

आपको ब्लॉगजगत में पाकर प्रसन्नता हुई. सावित्री के संबंध में आपके प्रश्न सामयिक और गंभीर हैं.
आशा है आप अपने प्रिय विषय गणित के कुछ रोचक प्रश्न भी यहां रखेंगी.
इरफ़ान
http://www.tooteehueebikhreehuee.blogspot.com

लीना मेहेंदळे ने कहा…

sorry for eng as my comp presently has no hindi.
How do you know about GANIT being my favorite?
You can see and let me know about my page "Table of Nine" posted on other blog named
books, websites and films by leena mehendale