बुधवार, 14 जुलाई 2010

16 धुन की पक्की महिलाएँ

धुन की पक्की महिलाएँ
- लीना मेहेंदले

कवि प्रदीप ने तुफान से लड़नेवाले एक दिये का वर्णन यों किया था - अपनी धुन में मगन, उसकी लौ में अगन, उसके मन में लगन भगवान की, ये कहानी है दिये की और तुफान की---

पिछले पचास वर्षों में अर्थात स्वतन्त्रता प्राप्त्िा के बाद से बीसवीं सदी के अंत तक हमारे देश की जिन महिलाओं पर यह वर्णन लागू होता है - उन पर एक नजर डालना बड़ा ही महत्वपूर्ण है क्योंकि मैं मानती हूँ कि इन पचास वर्षों में महिलाओं ने जो सहा, जो लड़ाईयाँ लड़ाईंयाँ लड़ी, जो उपलब्धियां पाई, जिस धुन से और जिस गहराई से जिंदगी को जिया, समाज को जो आदर्श दिये वह सारी बातें अगले पचास या सौ वर्षों के समाज को प्रेरणा देंगी और हमारे देश की प्रगति की दिशा को तय करेंगी।

ऐसी धुनवाली महिलाओं में मैं जिनकी गिनती कर सकूँ उनमें सर्वप्रथम हैं श्रीमती इंदिरा गांधी। उनके अलावा लता और आशा मंगेशकर बहनें, अमृता प्रीतम, निरजा भानोत, ऍना मलहोत्रा, पी. टी. उषा, किरण बेदी, मेघा पाटकर, भवरी देवी, सुधा चंद्रन, मदर तेरेसा आदि कई नाम दिमाग में कौंध जाते हैं। एक अलग सदंर्भ से जयललिता, मायादेवी और फूलनदेवी के नाम भी गिनाए जा सकते हैं। इनमें से हर किसी की कोई बड़ी उपलब्धि है जिसे पाने के लिये उन्हें समाज का रोष सहना पड़ा। स्त्रियों को हर मोड़ पर बेड़ियों में जकड़ने वाले समाज की कुप्रथाओं और दकियानूसी बरताव के खिलाफ अपना साहस जुटाना पड़ा। इन सबके अंदर जो समान गुण मैंने महसूस किया वह था उनकी अन्दरूनी ताकत, उनका सत जिसके बलपर उनकी लड़ाईयाँ सफल हुईं।

श्रीमति इंदिरा गांधी करीब सोलह साल इस विशाल देश की प्रधान मंत्री रहीं। पूरी दूनियाँ में गिनी चुनी ही महिलाऐं होंगी जिन्हें यह उपलब्धि मिल पाई हो। मैं नहीं मानती कि केवल पंडित नेहरू की बेटी होने के नाते ही उन्हें यह पद मिला। स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान, उसी माहौल में उनकी परवरिश हुई और बाद में घर के राजकीय वातावरण में भी वे बहुत कुछ सीखती रहीं। प्रधान मंत्री का पद संभालने पर इस शिक्षा - दीक्षा का लाभ उन्हें अवश्य मिला। कभी उन्होंने कई साहसी निर्णय किये तो कभी तिकड़मबाजी वाले। कभी कोई निर्णय सही निकले तो कोई गलत। पर दो बड़े साहसी और महत्वपूर्ण निर्णय यादगार बने रहेंगे। बंगला देश की लड़ाई में मुजीबुरर्रहमान का साथ देकर उन्होंने भारत के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अमरीकी जलपोतों के पहले ही अपनी नौसेना को बंगाल के उपसागर में उतारकर उन्होंने जिस रणनीति और सूझबूझ का परिचय दिया उससे पूरी दूनिया में देश की धाक जम गई और इसी के बल पर बांगला देश में भारतीय सेना विजयी हुई।

उनका दूसरा महत्वपूर्ण कार्यक्रम था परिवार नियोजन। १९५० की तुलना में आज हमारी लोकसंख्या ३० करोड़ बढ़कर सौ करोड़ के पास पहुँच गई है और प्रति तीन सेंकद में एक दर से बढ़ रही है। इसकी रोकथाम के लिये भी दृढ़ता से कदम उठाना १९७८ के बाद से किसी के लिये संभव नहीं हुआ - खुद उनके लिए भी नहीं। इस हतोस्ताहिता के दुष्परिणाम आज हम देख रहे हैं लेकिन १९७८ के पहले उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर परिवार नियोजन को बढ़ावा दिया। उनके कार्यक्रम में कृषि, अणुविज्ञान और अवकाश विज्ञान के क्षेत्र में देश को अच्छी सफलता मिली। हरित क्रांति के अंतर्गत अनाज की नई फसलोंपर शोध हुआ जिससे देशपर आया अन्न संकट टला.

अमृता प्रीतम मेरी प्रिय लेखिका रही हैं। सच्चाईपर इनके उपन्यासों में बहुत बल दिया है, और पात्रों में सच्चाई इसलिये है कि  वह इनके नायक और नायिका की सहज प्रवृत्ति है इसलिए उनके पात्रों के सामाजिक संदर्भ भी वर्तमानकाल से बहुत कुछ आगे का सोचनेवाले होते हैं। यही बात और प्रखरता से पढ़ने को मिली आशा पूर्णा देवी के लेखन में। उनका कथाबीज भी मुख्य रूप से यही है कि जीवन में दुख नहीं बल्कि सुख शाश्र्वत है और मनुष्य यदि थोड़ी भी बुद्धि और नैतिक गुण दिखा पायें तो वह सुख का भागी हो सकता है।

अग्रगण्य महिला लेखिकाओं में दुर्गाबाई भागवत एक ऐसी लेखिका है जो कथा उपन्यास कम और चिन्तनात्मक लेखन अधिक लिखती हैं। मैं इन्हें एक बड़ी हीरो मानती हूँ। हम सभी कहते हैं कि साहित्यिक के पास विचार का शस्त्र होता है इसलिये अन्याय विरूद्ध आवाज उठाने में पहला कदम उसका हो। साहित्यिक स्वाभीमानी हो, किसी के सामने लाचार न हो -- वह किसी से नहीं डरे यहाँ तक कि निरंकुश सत्ताधारी से भी नहीं इमर्जेन्सी के काल में जब देश के बड़े छोटे सभी साहित्यिक - चुप्पी साधकर बैठे रहे तो श्रीमती दुर्गाबाई भागवत ने इसके विरूद्ध जमकर आवाज उठाई, भाषण दिये, लेख लिखे और बदले में कारावास भी भुगता। देश की लोकाशाही में पहली मिसाल थी कि सत्ताधारी के अन्याय के प्रति एक ज्येष्ठ साहित्यिक अपनी आवाज बुलंद करें - वह भी किसी वैयक्तिक लाभ के लिये नहीं बल्कि इस भावना से कि अन्याय के विरूद्ध बोलपाना ही विचारवंतो की असली पहचान है। दुर्गाबाई उनके साहित्य से भी अधिक आदरणीय हैं क्योंकि उन्होंने अपना साहित्य केवल लिखा नहीं बल्कि जिया भी है।

लता और आशा ने फिल्मसंगीत बहुलता से गाया। संगीत की परंपरा में दूसरा मनमोहक पहलू है शास्त्रीय संगीत का जो कड़ी मेहनत के बाद ही सिद्ध होता है और तभी लुभा पाता है। ऐसी सिद्ध गायिकाओं में मेरी पंसदी की चार गायिकाएँ हैं - श्रीमती सुब्बलक्ष्मी, हिराबाई बडोदेकर, किशोरी अमोणकर और परवीन सुलताना।
संगीत गाना और संगीत की रचना करना दो नितांत भिन्न कलाएँ हैं। संगीत रचना में गायन के अलावा व्यवस्थापन कौशल्य भी चाहिये और रचना को मोहक बना पाने की क्षमता भी। ऐसे बहु आयामी व्यवसाय में जो एकमात्र में जो एकमात्र महिला संगीतकार यशस्वी हुई वे है श्रीमती उषा खन्ना जिनकी बनाई कई मीठी धुने - आज भी गुनगुनाई जाती हैं।

एक दूसरी उषा है - खेल क्षेत्र में। ऑलिम्पिक में नहीं तो एशियाड ही में सही - लेकिन सुर्वणकन्या पी. टी. उषा के नाम का एक ही पन्ना भारत के खेल जगत में महिलाओं के नाम है। लेकिन इसके साथ ही भारतीय महिला तैराकों में जिनकी उपलब्धि मैं महत्वपूर्ण मानती हूँ वे हैं आरती सहा (फ्रान्सिकी खाडीको सर्व प्रथम तैरनेवाली भारतीय महिला) और अनीता सूद।

इसके विपरित सिने कलाकारों में चमक दमक वाले कई नाम गिनायें जा सकते हैं क्योंकि उनके व्यवसाय का आंरभ का आंरभ ही चमकीली रोशनी में होता है। मैं इस क्षेत्र में विशेष जानकर नहीं लेकिन अपनी पसंद के नाम गिनाने हों तो मैं मीनाकुमारी, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी और स्मिता पाटील के नाम गिनाउँगी।

दूसरों की लड़ाई लड़ने वाली एक और महिला हैं मेधा पाटकर। जिन आदिवासी जनों की कोई सुनवाई नही है उनके दुख दर्द को वाचा और भाषा दी है मेधा पाटकर के प्रयत्नों ने। स्वतन्त्रता के बाद यह दुविधा कई बार उठी है कि क्या अपनी ही लोकशाही सरकार से अपनी ही माँग के लिये जूझना पड़ेगा? इस दुविधा में यह तय कर पाना कभी कभी मुश्किल हो जाता है कि कौन सा विचार सही है और कौन सा गलत। ऐसे समय अपनी विवेक बुद्धि जो राह दिखाये उसी को मानकर अपने विचारों की लड़ाई लड़ने के लिये, वह भी अथक रूप से वर्षों तक लड़ने के लिये एक अनन्य साहस और स्टेमिना की जरूरत है जो मेधा पाटकर ने दिखा दिया है। उसके हर प्रस्ताव को गलत करार देने वाले सरकारी अफसर भी आज मानते हैं कि यदि मेधा न होती तो आज आदिवासियों के उचित पुर्नवास के के भी प्रयास किये जा रहें हैं वो शायद नहीं किये जाते। मेधा पाटकर को नोबुल जैसे ही अन्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं स्वयं वर्ल्ड बैंक ने पुनर्वास के सारे दकियानूसी नियम और तरीके बदल कर अच्छे पुनर्वास की दिशा में कदम उठाने को कहा।नतीजा यह रहा कि १९६० से लेकर जितने पुराने बांधों के दौरान पुनर्वास ठीक ढंग से नहीं हुआ है उनकी फिर से जाँच की जा रही है।
सफल लड़ाई लड़ने वालों में एक नाम मेरे सामने और है - जो सुधा चन्द्रन का है। इसकी लड़ाई थी अपने ही नसीब के साथ। सुधा भले ही भरत नाटयम में पहले नंबर पर ना हो, लेकिन उसका नंबर बहुत नीचे भी नहीं है। लेकिन अँक्सीडेंट में घुटने तक पांव कट जाने के बाद जयपुर फुट बैठाकर, उसी निर्जिव रबर के पैर के साथ अपनी प्रैक्टीस चालू रख कर दुबारा नृत्य में प्रवीणता पानेवाली उसकी धुन को देखकर खुद नसीब ने ही उसे अदाब बजाए होंगे।

पिछले पचास वर्षों में पढ़ाई - लिखाई का प्रसार जैसे बढ़ा तो महिलाएँ नौकरी में आना आरंभ हो गईं। IAS, IPS   और न्याय संस्थाओं में भी उच्च पदों पर महिलाएँ आती रहीं हैं। IAS का आंरभ १९४७ से हुआ। पहली महिला IAS श्रीमती ऍना मलहोत्रा १९४७ में तमिलनाडू में आईं। ये अपने प्रशासकीय कुशलता और ईमानदारी के लिये काफी विख्यात हुईं। देश की पहली महिला चीफ सेक्रेटरी रहीं श्रीमती द्विवेदी, पहले मेघालय में और फिर आसम में। दूसरी महिला चीफ सेक्रेटरी रहीं मध्य प्रदेश में श्रीमति निर्मला बुच। इनके नाम तो जनता के सामने आ गये लेकिन काम नहीं क्योंकि प्रशासन का जो रूप हमने स्वीकार किया उसमें प्रशासकों के लिये पहली शर्त यह है कि प्रसिद्धि से दूर रहें, उनके काम में भी उनकी अनामिकता को आवश्यक माना जाता है। उनके अच्छे काम की निजी तौर पर जानकारी केवल उनके सन्निकट वरिष्ठ अफसर को ही मालूम हो सकती है। उसने महत्व जाना ते ठीक वरना नहीं। इससे देश में एक घाटा यह रहता है कि समाज या जनता अच्छे काम करनेवाले प्रशासक के विषय में कुछ अधिक नहीं जान पाती। पिछले तीस वर्षों में IAS में आये अधिकारियों की संख्या ४००० से कम है जिसमें महिलाओं की संख्या ४०० से कम है। १९७० पहले रहेक राज्य में एक या दो ही महिला IAS थीं और कुल बीस पच्चीस रही होंगी जो अब एक एक करके रिटायर हो जायेंगी।उनकी कार्य प्रणाली के विषय में कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं - महिला होने के कारण उन्हें क्या दिक्कत हुई, क्या उनके वरिष्ठों ने उनके काम का मजाक उड़ाया या अच्छे काम की यथोचित प्रंशसा की? वे जहाँ गईं वहाँ क्या कुछ नया कर दिखा पाना सभंव हुआ? किस तरह ये संभव हुआ? यदि कोई अच्छा लेखक एक मुहिम बनाकर पहले बीस वर्षों की महिला IAS अधिकारियों का इंटरव्यू करें और किताब लिखें तभी यह सारी सामाजिक एवं प्रशासनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जानकारी अगली पीढ़ीयों को उपलब्ध होगी वरना बड़ी जल्दी ही समय के परदे के पीछे चली जायेगी।

---- कभी क्रूरकर्मा भी हो सकता है। इसके विपरित न्याय देने के लिये, राजकाज चलाने के लिये और विकास कर पाने के लिये सुमति, कर्तव्यदक्षता, न्यायबुद्धि और प्रशासकीय कुशलता भी चाहिये। फूलनदेवी के लोकसभा में आ जाने से यह चर्चा भी योग्य परिप्रेक्ष्य में आगे चल पाये तो यह भी क्या बुरा है?
इन महिलाओं के अलावा अन्य कई क्षेत्रों में भी महिलाओं की उपलब्धि है। वह छोटी ही सही पर अपने आप में महत्वपूर्ण, एक मिसाल कायम करने वाली और अगली कई स्त्रियों की राह को सरल करने वाली उपलब्धियाँ हैं। जहाँ कहीं किसी महिला ने पहल की, समझ लीजिये कि उसने अपने पीछे सौ महिलाआं का रास्ता आसान कर दिया। इस प्रकार पहल करने वाली महिलाओं में पहली महिला वैज्ञानिक सौदामिनी देशमुख हैं, पहली रेलवे ड्राइवर हैं, पहली ट्रक ड्राइवर हैं, नौसेना की महिला कँडेट अफसरों की एक पूरी टुकड़ी है या फिर कई राज्यों में पूरी की पूरी महिला  टुकड़ी है। इनके संघर्ष और सफलता को कलमबद्ध करना समाज की अगली पीढ़ीयों के लिये हमेशा मार्गदर्शक होता है। इसी प्रकार मुस्लिम समाज में छोटे ही स्तर पर सामाजिक जाग्रति का बढ़ा काम करनेवाली रजिया पटेल और छोटी ही बात पर पूरे मुस्लिम समाज को झिंझोड़ देनेवाली शहनाज बानो का नाम गिनाना भी आवश्यक है। जब किसी समाज को इस प्रकार झिंझोड़ा जाता है तभी उसकी उन्नति का रास्ता बनता है।

जाते जाते दो नितांत अलग बातें मैं कहना चाहूँगी। यदि झिंझोड़ने से ही समाज के विकास का रास्ता बनता है, तो फिर भारतीय न होते हुए भी पर अपने बहुत ही करीबी देश की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का नाम भी इसी लेख में रखना उचित होगा। मुस्लिम समाज के पिछड़े रहने में सबसे बड़ा कारण है मुस्लिम स्त्र्िायों में शिक्षा का अभाव और हर मोड़ पर स्त्री के लिये सैंकड़ों रूकावटे खड़ा करने वाला मुस्लिम समाज। हिन्दू साज में स्त्र्िायों का स्तर उंचा उठाने के लिये और स्त्रियों को शिक्षा दिलाने के लिये राजा राममोहन रॉय, महात्मा फुले, महर्षि कर्वे, पंडिता रमाबाई, लाला लाजपतराय जैसे सुधारक भी आगे आये और स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ने वाली स्त्री क्रांतिकारियों का भी इसमें बड़ा हिस्सा रहा। मुस्लिम स्त्री अगर अपने धर्म के परिवेश में ही विकास की मिसाल खोजना चाहो तो दूर से देखने के लिये ही सही लेकिन बेनजीर भुट्टो हैं तो जरूर इसीलिये उना प्रधानमंत्री बनना मैं इस अर्ध सदी की एक अच्छी उपलब्धि मानती हूँ।

दूसरी बात एक कमजोर पक्ष की है। आज यद्यपि भारतीय महिला ने लेखिका, नायिका, राजकीय नेतृत्व, साहसी नारी के क्षेत्र में सफलता पाई है पर फिर भी जहाँ व्यवस्थापन कुशलता और चिन्तन दोनों आवश्यक हैं ऐसे कई क्षेत्रों में भारतीय महिला काफी पीछे है। हमारे देश में जागतिक किर्ति पाने वाली उद्योगपति, सेनाधिपति, समग्र प्रशासक, दार्शनिक अर्थशास्त्री, पत्रकार, समाजशास्त्री बँकर या वैज्ञानिक महिलाएँ नहीं बनी हैं- अपवाद हैं केवल श्रीमति रोमिला थापर जो जागतिक किर्ती की इतिहासकार हैं। अब क्या हम उम्मीद रखें कि अगले पचास वर्षों में इन अछूते क्षेत्रों में भी जागतिक स्तर की महिलाएँ हमारे समाज में पैदा होंगी।

-लीना मेहेंदले
सेटलमेंट कमिश्नर महाराष्ट्र
(तथा  कुलगुरु, नाशिक मुक्त विद्यापीठ)

लीना मेहेंदले,
५०, लोकमान्य कॉलनी,
पौड रोड़, कोथरूड,
पुणे - ४९९००३८

1 टिप्पणी:

Sunil Kumar ने कहा…

अच्छा लगा ज्ञान वर्धक लेख अच्छा लगा