मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

21 दिल्ली में महिला सुरक्षा--पूरा है

दिल्ली में महिला सुरक्षा
-- लीना मेहेंदले

पिछले एक महीने में दिल्ली शर्म में डूबी हुई है। बलात्कार की घटनाओं से सहम जाना, उनकी निंदा करना आदि अपनी जगहों पर हैं। लेकिन जब महिला विरोधी अपराधियों के हाथ विदेशी दूतावास की महिलाओं तक पहुँचते हैं तो पूरे राष्ट्र को शर्म में डूब जाना पड़ता है। राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के सुरक्षाकर्मियों द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार की शर्म से दिल्लीवासी अभी उभरे भी नहीं थे कि संसार भर के दूसरे देशों के आगे भी शर्म उठानी पडी। फिर एक बार जोर शोर से चर्चा हुई कि दिल्ली कितनी सुरक्षित है। कई अखबारों ने छापना आरंभ कर दिया कि यह शहर महिलाओं के लिये सुरक्षित नही है। इसी विषय को सिद्ध करने के लिए कई चर्चाएँ आयोजित हुईं।
लेकिन अभी तक किसी ने ऐसी चर्चा नही आयोजित की कि दिल्ली में महिलाएँ किस प्रकार सुरक्षित रह सकती हैं और न यही चर्चा सुनने में आई कि दिल्ली को महिलाओं के लिये सुरक्षित कैसे बनाया जाय। गौर से देखें तो ये दोनों प्रश्न अलग अलग हैं। महिलाएँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? कइयों की मान्यता है कि यह प्रश्न बड़ा आसान है। इसका उत्तर बड़ा सीधा सादा और जाना माना है। महिलाओं को सुरक्षित रखना है, उन्हें बलात्कार की जघन्यता से बचाना है, तो उन्हें घर के अंदर रखो- बाहर मत निकलने दो।
कितना सरल, सुंदर, सुलभ उपाय है! औरत घर के अंदर कितनी अच्छी लगती है- कितनी सुरक्षित रहती है। उनसे सड़क पर, काम के लिए, अकेले, मत निकलने दो- खासकर शाम के बाद तो बिल्कुल ही नही। क्या जरूरत है औरतों से बाहरी काम करवाने की। वे घर के अंदर रहें, घर के कामकाज को देखें। गृहलक्ष्मी ही रहें।
लेकिन क्या घर के अंदर वे पूरी सुरक्षित हैं? शायद नहीं- आजकल रिश्तेदारों द्वारा बलात्कार की घटनाएँ भी तेजी से सामने आ रही हैं। तो अब क्या किया जाए? इसका भी सरल एवं सुंदर उत्तर है। उन्हें बाहरी कमरों में मत आने दो। रसोईघर एवं शयनघर के आगे मत आने दो। उन्हें पडदे, घूंघट या बुरके में रखो। ताकि घर के अंदर भी वे आदमियों के सामने न पडें। औरत को असूर्यम्पश्या होना चाहिए- वह जिसे सूरज ने भी न देखा हो। वह उजाले में कभी नही आएगी तो यह खतरा कम हो जायगा कि कोई उसे देखेगा और उसे अपनी हवस का शिकार बनाएगा। औरत की जगह मुकर्रर कर दो- घर के किसी अंदरूनी कमरे के एक अंधेरे कोने में- फिर वे सुरक्षित रहेगी।
लेकिन क्या फिर भी वह पूरी तरह सुरक्षित रहेगी? शायद नही। आखिर अंदरूनी कमरे के अंधेरे कोने में भी कोई न कोई उसे देख ही लेगा- उस पर बलात्कार कर ही लेगा। इससे भी सुरक्षित जगह चाहिए।
और ऐसी जगह है भी। अति सुरक्षित जगह। जहाँ मौत के आने तक हर औरत अत्यंत सुरक्षित रह सकती है। वह जगह है गर्भ के अन्दर। वहाँ बलात्कार का कोई डर नही है। औरत को वहीं रहने दो- वहीं मरने दो। वहाँ से बाहर मत निकलने दो। निकलने के दिन पूरे हों, इससे पहले उसकी मौत का इंतजाम कर दो। भला हो डॉक्टर कम्यूनिटी का। कानून-व्यवस्था की रक्षा में उनका कितना बड़ा योगदान हो सकता है। कर दें वे स्त्री-भ्रूण हत्या। न होगी औरत, न होंगे बलात्कार। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
यह सब पढ़कर क्या ऐसा नही लगता कि यह गलत निष्कर्ष है और इसके पीछे जरूर कोई गलती हुई है। जी हाँ। इसीलिए वह दूसरा प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि दिल्ली को किस तरह महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जा सकता है। सो सवाल है दिल्ली को सुधारने का न कि महिलाओं को घर के अंदर बंद रखने का। सवाल है दिल्ली को अधिक सौहार्दपूर्ण बनाने का और साथ ही अपराधियों को तत्परता से पकड़ने और दंड देने का। आज की दिल्ली औरतों के घूमने-फिरने या घर से बाहर निकलने के लिए माकूल ढंग से नही बनी है।
हम साऊथ दिल्ली को ही लें। यह एक खूबसूरती से प्लान किया हुआ इलाका है जिसमें चौडी सडकें हैं, पार्क हैं, शिक्षा-संस्थाएँ हैं, फ्लाई ओवर हैं। इसी इलाके में सरकारी दफ्तर हैं- ढेर सारे दफ्तर- बड़े-बड़े ओहदों वाले दफ्तर- जिनमें राष्ट्रपति भवन, नार्थ व साऊथ ब्लाक, तमाम मंत्रालय, विदेशी दूतावास, राज्यों के निवास इत्यादि भी हैं। इन सब की सुंदरता बनाए रखने के लिए यह खास ध्यान दिया गया है कि यहाँ रहाइशी इलाकें अधिक न हों। लोक संख्या कम हो। चीजें बेचने वालों की भीड़ न हो। और





उससे भी बड़ी बात यह कि हर घर, हर बिल्डिंग एक लम्बे चौड़े क्षेत्र में बनाई जाए जहाँ उसकी विशालता और विस्तार भी उसकी खूबसूरती का एक अंग हो।
एक आर्किटेक्ट की निगेहवानी से यह सब कुछ बिल्कुल सही है। लेकिन यही बातें हैं जो असामाजिक तत्वों का काम आसान कर देती हैं।
आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि दिल्ली को घूमने फिरने के योग्य बनाया जाय और औरतें भी घर से बाहर निकलकर बड़ी तादाद में घूमें। पैदल चलने को और साइकलिंग को बढावा दिया जाय।
पुणे या बैंगलोर शहर में कई अकेली औरतें घूमने निकल जाती हैं- किसी भी सड़क पर केवल घूमने के शौक से निकली औरतें देखी जा सकती हैं। कई परिवार और यार-दोस्तों की टोलियाँ घूमती हुई देखी जा सकती हैं। लेकिन दिल्ली में ऐसा नही दीखता। यदि दिल्ली की कॉलनीज में रहने वाले लोग एक अभियान के तौर पर अपने अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ सुबह-शाम पैदल या साइकिल पर घूमने लगें तो कैसा हो?
मुझे लगता है कि यदि दिल्ली को महिलाओं के प्रति सुरक्षित बनाना है तो चार पांच काम किए जाने चाहिए। सड़कों व पार्कों में अधिक से अधिक लोग घूमने निकलें- इसे बढावा दिया जाय। प्रभात फेरियाँ भी निकाली जा सकती हैं। दिल्ली में अच्छी साइकिलिंग का इन्तजाम किया जाय और इसे बढावा दिया जाय। महिलाओं के प्रति अपराधों को, खासकर छेड़खनी के मामलों को तत्काल दंड दिया जाय। इसके लिए मौके पर ही जुर्माने के अधिकार पुलिस को दिए जाएं। खासतौर से अभियान चलाया जाय ताकि सार्वजनिक वाहनों में होने वाले छेड़छाड़ के अपराधों को तत्काल दंडित किया जा सके। बलात्कार के अपराधी ऐसे ही नही बन जाते। अक्सर वे शुरूआत छेड़खानी से करते हैं। कई छेड़खानियाँ करने के बाद भी जब वे दंडित नही होते तो धीरे धीरे उन्हें शह मिलती जाती है और वे बड़ा अपराध करने का दुःसाहस धारण करने लगते हैं।
देशभर की पुलिस से नॅशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो ने जो आँकडे इकट्ठे किये वे बताते हैं कि सन् २००१ में दिल्ली में बलात्कार की ३८१ घटनाएँ दर्ज हुईं, किडनॅपिंग की १६२७ जबकि लैंगिक छेड़छाड़ की घटनाएँ केवल ५०२ दर्ज हुईं। ये आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली में छेड़छाड़ की घटनाओं को न ही गंभीरता से लिया जाता है और न दर्ज कराया जाता है। जब कि पूरे देश में छेड़छाड़ की करीब पैंतीस हजार घटनाएँ दर्ज हुईं- यानी दिल्ली से सत्तर गुनी अधिक, बलात्कार के अपराध में सोलह हजार यानी दिल्ली से चालीस गुनी अधिक घटनाएँ दर्ज हुईं। अतः आवश्यक है कि छेड़छाड़ की घटनाओं को हम प्रभावी ढंग से दर्ज करायें और तत्काल दंडित भी करें। यही नही, छेड़छाड़ की घटना का विरोध करने वालों की यथोचित सराहना भी होनी चाहिए।
कार से चलने वालों की सुविधा ध्यान में रखते हुए दिल्ली की सड़कों पर जगह जगह उंचे उंचे रोड डिवायडर लगा दिए गए हैं। अर्थात यदि मैं किसी रास्ते से गुजरते हुए देख भी लूँ कि परली तरफ से चलने वाली किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार हो रहा है, तब भी मैं शीघ्रता से वहाँ पहुँचकर अपराध को रोकने का कोई उपाय नही कर सकती। दिल्ली के आर्किटेक्चर की प्लानिंग में यह भी एक बड़ी कमी है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नही है।
यह भी जरूरी है कि जहाँ कहीं संगठन हैं, वहाँ उनके बड़े अधिकारी ज्यूनियर्स के कार्यकलापों का ध्यान रखें। राष्ट्रपति भवन के सुरक्षा कर्मी- या होमगार्ड के जवान या पुलिसकर्मी- जब बलात्कार जैसे मामलों में दोषी पाए जाते हैं तो पूछा जाना चाहिए कि उनके सिनियर्स क्या कर रहे थे। कई वरिष्ठ अधिकारियों का अपना वैल्यू सिस्टम ही ऐसा होता है जिससे उनके ज्यूनियर्स को जाने अनजाने लगने लगता है कि महिलाओं से दुर्व्यवहार करना ही मर्दानगी है। इस मानसिकता को बदलने के लिए सरकार को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। यदि पुलिस में अधिक संख्या में महिलाएँ आने लगें और हर स्तर पर आने लगें तो यह मानसिकता थोड़ी बदल सकती है।
महीने पहले हुई घटना के बाद भी बलात्कार और दुर्व्यवहार के अपराध थमे नही हैं। पुलिस उलझ कर रह गई है चुनावी इन्तजाम में। नेताओं के भाषण, पदयात्रा, रैलियाँ, जनसभाएँ जोरों पर हैं। किसी नेता या पार्टी ने अपने अजेंडे में नही कहा है कि दिल्ली को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने का कोई सोच उनके दिमाग में है। क्या दिल्ली की महिलाएँ अपने अमूल्य बोट का धौंस जमाकर उन्हें इसके लिए घेर सकती हैं?
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