मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

15 हवाला घपले के मुद्दे --पूरा है

हवाला घपले के मुद्दे -- २
भ्रष्टाचार और घोटाले की रो.ज नई नई कहानी सामने आ रही है । जनता इन कहानियों से सिर्फ परेशान ही नहीं है, बल्कि यह सोचने लगी है कि यह सब कैसे और क्यों होता है तथा इससे निजात पाने का कोई उपाय है या नहीं। लेखक ने उन कारणों पर विस्तार से विचार किया है जिनकी वजह से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना मुश्किल होता है । सबसे बड़ी बाधा यह है कि किसी आरोप को अदालत में साबित कैसे किया जाए । --संपादक
- लीना मेहेंदले -

आज यदि जनता सोचती है कि सी. बी. आई. किसी बड़े व्यक्ति की पूरी जाँच नहीं करती तो फिर इसकी मांग भी जनता को ही करनी पड़ेगी और यह भी संहिता बनानी होगी कि जाँच की लेखाजोखा जल्दी से जल्दी और लगातार जनता के सामने आता रहे । इस जाँच को बलात्कार के समकक्ष नहीं माना जाना चाहिए और इसमें गुप्त रूप से सुनवाई की कोई गुजाइश नहीं होनी चाहिए । इसके लिए यह भी आवश्यक है कि जाँच करने वाली एजेंसी मल्टी-डिसिप्लिनरी हो । आज हालत यह है कि बाहरी आदमी चाहे लाख सिर पटक ले लेकिन जाँच पड़ताल का हक केवल पुलिस विभाग को और इस विभाग की वर्दी की सख्ती इतनी अधिक है कि कई बार अच्छे-अच्छे और ईमानदार पुलिस अफसर छटपटाकर रह जाते हैं और गुनहगारों के विरूद्ध जाँच का काम उन्हें रोक देना पड़ता है ।

बजट और घपला
हमारे आई. पी. सी. और सी. आर. पी. सी. में आर्थिक गुनाहों के संदर्भ में जो भी प्रणाली है वह बड़ी ढीली ढाली है । सोचने की बात है कि जिस देश का बजट ४०,००० करोड़ रूपए का है और जहाँ घपले भी उसी अनुपात में होते है यानी ३५०० करोड़ का घपला, १००० करोड़ का घपला आदि, जहाँ एक घपले का बजट हमारे राष्ट्रीय बजट, जितना बड़ा होता है वहाँ भी हम आर्थिक दुर्व्यवहार और घपले के गुनहगारों को ऐसी ही सजा दे सकते हैं जो नहीं के बराबर हैं । घर में सेंध लगाकर ट्रांजिस्टर सैट चुराने की सजा अधिक है और देश के लाखों रुपये का इनकम टैक्स डकार जाने की सजा उससे कम है । उस पर तुर्रा यह कि आर्थिक दुर्व्यवहार के केसों में सजा आज तक बहुत ही कम मिली है । आज भी हमारे देश में कंपनियाँ है जो गर्व से छपवाती है कि उनका लाभ इतने हजार करोड़ का है और आयकर भुगतान नहीं के बराबर । कुछ लोगों ने सरकार और इसके नीति नियमों को इस कदर काबू में रखा है कि लाभ तो हो जाता है और टैक्स भी नहीं चुकाना पड़ता है । तो फिर इसी के पीछे लोग उस कंपनी के कुछ और ज्यादा शेयर्स खरीद लेते है। कोई यह नहीं सोचता कि यह गलत हो रहा है। हर कोई यह सोचता हैं कि जब बाकी शेयर होल्ङर इसी ट्रिक के कारण अच्छा डिविडेंड ले रहे है और कुछ शेयर मैं भी लूँ । उधर शेयर घोटालों में भी तीन चार हजार करोड़ का स्कैम हो गया, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री को भी एक करोड़ रुपये रिश्र्वत देने का दावा किया गया और फिर भी न उस केस की कोई जाँच, न सुनवाई और न केस आगे बढ़ा ।

खैर, तो मुद्दा यह है कि हमारे देश में आर्थिक गुनाहों की सजा कोई अघिक नहीं होती । कल मान लो हवाला घपला साबित हो भी गया और कोर्ट में गुनाह भी साबित हो गया तो प्रस्तावित सजा क्या होगी ? यह सवाल लोगों को आज ही पूछना चाहिए कि आई. पी. सी. के किस सेक्शन में केस दर्ज हो रहा है और उसमें अघिकतम सजा क्या हो सकती है । एक महत्वपूर्ण मुद्दा और भी है ।

इस मामले के कागजात तो १९९० के आसपास से ही धीरे- धीरे इकट्ठे हो रहे हैं । अर्थात् प्रधानमंत्री को उन नामों की जानकारी भी जो जैन की लिस्ट में थे और जिनके विरूद्ध सी. बी. आई. कुछ और जानकारी भी जुटा पाई थी जैसे उनकी संपत्त्िा का ब्यौरा । यह सारे कागज प्रधानमंञी ने अवश्य देखें होंगे । फिर भी उन लोगों को मंञिमंडल में शामिल कर लिया । क्या जनता को यह जानने का हक नहीं कि ऐसा क्यों किया गया ? जनता तो चाहती है कि हर पक्ष में कम से कम पक्ष का हाईकमान ऐसा व्यक्तित्व हो जो नीति अनीति में फर्क करता है, और अपने पक्ष में केवल नीतिमान लोगों को ही लेता है । जनता चाहती तो है, लेकिन फिर आग्रह क्यों नहीं करती? पक्ष नेताओं से प्रश्न पूछ पाने का हक क्यों नहीं करती ? पक्ष नेताओं से प्रश्न पूछ पाने का हक क्यों नहीं मांगती ?

लोकतंत्र के स्तभ्भ
लोकशाही के चार स्तभ्भ होते है - कानून बनाने वाली संसद, देश चलाने वाली सरकार, जिससे मंञिमंडल और नौकरशाही शामिल है, न्याय व्यवस्था और पञकारिता। कानून बनाने वालों ने भी कभी इस बात को जरूरी नहीं समझा कि चुनावी कानूनों में सुधार किए जांए ताकि कौन किससे रुपये ले रहा है यह किताब जनता के सामने खुली हो । यह प्रश्न केवल चुनावी कानूनों का ही नहीं । धीरे - धीरे हमारे देश का कानून ऐसे बनने लगे है जिससे जानकारी का मूलभूत हक लोगों से छीना जा रहा है जो कि वास्तव में लोकतंञ की जान है । वही बात है सरकार की । उनके नियम भी वैसे ही बने है । उनके पास तो है समर्थन के लिए दो अन्य हथियार भी है - एक है गोपनीयता का और दूसरा सुरक्षा का । इन दोनों तर्कां को कई बार हास्यास्पद ढंग तक खींचकर सरकारी गैर-व्यवहार करने वाले बच निकलते हैं । अक्सर न्यायालय भी इन मुद्दों के कवच में लिपटी फ़ाइलों को छेङने से इंकार ही करते हैं ।

लेकिन जनता के लिए तिनके का सहारा इस बात से है कि कभी -कोई न्यायालय, कभी कोई पञकार, कभी कोई नौकरशाह, कभी कोई सामाजिक कार्यकर्ता इस बात को लेकर अड़ जाता है कि रूको, जनता का अपना हक जनता को वापिस सौंप दो । यह जब तक नहीं हो जाता, मैं लड़ता रहूंगा । यह लड़ाई धीरे धीरे जोर पकड़ती है । उठाया हुआ मुद्दा अपने आप में चाहे सही हो या गलत, लेकिन यदि उसमें यह मांग हो कि जनता को अमुक बात की जानकारी पाने का हक है, तो धीरे धीरे उस हक की आवा.ज उठाने वाले के पीछे लोग जमा हो ही जाते हैं । दुख इस बात का है कि आज तक कोई ऐसा ठोस केस सामने नहीं आया जिसमें समय रहते और पूरी तरह से
जनता को यह अधिकार मिल पाया हो और जो जानकारी मिली उसके चलते जनता ने ही देश को किसी गहन संकट से या प्रश्न से बचा लिया । अक्सर यह देखा गया है कि यह जानकारी सामने
आने में भी कई वर्ष लग जाते है । जनता इसके लिए अधिक सतर्क और अधिक आग्रही क्यों नहीं जबकि इसके अच्छे नतीजे को जनता देख चुकी है ? इस सिलसिले में एक छोटा उदाहरण पेश है। आजकल कई बड़े स्टेशनों पर रिजर्वेशन चार्ट लगे होते है कि कौन सी तिथि के लिए कौन सी गाड़ी में कितने स्थान उपलब्ध है । दूसरा नमूना भी है महाराष्ट्र में इंजीनियरिंग कॉलेज के नामांकन के नियम पांच - छह महीने पहले जाहिर किए जाते है, सभी अर्जी देने वाले विद्यार्थियों की लिस्ट चिपकाई जाती है और खुलेआम सब विद्यार्थियों के समक्ष मेधावी छाञों की लिस्ट के मुताबिक सीटों बंटवारा किया जाता है । यह कदम भी महाराष्ट्र शासन ने उठाया तो न्यायालय के आदेश से ही ।
लेकिन इससे विद्यार्थियों में अन्याय की भावना खत्म हो गई और न्यायालय में इस मुद्दे पर दाखिल होने वाली केस भी कम हो गए ।

कहने का अर्थ यह है कि इस प्रकार का कानून बनाने से जनता की सुविधा और जानकारी का हक सुरक्षित रहता है और किन कानूनों से नहीं, यह समझने की शक्ति और जनता को केंद्र बनाकर कानून बनाने कि सामर्थ्य दोनों ही हमारे शासनकर्ता भूल से गए है । इसमें यदि बड़ा हिस्सा राजनीतिक लोगों का है तो छोटा हिस्सा नौकरशाही का भी है । और कोई आश्श्रर्य नहीं कि हवाला कांड में कुछ अफ़सरों के नाम भी शामिल हों ।

आर्थिक अपराघियों के लिए कड़ी सजा हो
अब जो महत्वपूर्ण सुधार देश के नेतागण, नौकरशाही और न्यायपंडितों को तुरंत अपने हाथ में लेना चाहिए वह दो-तीन प्रकार का है । एक तो आर्थिक गुनहगारों की सजा कड़ी से कड़ी करने का सुधार । साथ ही आर्थिक गुनाहों की अच्छी खासी विवेचना । दूसरे कोर्ट में सुधार ताकि वकीलों पर यह बंधन हो को वे कोर्ट को सच्चाई प्रस्थापित करने में मदद करें । यह सुधार किस प्रकार हो यह अमरीका में भी एक विवादास्पद मुद्दा है जबकि हम लोग तो उसकी तुलना में कई गुना पिछड़े हैं । अधिकांश वकीलों की दलील है - हमारी व्यावसायिक नैतिकता कहती है कि हमें अपने मुवक्किल को बचाना है, चाहे उसने कितना ही बड़ा गुनाह क्यों न किया हो । साथ ही वकील यह भी मानते है कि मुवक्किल को बचाने के लिए यदि झूठ का सहारा लेना पड़े तो बेशक लिया जाना चाहिए । व्यावसायिक नैतिकता की यह एक ऐसी दुहाई है जो मेरी और सामान्य जनता की समझ से परे है । आखिर वकील भी समाज में रहता है, समाज का अंग है और हमारे आसपास का समाज सच्चाई पर चलने वाला हो - इसके प्रति क्या वकीलों की कोई जिम्मेदारी नहीं ? आज वकीलों के अपनाए तीन हथकंडे ऐसे है जिनसे हमारी न्याय व्यवस्था अन्यायपरक हो रही है और लोकतंञ प्रणाली खोखली हो रही है । इसमें पहला हथकंडा है झूठ का सहारा लेना, दूसरा है कि फालतू मुद्दे निकाल कर कोर्ट का समय बर्बाद करना । तीसरा हथकंड़ा है अपने विरोधी गवाहों का चरिञ हनन करने का पूरा-पूरा प्रयास करना । यह तीनों ही कारनामे व्यावसायिक नैतिकता के नाम पर किए जाते हैं । लेकिन सवाल यह है कि जब वकील हमारे समाज का ही एक अंग है तो
क्या यह उनकी भी जिम्मेदारी नहीं कि समाज में सच्चाई और शीघ्र गति से न्याय प्रस्थापित करने में और चरिञ हनन के दुर्गुण का खात्मा करने में उनका भी योगदान हो ? फिर भी आज तक ऐसा
नहीं देखा गया कि किसी कोर्ट ने किसी वकील के इन तीन तरह के हथंकंड़ो के प्रति कड़ी कार्रवाई की है । शायद कोर्ट भी मानती है कि वकील यदि यह सब करते हैं तो कोई गलती नहीं ।

आज जनमानस में हवाला कांड से एक आशा सी बंध गई है । एक तीर की तरह उच्चतम न्यायालय का आदेश निकला और हवाला जांच पर पड़े हुए मोटे पर्दे को चीरता चला गया । सो लोगों को यह विश्र्वास हो गया कि भले ही कानून बनाने वाली व्यवस्था हवाला जैसे कांडों का पर्दाफाश नहीं कर पाई हो लेकिन अभी तक न्याय व्यवस्था और पञकारिता के खंभे तो बचे हुए हैं, लोकतंञ को सुरक्षित रखने के लिए लेकिन इस खुशफहमी में फंसी जनता को यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि हमारा सारा हौसला ऐसी इक्का-दुक्का घटना पर टिका होगा तो यह बड़ी चेतावनी हैं और जनता को अपने हक़ों के लिए जल्दी ही चेतना होगा । हम कैसे भुला दें कि अभी तक शेयर स्कैम, नकली शेयर बिक्री बोफोर्स आदि ऐसे कई कांड बचे है जिसमें गुनाहों की जांच या कोर्ट में पेशी या सुनवाई या सजा की कार्रवाई पूरी नहीं हुई है । अर्थात् कोर्ट भी हर जगह, हर केस में कारगर नहीं हो सकता है । इसके लिए जनता को ही चेतना है और माँग करनी है कि हमारे देश में जांच की कार्रवाई अधिक से अधिक पारदर्शी हो ।
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1 टिप्पणी:

honesty project democracy ने कहा…

बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है आपने ,आज इस देश को सख्त निगरानी और उसपर होने वाली सख्त कार्यवाही की जरूरत है | आज इस देश में सामाजिक जाँच को हर स्तर पर लागू करने तथा हर पुलिस वाले की हर वर्ष सामाजिक रिपोर्ट तैयार करने की जरूरत है क्योकि पुलिस वाले सबसे भ्रष्ट है और अपने अधिकारों का प्रयोग अपराधियों को बचाने के लिए कर रहें है | जहाँ तक इस देश के बड़ी कंपनियों और उद्योगपतियों की बात है तो 99% उद्योगपति चोर,चरित्रहीन,असामाजिक व्यवहार वाले,हैवान,गद्दार तथा इन्सान के नाम पर धब्बा हैं और यही कारण है की देश और समाज भयंकर सामाजिक असंतुलन की भयावहता की चरम सीमा पर पहुँच चूका है | इन भ्रष्ट और चरित्रहीन उद्योगपतियों ने देश और समाज की पूरी व्यवस्था को चौपट कर दिया है ,हमसब को मिलकर ऐसे उद्योगपतियों के उत्पादों और सेवाओं का बहिष्कार करना होगा अन्यथा इनकी ताकत पूरी इंसानियत के लिए खतरा बन सकती है ...