बटमारी के हिस्सेदार
दै. मुंबई महानगर (१९९२-९३ में कभी)
वाणिज्य राज्यमंत्री ने फेयरग्रोथ कंपनी में खरीदे शेयरों के कारण इस्तीफा दे दिया तो एक नयी बहस की शुरूआत हो गयी। लोग पुछने लगे कि किसी कंपनी ने गैरकानूनी ढंग से मुनाफ़ा कमाया हो और उस कंपनी के मुनाफ़े के कारण शेयर होल्डरों को डिविडेंड मिलता हो या उनके शेयरों के दाम बढ़ते हों तो इस मुनाफ़े को स्वीकार करने में क्यों कोई दोष माना जाय ? आखिर कंपनी के कामकाज के तरीकों पर या सिद्धांतों पर शेयर होल्डर का नियंत्रण नहीं के बराबर होता है। खासकर जब लाखों शेयरों की तुलना में उसके शेयरों की संख्या केवल सैकड़ों या हजारों में ही होता है। प्रश्न है कि क्या यह दलील सही मानी जा सकती है ? इसके लिए हमें अर्थशास्त्र के कुछ मूलभूत सिद्धांतों पर नजर डालनी पड़ेगी।
किसी भी उत्पादन के लिए पूंजी एक महत्वपूर्ण घटक होता है। इसके अलावा चाहिए जमीन, कच्ची सामग्री और म.जदूर। लेकिन इन सबसे पहले चाहिए एक अच्छा दिमाग, तकनीकी ज्ञान, उत्पादन से हो सकने वाले मुनाफ़े का सही अंदाज लगा पाने की क्षमता और इस काम में कूद पड़ने के लिए निर्णय ले पाने का साहस ! ये अंतिम गुण जिस उद्योजक में होंगे वही पूंजी जुटाने की बात सोचेगा। उसकी अपनी पूंजी कम हो तो शेयरों के माध्यम से पूंजी जुटायेगा। शेयरों की अधिक से अधिक बिक्री हो इसलिए वह अपनी योजना और उससे होने वाले मुनाफ़े का अनुमान लोगों के सामने रखेगा। लोग उसका प्रस्ताव परखेंगे। यह जानना चाहेंगे कि उसके कारखाने का मैनेजमेंट अच्छा होगा या नहीं। खासकर यदि उसने पहले किसी उद्योग में अच्छा मुनाफ़ा कमाया हो तो लोग उसकी जांच परख की क्षमता और उद्योग चला सकने की क्षमता पर भरोसा रखेंगे और उसकी नयी प्रस्तावित कंपनी में अपनी भी पूंजी लगायेंगे। किसी नये उद्योग का पब्लिक इशू जब ओवर सब्सक्राइब हो जाता है तो इसका अर्थ होता है कि लोगों को उस उद्योजक के या उसकी कंपनी के सफल होने की आशा है। इसलिए उन्होंने अपनी पूंजी भी उसके साथ लगायी ताकि मुनाफ़े और शेयर एप्रीसिएशन के लाभ में उनका भी हिस्सा रहे।
जब सामान्य आदमी किसी उद्योग में पूंजी लगाता है तो माना जाता है कि उस उद्योग के कारण बढ़ने वाली उत्पादकता और राष्ट्रीय संपत्त्िा की बढ़ोतरी में वह हाथ बंटा रहा है। इसी कारण मुनाफ़े में हिस्सा कमाना भी उसका हक माना जायेगा। लेकिन यह है उन देशों की परिस्थिति जहां पिछले दो शतकों में औधोगिक क्रांति हुई। नई-नई मशीनों के आविष्कार हुए, उन मशीनों से उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। लोगों ने नए-नए कल-कारखाने लगाये, देश की उद्योग क्षमता और उद्योग संपत्त्िा बढ़ायी। दुर्भाग्य से हमारा देश उनकी पंक्ति में नहीं बैठाया जा सकता।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से हमारे देश में प्रथा चल पड़ी है कि नयी कंपनी घोषित करना ही काफी है, उसमें अच्छी प्लानिंग करना या अच्छा उत्पादन निकालना या पूरी कार्यक्षमता से कंपनी को चलाना आवश्यक नहीं है। आप पूछेंगे कि भाई उत्पादन न हो तो मुनाफ़ा कहां से आयेगा। इसका उत्तर भी इस प्रथा में है। कंपनी का उद्देश्य जब केवल मुनाफ़ा कमाना ही है, तो हर चीज जाय.ज है वाली कहावत लागू हो जाती है। फिर आप अलग तरीकों से भी मुनाफ़ा कमा सकते हैं -- मसलन आपकी कंपनी टैक्स ही न दे। कहा जाता है कि हर्षद मेहता और उसकी कंपनियों ने अब तक ३००० करोड़ से भी अधिक रुपये का टैक्स छिपाया है। यह तो मुम्बई शहर से वसूल होने वाले कुल टैक्स से भी अधिक है। लेकिन टैक्स छिपाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ानेवाला पहला व्यक्ति हर्षद मेहता हो एसा भी नहीं है। उसके पहले भी कई और नाम सामने आ चुके हैं। मुनाफ़ेखोरी का दूसरा तरीका यह भी है, आपकी कंपनी या आप साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर सरकारी नीतियों को ही अपने हक में यूं घूमा-फिरा लें कि आयात और निर्यात की सुविधा, कम ब्याज दर पर बैंक से कर्ज मिलने की सुविधा या अपनी कंपनी के शेयरों को उछालने के लिए थोड़े समय तक बैंक से पैसे या कर्ज हासिल करने की सुविधा इत्यादि आपको मिलती रहे जो कि अन्य किसी कंपनी को नहीं मिल रही हो। यह मुनाफ़ा उत्पादन से नहीं बल्कि हिसाब की हेरा-फेरी से बढ़ा है, भले ही शेयर मार्केट में इसे स्मार्ट्-नेस का नाम दे दिया गया हो।
अब अर्थशास्त्र का नियम है कि जब वास्तविक उत्पादन के कारण मुनाफ़ा बढ़ रहा तो किसी से कुछ छिने बगैर कंपनी अपनी आय और मुनाफ़ा बढ़ा रही होती है। कंपनी का उत्पादन लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध हो रहा होता है, लेकिन जब उत्पादन करके भी हेरा-फेरी से मुनाफ़ा कमाया जाता है तो किसी की जेब से निकलकर पैसा ''स्मार्ट गाय'' की जेब में जा रहा होता है। आखिर किसकी जेब से पैसा जाता है? उसकी जेब से जिसने अपनी मेहनत की कमाई बैंक में डिपॉजिट की या उछाल आने पर अपनी कमाई से शेयर खरीद लिये, क्योंकि जिन शेयरों को उत्पादन का जोर नहीं है, उन्हें कभी तो गिरना ही है। आज भी स्टेट बैंक का ५०० करोड़ रुपये के घाटे का उदाहरण हम देखें या कराड़ बैंक के डिपॉजिटर्स का नतीजा वही है कि इस घाटे में सामान्य आदमी ही पिसेगा। बैंक के वरिष्ठ अधिकारी तो कई एक करोड़ डकार जायेंगे। किसी एकाध को सजा हो जायेगी बस क्योंकि अपने देश के कानून भी उतने सक्षम नहीं हैं।
देश को सरकार की या शासन की असल जरुरत इसलिए होती है कि एसी हेरा-फेरी को सरकार रोक सके, कानून को और कानूनी प्रक्रिया को सक्षम रखे और आम आदमी के आर्थिक हितों को सुरक्षित रखे। लेकिन आम आदमी से अलग अपने देश में एक ऊंचे तबके का कुनबा है जिसके लोग इस हेरा-फेरी को रोकने के बजाय इसके मुनाफ़े में हाथ बंटाने में विश्र्वास रखते हैं। इसलिए जब फेयरग्रोथ जैसी कंपनी धड़ल्ले से मुनाफ़ा कमाती है तो शेयर होल्डर यह नहीं पूछता कि मुनाफ़ा कहां से आया? कंपनी के तौर-तरीके क्या हैं। वह मुनाफ़े में अपना हिस्सा पाकर संतुष्ट हो जाता है बल्कि कंपनी के लिए दुआ भी करता है। लेकिन यह अब जाहिर है कि फेयरग्रोथ का मुनाफ़ा ईमानदारी से नहीं आया बल्कि यह लूट का मुनाफ़ा ही है। फिर क्या शेयर होल्डर का इस दोष में कोई भी हिस्सा नहीं?
कहते हैं कि ऋषि वाल्मीकि पहले बटमार थे, राह चलतों को लूटकर उनका धन लूटते थे। एक दिन नारद मुनि से सामना हो गया। मुनि ने कहा -- मुझे मारते हो तो मारो, लेकिन यह पाप ही है। जिन घरवालों और रिश्तेदारों की सुख-सुविधा के लिए तुमने यह पाप का रास्ता चुना, वे तुम्हारी लूट से खुश होते हैं, लूट में हिस्सा बंटाते हैं, लेकिन क्या वे तुम्हारे पाप में भी हिस्सा बांटेंगें? जरा पूछकर तो आना। डाकू ने घर जाकर सबसे पूछा तो वे कहने लगे - तुम्हारा पाप तुम्हारे पास, इसका जिम्मा हमपर कैसा? और जब जिम्मा नहीं तो पाप में हमारा हिस्सा भी क्यों करें? इस पर वाल्मीकि का मोहभंग हुआ और वो बटमारी छोड़कर तपस्या करने चले गये। हर्षद मेहता या फेयरग्रोथ जैसी नावों पर सवार हजारों की संख्या में शेयरों की खरीद-फ़रोख्त करने वाले इस कलयुग में वाल्मीकि के रिश्तेदार ही हैं। उन्हें इससे क्या मतलब कि कंपनी वाकई कुछ उत्पादन कुछ काम करती है या हेरा-फेरी! वह तो यही कहेंगें कि हमने इतनी पूंजी लगायी। कंपनी ने इतने डिविडेंड दिये और शेयर इतने चढ़े, इससे हमें इतना मुनाफ़ा हुआ बस! और इन हेरा-फेरी प्रवीण कंपनियों की मदद से अपना ढोल पिटवाते लोग भी कहेंगें कि देखो-देखो, पूछो इन शेयर होल्डरों से।
लेकिन जो जानता है कि बिना उत्पादन के देश की संपत्त्िा नहीं बढ़ती और जिसे इस देश की चिंता है, यहां के उत्पादन की चिंता है, या जिस पर यह चिंता करने की जिम्मेदारी है, वह जानता है कि फेयरग्रोथ जैसी कंपनी के मुनाफ़े में हिस्सा बांटने पर वह किस दोष की श्रेणी में आता है।
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
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1 टिप्पणी:
Respected Madam, I think you have written totally a different angle ( which is not a tradition now a day ) of the economy boom which is standing on the false & fabricated statistical machanism.
Our prime Minister has warned the heads of International Leading Countries ( including Obama ) that if they will try to take back the stimulous package announced in 2008 then International economy will face an unprecedented set back and may cross the last two big example of DEFLATION( MANDI). He suggested that please keep up in increasing government expenses though it may be with borrowings.
Which certainly means that the balloon will be burst in near future and only then we will know the reality behind this economy boom.
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