व्यर्थ न हो यह बलिदान
( The climax chapter of my book है कोई वकील लोकतंत्रका!)
सत्येंद्र दूबे की हत्या हुई और सारे ईमानदार अफसरों को धमका गई कि खबरदार, हो जाओ तैयार, या तो अपना मुँह पर पड़ी चुप्पी पर सात ताले और लगा लो या फिर कफन के अंदर घुस जाओ। दोनों ही सूरतों में मुँह से आवाज न निकले- शिकायत में कलम न चले। क्यों कि यदि यह हो गया तो क्या भ्रष्टाचारी और क्या सत्ताधारी, दोनों तुमसे पल्ला झाड़ लेंगे।
जब हत्या हो गई तो सबसे पहले जो एक तबका जागा- वह था उन नौजवान, होनहार, उच्चशिक्षित इंजिनियरों का जो अभी तक देश छोड़ कर भागे नही हैं। हालाँकि सुनहरे मौके उनके लिए भी होंगे, यदि वे जाना चाहें, लेकिन वे अभी गए नही हैं और इसी देश का कुछ कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। और एक वह तबका भी जागा जो विदेश में है लेकिन दिल में एक आस बसाए हुए कि कभी उन्हें भी अपने देश में वापस आना है।
जब ऐसे हजारों लोगों ने आवाज उठाई तब कहीं जाकर सरकार के सर्वोच्च पदस्थ व्यक्ति ने कहा कि कातिलों को नहीं छोड़ा जायगा।
वैसे यह हजारों बार कहा जाता है कि इसे, उसे नही छोड़ा जाएगा, सब को न्याय मिलेगा, सत्य की विजय होगी इत्यादि। उसके बाद क्या होता है- लोग हिंदी सिनेमा का अगला हिस्सा देखने लगते हैं कि कैसे हीरो छत से कूदा, सात मशीनगनों के बीच सीना ताने चलता रहा एक मुष्टिप्रहार में सारी दीवारें तोड़ दीं वगैरा वगैरा। लोगों में अभी यह उम्मीद जग ही रही होती है कि अब अपराधी पकडे जाएंगे और उन्हें दंड मिलेगा कि फिल्म खत्म हो जाती है और मुँह बाए दर्शक को एहसास होता है कि यह सब तो तमाशा था- अब रात हो गई- चल कर सो जाओ।
सत्येंद्र दुबे के परिवार के दुख में इस देश का हर संवेदनशील और ईमानदार व्यक्ति शामिल है। लेकिन क्या हरेक के दिल में यह पूरा पूर्ण विश्र्वास है कि कातिल पकड़ा जाएगा?
और जब वह पकड़ा जाएगा तो क्या होगा? चलेगा एक लम्बा सिलसिला कोर्ट कचहरी की तारीखों का और शायद आज से पच्चीस वर्ष बाद हमें कोई अखबार सातवें पेज के कॉलम चार के निचले कोने में बताएगा कि सत्येंद्र के अपराधी को सजा मिल गई।
तब कोई यह पूछने की स्थिंति में नही होगा कि अपराधी कौन था और अपराध क्या था। इसलिए यह चर्चा आज ही होनी चाहिए।
क्या हम भी मान लें कि सत्येंद्र का अपराधी वह आदमी है जिसने गोली चलाई। नही, मैं नही मानती। वह तो अपराधियों की एक लम्बी कतार का सबसे आखिरी व्यक्ति है। उसके पहले कतार में कई कई लोग खड़े हैं। क्या हमारी नजरें और उंगली उन पर पड़ी है?
सत्येंद्र ने एक लम्बा पत्र लिखकर स्वप्निल स्वर्णिम परियोजना में चल रहे भ्रष्टाचार की ओर ध्यान आकर्षित किया था। सत्येंद्र जीवित रहा तो बार बार ध्यान आकर्षित करेगा इसलिए उसे मार दिया गया। यदि उन बातों से हमारा ध्यान हटा जिन्हें उजागर करने और रोकने के लिए सत्येंद्र ने अपनी जान गँवाई तो उसका बलिदान व्यर्थ हो जायगा।
आइए, हम याद करें कि सरकारी तंत्र में चल रहे भ्रष्टाचार पर उंगली उठाकर मौत को ललकारने वाला और शहीद होने वाला पहला अफसर सत्येंद्र ही है। उसे मृत्यु का खतरा भी अवगत था जो उसने अपने पत्र में भी लिखा था। इस खतरे के बावजूद वह पीछे नही हटा।
मुझे इतिहास याद आता है कि जब साइमन कमिशन के विरोध में सभा का नेतृत्व करने का निर्णय लाला लाजपतराय ने लिया या असेम्बली में बम धमाका करके अपने आपको पुलिस को सौंप देने का निर्णय भगतसिंह ने लिया तो वे भी अपनी मृत्यु के खतरे को पहचानते थे। लालाजी ने जब लाठियाँ झेलीं तब उन्होंने कहा था कि मेरे शरीर पर पड़ने वाली एक एक लाठी वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य पर एक एक प्रहार है जिसमें वह साम्राज्य ढह जायगा। और यही हुआ भी। लालाजी की खाई चोटें व्यर्थ नही गईं। उन्होंने अन्ततः देश को स्वाधीनता दिलाई। इसी प्रकार सत्येंद्र का बलिदान भी व्यर्थ नही होना चाहिए। उससे शुरूआत होनी चाहिए कि देश में संगठित रूप में चल रहे भ्रष्टाचार का समापन हो। वह केवल सत्येंद्र पर गोली चलाने वाले को ढूँढने से नहीं होगा। हमें कतार में आगे खड़े लोगों को देखना होगा।
क्या लिखा था सत्येंद्र ने अपने पत्र में? क्यों किसी भी अखबार में वह पत्र नही छापा? वह छप जाय तो लोगों को पता चले कि शक की सुई किन किन की ओर है। उनके पास सत्येंद्र की हत्या का मकसद 'थ््रदृद्यत्ध्ड्ढ' है। सी.बी.आई. की जाँच की शुरूआत उनसे होनी चाहिए और वह भी जनता को बताकर।
जो लोग सत्येन्द्र के हत्यारे को ढूँढने में लगे हैं उन्हें लगने दीजिए। लेकिन मुझे लगता है कि हमारी नजरें केवल उस गोली पर टिककर न रह जाए जो सत्येंद्र के शरीर में धँसी। हमारी नजरें उस पत्र पर होनी चाहिए जो सत्येंद्र के कलम से निकला था। उसमें वह था जो सत्येंद्र चाहता था। आज हर आईआईटीयन को चाहिए और देश के हर ईमानदार अफसर को चाहिए कि सत्येंद्र का वह पत्र फ्रेम में मढवाकर अपने सामने दीवार पर टाँग कर रखे। इस एक बात से कुछ ऐसी शुरूआत होगी जिससे सत्येंद्र का बलिदान व्यर्थ न हो।
- लीना मेहेंदले
ई-१८, बापूधाम,
सेन्ट मार्टिन मार्ग,
नई दिल्ली- ११००२१
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
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3 टिप्पणियां:
बहुत ही अच्छी,उम्दा व सम्बेदनात्मक पोस्ट | अभी पिछले दिनों मैं सीतामढ़ी के सामाजिक जाँच से लौटा हूँ ,बिहार में कानून और व्यवस्था सिर्फ और सिर्फ उन चंद लोगों की वजह से जिन्दा है जिनके दिलों में देशभक्ति व इंसानियत जिन्दा है ,कुछ पुलिस अधिकारी भी हैं जो इंसानियत को तरजीह देते हैं लेकिन ज्यादातर नेता भ्रष्ट,झूठे व बेहद निकम्मे हैं जिससे साडी व्यवस्था खत्म हो चुकी है ब्लोक से लेकर जिला स्तर का हर अधिकारी कामचोर बन चूका है | मैंने तो गांवों के वैसे लोगों को ही जगाने का प्रयास किया है जिनमे कुछ करने का जज्बा है ,लेकिन उनको भी सुरक्षा व सहायता पहुचाने की जरूरत है जिससे उनकी लड़ाई को आगे बढाया जा सके | मैं अपने दुसरे दौरे में स्वर्गीय सत्येन्द्र दुबे जी के पत्रों की भी जाँच परताल करूंगा और हो सका तो उसे घर-घर पहुँचाने का भी प्रयास करूंगा |
हमारी व्यवस्था तो कैसी है आप जानते ही हैं अपराधी को सजा...........मजाक तो नही कर रहे हैं सजा मिलेगी पर तब जब जिसका कोई मतलब नही होगा जब अपराधी बूढे रिटायर हो जायेंगे तब भी उसका अमल होना मुश्किल होगा ।
ऑनेस्टी वालों को शुभ कामनाएं ।
आप ने बिलकुल सटीक बात कही है मैडम. हम लोग भी इसी बात की हिमायत करते हुए उन सच्चे देशभक्तों को उचित सम्मान की बात कर रहे हैं. आप की बातों से हमें बहुत बल मिला है
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