आरक्षण नीति - एक चिंतन
आरक्षण की नीति के मामले को लेकर हमारा देश कई दुर्भाग्य पूर्ण दौर से गुजर चुका है। स्वतंत्रता प्राप्त्िा के पश्चात हमारे संविधान कर्ताओं ने बड़े सोच विचार के बाद इस नीति को अपनाया था। भारतीय संविधान के अनुसार न कोई छोटा है न बड़ा - सबको एक ही सा हक है, चाहे वह राजा हो या रंक। लेकिन हमारे देश में हजारों वर्षों से जो जातिव्यवस्था चली आ रही थी, उसने समाज को टुकड़े-टुकड़े बाँट कर रख दिया था। पिछड़े वर्ग और पिछड़ी जाति को कोई सामाजिक स्थान प्राप्त न था। छुआछूत की समस्या थी। साथ ही पिछड़ी जातियां आर्थिक दृष्टि से कमजोर थी और शिक्षा के स्तर पर भी। यही सब देखकर आरक्षण कि नीति अपनाने की जरूरत आन पड़ी। यह विचार किया गया कि, यद्यपि देश में संविधान के सम्मुख सभी नागरिकों का हक एक सा माना जाना चाहिए, पर फिर भी इस मूल्यांकन में पिछड़े वर्गों को साथ कुछ रियायत बरतना आवश्यक है। शताब्दियों की शोषित मानशिकता के बाद इन जाति जमातियों अपने गुण या अपना मूल्य बढ़ाने का यह मौका नही मिला है जो उच्चवर्णियों को मिला है और जिन्हें मौका मिला भी हो उनकी वह क्षमता नहीं थी कि, मौके का सही लाभ सकें। हमारे संविधान का सबसे महत्वपूर्ण सिद्वांत है अवसर की समानता, लेकिन यह पिछड़ी जातियाँ इस कदर पिछड़ी है कि अवसर की समानता या मौके का लाभ सही ढंग से उठा पाना उनके लिये संभव नहीं। संविधान कर्ताओं ने इस आवश्यकता को महसूस किया कि पिछड़े वर्गों को आगे लाने के लिये उनकी प्रगति का स्तर अधिक वेग से बढ़ाना आवश्यक था और यह सभी संभव था जब उन्हें कुछ विशेष आरक्षण प्रदान किया जाय।
आरक्षण का आरभं हुआ राजनैतिक क्षेत्र से । हमारे देश ने जब प्रजातंत्र को स्वीकार किया तो नागरिकता और मतदान का हक हर एक वयस्क व्यक्ति को दिया गया जो सामाजिक विषमता दूर करने के लिये एक आवश्यक कदम था। लेकिन केवल मतदान का हक दे देना काफी नहीं था। यह भी आवश्यक थाकि पिछड़ी जातियां राजकीय मुख्य धारा से जुड़े और सरकार चलाने में भी उनका सहयोग हो। अतएव संविधान के अंतर्गत एक विशेष सूची बनाई गई जिसमें उन जातियों को शमिल किया गया जिन्हें अछूत माना गया था और जो इस अछूतपन के कारण समाज की अनन्य उपेक्षा के पात्र बने। साथ ही जनजातियों की भी एक अलग सूची बनी। इस प्रकार अनुसूचित जातियां और जनजातियां घाषित हुई। संविधान की धारा ३३० और ३३२ के अंतर्गत यह प्रावधान तय हुआ कि लोकसभा में और राज्यों की विधानसभाओं में इनके लिये कुछ सीटें आरक्षित रखी जायेंगी । आरंभ में यह आरक्षण केवल १० वर्षों के लिये था और यह अवधि १९६० में समाप्त हो जाती। लेकिन यह देखकर कि दस वर्षों के आरक्षण से इस धारा का पूर्ण उद्देश्य सफल नहीं हो रहा था, सरकार ने हर बार संविधान में संशोधन करते हुए दस - दस वर्षों से इस अवधि को बढ़ाया । सन् १९९० में किये गये संविधान के कारण अब इस प्रावधान की अवधि सन् २००० तक कायम रहेगी।
थोड़ा सा पिछला इतिहास देखने पर हम पाते है कि अंग्रेजों के शासन काल के दौरान सर्वप्रथम मद्रास के गबर्नर ने मुसलमानों को पिछड़ा घोषित किया और सन् १८८१ की जनगणना में, जो भारत की दूसरी जनगणना थी, जाति के आधार पर जनसंख्या के आंकड़े इकट्ठे हुए। धीरे धीरे हिंदू धर्म के अंतर्गत विभिन्न व्यवसायों पर आधारित जो जातियां है, जैसे दर्जी, धोबी, कुम्हार इत्यादि इनका ब्यौरा जनगणना में दिया जाने लगा। सामाजिक उच्च स्तरीय विचार से भारतीय समाज की दस श्रेणियां बनाई गईं और प्रत्येक श्रेणी की जनगणना के अलग अलग आंकड़े जुटाये गये। इसमें एक श्रेणी उनकी भी थी जो अछूत थे या उन्हें मंदिर प्रवेश के अधिकार से वंचित रखा गया था। इसी प्रकार पिछड़ी जनजातियों की अलग श्रेणी बनी। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि इन आंकड़ों के आधार पर इन सभी जातियों या धर्मों के लिये अलग अलग चुनाव क्षेत्र बनाये जा सकें। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों को अलग धर्मों के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया । इस लाभ् से प्रभावित होकर सायमन कमिशन के सम्मुख दलितों की १६ संस्थाओं ने अलग चुनाव क्षेत्र और अलग प्रतिनिधित्व की मांग की। यह अलगाव जो एक जाति को दूसरी जाति से, और एक धर्म को दूसरे धर्म से काट कर रख देता है, अंग्रेजों की राजनीति का एक प्रमुख अंग था।
परन्तु स्वतत्रंता प्राप्त्िा के बाद यह तय हुआ कि यद्यपि हमें अलगाव की वह नीति दूर रखनी पड़ेगी जो अंग्रेजों ने चलाई थी, फिर भी अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिये कुछ विशेष प्रयत्न करने पड़ेगें । इसे पॉजिटिव
डिसक्रिमिनेशन का नाम दिया गया। जहाँ संविधान की धारा ३३० के अनुसार लोकसभा में और ३३२ के अनुसार विधान सभाओं में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिय सीटें आरक्षित की गई उसी प्रकार धारा ३३१ और ३३३ के अनुसार ऍग्लोइंडियनों के लिये भी सीटें आरक्षित हुई। लेकिन अंग्रेजों ने जो जातिवार जनगणना की पद्वति चलाई थी उसे समाप्त करा दिया गया। अतएव केवल अनुसूचित जाति और जनजातियों के अलावा अन्य जातियों का अलग स्थान कम से कम जनगणना में नकारा गया है। इसके पीछे भूमिका यही थी कि इससे लाभ के बजाय हानि ही होगी क्योंकि जातीय अलगाववाद बढ़ेगा।
राजनैतिक क्षेत्र के अलावा शिक्षा और आर्थिक स्तर पर अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षण देने का प्रयास खासकर तीन दिशाओं में हुआ। पहला था शिक्षा की दिशा में । पिछड़ी जातियों की समुचित शिक्षा की गरज से उन्हें मिलनेवाले वजीफें और अन्य सहायता द्वारा, साथ ही शिक्षा संस्थाओं जैसे कॉलेज में उनके लिये कुछ स्थान आरक्षित कराके सबसे पहले उनकी शिक्षा का स्तर सुधारने के प्रयास हुए। नौकरी में उनके लिये कुछ स्थानों का आरक्षण कराके उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास हुआ। और तीसरा सूत्र यही था कि विभिन्न पंचवार्षिक और वार्षिक योजनाओं में कुछ हिस्सा खास तौर से अनुसूचित जाति और जनजातियों की प्रगति के लिये नियत किया जाये।
लेकिन राजनैतिक आरक्षण और अन्य प्रकार के आरक्षणों में यह अंतर है कि शिक्षा और नौकरी के आरक्षण के लिये संविधान में अनुसूचित जाति-जलजातियों के साथ साथ पिछड़ी जातियों का भी अंतर्भाव किया गया है। संविधान की धारा १६ में उल्लेखित शब्द क्ष्द्यद्म डठ्ठड़त्त्ध््रठ्ठद्धड्ड ड़थ्ठ्ठद्मद्मड्ढद्म दृढ ड़त्द्यत्ड्ढदद्म. पर काफी चर्चा हुई। क्योंकि इस प्रावधान में केवल अनुसूचित जाति जनजातियों की ही नहीं बल्कि सभी पिछड़े और कमजोर वर्गों को समाविष्ट किया गया है। उनके लिये प्रयुक्त शब्द भी 'वर्ग' है न कि 'जाति' । इस प्रकार यह तय है कि जहाँ संविधान की धारा ३३०, ३३२ और ३३५ के प्रावधान में अनुसूचित जाति और जनजातियों का उनकी जाति पर आधारित स्पष्ट उल्लेख है, उस प्रकार संविधान की धारा १५ में जो शिक्षा संबंधी आरक्षण का प्रावधान है और धारा १६ में जो सरकारी नौकरियों के आरक्षण संबंधी प्रावधान है वहाँ केवल जाति को आधारभूति नहीं माना गया है।
इस प्रावधान के अंतर्गत केंद्रीय सरकार ने केवल अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिये शैक्षणिक और नौकरी के आरक्षण के लिये नियम बनाये। अनुसूचित जातियों के लिये शिक्षा संस्थाओं और सरकरी नौकरी में १५ प्रतिशत आरक्षण और अनुसूचति जनजातियों के लिये ७.५ प्रतिशत आरक्षण नियत हुआ। इस प्रकार के आरक्षण के लिये कोई अंतिम अवधि नहीं की गई है। न्यायालयों ने भी कई बार इसे संपूर्णतया न्यायोचित ही ठहराया है कि अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिये यदि विकास की तेज रफ्तार प्रदान करनी है तो वह आरक्षण नीति द्वारा ही संभव है । उनके लिये शिक्षा और नौकरियों के विशेष और समुचित साधन न जुटाने का अर्थ वही होगा मानो उन्हें मौका प्राप्त करने के सामर्थ्य से वंचित किया गया हो।
अन्य पिछडे वर्गों के लिये आरक्षण देने की नीति को राज्य सरकारों पर छोड़ा गया । फलस्वरूप विभिन्न राज्यों में जहाँ अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिये आरक्षण का प्रतिशत तय है पिछड़े वर्गों के आरक्षण के प्रतिक्षण अलग अलग है और समय समय पर इस प्रतिशत में परिवर्तन हुए हैं। साथ ही विभिन्न राज्यों में पिछड़े वर्गों की सूचियाँ विभिन्न हैं। इन्हें बनाने का आधार भी प्रायः जातियाँ ही रही हैं। विभिन्न जातियों ने अपने राजनैतिक दबाव क्षमता के अनुसार बारम्बार आरक्षण सुविधायें अपने पक्ष में जुटाने का प्रयास किया है। इसके कारण कई राज्यों में आंदोलन भी हुए हैं - कभी सौम्य रूप में तो कभी उग्र रूप में, कभी आरक्षण समर्थकों की ओर से तो कभी आरक्षण विरोधकों की ओर से । जब तक यह आंदोलन राज्यों की परिधि में रहे, बाकी देश पर इनका असर कम पड़ा । लेकिन जब केंद्र सरकार ने भी इस नीति पर अमल करना चाहा तो आंदोलनों ने राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया । आने वाले दिनों में जब भी इस नीति की बात चलेगी तो आंदोलन अवश्य होगें । साथ ही यह आंदोलन दिन प्रति दिन अधिकाधिक हिंसक बनेंगें और समाज में कटुता और अलगाव को बढ़ावा देते रहेगें।
अतः प्रश्न यह उठता है कि जो नीति एक अच्छे उद्देश्य से बनाई गई और आरंभिक काल में जिसके विरुद्ध कोई आक्रोश नहीं उठा, आज उसी नीति को लेकर समाज बिखराव की स्थिति में क्यों आया है?
बुधवार, 14 जुलाई 2010
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1 टिप्पणी:
really Sensitive topic .
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