मंगलवार, 11 सितंबर 2007

01 है कोई वकील ?

है कोई वकील ?
-- लीना मेहेन्दले, भा. प्र. से --

न्यायदेवता के हाथ के तराजू की तरह एकाध तराजू हम सब के मन में होता है। किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर हमारी धारणाएं बनीं होतीं हैं कि सही क्या है और क्या ग़लत । ऐसी ही एक धारणा थी कि अपराधी की सजा केवल न्यायालयों के मार्फ़त होनी चाहिए। लेकिन सत्रह नवंबर के अखबारों में जब पुलिस कारवाई की रिपोर्ट पढ़ी - कि कैसे माया डोलस आदि सात गुंडों को पुलिस ने ललकारा और अंतत उन्हें मार कर मुंबई को उनके शिकंजे से मुक्ति दिलाई, तो मेरे मन का तराजू डोल गया और पुलिस के लिये वाह वाही मेरे मन में गूँज गई।
अपने देश में लोकतंत्र का होना एक बड़ा वरदान है लेकिन इसके टिके रहने के लिये कई शर्ते हैं और ये शर्ते आज टूटती बिखरती दिख रही हैं। मसलन व्यक्तिगत विकास के अवसर की शर्त टूट चुकी है क्यों कि जो पचास प्रतिशत जनता अभी भी सुशिक्षित नहीं हैं, उसके लिये कैसा विकास ? जहाँ हजारों की संख्या में लोगों को जेल में डालकर फिर पंद्रह बीस वर्षों तक उनकी केस ही सुनवाई के लिये नहीं लाई जाती हो वहाँ कैसी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ? जहाँ आर्थिक विषमता इतनी फैल चुकी है वहाँ कैसा समान अवसर ? और जहाँ राजकीय क्षेत्र से लेकर अन्य हर क्षेत्र में इतना भ्रष्टाचार फैल गया हो वहाँ कैसा शासन ?
फिर भी हम चाहते हैं कि कोई उपाय निकल आये जिससे लोकतंत्र के टिके रहने की आशा बढ़ जाये। इसका उपाय यही है कि हर क्षेत्र में जहाँ सुधार की आवश्यकता है वहाँ सुधार किये जायें। इस संदर्भ में और गुंडों पर की गई पुलिस कारवाई के संदर्भ में हम न्यायालय और पुलिस विभाग में पनप रही बुराइयों का मूल कारण ढूँढ़ सकते हैं।

न्यायालय और पुलिस सरकारी शासन प्रणाली के दो अंग है। एक का काम है अपराध की छान बीन करना, और उसे रोकना। रोकने के लिये आवश्यक है कि पहले अपराधी को सजा मिले ताकि दुसरा अपराध करने की हिम्मत ही न हो। पुलिस केवल यह खोज करती है कि अपराध किसने किया, कैसे किया और अपराध के विरूद्ध क्या सबूत हैं। सबूतों की जाँच परख और अपराधी को सजा देने का काम न्यायालय का है।

लेकिन जनता की निगाह में, आम आदमी के जीवन में महत्वपूर्ण जानकारी केवल यह है कि कितने अपराध हुए, और कितने अपराधों को रोक पाना पुलिस के लिये संभव हुआ। जहाँ अपराध रोका नहीं गया वहाँ अपराधी का पकड़ा जाना, उसे सजा मिलना और सजा भी बिना समय गँवाये मिलना आवश्यक है। जब एक माया डोलस कानून से बचकर खुले आम घूमता है तो सैकड़ो शांति - पसंद आम आदमियों की जिंदगी और चैन खतरे में होतें हैं। यह खतरा यदि मिटता हो तो आम आदमी पहले खुशी मनायेगा कि खतरा मिटा। बाद में बहुत बाद में , हजारों में एक कोई पूछेगा कि माया डोलस का पुलिस के हाथों मरना लोकतंत्र की रक्षा के लिये अच्छा कहा जाए या बुरा । यदि इस घटना को अच्छा माना जा सकता है, तो ऐसी अन्य हजारों छोटी बडी घटनाओं को क्या कहा जाये ? जब कितने ही निष्पाप और निरीह व्यक्ति पुलिस की ज़्यादतियों के शिकार होते हैं। अच्छे और बुरे की लक्ष्मण रेखा को कहाँ खींचा जाये ? लेकिन आम आदमी यह सवाल नहीं उठायेगा।

यदि माया को पुलिस ने जिंदा पकड़ लिया होता और न्यायालय के सम्मुख पेश किया होता तो माया को अपनी केस लड़ने के लिये अच्छा से अच्छा वकील मिल जाता । दुर्भाग्य हमारी कचहरियों में ऐसा कोई नियम नहीं है कि अपराध की गर्हता के कारण किसी केस की सुनवाई जल्दी से जल्दी पूरी करना .जरूरी हो। छाटे से छोटे मसले को लेकर एक के बाद दूसरी अपील की जाती है और असली सुनवाई को टाला जाता है। वास्तव में ऐसी केस के लिये नियत समय में सुनवाई पूरी करने का, और अहम्‌ मुद्दे के अलावा अपील न करने के नियम बनाये जा सकते हैं। जब सुनवाई हो तो गवाहों का न मिलना, पुलिस वकील की योग्यता या ढीलापन आदि कई मुद्दे सामने आयेगें। ये ऐसी बातें हैं जहाँ ट्रेनिंग से काफ़ी सुधार किया जा सकता है लेकिन ऐसी भी कोई व्यवस्था नही है। इन सबके फलस्वरूप परिणाम यही निकलता कि माया की केस की सुनवाई खिंचती चली जाती । शायद वह रिहा हो जाता । या जेल से भाग निकलता । यदि जेल में भी रहता तो ठाठ से रहता । यह सभी यह सभी संभावनाएँ एक सामान्य शांति पसंद आदमी को डरा देने के लिये काफ़ी हैं। ऐसी किसी भी केस की सुनवाई में क्या कभी उस बम्बइया आम आदमी के लिये वकील मिला है जो इसी डर से जियेगा कि यदि माया छुट गया तो गेंगवार की गोली का शिकार कौन होगा। उस आम आदमी के लिये भी कोई वकील नही है जिस की .जेब उस खर्चीले कोर्ट की नुक्ताचीनी में खाली हो रही है। उन पुलिस सिपाहियों के लिये वकील नही होगा जिन्होने लगातार सात आठ घंटे अपनी जान पर खेल कर इस कारवाई में हिस्सा लिया। और उन सिपाहियों के लिये भी नहीं जो कर्तव्य पूर्ति की इस लड़ाई में शहीद हो गये । क्या ये सब और हम और आप न्यायालयों से उनके हक़ के रक्षा , उनकी संपत्त की रक्षा की, उनकी जानमाल के रक्षा की और उनके शहादत के सम्मान की अपेक्षा नहीं कर सकते ?

यह बार बार कहा जा चुका है कि यदि हमारे न्याय - प्रकिया में कोई कमी है तो वह दो कारणों से। हमारे राज्यकर्ता न्यायसंस्था को अधिक मजबूत नहीं करना चाहते - आज केसों के मुक़ाबले जितने जज चाहिये, उसके करीब आधे या एक तिहाई जज ही नियुक्त किये गये हैं। उनके बैठने के लिये उचित जगह नहीं है, समुचित स्टाफ नहीं है, रेकार्ड रूम नहीं है, मायक्रो फिश्मिंग जैसी सुविधायें नहीं हैं। दूसरी ओर हमारी न्याय प्रणाली के कानून इतने पेचीदे हो गये हैं कि साधारण से साधारण मामला भी अदालत में आकर अटक सकता है, और वर्षो तक घसीटा जा सकता है। इस पेचीदगी और राज्यकर्ता की अकर्मण्यता से उत्पन्न खतरा केवल न्यायसंस्था तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि हमारे लोकतंत्र को भी तोड़ रहा है।
है कोई वकील इस लोकतंत्र की केस चलाने के लिये और है कोई न्यायालय जहॉ यह सुनवाई हो सके ?
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दै. हमारा महानगर, मुंबई

3 टिप्‍पणियां:

उन्मुक्त ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
उन्मुक्त ने कहा…

वकील तो बहुत हैं पर कोई लोकतंत्र का है कि नहीं इसमें शक है।

Priyankar ने कहा…

जब सांवैधानिक और वैध तरीकों से किसी अपराधी को सजा दिलाना सम्भव नहीं हो पाता है तो कई अमनपसंद और ईमानदार अफ़सर भी वैधता की सीमा के बाहर जाकर या कहें संविधानेतर युक्तियों से काम अंजाम देते हैं . प्रश्न यही है कि क्या वे ठीक करते हैं ?

यह बड़ा प्रश्न है . विचार मांगता है .

है कोई वकील ?