दिल्लीका सांस्कृतिक बंजर
---- लीना मेहेंदले
कुछ दिनों पहले एक बुजुर्ग से बाते हो रही थीं कि राजकीय या प्रशासकीय क्षेत्र में कहीं कोई नया सशक्त अंकुर पनपता नही दिखाई देता, तो उनका उत्तर था - फिर साहित्य क्षेत्र में तलाशो - जरूरी नही है कि लीडरशिप केवल उन्हीं क्षेत्रों से आए। अगर वाल्टेयर न होता तो फ्रेंच रिवोल्यूशन की हवा कौन बनाता? मुझे याद आई वो पंक्तियाँ ं- ''कि जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो''। यहां तोप को अनुत्साह और बौनेपन के अर्थ में पढा जा सकता है।
यह भी हुआ कि थोड़ी मेरे अखबारवाले की मेहरबानी और कुछ मेरी अपनी सक्रियता का परिणाम था कि घर में अचानक मराठी अखबार आना शुरू हो गया। पिछले छः आठ महीनों से वह बंद था। और अखबार खोलते ही जो पहली बात चेतना में आई वह थी 'आज के कार्यक्रम'' का विज्ञापन वाले दो पृष्ठ। क्या था इन विज्ञापनों में जो दिल्ली के हिंदी या अंग्रेजी अखबारों में नही होता? इसकी अंदाज उन नाटकों और अन्य कार्यक्रमों के शीर्षक से ही लगाया जा सकता है जो उस सप्ताह मुबई में हो रहे थे।
सगळ्या लटपटी लग्नासाठी, अर्थात् सारा खेल शादी के लिए का वर्णन था - लव्हेबल, म्यूजिकल, डान्सिकल, फास्ट कामेडी। दूसरा नाटक था - मिशन कंतलांग जो आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर है। आमच आकाशच वेगळ - अर्थात् हमारा आसमान जुदा है एक गंभीर, सामाजिक घरेलू नाटक है। हमारे बचपन से ही खेला जानेवाला एक नाटक था - गाढवाच लग्न - याने गघे की शादी। नुक्कड नाटकों की तरह इसमें नये नये राजकीय व्यंग के डायलांग परस्थिति के हिसाब से डाले जा सकते हैं। इस एक नाटक का मंचन दो अगल-अलग नाटक-संस्थाओं द्वारा अलग-अलग कलाकारों के साथ कि या जाना था।
पंडित कुमार गंधर्व की स्मृति में आयोजित एक म्यूझिकल फेस्टिवल में पधार रही थीं श्रीमति देवकी पंडित और डा.एन.राजन। उसी यशवंतराव चव्हाण केन्द्र की ओर से दो ही दिनों बाद कीर्ती मराठे के शास्त्रीय गायन का कार्यक्रम भी था। कुमार गंधर्व की यादें नामसे एक अलग कार्यक्रम का आयोजन किसी दूसरी संस्था की ओर से था।
कुछ अन्य कामेडी नाटकों के विज्ञापन थे- पैसाच पैसा' (पैसा ही पैसा), श्री तशी सौ (जैसा पति वैसी पत्नी - यानी उसी की तरह चालबाजी दिखाकर और उसी के तरीके अपनाकर उसे सुधारने वाली पत्नी की कहानी), सदा सर्वदा, यदा यदा हि अधर्मस्य, यदा कदाचित् ।
मराठी की ग्रामीण नृत्य परंपरा लावणी पर आधारित दो कार्यक्रम थे - चौफुला (अर्थात् वह जगह जहाँ दूर दराज के गाँवोंसे आनेवाले दो रास्ते कटते हैं) जो केवल लावणी नृत्यों का कार्यक्रम था जबकि सोळा हजारात देखणी यानी 'सोलह हजारों मे एक (सुन्दरी), उन्हीं लावणी नृत्यों पर आधारित एक नाटक है - जिसके विज्ञापन मैं पिछले पांच वर्षो से देख रही हूं - नाटक शायद और भी पुराना है ।
बर्नार्ड शॉ के प्रसिद्व नाटक पिग्मॅलियन का मराठी अनुवाद कर उसे करीब तीस वर्ष पहले मराठी के प्रसिद्व लेखक पु.ल.देशपांडे द्वारा रंगमंच पर लाया गया था। वह आज भी खेला जाता है - उस 'ती फुलराणी' का भी विज्ञापन था। 'नटसम्राट' भी ऐसा ही एक चिरंजीव नाटक है जो एक महान नाटय-कलाकार के वृद्व हो जाने पर अपने ही बच्चों द्वारा होनेवाली दुर्दशा की थीम पर पिछले पंद्रह वर्षो से भी अधिक खेला जा रहा है । इथे ओशाळला मृत्यु, ('यहाँ मृत्यु भी शरमिंदा हुआ), यह नाटक भी पिछले तीस वर्ष से अधिक खेला जा रहा है । औंरगजेब के हाथों शिवाजी - पुत्र, मराठी राज्य के राजा संभाजी की कैद, संभाजी का स्वाभिमान और उसकी अत्यंत यातनामय पद्वति से होने वाली मृत्यु (उसकी आँखे निकलवाई, फिर हाथ और पाँव तोडे, फिर जीभ कटवाई और फिर उसे घसीटकर मरवाया।) ये तीनों मंचन भी मौजूद थे । एक हॉरर नाटक था - कुणीतरी आहे तिथे अर्थात् वहाँ कोई है'। यह भी पंद्रह वर्षो से रंगमंच पर आ रहा है।
महिला प्रताडना और महिलाओं की समस्या से जूझते चार नाटक थे - एक तर्फी प्रेम - अर्थात् इक तरफा प्रेम, लेडीज बार , सूनमुख अर्थात बहू की मुँह - दिखाई, और रानडयांची संगीता (रानडे परिवार की लडकी संगीता) ।
कुछ और भी कॉमेडी नाटक थे - काहीतरी चाललय खर, (अर्थात 'दाल में कुछ काला है जरूर) रंगा रंगीला रे, 'गेला माघव कुणीकडे, (माधव कहाँ गया), 'बायको असून शेजारी ', (पत्नि के होते पडोसन), ढोल-ताशे (ढोल-नगाडे), 'आला काय, गेला काय', (आया क्या और गया क्या), नस्ती आफत (बेकार की आफत), 'हे रामा, आत्मा रामा'। एक नाटक पांडुरंग फुलवाले आजकल अल्फा मराठी पर सीधे नाटक की ही शूटिंग करके दिखाया जा रहा है - ऐसे कई अच्छे नाटक, नाटकीय रंगमंच और अन्य पूरे नाटकीय तामझाम और स्टाईल के साथ मराठी चैनलों पर लाये जा रहे है। लेकिन उनका अलग से मंचन भी चलता है, और खूब चलता है - पूरा टिकट लगाकर।
एक सस्पेन्स युक्त कॉमेडी - डबल गेम , एक कौटुंबीय नाटक - मन ओढाळ - ओढाळ (मन आकुल - आकुल)े एक और कॉमेडी नाटक - तुमचा मुलगा काय करतो (आपका लडका क्या है )ै और मु.पो. बोबिलवाडी (मुकाम पोस्ट मछली - बाजार, लेकिन बोंबल शब्द का अर्थ है- चीखते रहो) ।
इनके अलावा भारतीय गंधर्व महाविद्यालय का मासिक शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम था, आर्केस्ट्रा और कविता-गायन के कार्यक्रम थे। इन सबके अलावा एक विज्ञापन और था आंतर-महाविद्यालयीन एकांकिका स्पर्घा के अंतिम राउंड के पांच नाटकों के मंचन का।
इन पन्नों को मैं देखती हूं तो महाराष्ट्र की एक शानदार सांस्कृतिक परंपरा दीखती है। ऐसे ही पन्ने दिखेंगे पूणे, या नागपूर, नाशिक, औरंगाबाद, कोल्हापूर, जलगाँव जैसे जिला मूख्यालयों से निकलने वाले अखबारों में भी। उनमें कई बार किसी लोकप्रिय वक्ता के भाषणों के भी कार्यक्रम होते हैं तो कभी किसी भजनी मंडल के भी।
कई दशकों पूर्व पूर्ण में सवाई गंधर्व शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम शुरू हुआ जिसमें लगातार तीन रातें शाम सात बजे से अगले दिन सुबह सात (और कभी कभी दोपहर बारह बजे तक भी) शास्त्रीय संगीत की समर्पित होती हैं। इसमें दस हजार के आसपास श्रोता उपस्थित होते है। आरंभ में इसे पुर्ण महानगर पालिका की ओर से काफी अनुदान और सुविधाएं मुहैया हुई और अब यह एक विराट जन - आंदोलन बन चुका है। पंडित जसराज, पंडित शिवकुमार शर्मा, उस्ताज अमजद अली खान और पंडित भीमसेन जोशी से लेकर सारे कलाकर इस कार्यक्रम में हाजिरी लगाते है और जो नहीं लगा पाते उन्हें एक छटपटाहट सी लगी रहती है अगले वर्ष तक।
इस सारी पृष्ठभूमि में दिल्ल्ी महानगर निगम का वह फैसला भी सुना जिसके तहत उन्होंने हर महीने नेहरू पार्क में आयोजित किया जानेवाला मॉर्निंग रागाज कार्यक्रम बंद कर दिया। खुले आकाश के नीचे, बिना रोक टोक के जाये जा सकेवाले इस कार्यक्रम में कोहरे भरे कडाके की सर्दी या मूसलाधार बारिश को झेलते हुए भी (जैसा पंडित भीमसेन जोशी के कार्यक्रम में हुआ) हजार से दो हजार श्राताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। इसे बंद करवाकर दिल्ली में पनप रहे एक सांस्कृतिक अंकुर को उखाड फेकने से किसने क्या पाया और क्या बचाया?
दै. हिन्दुस्तान दि.
गुरुवार, 1 नवंबर 2007
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1 टिप्पणी:
दिल्ली के सांस्कृतिक बंजर के बारे में आपने बहुत सही लिखा है . दलाल-संस्कृति (संस्कृति कहें या विकृति) में डूबी दिल्ली का पूरा ध्यान हेर-फेर और नेटवर्किंग में है,वहां कला-संस्कृति के लिए किसे फुरसत है .
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