यह शोर कैसा, महानगर ?
पिछले एक महीने से महानगर में एक मुद्दा बार बार उठाया जा रहा है - अश्लील गीतों का । माना कि अपनी तरूपाई के दिनों में जिस किसी ने शैलेन्द्र, साहिर, प्रदीप, नीरज या हसरत जयपुरी के गीत सुने होंगे और उनके सूक्ष्म भावों पर रीझे होंगे, वे इन नये गीतों को सुनकर अपने बाल नोचना चाहेंगे। ठीक है, नोचे।
द्रलेकिन बेचारे नये गीतकारों, गायकों के पीछे आप क्यों पड़े है? ये वही लिख रहे हैं, वही दे रहे हैं जो जनता लेना चाहती है।च्च् ये शब्द हैं फिल्म सेंसर बोर्ड से संबंधित कई अधिकारियो और मंत्री महोदय के भी। किसी ने उनसे पूछा आप इन गीतों, इन दृश्यों को पास क्यों कर देते है, उन्हें रोकते क्यों नहीं? तो अधिकारियों ने बड़ी ईमानदारी से दो कारण बताये - एक यह कि जब जनता ऐसे गीतों और दृश्यों को चाहती है, ऐसे ही आल्बम और फिल्में बिकती हैं, बाकी सपाट - समांतर फिल्में धंधा नहीं कर पाती हैं- तो सेंसर बोर्ड उन्हें क्यों रोके ?
दूसरा कारण यह है कि आखिर ग्च््रज् और झ्च््रज् कि बराबरी या मुकाबले करने का क्या रास्ता है ? उनकी क्चालिटी से बराबरी ना कर सकें लेकिन अश्लीलता में तो .जरुर उनसे आगे निकल सकते हैं - तो चलने दो ऐसे गानें।
महानगर के प्रश्न पर कि साहब क्या आप कुछ कर रहे हैं ? सेंसर बोर्ड की प्रतिक्रिया असहायता की नही थी, द्रकि साहब हम क्या करें ?च्च् उनकी बड़ी ईमानदार प्रतिक्रिया थी कि हम क्यों करे। इस मामले में मेंरी उनसे पूरी सहमति है, केवल एक बात मेरी क्षुद्रबुद्धि में नही समाती, एक प्रश्न है जिसका उत्तर नहीं मिल पाता।
बड़ा छोटा सा प्रश्न है - क्या जनता चाहती है कि फिल्म सेंसर बोर्ड हो? क्या जनता जानती है कि सैंसर बोर्ड को चलाने में सरकार हर वर्ष कितना खर्च करती है? मेरी आय पर सरकार आयकर लगाती है। इसी प्रकार कई लाख आयकर भरने वाले व्यक्ति होंगे। जो जनता गरीब है और जिसे आयकर नहीं देना पड़ता, वह जनता भी जानती है कि सरकार दूसरे बहाने से, मंहगाई के रास्ते से उनपर बोझ लादे जा रही है। यह सारा पैसा सरकार किसलिए इकठ्ठा करती है? अब जब सेंसर बोर्ड का कहना है कि अश्लील गीत और दृश्य हम इसलिए पास करते है कि जनता चाहती है, तो फिर क्यों न जनता से पूछा जाए कि जनता और क्या क्या चाहती है? माना कि सब कुछ देने की जिम्मेदारी सरकार नहीं ले सकती - लेकिन जनता के चाहने पर यह सेंसर बोर्ड की फ़िजूल खर्ची तो सरकार बंद कर सकती है।
पर सरकार नहीं जानती कि जनता इस प्रश्न के मामले में क्या चाहती है। तो फिर क्यों न महानगर यह प्रश्न जनता के सामने रखें? जानने दो जनता को कि सैंसर बोर्ड क्या होता है, कब बना, क्यों बना, कैसे चला, पिछले चालीस वर्षों में उसने क्या किया और क्या नही किया? कितना पैसा खर्च किया? आने वाले दो-पाँच वर्षो में उनका खर्च कितना होगा? क्या .जरुरी है कि बोर्ड को बनाये रख्खा जाए और सरकार वह सब खर्च करे। जनता आज यह प्रश्न नही उठाती क्यों कि जनता नहीं जानती कि सेंसर बोर्ड का खर्चा कितना है। क्यों न जनता को बनाया जाये?
जनता को बहुत कुछ बताया जा सकता है - बताया जाना चाहिये। लोकतंत्र में जनता ही तो सर्वशक्तिमान होती है। अब जनता के पास अच्छे नेता होते हैं तो जनता रो.जमर्रा का प्रशासन नेता को सौंपकर अपने काम में जुट सकती है। लेकिन जब नेता दुलमुल हो जाये तो क्या जनता चुप बैठी रहती है?
महाभारत में एक बड़ी मार्मिक कथा है। वह राजाओं का जमाना था और राजा ही नेता भी थे। एक समय ऐसा आया कि एक के बाद एक राजा दुराचारी, आलसी, और गैरजिम्मेदार निकलने लगा। आखिर में जनता ने तय किया- सूत्र अपने हाथ में लिये और राजा को मार दिया। चलो, एक दुराचार तो टला। लेकिन समस्या आई कि आगे क्या हो? यदि नेता - शासक - राजा न हो तो लोगो को अपने काम काज छोडकर राजकाज चलाना पडेगा - जो कि समय को व्यर्थ गंवाने जैसे होगा - आदमी अपनी पढ़ाई, अपनी खेती व्यापार, अपनी कुशलता को बढाये या राजकाज में उलझ कर रह जाये? यह थी समस्या। सो सलाह के लिये इंद्र को बुलाया गया। कथा है कि इंद्र ने द्रजनसागरच्च् को मथा। और एक बालक निकला - मान्धाता जो राजा घोषित हुआ। आगे चलकर वह बड़ा प्रभावी, पुण्यशाली और लोकप्रिय राजा बना। और उसने लोकोपयोगी कई काम किये।
और जनसागर की कथा को समझने के लिये इतने पीछे क्यों जाये? आखिर गांधी जी ने द्रजनसागरच्च् से ही शक्ति पाकर चम्पारण का जुलाहा सत्याग्रह, नमक के विरोध में ठांडी धावा और भारत छोड़ो जैसे आंदोलन सफलता पूर्वक चलाये थे। और इसी जनसागर के बल बते पर ही श्लील या अश्लील गाने भी खप रहे हैं। मुझे उन गानों को सर आँखों पर बैठाने वाली जनता से कोई शिकवा नहीं क्यों कि जब पिछले वर्ष कारगिल कम्पनी ने भारत में नमक बनाने का विदेशी कारखाना चलाने की योजना बनाई और सरकार ने उनके आगे सर - आँखें बिछाकर, उन्हें हर तरह की सुविधा देकर उनका स्वागत किया तो जनसागर की शक्ति ने ही कारगिल के इरादोंपर रोक लगाया। इससे नतीजा यही निकलता है कि यदि जनता को जानकारी दी जाए तो जनता में निर्णय लेने की और उन्हें पूरा करवाने की ताकत है। कमी है जानकारी की । बताइये जनता को कि सेंसर बोर्ड का खर्चा कितना क्या है, और फिर देखिये, कोई सरकार या सरकारी संस्था यह नही कह पायेगी द्रहम क्यों करें।च्च्
आज यह सरकारी फैशन बन गया है द्रहम क्यों करें।च्च् यदि अश्लील गाने आते है तो सेंसर बोर्ड कुछ क्यों करे? आपके बच्चों का स्कूल कॉलेज के दाखिले का प्रश्न है - तो शिक्षा विभाग कुछ क्यों करे? मंहगाई बढ़ रही है - तो सरकार कुछ क्यों करे (जनता इसे धैर्यपूर्वक स्विकार करे) ! स्मगलर बस लैंते है, शस्त्र लाते हैं, बम्बई में जाने जाती है, लोगों के घरों में रायफल, एके फोर बरामद होते है पुलिस कुछ क्यों करें (आखिर जनता संजय दत्त को चाहती है।)
इस प्रकार जब प्रशासन और नेता दुलमुल हो रहे हों तो एक जनता ही है जो नहीं कहेगी द्रहम कुछ क्यों करें ?च्च् जनता अवश्य करेगी। बस आप उसे जानकारी देते रहिये।
बुधवार, 7 नवंबर 2007
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