गुरुवार, 1 नवंबर 2007

एक असहाय मगर की मृत्युगाथा

१९-- एक असहाय मगर की मृत्युगाथा

सन १९९४ के मार्च महीने में पुरी-भुवनेश्र्वर के आसपास घटित हुई थी यह सत्यकथा जो मैंने अपनी भाभी श्रीमती अग्निहोत्री से सुनी। उड़ीसा गरीबी, बदहाली, और भूखमरी से बेहार राज्य माना जाता है। शिक्षा का प्रमाण बिहार या उत्तर प्रदेश से अच्छा है, लेकिन बेरोजगारी भीषण है। एक भरे पेट वाला इन्सान जितने प्यार या सद्भावना से पशुओं - प्राणियों की बात करता है (या हम सोचते हैं कि समझता है), शायद उस तरह की संवेदनशीलता एक खाली पेट वाला इंसान नहीं रख सकता। यहां एक ही बात का महत्व है कि शत्रु को मत छोडो, जिसके कारण जीवन के असुरक्षित होने का अनुमान है- उसे मत छोडो। इसी अनुमान का शिकार बनी एक असहाय मगर।

इस बदहाल उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्र्वर में एक प्राणी-संग्रहालय है। नाम है नंदन कानन अर्थात्‌ स्वर्ग का बगीचा। और वाकई मैंने जितने चिडिया घर देखे हैं, नन्दन कानन मेरा सबसे पसंदीदा है। यहाँ प्राणियों को केवल पिंजरे में बंद करके नहीं रखते, बल्कि उनकी पैदावार बढाने का उद्यम भी किया जाता है। यहाँ गोह, मगर, काला चीता और सफेद शेर की पैदाइश के केंद्र बने हुए हैं जिनके अच्छे परिणाम आ रहे हैं - और इन प्राणियों की संख्या धीरे-धीरे बढ रही है। करीब पचीस वर्ष पहले इस पैदावार केंद्र की स्थापना हुई। तबसे कार्तिक के पिता इसके मगर-पैदावार केंद्र में काम करते थे। फिर कार्तिक ने भी यहाँ काम करना शुरू किया। आज उसकी उम्र होगी कोई चालीस - पैंतालीस साल की। उसका काम है मगरों की निगरानी करना। पहले उनके अंडों की देखभाल, फिर जब मगर के बच्चे पैदा होते हैं, और उनका आकार प्रकार बढता है, तो उन्हें उचित जगहों पर ले जाना। इतना ही नहीं, कार्तिक और उसके अन्य साथी कर्मचारी इनकी गिनती भी रखते हैं । गिनती के लिये इन बच्चों की खाल पर चाकू या किसी तेज धार वाले हथियार से सांकेतिक चिन्ह बनाये जाते हैं - जैसे धोबी अपने कपडों पर गिनती के लिये मार्क लगाते हैं - कुछ इसी तरह से। इस प्रक्रिया में मगर की कोई जखम इत्यादि नहीं होती है। लेकिन यह काम तभी करना पडता है जब मगर के बच्चे छोटे हों।

नंदन कानन में जो प्रजाति पैदा की जाती है वह घडियाल प्रजाति है, जो नरभक्षी नहीं होती। इसके विपरीत उड़ीसा में बौला और कुम्हारी नाम मगर की दो अन्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो नरभक्षी हो जाती हैं।

यह यह घटना घटी तब उड़ीसा प्रशासन के इरिगेशन विभाग में श्रीमती अग्निहोत्री अतिरिक्त सचिव थीं। एक दिन उनके पास कटक कलेक्टर ने एक अजीब सा टेलिग्राम भेजा। उसमें लिखा था कि पुरी मेन कॅनॉल में नहर के मुहाने से करीब चालीस किलोमीटर दूर प्रतापपूर गांव के आसपास नहर में एक मगर देखी गई है। नहर में मगर आ जाने के कारण आस पास की ग्रामीण जनता डरी हुई है। पिछले दो दिनों से गाँववाले मगर को मारने का प्रयास करते करते थक चुके हैं। मगर का बंदोबस्त तत्काल न हुआ तो गाँव वालों ने ''रास्ता रोको'' की धमकी दी है। कम से कम चार गाँवों के ग्रामीण रास्ता रोको में शामिल होंगे। अतएव आवश्यक है कि पुलिस विभाग, सिंचाई विभाग और वन विभाग तत्काल इस मगर को मारने की कारवाई करें। प्रार्थना है कि मुख्यमंत्री स्वयं इस मामले पर गौर करें। अन्यथा ग्रामवासियों ने आक्रोश भरे शब्दों में अपनी भावना व्यक्त की है।

इस टेलीग्राम से भुवनेश्र्वर के मंत्रालय में खलबली मच गई। प्रायः सभी वरिष्ठ अधिकारियों का मत था कि मगर को मारा न जाय। केवल पकड कर नहर से बाहर कर दिया जाए। इस काम की जिम्मेदारी श्रीमति अग्निहोत्री को दी गई।
तत्काल वन-विभाग के अधिकारियों की एक टुकडी प्रतापपुर के लिये रवाना हो गई। कटक जिला वन-अधिकारी इस टुकडी के प्रमुख थे।

पहले यह मगर नहर में पानी की दिशा के साथ ही जा रही थी लेकिन अचानक उसने अपना रूख बदल दिया और अब वह नहर की विपरीत दिशा में तैर रही थी। ग्रामवासियों का मानना था कि वह बौला जाती की नरभक्षी मगर थी। मगर पानी से ऊपर भूले भटके ही दिखाई देती थी। कारण यह था कि वह स्वयं ग्रामवासियों से डरी हुई थी। नहर के दोनों किनारों पर लोगों ने एक मानवी श्रृंखला तैयार की थी। लाठी - काठी लेकर मगर को मारने के लिए लोग मुस्तैदी से तैनात थे। इसके अलावा भयानक शोरगुल, नगाडे, ढोल इत्यादि पीटकर उसे डराने का प्रयास भी किया जा रहा था। ताकि डर कर वह बाहर आये तो उसे मारा जा सके। रात में भी लोग नहर के पास से हटने का नाम नहीं ले रहे थे, बल्कि मशालें जला कर रातभर नहर के किनारों पर पहरा दे रहे थे। पुलिस भी उन्हें हटाने में असफल हो रही थी। या शायद खुद पुलिस का मनोबल ही कम पडा रहा था।

मगर ने जो तैरने की दिशा बदली थी वह भी ग्रामवासियों के डर से। इससे दो बाते हुईं - एक तो यह कि प्रवाह के
विरूद्ध मगर की तैरने की गति धीमी हो गई थी। दूसरी यह कि जिन ग्रामवासियों ने राहत की साँस ली थी - कि चलो मगर
हमारे गाँव से आगे चली गई- वे अब मगर के वापस आने के खयाल से फिर डर गये। इसी प्रकार चार दिन बीते।

इस बीच कुछ अधिक जानकारी सिंचाई विभाग के हाथ लगी। उसका कुल अर्थ यही था कि नंदनकानन के मगर केंद्र में पैदा होने वाले घडियालों के बच्चे थोडे बडे हो जाते हैं तो उन्हें महानद के विशाल पात्र में छोड दिया जाता है।

हमारे देश में बाकी नदियों को स्त्रीलिंगी माना जाता है परंतु ब्रहमपुत्र और महानद ये दो नद अर्थात्‌ पुल्लिंगी माने जाते हैं। इस महानद का उद्गम मध्य प्रदेश में होता है और उड़ीसा के कई जिलों को सींचता हुआ आगे समुद्र में मिल जाता है। कटक के पास इसी महानद पर एक सौ दस किलोमीटर लम्बी नहर बनाई गई है जिसका नाम है पुरी मैन कॅनॉल। इसका मुख्य दरवाजा कटक के पास मुंडली गांव में है । दो वर्ष पहले दरवाजा टूट गया था, जिसे मामूली तौर पर ठीक ठाक कर लिया गया था। लेकिन दरवाजा अभी पूरी तरह ठीक नहीं था।

महानद जहां अंगुल जिले के टिकरपाडा क्षेत्र से बहता है, वहाँ दोनों ओर ऊंची ऊची पर्वत श्रेणियाँ हैं और नद का पात्र काफी गहरा है। यहीं पर एक गॉर्ज में नद को रोककर नहर के लिये पानी छोडा जाता है। यह जगह मगर के बच्चों के लिये अच्छी सुरक्षित जगह मानी जाती है। बच्चे बडे हो जाते हैं तो उन्हें समुद्र के आसपास नद के पात्र में छोड देते हैं-फिर वे चाहे जहाँ जायें।

नंदनकानन के कार्तिक का मानना था कि प्रतापपुर गाँव के कॅनॉल में फँसी मगर नंदनकानन की घडियाल मगर ही थी। वह टीकरपाडा के गॉर्ज में पली होगी। वहाँ से कभी तेज प्रवाह में बहती हुई वेस्ट वेअर के रास्ते कॅनॉल के मुहाने पर मुंडली गाँव में पहुँची होगी। वहाँ दरवाजा तो टूटा ही था, उसी में से निकलकर नहर में आ गई होगी।

कुल मिलाकर कार्तिक का यह मानना था कि नहर में फँसी मगर नरभक्षी बौला जाति की नहीं, बल्कि घडियाल जाति की थी और उसे मारने के बजाय जिंदा पकड लेना चाहिये। अब अधिकारियों का भी यही मत था। कार्तिक के आग्रह पर उसे भी टीम में शामिल कर लिया गया।

लेकिन ''मगर पकडो टीम'' चार दिनों से मगर को पकड नहीं पा रही थी। उधर गाँव वाले मगर मारो, मारो की रट लगाये हुए थे। इतनी बडी मगर पकडने लायक जाले वाइल्ड लाइफ कन्जर्वेटर के पास या सिंचाई विभाग के पास नहीं थे। दूसरी ओर मगर का नाक जैसे ही पानी के ऊपर दीख जाता तो गाँववाले डर जाते और मारो, मारो का शोर मचाने लगते, जिससे मगर फिर पानी के अंदर चली जाती और उसका अता पता ढूँढना मुश्किल हो जाता। नाव से नहर के चक्कर लगाकर और अन्य राज्यों से जाले मँगवाकर भी टीम मगर को पकड नहीं पाई। अन्ततः कुछ स्थानिक मछुआरों को यह काम सौंपा गया। मगर को बिना जख्मी किए जिंदा पकडने के लिये तिगुनी मजदूरी तय हुई।

यों किसी प्रकार मगर पकडी गई और पानी से बाहर लाई गई। तब गाँव वालों को रोकने के लिये खुद पुलिस डी० आय्‌ जी० मौजूद थे ताकि गाँववाले बेकाबू होकर उसे मार ही न दें।

फिर उस मगर को जीप में डालकर नंदनकानन लाया गया। वह इतनी पस्त हो चुकी थी कि अपना जबडा खोलकर 'आ' नहीं कर सकती थी। पूँछ भी नहीं हिला पा रही थी। सामने रखी मछलियाँ भी नही खा सकती थीं। डॉक्टरों ने उसपर औषध उपचार करना आरंभ किया। लेकिन सब बेकार। दूसरे दिन सुबह तक उसकी मृत्यु हो गयी। जब मौत का कारण जानने के लिए उसका शव-विच्छेदन किया तो पता चला की ऑक्सीजन की कमी और आत्यंतिक मेहनत व थकान से मौत हुई।

हमारी धारणा यह होती है कि मगर तो जलचर है, उसे भला हवा की क्या जरूरत। लेकिन ऐसा नहीं है। मगर भी हमारी ही तरह हवा में साँस लेती है। इसलिये उसे बीच बीच में पानी की सतह पर आकर, अपनी थूथनी बाहर निकाल कर अपने फेफडों में हवा भरनी पडती है। लेकिन यह मगर तो साँस ही नहीं ले पा रही थी क्योंकि लोगों के डर से वह पानी के बाहर अपनी नाक भी नहीं निकाल पाती थी। वह तैरना छोडकर सुस्ताना चाहे तो वह भी नहीं कर सकती थी। प्रवाह से उलटी दिशा में तैरने के लिये भी मेहनत पड रही थी और थकान बढ रही थी। इसी बीच उसके गले और पूँछ जखम हो गये थे। इन सबके बाद वह बच नहीं पाई।

मगर की मौत की बात सुनकर श्रीमती अग्निहोत्री से नहीं रहा गया। कल शाम ही की तो बात थी कि मगर को जिंदा ला पाने का संतोष और आनंद पूरी टीम ने एक साथ मनाया था। वे खुद गईं देखने। कार्तिक भी वहाँ था। सबसे पहले उसी ने सुझाव दिया था कि हो न हो यह टिकरपाडा की कोई भूली भटकी मगर है। अब उन्हें देखकर कार्तिक सामने आया। बोला - '' माँ, देखो - - - -'' मगर की पूंछ पर तेज छुरी से काटकर बनाया हुआ निशान था। जाहिर था कि वह मगर कभी किसी दौरान कार्तिक के हाथों पली थी। उसे दिखाते हुए कार्तिक की आँखों में आँसू थे।

इस घटना के कुछ दिनों बाद श्रीमती अग्निहोत्री की बेटी अर्थात्‌ मेरी भाँजी मेरे पास रहने आई। उन्हीं दिनों नाशिक के अखबार में खबर आई कि शिकार की तलाश में जंगल से गाँव आ पहुँचे दो बाघों को एक कमरे में बंद करने के बाद गॉववालों ने उन्हें बाहर से पत्थर मारमार कर मार दिया - क्योंकि उन्हें पकडने वन विभाग के जो अधिकारी आने वाले थे, उन्हें बेहोशी का इंजेक्शन खोजते हुए देर लगी थी। बिटिया को याद आई मगर की मौत। उसने मुझसे पूछ ही लिया - बुआ, तब मगर को और अब बाघों को लोगों ने क्यों मार दिया? जबकि सच्चाई तो यह है कि वे ही हमसे डरे हुए हैं। मैंने उसे बताया कि अभी हमारे लोगों की सोच सही नहीं हुई। वे अब भी मगर से, बाघ से, साँप से डरते हैं। उन्हें दोस्त नहीं मानते। उन्हें बचाने के तरीके नही सोचते- न ही प्रकृति के चक्र में उनके महत्व को समझते हैं। जब तक हम गाँव वालों को नहीं सिखा लेते कि इनसे मत डरो, तब तक इन प्राणियों की योंही अकारण मौत होती रहेगी।
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This and many more on my blog सुवर्ण पंछी

1 टिप्पणी:

Priyankar ने कहा…

मार्मिक घटना पर मर्मस्पर्शी पोस्ट .